शनिवार, 18 अप्रैल 2015

मेरे मोबाइल कैमरे की नज़र से आज ..१८ अप्रैल

आज सुबह मैंने बहुत समय के बाद किसी बोनाफाईड यात्री को तांगे पर बैठे देखा। पहले तांगे खूब चला करते थे। मुझे भी १९७० के आस पास के दिनों की याद आ गई जब मैं और मेरी मां अमृतसर के इस्लामाबाद एरिया में ज्वाला फ्लोर मिल्स पर जा कर टांगे का इंतज़ार किया करते थे...यह टांगे हर सवारी से २५ पैसे लेता था ...लाहौरी दरवाजे तक पहुंचाने के लिए...फिर ये कम दिखने लगे ...और फिर हम लोगों ने साइकिल रिक्शा से जाना शुरू कर दिया..जो एक रुपया लिया करता था। अच्छे से याद है। आप ने भी शायद इस तरह की तस्वीर बहुत दिनों बाद देखी होगी।


आज जब मैं दोपहर में घर की तरफ़ निकला तो दो घने पेड़ों को देख कर मोबाइल चैक करने के बहाने रुक गया। इतने घने और छायादार पेड़ और इतनी ठंडी हवा ...और उस के नीचे छः सात रिक्शा वाले आराम फरमा रहे थे...मिलिटरी अस्पताल के बिल्कुल बाहर....देख कर अच्छा लगा...साथ ही एक दो खोमचे वाले भी शरबत बेच रहे थे।

मैंने एक रिक्शे वाले को कहा कि यह ईश्वर ने आप को एसी लगा कर दिया है....हंसने लगा ..कहने लगा ..सच में, इस की हवा बड़ी ठंडक और सुकून देती है।

मैं वहां से जाते जाते सोच रहा था कि ज़रूरत से ज्यादा पढ़े लिखे लोग अपने कुत्तों को तगड़ा कर के अपने गेट पर छोड़ देते हैं ...ताकि कोई गेट के आसपास भी फटक न पाए...और साथ में एक तख्ती पर लिख देते हैं कि कुत्तों से सावधान....क्या मजाल किसी राही कि किसी घर के बाहर लगे पड़े में सुस्ता ले ...लेकिन इस तरह के पेड़ किस तरह से सब को बिना किसी भेदभाव के अपने आंचल में समेट लेते हैं।


एक जगह पर पार्क हुई इस कार को देख कर तो कईं इंसान भी इस से ईर्ष्या करने लग जाएं....किस तरह से पेड़ की छाया तो मिल ही रही है और ऊपर से चादर की भी ठंडक.......ताकि ठंडक मालिक के गाड़ी में बैठने तक पूरी तरह से बरकरार रह सके।


आगे आया तो इस तरह की मच्छरदानीयां बिकती दिख गईं....बहुत पहले से बिक रही हैं। अच्छा है, लोग हर तरह के जुगाड़ कर कर के थक चुके हैं....अब मच्छरदानीयां खरीदने में ही समझदारी जान पड़ती है। हम भी मच्छरों से हताश होकर पिछले दिनों दो मच्छरदानियां ले आए हैं...ऐसी रोमांटिक वाली नहीं ...ये तो १९८० में रिलीज़ हुई लव स्टोरी फिल्म की याद दिलाती हैं...हम वे लेकर आए हैं जो डबल बेड पर टांगी जा सकती है...बहुत आराम है ...कईं बार दो चार मच्छर उस में घुस जाते हैं तो थोड़ी दिक्कत होती है लेकिन उस के लिए भी वह चाईनीज़ रैकेट रूपी हथियार तैयार रहता है।

मैं अकसर यह भी सोचता हूं कि लगता है कि अब मच्छर भी खस्सी हो गये हैं....खस्सी का मतलब?..जब घोड़ा अपना काम नहीं कर पाता तो उसे खस्सी हो गया कहा जाता है...सुबह सारे ही अपने शरीर में मच्छरों के काटने के खूब निशान दिखाते तो हैं...लेिकन ईश्वर का शुक्र है अब मलेरिया इतनी भारी संख्या में होता नहीं है।


आज शाम को मैं एक जगह पर खड़ा इंतज़ार कर रहा था ...मैंने जिस प्लॉट के गेट के आगे खड़ा था ..वहां पर एक आदमी और एक छोटा सा बच्चा आए..दोनों अंदर गये... अचानक बच्चा चिल्लाने लगा ..मुझे लगा कहीं सांप-वांप ही न हो...वह आदमी उसे बोला...डरो मत, छिपकली है। लेकिन मैंने दो मिनट बाद जो देखा, मुझे बहुत अच्छा लगा....वह आदमी उस बच्चों को पेड़ रोपना सिखा रहा था.....मैं यही सोच रहा था कि यह आदमी बच्चे को इस उम्र से ही कितने अच्छे संस्कार दे रहा है। बच्चों के कोमल मन में इस का बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है ....पर्यावरण शिक्षा अगर इस तरह से प्रैक्टीकल स्वरूप में दी जाए तो हम लोग स्वर्ग यहीं धरती पर उतार सकते हैं।


एक तस्वीर कल की खींची ध्यान आ गई....सत्संग में बैठे हुए थे...एक भक्त ने बाहर गधों को बोझा ढोते देखा और कहा कि आदमी और इंसान में एक फर्क यह भी है कि आदमी अपनी बात ब्यां कर पाता है, दुःख बांट लेता है...एक गधे का पैर चोटिल है, वह लड़खड़ाते हुए चल रहा है लेकिन उस पर भी उतना ही बोझ लादा हुआ है। बात सोचने वाली तो है।
हां, एक बात और..अभी मैं घर के पास एक मस्जिद के बाहर एक दुकान में बैठा था तो मुझे यही दृश्य दिखा...फर्क केवल यही था कि यह पोस्ट मैंने लगभग डेढ़ साल पहले लिखी थी ..तब सर्दी के दिन थे...आज भी इसी तरह का सुंदर नज़ारा था..मैं इस दृश्य को देख कर बहुत भावुक हो जाता हूं ...क्यों? इस के लिए आप को इस लिंक पर जाकर पुरानी पोस्ट देखनी पड़ेगी.... बात आस्था की। 

अब सोच रहा हूं आप को गाना कौन सा सुनाऊं.......सोच रहा हूं ...देखता हूं ...