शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

मैडीकल पी जी प्रवेश में खेला जा रहा सॉल्वर का खेल

आज की हिन्दुस्तान में मनीष मिश्र की इस रिपोर्ट  ने चौंकाया तो बिल्कुल नहीं ..क्योंकि मुन्ना भाई फिल्म से तो काफी कुछ पहले से पता लग ही चुका है एक बात.......और दूसरा अब तो आए दिन इस तरह की खबरें दिखने लगी हैं लेकिन एक बात की जानकारी पुष्ट हो गई कि किस तरह से डाक्टर १० -२० लाख रूपये की साफ़-सुथरी कमाई कर रहे हैं।

लखनऊ के मैडीकल कालेज केजीएमयू के डाक्टर पीजी की सीट में दाखिले में सॉल्वर बन रहे हैं। ज्यादातर खेल प्राइवेट मेडीकल कालेजों की सीटों को लेकर चल रहा है। एक एक सीट को लेकर छात्र १० से २० लाख रूपए तक कमा रहे हैं।

दाखिला कराने का जाल कर्नाटक और महाराष्ट्र के मेडीकल प्रवेश परीक्षा तक फैला हुआ है। एमबीबीएस के मेधावी साल्वर बनकर परीक्षा में सेंधमारी कर रहे हैं।

दरअसल कर्नाटक के प्राइवेट मेडिकल कालेजों में पीजी कक्षाओं के सीटों का आवंटन राज्य सरकार व कॉलेज प्रबंधन मिलकर करते हैं। ८५फीसदी सीटें सरकार आवंटित करती है। १५ फीसदी सीटें मैनेजमेंट कोटे से आवंटित होती हैं। इसके लिए संयुक्त प्रवेश परीक्षा होती है। इसे कोमेड पीजीईटी (कर्नाटक कॉमन मेडिकल इंट्रेंस टेस्ट) कहते हैं।

कोमेड में केजीएमयू के छात्र बढ़-चढ़ हिस्सा लेते हैं। हर साल ५०-६०छात्रों का चयन भी हो रहा है। काउंसलिंग की प्रक्रिया होने के बाद से ही असली खेल शुरू होता है। कॉलेज प्रबंधन के एजेंट छात्रों को सीट छोड़ने के एवज में मोटी रकम का लालच देते हैं।

केजीएमयू के ८० फीसदी मेडिकोज हर साल अपनी सीटों को सरेंडर कर रहे हैं। बदले में वे १० से २० लाख रूपए की रकम ले रहे हैं।

कुछ ऐसा ही खेल महाराष्ट्र के मेडिकल कॉलेजों में भी चल रहा है। एमबीबीएस अंतिम वर्ष के अलावा एमबीबीएस कर चुके छात्र भी इन परीक्षाओं में हिस्सा लेते हैं। पीजी की पढ़ाई कर रहे छात्र भी इसमें शामिल हैं।

यूं बिकती हैं सीटें 

कर्नाटक सरकार के नियमों के मुताबिक छात्रों द्वारा सरेंडर सीटों को फिर से भरने की जिम्मेदारी कॉलेज प्रबंधन की होती है। कॉलेज प्रबंधन विषयावर सीटों की बोली लगाता है। जानकारों की मानें तो एक-एक सीट ५० से ६० लाख में बुक होती है। क्लीनिकल विषयों के रेट ज्यादा हैं। यही वजह है कि क्लीनिकल विषय चुनने वाले छात्रों को ज्यादा मोटी रकम मिलती है।

विदेशी डॉक्टरों से पैसा वसूल रहे देशी मेधावी 

देश में हर वर्ष चीन, रूस, यूगोस्लाविया और चेकोस्लवाकिया से हजारों छात्र डाक्टरी की पढ़ाई कर लौट रहे हैं। इन देशों में पढ़ाई सस्ती है ऐसे में ऊंचे घरानों के लिए यह देश पहली पसंद बने हुए हैं। इन विदेशी डाक्टरों को देश में प्रैक्टिस करने या फिर पीजी में प्रवेश परीक्षा होने से पहले एक परीक्षा पास करनी होती है। इसे फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट इंट्रेंस एक्जाम (एफएमजीई) कहते हैं। इस परीक्षा को नेशनल बोर्ड ऑफ एक्जामिनेशन (एनबीई) कराता है।

आमतौर पर ९० फीसदी विदेशी डाक्टर इस परीक्षा में फेल हो जाते हैं। इन कमजोर विदेशी डॉक्टरों को पास कराने में भी केजीएमयू के मेडिकोज शामिल होते हैं। जानकार बताते हैं कि यहां मेडिकोज की भूमिका सॉल्वर की होती है। इस परीक्षा में शामिल होने वालों का न तो बायोमेट्रिक रिकार्ड रखा जाता है और न ही परीक्षा कक्ष में फोटो ली जाती है. ऐसे में यह गेम पूरी तरह सुरक्षित होता है। हर आवेदक से मेडिकोज चार से पांच लाख रूपये वसूलते हैं।

यह तो थी रिपोर्ट----->>>>>अब इस की खबर लेते हैं। मेरे विचार में ये जो मेधावी डाक्टर अपनी काबिलियत के बल पर कर्नाटक जैसे राज्यों में पहले तो सीट ले लेते हैं फिर छोड़ने का उन्हें १०-२० लाख रूपया मिलता है, इस में आखिर क्या बुराई है......यह उन का हुनर है, उन्होंने तपस्या की इतने वर्ष...विषयों का पढ़ा और फिर पेपर पास किया..बाद में सीट ली, नहीं ली.....हम क्यों इस चक्कर में पड़ें, उन्होंने दस-बीस लाख की साफ़-सुथरी कमाई हो गई....हमें तो यही खुशी है........खुशी इसलिए है कि ये जो प्राइवेट कालेज इन्हें सीट छोड़ने के लिए इतनी मोटी रकम दे रहे हैं, ये भी कोई इन पर एहसान थोड़े ही कर रहे हैं, बोली लगती है इन के यहां इन सीटों के लिए , और आपने मीडिया में भी देखा-सुना होगा कि कुछ कुछ सीटें तो २-३ करोड़ में बिकती हैं, इसलिए इन के लिए १०-२० लाख रूपये देने तो कुछ भी नहीं हैं, मेरे विचार में यह रकम तो खासी कम है।

अब आते हैं सॉल्वर की भूमिका पर...... यकीनन यह सरासर गैरकानूनी है कि आप किसी की जगह पेपर दो और उसे पास करवाओ....यह तो पूरा पूरा जूते खाने और जेल की सैर करने का रास्ता है। मुझे नहीं लगता कि अगर परीक्षा लेने वाले चाहें तो इस प्रैक्टिस पर नकेल न कसी जा सके.....यहां पर देखता हूं कि रेलवे में खलाशी की भर्ती के लिए भी इस तरह के सॉल्वर आए दिन पकड़े जाते हैं....ऐसे में अगर परीक्षा हाल में बॉयोमेट्रिक्स का इस्तेमाल नहीं हो रहा, उन की फोटो नहीं खींची जाती है तो इस से तो भाई साफ पता चलता है कि सब कुछ ऊपर से मिलीभगत से ही चल रहा है। वरना आज की तारीख में यह सब करना क्या मुश्किल काम है।

ये जो चीन-रूस से पढ़ कर आने वाले डाक्टरों की बात है, मुझे याद है कि एक ऐसा ही मुन्नाभाई हमारे भी केन्द्रीय सरकार के अस्पताल में कईं वर्ष काम करता रहा....(एक उदाहरण नहीं है, बहुत मिल जाएंगे अगर ढूंढने निकलेंगे) ...एक दिन जब हम लोग शाम को घर पहुंचे तो टीवी पर खबर आ रही थी..किसी चेनल का स्टिंग आप्रेशन था कि कुछ मुन्नाभाईयों की चीन-रूस की डिग्री ही फर्जी हैं........उस दिन के बाद वह डाक्टर कहीं नहीं दिखा.......मामला ऐसे ही रफा-दफा हो गया (यही होता है).......आप दबंगाई देखे कि वह इतने वर्षों पर मरीज़ों का इलाज करता रहा.......उस की दबंगाई से भी ज़्यादा चयन-समिति शक के घेरे में आती है कि आपने क्या चैक किया.........बाबा जी का ठुल्लू?

और ऊपर मैंने बात की उन डाक्टरों की जो अपनी सीट छोड़ देते हैं १०-२० लाख रूपये में ......इस में इतनी आपत्ति क्यों, मैं नहीं समझ पाया......जब ये छोटे मोटे एक्टर लोग टीवी पर आने के लिए लाखों पाते हैं तो इन ज़हीन डाक्टरों ने क्या अपराध किया है..........अपनी काबलियित के बलबूते कोई टेस्ट पास किया...और फिर वह सीट छोड़ दी........सब कुछ साफ साफ.........लेकिन वह किसी की जगह पर बैठ कर पेपर सॉल्वर का काम तो एकदम खतरनाक खेल है, पता नहीं इतने पढ़े लिखे हो कर डाक्टर इस तरह से सॉल्वर बनने के चक्कर में कैसे पड़ (फंस) जाते होंगे!!

इन सॉल्वरों आदि की बैसाखियों के सहारे डाक्टर बने वे अमीरज़ादे क्या कर लेंगे एमबीबीएस....एमडी की डिग्री पाकर............ये कागज़ के फूल आखिर खुशबू कहां से लाएंगे?