शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

ऐसा ताज़ा बकरा, मुर्गा, और मछली किस काम के !!

थोड़े से पानी में छटपटाती ये मछलियां.. मार्केटिंग टूल 
आज बाद दोपहर जब मैं एक दुकान पर खड़ा था तो सामने वाली दुकान मीट-मछली की थी.....मेरा ध्यान एक बर्तन की तरफ़ गया जिस में बहुत कम पानी में कुछ मछलियां छटपटा रही थीं....बहुत बुरा लगा ये देख कर। यह जो तस्वीर आप यहां देख रहे हैं, वहीं की तस्वीर है।

ज़ाहिर सी बात है कि वह दुकानदार अपनी बिक्री चमकाने के लिए यह सब ड्रामेबाजी कर रहा था....उसी समय आप छटपटाती हुई कोई भी मछली पसंद करिए...उसे समय उसे काट कर आप को थमा िदया जायेगा। 

बात इस दुकानदार की ही नहीं है, मैंने बहुत जगहों पर इधर लखनऊ में नोटिस किया है कि मछली बेचने वालों ने एक बर्तन में थोड़ा पानी डाल कर कुछ मछलियां छटपटाने के लिए छोड़ रखी होती हैं। मुझे यह मंजर बहुत ही बुरा लगता है....अमानवीय तो है बेशक। 

इस तरह से ताज़ा-तरीन मछलियों के दाम भी दूसरी पहले से मृत मछलियों से ज़्यादा होती होगी शायद......क्योंकि मैं शाकाहारी हूं पिछले २५ वर्षों से .....कोई भी धार्मिक कारण नहीं ..बस यह सब खाना अच्छा नहीं लगता, इसलिए बिल्कुल भी नहीं.......घर में कोई भी नहीं खाता। 

कभी आपने साईकिल के पीछे मुर्गे-मुर्गियों को ठूंस कर एक जाल में ले जाते देखा है......मैंने बहुत बार देखा है.....कितना असहाय महसूस कर रहे होते हैं वे जानवर उस समय.....और तौ और, एक बात और नोटिस की कि लोग अपने सामने ज़िंदा मुर्गे को कटवाते, साफ़ करवाते हैं......सोचने वाली बात यह है कि उस जानवर के शरीर में डर खौफ़ की वजह से क्या क्या हार्मोन्ज़ रिलीज़ न होते होंगे.........लेकिन हमें क्या, हमें तो ताज़े मुर्गे से मतलब है!

मुझे जांघ चाहिए, मुझे गुर्दा, मुझे कलेजा...मुझे सिरी (दिमाग)...मुझे चांप
जब मैं स्कूल कालेज में था तो खूब मीट खाया करते थे.....मेरे पिता जी को बहुत शौक था....अलग अलग चीज़ें उस में डाल कर लज़ीज़ मीट तैयार होता था...हमें भी कहां इतना समझ थी कि हम खा क्या रहे हैं.....बस, इतना पता था कि शायद मीट की दो तरह की दुकानें हुया करती थीं...अमृतसर शहर की बात कर रहा हूं.....लेिकन मीट खरीदते जाते वक्त यह हिदायत दी जाती थी कि फलां फलां झटकई से ही लाना है......झटकई पंजाबी का शब्द है जिस का मतलब है जो झटका मीट बेचता है अर्थात् जिस कसाई के यहां बकरे की गर्दन को एक झटके ही में अलग कर दिया जाता है। 

हां, वह बात तो बताना भूल ही गया कि मीट खाना कब से बंद किया....यह १९९० के दशक के शुरूआत की बात है.....मैं और मेरी बीवी हम लोग पूना गये थे.....एक हॉटेल में गये.....वहां जो मीट हमें दिया गया......वह चबाया ही नहीं जा रहा था......हम सारी बात समझ गये.....बस उस दिन के बाद फिर मीट-मछली-मुर्गा खाने का मन ही नहीं किया। 

वैसे भी आज कल मुर्गे वुर्गे बड़े करने के चक्कर में क्या क्या गोरखधंधे हो रहे हैं, किस तरह से कैमीकल्स और हारमोन्ज़ इन में टीके की शक्ल में पहुंचाए जाते हैं, यह तो हम सब मीडिया में देखते सुनते रहते हैं...है कि नहीं?

 मुझे पता है मेरे यहां चार पंक्तियां लिखने से यह सब बंद नहीं होने वाला, लेकिन फिर भी हम लोग इस क्रूरता के बारे में तो सोच ही सकते हैं.........क्या आप को लगता है कि पानी में छटपटाती उस मछली को काट कर खा लेने से हम लोग ज़्यादा मर्द बन जाएंगे?...

नोट........इस पोस्ट को लिखने का कोई भी धार्मिक उद्देश्य नहीं है... वैसे भी मैं बस एक ही धर्म को जानता हूं जिसे मानवता कहते हैं। मछलियों की पीड़ा आज देखी तो दिल को बात लग गई, आप से साझा कर ली। 

इस फिल्मी गीत में भी शूटिंग के िलए एक मछली को छटपटाया तो गया......

बच्चों को तो हम शुरू से पढ़ाते ही हैं.....शायद उन की पहली कविता......मछली जल की रानी है, जीवन उस का पानी है, बाहर निकालो मर जायेगी.............जितनी हवा हमारे लिए ज़रूरी है, उतना ही पानी भी मछली की श्वास प्रक्रिया के लिए ज़रूरी है....कल्पना करिये किस तरह से खिड़कियां बंद होने पर हवा थोड़ी सी कम होने पर ही जब हमारा दम घुटने लगता है और हमारी फटने लगती है........है कि नहीं??