शनिवार, 21 मई 2016

हमें हमारे स्वाद ही बिगाड़ते हैं...

मेरी नानी अकसर कहती थीं कि स्वाद का क्या है, जुबान तक ही तो है, उस के आगे तो सब बराबर है ...हम लोग खूब ठहाके लगाते थे उन की इस बात पर...लेकिन सच्चाई यह थी कि वह लाजवाब खाना बनाती थीं...best cook i have even known!

आज हमारे स्कूल-कॉलेज के साथियों का एक वॉटसएप ग्रुप बना है ...अच्छा लगा...बहुत से लोगों से बात भी हुई...बहुत अच्छा लगा...एक साथी ने पूछा कि कहां हो आजकल, उसे बताया उन विभिन्न जगहों के बारे में जहां जहां रह चुका हूं...हंसने लगा कि सारा हिंदोस्तान ही घूम लिया...

घूम तो लिया ...ठीक है, मैं उसे यह कहना चाहता था कि हिंदोस्तान चाहे घूम लिया ...लेिकन खाने के मामले में अभी भी दिमाग अमृतसर के कूचों-बाज़ारों में ही अटका हुआ है...

My most fav. food on this planet.. केसर दा ढाबा
१९८८ में अमृतसर छोड़ने के बाद समोसे कभी अच्छे नहीं लगे...अकसर लोहगढ के हलवाई के समोसे बहुत याद आते हैं...बेसन के लड्डू कहीं और जगह के पसंद नहीं आए...कुलचे-छोले तो बस अमृतसर के साथ ही छूट गये..वहां पर अलग तरह के कुलचे मिलते हैं...खमीर वाले ..वे और कहीं नहीं दिखते...इसी तरह से भटूरे-छोले, फलूदा कुल्फी भी हाल बाज़ार की याद आती है...ढेरों यादों के साथ...सारी की सारी मीठी यादें...और तो और इतनी जगहों खाना खाया, घाट घाट का पानी पिया लेकिन केसर के ढाबे का खाना भूल नहीं पाया....अगर मैं आलसी प्रवृत्ति का न होता तो केसर के ढाबे पर खाना खाने के लिए अमृतसर चला जाया करता... 😄😄😄😄

स्वाद की बात से आज मुझे ध्यान आया कि हम लोग स्वाद के गुलाम हो चले हैं शायद ...पहले तो हम लोग सब्जी के बारे में चूज़ी थे...यह खाएंगे, वह नहीं खाएंगे..लेकिन अब हम इस स्वाद के इतने गुलाम हो चुके हैं कि हमारी पसंद की सब्जी भी अगर हमारे स्वाद के अनुसार नहीं बनी है तो हम उसे खा ही नहीं पाते...

आज सुबह भी एक भंडारे में पूड़ी-हलवा और यह कटहल की सब्जी मिली तो इस का स्वाद कुछ अलग तरह का होने के कारण मैं खा ही नहीं पाया... कितना अजीब सा लगता है ना, लेकिन है सो है!
कटहल की सब्जी 
स्वाद का एक सुखद पहलू भी है कि जो स्वाद हम लोगों के बचपन में डिवेल्प हो जाते हैं...वे फिर ताउम्र साथ चलते हैं...मुझे आज के दौर के बच्चों का बिना कुछ खाए ..बस एक गिलास, साथ में दो बिस्कुट खा कर जाना बड़ा अजीब लगता है...वहां पर रिसेस के समय तक पढ़ाई में क्या मन लगता होगा...और फिर अकसर आजकल ज्यादा कुछ टिफिन विफिन वाला ट्रेंड भी कम होता जा रहा है...इसलिए वहीं पर जो जंक-फूड और अनहेल्दी स्नेक्स मिलते हैं, वही खाते रहते हैं बच्चे ....परिणाम हम सब के सामने हैं...

मुझे अपने स्कूल के दिनों का ध्यान आता है ...पहली कक्षा से चौथी श्रेणी तक का भी ...तो जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है वह यही है कि हम लोग घर से बिना एक दो परांठा और दही के साथ खाए बिना निकलते ही नहीं थे, और साथ में एक दो परांठे भी लेकर जाना और वहां रिसेस में पांच दस पैसे में हमें इस तरह के snacks मिलते थे ...एक पत्ते में हमें यह सब कुछ दिया जाता ..पांच दस पैसे में ..नींबू निचोड़ कर ...यह सिलसिला शुरूआती चार पांच सालों तक चलता रहा ..फिर स्कूल बदल गया....लेिकन चार पांच साल किसी अच्छी आदत को अपनी जड़ें मजबूत करने के लिए बहुत होते हैं...

इसलिए अब भी अकसर वही कुछ हम लोग खाते हैं...और स्कूल के दिनों की यादें ताज़ा हो जाती हैं... उबले हुए चने, उबला हुई सफेद रोंगी, लोबिया...सब अच्छा लगता है ...अकसर हम लोगों ने बचपन में सोयाबीन की दाल नहीं खाई...कभी हमारे यहां दिखती ही नहीं थी, स्वाद का ही चक्कर होगा....लेकिन बड़े होने पर जब यह बनने लगी तो हम थोड़ा खाने लगे....कुछ दिन पहले सोयाबीन भी उबली हुई खाने को मिली तो स्वाद अच्छा लगा....

पहली बार उबली हुई सोयाबीन खाई ...स्वाद बढ़िया था..
मैं भी यह क्या खाया-पीया का बही-खाता लेकर बैठ गया.....लेकिन एक बात तो है कि स्वाद की गुलामी छोड़नी पड़ेगी... Earlier it is done, better it is!

वैसे भी धर्म भा जी तो बरसों से दाल रोटी खाने का बढ़िया मशविरा दिये जा रहे हैं....इन की ही मान लें...