रविवार, 19 अप्रैल 2015

उठ जाग मुसाफिर भोर भई...

तो फिर आज भोर होने पर जब मैं टहलने निकला तो सब से पहले मेरी नज़र कुछ महिलाओं पर पड़ी ...इन्हें देख कर ऐसे लगा कि जैसे इन को नगरपालिका ने फूल तोड़ने का ठेका दे रखा हो...बड़ी बड़ी प्लास्टिक की थैलियों में फूल ठूंसे जा रही थीं..देख कर मन दुःखी हुआ और मन ही मन प्रार्थना कि जिस की अपार कृपा से यह फूल खिल रहे हैं उसे ही तोड़ कर वापिस अर्पण करने में क्या बहादुरी ...ईश्वर इन्हें बस इतनी समझ तो दे कि फूलों की जगह पेड़ों पर ही होती है...आते जाते पता नहीं कितने सैंकड़ों राहगीरों के चेहरों पर रौनक ला देते होंगे ये मनमोहक फूल।


जैसे बड़े-बुज़ुर्ग करेंगे वही काम तो बच्चे भी करेंगे ...बच्चे भी दिख गये फूल तोड़ तोड़ कर इक्ट्ठा करते।

उस समय मुझे यही ध्यान आ रहा था कि कुछ पार्कों में लोगों को फूलों के पास फटकने नहीं दिया जाता...दूर से ही देखने की अनुमति होती है....ठीक ही करते हैं यार वे लोग भी ...अब उन्होंने व्यवस्था देखनी होती है...और कुछ लोग बड़े ढीठ होते हैं। वैसे भी आज कर इस तरह से सार्वजनिक जगहों से फूल तोड़ कर बटोरने वाले अपना परिचय खुद दे ही देते हैं।

थोड़ा आगे निकला तो देखा कि एक पार्क में किसी संस्था के आचार्य लोगों को योग विद्या का दान दे रहे थे ...अच्छा लगा..इतने सारे लोगों को इक्ट्ठा होकर योग अभ्यास करते देख कर।



एक जगह पर अचानक इतने सारे लोग दिखे तो अचानक ध्यान आ गया कि आज भी कोई प्रतियोगी परीक्षा होगी। पास ही एक लोकल रेलवे स्टेशन से निकल कर आ रहे हैं ....मानक नगर स्टेशन...फिर इन्हें देख कर लगा कि ये परीक्षा देने नहीं आये हैं ...ये तो जीवन की परीक्षा देने वाले हैं...दिहाड़ी करने वाले वर्कर या नौकरी पेशा लोग हैं जो रोज़ाना सुबह शहर का रुख करते हैं।


एक जगह ऐसी भी दिखी जहां १००-१५० लोग ईंटों के बीचों बीच अपनी अपनी आग जला कर खिचड़ी, चाय, रोटी का जुगाड़ कर रहे थे... पास ही इन का सामान भी रखा हुआ था...अधिकतर ये दिहाड़ी करने वाले श्रमिक प्रतीत हुए...अपना भरण-पोषण करने में और वह भी सस्ते में इतने दक्ष की पिज्ज़ा की कंपनियां इन से दो चार गुर सीख सकती हैं...एक दम अच्छे से सिंकी हुई कड़क और मोटी रोटियां। क्या करें बाज़ार का खाना एक तो महंगा और दूसरा उस से पेट भरता है क्या!

मुझे पिछले दो सालों से समझ नहीं आया कि यह सड़क के बीचों बीच यह स्थान कैसे अपना वजूद कायम रखे हुए है...आने जाने वालों को कितनी दिक्कत होगी ...आप भली भांति इस की कल्पना कर सकते हैं......लेकिन यह देश आस्थाओं का देश है.......इस में कोई पंगा लेना नहीं चाहता।

लेकिन इस से चंद कदम दूरी पर किसी प्रभु-प्रेमी का घर दिख गया....कहने की ज़रूरत नहीं...न ही मैंने उस के घर के बाहर उस की प्लेट पर उस का नाम पढ़ा....न ही ज़रूरत समझी...मेरे लिए बस इतना जानना ही काफी था कि ये लोग ईश्वर के सच्चे भक्त हैं ....राहगीर के लिए पेड़ की छाया के साथ साथ जानवरों को इस तपती-झुलसती गर्मी में पानी पिलाने का भी पुख्ता इंतज़ाम। प्रशंसनीय काम।

तभी नज़र पड़ी दैनिक जागरण के इस आयोजन के बोर्ड पर ... संडे का मतलब फन-डे का बोर्ड...आज कल यहां पर विभिन्न समाचार पत्र इस तरह के आयोजन करने लगे हैं...अच्छा लगता है...इसी बहाने लोग घर से बाहर तो निकलते हैं और एक बार बच्चा बनने के फायदे सोचते तो हैं।

कुछ सप्ताह पहले मैंने हिन्दुस्तान का भी एक ऐसा ही संडे फनडे आयोजन देखा था ...उस पर एक प्रिज़ेंटेशन भी तैयार की थी....आप इन तस्वीरें के बाद देख सकते हैं....यह नीचे लगाई गई तस्वीरें आज के दैनिक जागरण आयोजन की ही हैं......स्टॉल तो बहुत से थे, लेकिन मैं ही फोटो खींच खींच कर कईं बार बोर हो जाता हूं......बहरहाल, आप भी देखिए और आनंद लीजिए...... और उस हिन्दुस्तान के मस्ती मार्ग का यू-ट्यूब लिंक यह रहा....मस्ती मार्ग..संडे बन गया फन-डे। 
यहां पर कुछ डांस ऐरिबिक्स और कुछ भंगड़ा ऐरोबिक्स करवाने की बातें चल रही थी..

बच्चे के भी मज़े हो रहे थे..
यहां पर फिज़ियोथेरेपी वाले अपना स्टाल लगाए हुए थे..

यहां पर सहज योग के लिए प्रेरित किया जा रहा था..

कैसे लगी आज की घुमक्कड़ी, लिखिएगा..