मंगलवार, 12 जनवरी 2016

ऐ शहरे लखनऊ तुझ को मेरा सलाम है..

आज आप को एक महान शख्शियत से मिलाते हैं...जमील अहमद साहब..यह गजब के टेलर मास्टर हैं...तीन साल से मैं इन के पास जा रहा हूं..मेरे मित्र तिवारी जी ने मुझे इन का पता बताया था..बड़े खुशमिजाज हैं...और मैंने यह देखा है जो भी शख्स अपने काम के बखूबी जानता है वह अधिकतर खुशमिजाज ही होता है...मैंने कभी इन्हें किसी से उलझते नहीं देखा...लगभग हर महीने किसी न किसी काम की वजह से इन से मुलाकात हो ही जाती है।

कल रात मैं इन के पास अपना कुर्ता-पायजामा लेने गया तो यह फुर्सत में दिखे थोड़ा...कहने लगे बच्चों को शाम में ही फ़ारिग कर देता हूं.. तफरीह भी करनी चाहिए इस उम्र में ...सारी उम्र काम ही करना है। 

जमील साहब के पास सब्र-शुकराने का बहुत बड़ा खजाना है...पता चल जाता है.. किसी से कोई शिकायत नहीं...बस अपने काम को ईबादत की तरह करने का फन है इनमें। मैं इन के काम से बहुत मुतासिर हूं।

चूंकि यह थोड़ा फुर्सत में दिखे मैंने इन से ऐसे ही पूछ लिया कि क्या आप ने यह काम अपने अब्बा हुज़ूर से सीखा है तो इन्होंने कहा ..बिल्कुल, उन्हीं के पास बचपन से ही लगे रहते थे...मैं ही नहीं, हम पांच भाई सभी यह काम करते हैं..

अब्बा हुज़ूर का नाम लेते ही उन की बहुत सी खुशगवार यादें ताज़ा हो आईं... मैं यह महसूस कर रहा था कि वे अपने काम के कितने बड़े खिलाड़ी होंगे। 

मेरे महबूब फिल्म ..मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की कसम
नौशाद जी महान संगीतकार से कौन वाकिफ़ नहीं है?.. उन्होंने बताया कि नौशाद साहब बाराबंकी में रहते थे पहले और देवा शरीफ़ में कव्वाली गाया करते थे..फिर बंबई चले गये, वहां संघर्ष किया खूब और एक बार काम मिलना शुरू हुआ तो बस हर तरफ़ नौशाद-नौशाद होना शुरू हो गया। लेकिन नौशाद साहब की शेरवानी हमेशा जमील साहब के वालिद के हाथों से ही तैयार हुआ करती थी। 


साठ के दशक में जमील साहब के वालिद लखनऊ की जिस टेलरिंग शाप में काम किया करते थे उस दुकान का नाम है ..हाफिज़ मोहम्मद इशाक और इन के वालिद का नाम था... अब्दुल वहाब.. इन की कोई तस्वीर नहीं है, पहले कहां लोग तस्वीरें खिंचवाया करते थे..अब तो हम लोग शेल्फी लेने के चक्कर में लम्हों की जी ही नहीं पाते, बस उन्हें कैमरे में कैद करने की फ़िराक में रहते हैं। 

अपने अब्बा हुज़ूर की बातें करते समय जमील अहमद भावुक हो गये और उन्होंने बताया कि पहले ये सब शेरवानियां हाथ से तैयार हुआ करती थीं और एक कारीगर चार दिन एक शेरवानी पर काम किया करता था... फिर हम लोग आज के शादी ब्याह में पहनी जानी वाली शेरवानी की बात करने लगे। 

जमील साहब ने एक बात और बताई कि मेरे महबूब, मेरे हुज़ूर और पालकी जैसी फिल्मों में राजेन्द्र कुमार और अन्य फ़नकारों ने जो शेरवानियां पहनी हैं, वे सब उन के अब्बा हुज़ूर के हाथों की तैयार की गई हैं....मैं जब उन की बात सुन रहा था तो यही सोच रहा था कि किसी बेटे के लिए अपने पिता के फ़न का  तारुफ़ करवाने का इस से बढ़िया भी क्या कोई ढंग हो सकता है..ये सब फिल्में तो अमर हो चुकी हैं...यू-ट्यूब पर भी हैं...कहने लगे कि जब भी इन फिल्मों को देखते हैं, वालिद बहुत याद आते हैं।


इन तीन फिल्मों का जमील साहब ने खास नाम लिया... मैंने नेट पर देखा कि ये सब फिल्में १९६३ से १९६८ के दरमियान बनी हैं.. ये तो बहुत ही छोटे से उस दौर में ...बता रहे थे कि वालिद हमें सब बातें सुनाया करते थे ..पालकी फिल्म की आधी शूटिंग तो लखनऊ के पास काकोरी में ही हुई थी ... नौशाद साहब जैसे लोग रात के समय टेलर मास्टर के पास जाया करते थे... बड़े बड़े होटलों में रुकते थे ये सब फ़नकार लोग और अपनी गाड़ी से रात के वक्त जाकर शेरवानी का ट्रायल और फिटिंग आदि करवा आया करते थे.....





महान लोग... महान फ़नकार... शेरवानी बनाने वाले भी और पहनने वाले भी .. इन के फन का जादू आज के यू-ट्यूब के दौर में भी सिर चढ़ कर बोल रहा है.. मुझे यह गीत दिख गया पालकी फिल्म का ... ऐ शहरे लखनऊ तुझ को मेरा सलाम है...आप भी सुनिए और नौशाद साहब के फ़न का नमूना भी स्वयं देख लीजिए.. 


आज की यह पोस्ट जमील साहब के अब्बा हुज़ूर के फन और उन की याद को समर्पित ...हम बड़े बड़े लोगों की बरसीयां मनाने की कोरी रस्म अदायगीयां करना कभी नहीं भूलते लेकिन इन गुमनाम फ़नकारों के फ़न को भी कभी कभी याद कर लेने का बहाना ढूंढ लिया करें तो अच्छा होगा, इसी बहाने हम अपनी उमदा विरासत से ही रु-ब-रू होते रहेंगे और अगली पीढ़ी को भी इस का अहसास करवाते रहेंगे...