शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

"छपाक" देख ली आज रिलीज़ होते ही ...

मुझे तो इस फिल्म का नाम भी चार पांच दिन पहले ही पता चला ....लखनऊ टाइम्स में दीपिका, रणवीर को लखनऊ के शीरोज़ में देखा ...शीरोज़ को चलाने वालीं एसिड-अटैक पीड़ित युवतियों के साथ...

उस दिन ही पता चला कि छपाक नाम से कोई मूवी रिलीज़ होने वाली है ... दीपिका ने उसमें काम किया है...

गुज़रे दौर में फिल्मों केे बारे में कम से कम कुछ हफ्ते पहले तो पता चल ही जाया करता था ... जगह जगह पर पोस्टर लग जाया करते थे .. हम लोग स्कूल-कालेज आते वक्त उन्हें निहारते और जैसे तैसे उन की एडवांस-बुकिंग का जुगाड़ करने के बारे में सोचने लगते ...

लेकिन वक्त ज़्यादा ही बदल गया देखते ही देखते ...फिल्म का पहला दिन -- और सारे हाल में 20-30 लोग ही होंगे ... अजीब लगता है ...लेकिन आज कल फिल्में चलती भी तो पांच सात दिन ही हैं...बस वीकएंड की भीड़ ही बिजनेस करवा जाती है ...

फिल्म बहुत अच्छी है ...एक एसिड अटैक पीड़ित युवती मालती के संघर्ष की कहानी है ....दीपिका ने तो अपना किरदार बखूबी निभाया ही है ...

लखनऊ के शीरोज़ में मैं दो कार्यक्रमों में शिरकत कर चुका हूं ..एक तो मेरे एक मित्र की किताब का बुक-लांच था और दूसरा लखनऊ कथा-कथन का कार्यक्रम था...अच्छी जगह है ...रेस्टरां भी है वहां ...फिल्म तो आप लोग देखिए ही और जब भी मौका मिले शीरोज़ भी हो आया करिए...सुकून से बैठने की सही जगह है ..

शीरोज़ का मतलब ? - जैसे युवकों को हीरो (हीरोज़) कहते हैं....ऐसी बहादुर बेटियों को शीरोज़ कहने की एक पहल है ...

मालती की कहानी हमारी संवेदनाओं को झंकृत करती है बेशक ..उस ने इतनी लंबी लड़ाई लड़ी कसूरवार को सज़ा दिलवाने के लिए और फिर एसिड की बिक्री पर रोक लगवाने के लिए ... लेकिन दुःख इस बात का भी हुआ फिल्म के बाद जब आंकडे़ दिखाए गये कि एसिड-अटैक रुके नहीं हैं...चल ही रहे हैं जैसे कि एसिड की बिक्री भी नहीं रुकी ...कोई भी एसिड खरीद सकता है ... यह जान कर दिल बहुत दुःखी हुआ...

मुझे याद आ रहा है कुछ बरस पहले जब कोर्ट का फैसला आया था एसिड की बिक्री पर रोक लगने के बारे में तो सब लोग बहुत खुश थे ...लेकिन इस तरह के नियम लागू करने कितने मुश्किल हैं, कितने आसान ... ये तो जानकार ही बता सकते हैं...स्टेक-होल्डर ...मेरे जैसा बंदा इस के बारे में क्या बताए जो फ़क़त एक बार 30 साल पहले जब बाजा़र से घरेलू साफ़-सफ़ाई के लिए एसिड लेने गया था तो दुकानदार ने एक रजिस्टर में नाम पता लिखवा कर और मुझे ऊपर से नीचे तक देख कर ही वह बोतल दी थी!!

फिल्म के एंड में आंकड़े कुछ इस तरह के दिखाए गये  कि 2017 में भी एसिड-अटैक तो शायद 250 के करीब हुए और हाल ही में 2019 में दिल्ली में एक एसिड-अटैक की शिकार युवती को तो अपनी जान भी गंवानी पड़ी ...

यह भी मैं क्या लिख गया...जान गंवानी पड़ी ...एसिड-अटैक की शिकार जिन बेटियों की जान नहीं भी जाती उन का जीना कैसे दूभर हो जाता है ... मैंने भी यह फिल्म देख कर ही जाना ...हर किसी की बांह पकड़ने वाला भी तो नहीं होता ...अपने बलबूते पर महंगे इलाज, सर्जरी, प्लास्टिक सर्जरी करवाना कहां लोगों के बस में होता है ...

दस दिन में निर्भया कांड के दोषियों को सजा-ए-मौत हो जायेगी ...एसिड अटैक के मुजरिम कमबख़्तों को भी ऐसी ही कड़ी सजा मिलनी चाहिए ... होगा!  यह भी होगा, ऐसी उम्मीद कर सकते हैं.... हमें अपनी न्याय-प्रणाली से पूरी उम्मीद है ....

गुटखे पर भी तो प्रतिबंध है ...मुझे इस के बारे में लिखते-समझाते 30-35 बरस बीत गये ... लेकिन लोगों ने इस का भी तोड़ निकाल लिया है ...अब पान मसाले के पैकेट के साथ ही लोग पिसी-हुई तंबाकू का एक पाउच भी ले लेते हैं ...उन दोनों को मिला कर गुटखा तैयार हो जाता है ...लेकिन गुटखा खाने वाले तो अपनी ही जान लेते हैं ........जब कि एसिड अटैक करने वाले तो प्रतिबंध के बावजूद दूसरे की जान लेने पर उतारू होते हैं...

यही सोच रहा हूं कि देश की समस्याएं बेहद जटिल हैं ... यहां पर कहीं भी दो गुणा दो चार नहीं है !! हर इंसान मजबूर है ..ऊपर से लेकर नीचे तक ...अब यह मत पूछिए, ऐसा क्यों ! 

मेघना गुलजार का शुक्रिया कि किसी ने ऐसी पीडि़त युवतियों की दास्तां लोगों तक पहुंचाई तो ....इस तरह की फिल्मों को टैक्स तो माफ होना चाहिए ..