बुधवार, 14 जनवरी 2015

अब बंदरों के तो अच्छे दिन लदने वाले हैं...

मेरे फॉदर का दोस्तों के साथ बड़ा मज़ाक चलता था..एक बार मुझे याद है एक दोस्त के साथ यह बात शेयर कर रहे थे..बेरोजगारी को कंट्रोल करने के लिए एक बार कह रहे थे कि म्यूनिसिपेलिटी बस एक बड़ा सा काम ठेके पर देने ही वाली है ...शहर के आवारा कुत्तों को लंगोट पहनाने का!

यह तो था मजाक। लेकिन आज की खबर तो बिल्कुल भी मजाक नहीं है।

अभी अभी अखबार उठाई तो पहले ही पन्ने पर छपी खबर से पता चला कि सिनेस्टार हेमा मालिनी ने केंद्र में यह चिट्ठी लिखी है कि उस के संसदीय क्षेत्र वृंदावन में दो लाख बंदरों की नसवंदी करने की इजाजत दी जाए।

मुझे यह खबर देख कर बहुत दुःख हुआ। ठीक है, बंदरों की वजह से छोटी मोटी परेशानी होती है...लेकिन इतना बड़ा निर्णय लिया जाना और वह भी एक स्वयंसेवी संगठन की सिफारिश पर ... हेमा ने वहां के ही एक स्वयंसेवी संगठन के नाम की सिफारिश करते हुए यह भी कहा है कि उन्हें ही यह ठेका दिया जाना चाहिए। मथुरा -वृदंावन को बंदरों से निजात दिलाना हेमा का एक चुनावी वायदा भी था।

खबर पढ़ते ही पता नहीं अचानक मुझे इस सारी बंदर जाति से इतना प्यार कैसे उमड़ पड़ा!!

याद आता है जब हम लोग स्कूल आते जाते मदारी की डुगडुगी सुनते ही बंदर का खेल देखने के लिए कहीं भी रूक जाया करते थे। कितना मजा आता था! और कक्षा दो में वह बंदरों और टोपियों वाले सौदागर की कहानी सुन कर सच में कितना मज़ा आता था.....आता था ना?........तो फिर आज उन की नसबंदी की बात चलने पर चुप क्यों हो?...क्या पता एक ट्विटर हैशटैग से ही वे बच जाएं।



 कुछ दिन पहले मेरे घर के पास ही मुझे यह बंदर महाराज दिख गए। मैंने यह तस्वीर ली...मैंने गूगल प्लस पर शेयर करते समय यह लिखा था..


"अभी लखनऊ के बंगला बाज़ार एरिया में मैंने सड़क पर इसे देखा....एक बंदर इस साईकिल के अगले डंडे पर भी बैठा हुआ है..उसे मैंने ठीक से देखा नहीं कि क्या वह बंदर था या लंगूर...पहले तो मैंने सोचा कि यह बंदर का खेल दिखाने वाला होगा....फिर ध्यान आया कि आजकल कहां बच्चे यह सब देखते हैं ...उन्हें तारकमेहता का उल्टा चश्मा पहनने से फुर्सत मिले तो। फिर ध्यान आया कि यह लंगूर वाला होगा.......आज कल शहरों में जिन कॉलोनियों ने बंदरों ने आतंक मचा रखा होता है, वहां पर सोसायटी वाले एक लंगूर की सेवाएं ले लेते हैं.....बंदरों को डरा कर दूर रखने के लिए.......लगभग चार-पांच हज़ार की पगार पर........हमारी सोसायटी ने भी एक लंगूर को रखा हुआ है.....शाम को पांच छः जब जाते दिखता है तो लगता है कि हम जैसे उस की भी ड्यूटी का समय पूरा हो गया है."

मुझे बंदरों की शरारतों पर काबू रखने के लिए लंगूरों वाली चाल का पता आज से पांच साल पहले पता चला था जब मैं इग्नू में इंटरनेट लेखन के बारे में एक कोर्स करने के लिए महीना भर वहां कैंपस में रहा था....वहां पर उन्होंने कैंपस में लोगों की "सुविधा" के लिए उन्होंने कईं लंगूर रखे हुए थे.....किसी लंगूरवाले को ठेका दिया हुआ था। हम ने उन पर एक फिल्म भी बनाई थी।

यह दंपति तो बहुत जांबाज़ है.
कुछ दिन पहले फेसबुक पर जब यह तस्वीर दिखी तो ध्यान आ गया कि जगन्नाथ पुरी के पास इस ऐतिहासिक मंदिर में तो हम भी गये थे.....लेकिन इन बंदरों की वजह से सिट्टी-पिट्टी गुम ही रही थी.....किस तरह से वे भक्तों से कुछ भी छीन लेते थे....शायद किसी ने सलाह भी दी थी ...केले ले कर जाओ...रास्ते में इन्हें खिलाते जाओ, कुछ नहीं करेंगे....शायद वैसा ही किया था, लेकिन फिर भी सिर तो दुखा ही था....मेरी तो सीढ़ियों से ही वापिस लौटने की इच्छा हुई थी....लेकिन वापिस आने में भी उतना ही जोखिम था...यार, बड़ा डर लगा था उस दिन.....मंदिर माथा टेकते हुए भी यही प्रार्थना की थी केवल की भगवन, नीचे आटो तक सही सलामत पहुंचा दे, छोटे छोटे शरारती किस्म के बच्चे साथ हैं!

ओह माई गॉड---आज क्या क्या याद आ रहा है।

हां, हमारे घर के पास वाले घर में एक पहलवान नुमा बंदा था.....उस कमबख्त ने बंदरों से जूझने का एक अनूठा ढंग अपना रखा था...बंदरों का काफिला आने पर वह एयर-गन से फायर कर के अंदर घुस जाता और बंदरों का गुस्सा हमें सहना पड़ता, हमारे पेड़-पौधे तो रौंधते ही जाते वे जाते जाते......एक बार मेरी मां की टांग पर बुरी तरह से काट गए.....फिर टीके लगवाने पड़े।

पंगे लेने की तो हमें वैसे भी आदत नहीं है..लेकिन उस दिन के बाद हम ने एक फैसला किया कि बंदर आने पर चाहे कितना भी ज़रूरी काम आंगन में कर रहे हों, हम लोग कमरे में आ जाएंगे... और इस पर अभी तक कायम हैं!

मुझे लगता है इन से पंगा न लो तो ये कुछ नहीं कहते.......हां, सूखते कपड़े आदि नीचे गिरा देते हैं...कुछ कुछ करते तो हों.......लेकिन फिर भी!

खबर में यह भी लिखा है कि अभी जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी वृदांवन आए थे तो उन्हें चश्मा उतारने की सलाह दी गई थी क्योंकि बंदर चश्मा छीन लेते हैं।

मेरी मां अकसर कहती हैं ...जंगल रहे नहीं, पेड़ बेरहमी से काटे जा रहे हैं, स्काई-स्क्रेपर तैयार होते जा रहे हैं, ऐसे में आखिर ये जाएं तो जाएं कहां।

इस खबर के बारे में मेरा तो यह व्यक्तिगत विचार है कि ऐसा निर्णय लिया जाना सरासर गलत है......यह नहीं कि किसी भी एम.पी के मन में विचार आए और दो लाख बंदरों को खस्सी कर दिया जाए...(पंजाबी में इस काम को खस्सी करना ही कहते हैं, दोस्तो)..

वैसे तो आज ही खबर आई है.....एनिमल लवर्ज इस पर अपनी राय तो देंगे ही, अभी हमें मेनका गांधी को भी इस विषय पर सुनना है....वे एनिमल के अधिकारों की बहुत सजग पक्षधर हैं, देखिए उन की क्या राय है। वरना, मैं तो इसे प्रधानमंत्री की मन की बात तक तो पहुंचा ही दूंगा।

वैसे मुझे इस का ज़्यादा ज्ञान तो नहीं है, लेकिन इतना तो ध्यान है ... कहीं पढ़ा था कि बंदरों की नसबंदी करने से पहले एक गन से टीका दाग कर उन्हें बेहोश किया जाता है......मुझे पक्का याद नहीं है, प्लीज़ एक्सक्यूज़ मी.......वैसे सोचने वाली बात है कि अगर इस तरह का हथकंडा नहीं अपनाया जाता होगा तो फिर बंदरों की नसबंदी कैसे हो पाती होगी ...उन की नसबंदी तो दूर, उन के पास फटकना मुश्किल होता है!

लेिकन क्या यार आज इतने शुभ मकर संक्रांति के दिन इतनी अशुभ बातें......बंदरों को आज अच्छा अच्छा कुछ खिलाने के िदन....यह खबर पढ़ कर अच्छा नहीं लगा। कोई भी फैसला करने से पहले सभी स्टेक-होल्डर्ज़ से विचार-विमर्श होना चाहिए, हमारा ज्ञान तो तुच्छ है, नसबंदी के अलावा भी कुछ तो रास्ता होगा। हम जैसे लोग तो तस्वीर का एक रूख ही जानते हैं, लेकिन सभी रूख देख कर ही ऐसे निर्णय किए जाने चाहिए।

हेमा जी, अपने निर्णय पर पुनर्विचार करिए.....जहां १२५ करोड़ पल रहे हैं, ये दो लाख बेचारे भी पल जाएंगे......अगर हम इन्हें रहने के लिए नेचुरल हैबीटेट उपलब्ध नहीं करवा सकते तो ऐसा कैसे हो सकता है कि हम इन की ऩस्ल पर ही....!

इस खबर ने मुझे इतना कचोट दिया कि मैंने तो अखबार को अगला पन्ना भी नहीं पलटा, और स्कूल में पढ़ने वाले मेरे बेटे को भी बहुत बुरा लगा यह पढ़ कर.....उसने भी कुछ कहा...मैं यहां नहीं लिख सकता!!

अगर बात गंभीर सी लगी हो, तो चलिए आप की फिल्म का यह गीत सुन लेते हैं... जिस के मदारी के खेल ने भी हमें कम एंटरटेन नहीं किया.......आज भी इसे सुनना अच्छा लगता है..