शुक्रवार, 5 जून 2015

रंग वाली खाद्य वस्तुओं से अगर बच सकते हैं तो बच लीजिए...

डा बेदी साहब भोग लगाते हुए...
अभी अभी वाट्सएप पर एक संदेश आया अपने जिगरी दोस्त डा कुलदीप बेदी जी का लुधियाना से ...उन्होंने बताया कि वह अभी मरीज़ों से फारिग हुए हैं और अब ज़रा लड्डूओं की तरफ़ हो रहे हैं।

कितना ईमानदार मैसेज है ना......है कि नहीं, आप को लगेगा कि डाक्टर लोग भी आप ही की तरह सब कुछ खाते पीते हैं, सब के शौक एक जैसे ही होते हैं।

लेिकन मुझे जिस बात ने तुरंत प्रभावित किया ...वह यही थी कि लड्डू बिना रंग वाले थे.....ये लड्डू कहीं नहीं दिखते...पिछले दिनों मुझे कुछ डिब्बे मोतीचूर के लड्डूओं के चाहिए थे....मैंने लखनऊ की तीन चार टॉप की दुकानें छान लीं, कहीं से भी नहीं मिले...सभी जगह पर गहरे संतरी नारंगी और लाल रंग के बूंदी के लड़्डू बिक रहे थे।

लड्‍डू ही क्यों, हमें कौन सी खाने की चीज़ है जो बिना रंग के प्राकृतिक रंग में मिल पाती है...जलेबी में रंग, बर्फी में रंग....क्या क्या गिनाएं, मुझे तो हर तरफ़ रंग वाली चीज़ें ही दिखती हैं।

कल के पेपर में पढ़ रहा था कि लखनऊ की एक प्रसिद्द मिठाई की दुकान से जो नमूने लिए गये थे, उन में सिंथेटिक रंगों की भरमार थी.....

यह तो हमें अब समझ आ ही चुकी है कि ये सिंथेटिक कलर और तरह तरह के सस्ते इसेंस ये जो दुकानदार इस्तेमाल करते हैं, ये सेहत के लिए बहुत ही ज़्यादा खराब हैं..

ऐसा नहीं है कि एक बार रंग वाली जलेबी खा के कोई बीमार हो जाएगा ..लेकिन वही बात है , मैगी के पाए गये सीसे की तरह, इन चीज़ों की एक्यूमुलेटिव प्रभाव होता है....कहने से मतलब यह है कि ये कलर आदि हमारे शरीर के विभिन्न अंगों में निरंतर इक्ट्ठे होते रहते हैं ....और फिर तरह की बीमारियों के कारण बनते हैं। यह बिल्कुल वैज्ञानिक सच्चाई है।

बाहर के विकसित देशों में इस तरह के कलर्ज़ आदि के इस्तेमाल पर बहुत अच्छा नियंत्रण होता है...लेिकन यहां तो आप सब जानते ही हैं....किसी भी शहर की बड़ी से बड़ी दुकान का पकवान भी इस कद्र फीका होता है कि मैं तो यही सोच कर हैरान होता रहता हूं कि ये रोड़ के किनारे खड़े होकर बेचने वाले पब्लिक को क्या क्या छका रहे होंगे!

मुझे केवल और केवल एक ही उम्मीद है कि अगर जनता ही जागरूक हो जाए तो ही कुछ हो सकता है।

मैं अकसर जलेबी,ईमरती  बनाने वालों को पूछता हूं कि आप लोग इनमें यह रंग वंग क्यों घुसेड़ देते हो, तो वे कहते हैं कि क्या करें, बिना रंग वाली जलेबी हमारी बिकती नहीं है, लोग बिना रंग वाली जलेबी पसंद नहीं करते।

मुझे एक दो जगहों का लखऩऊ में पता चल गया है जहां पर जलेबी में रंग नहीं डाला जाता.....वहीं से अब लाते हैं।

अपनी बात कर लें....यह कोई शेखी बघारने वाला मुद्दा कतई नहीं है, अपने अनुभव बांटने वाली बस बात है कि हम लोग किसी भी इस तरह के रंग वाली किसी भी खाद्य पदार्थ का सेवन पिछले कईं वर्षों से नहीं करते.......क्योंकि हमें नहीं है भरोसा कि ये लोग हमारी सेहत के साथ खिलवाड़ नहीं करते होंगे.... हर तरफ़ सस्ते, सिंथेटिक और नुकसान पहुंचाने वाले रंगों का बोलबाला है।

आप हैरान न होइएगा ...अगर मैं आप को कहूं कि हम प्रसाद में मिली भी कोई चीज़ अगर रंगदार है तो उसे नहीं खाते....क्योंकि ज़्यादातर जगहों पर ये लड्डू, बूंदी, हलवा आदि भी गहरे लाल-पीले रंग वाली ही मिलती हैं....लेकिन हम उसे अपने पास रख लेते हैं,  खाते नहीं, कभी कभी थोड़ा सा चख लेते हैं...बस......बाकी सारे प्रसाद को मैं अकसर बहुत बार किसी जानवर को किसी पक्षी को डाल दिया करता था तो मेरे बेटे ने मुझे एक बार डांटा....पापा, जो चीज़ हमारे लिए ठीक नहीं है, वह इन के लिए भी तो ठीक नहीं हो सकती। 

मुझे उस की बात ने उस दिन शर्मदार कर दिया.....उस दिन से मुझे नहीं पता मैं इस तरह के रंग-बिरंगे प्रसाद का क्या करता हूं ...लेकिन न स्वयं खाता हूं और न ही किसी को खाने के लिए देता हूं।

हां, अपने दोस्त बेदी साहब के बिना रंग वाले लड्डूओं की तरफ़ आता हूं....ईश्वर करे इन्हें ऐसे ही खुशियां मिलती रहें, और ये लड्डूओं का भोग लगाते रहें, सेहतमंद रहें...खुशियां बांटते रहें......इस समय गाना भी वैसा ही याद आ रहा है....
अभी लगाता हूं .....लेकिन आप को भी मेरा मशविरा यही है कि प्रसाद भी अगर इस तरह के रंगों से सरोबार हुआ मिले तो मत खाया करें.....कोई पाप-वाप नहीं लगेगा.....जहां पेशी होगी, चाहे तो मेरा नाम ले दीजिएगा कि मैंने मना किया है। सजग रहे, सेहतमंद रहें.....बस इतना ही कर सकते हैं, बाकी सब कुछ तो परमपिता परमात्मा की इच्छा है....