गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

बात आस्था की..


मुझे आज एक बार फिर से यह अहसास हुआ कि हमारी उम्र इतनी बड़ी हो गई लेकिन हम लोग अपने देश के बारे में कितना कम जानते हैं, कुछ खास नहीं जानते।  चलिए आप से पूरी बात साझी कर लेता हूं।
मैं आज शाम को साईकिल पर टहल रहा था, साईकिल की एक दुकान पर रूक गया.. उस की ब्रेक ठीक से नहीं लग रही थी। यह साईकिल की दुकान एक मस्जिद के दरवाजे के बिल्कुल बाहर है।
शाम की अज़ान का समय होने वाला था, तो मस्जिद के गेट पर कुछ महिलाएं इक्ट्ठी होनी शुरू हो गईं.. दो-तीन-चार..पांच..इन की गिनती बढ़ती जा रही थी। और लगभग हर महिला की गोद में एक छोटा सा बच्चा दिखाई दिया।

lko1जैसा कि अकसर होता है ..मेरे जैसे लोग आज कल कुछ ज़्यादा ही टैक-सेवी होने का ढोंग करते दिखते हैं ..है कि नहीं? …इसलिए मैं उस साईकिल की दुकान के जिस बैंच पर बैठा हुआ था, वहां से एक तस्वीर खींच ली, जिसे आप यहां ऊपर देख रहे हैं।
और तुरंत इसे फेसबुक पर अपलोड कर दिया। और उस फोटो के साथ अपनी बेवकूफ़ी से भरी बात भी कह डाली.. अंग्रेज़ी में …लखनऊ के किसी धार्मिक स्थल के बाहर दानवीरों की इंतज़ार में।
इतने में क्या हुआ … नमाज़ अदा करने के बाद बंधु बाहर निकलने शुरू हो गये.. मैं देखना चाह रहा था कि क्या ये लोग इन महिलाओं को कुछ दान-वान देंगें क्या ! किसी को देखा नहीं किसी को दान देते लेकिन अचानक मैंने देखा कि ज़्यादातर मुस्लिम भाई-बुज़ुर्ग जो बाहर निकल रहे थे ..वे हर महिला के बच्चे के मुंह पर फूंक मार कर आगे निकल रहे थे। दो-तीन-चार — मेरी उत्सुकता बढ़ती गई… यार, यह क्या चल रहा है, मेरे से रहा नहीं गया। सब से पहले तो इस तस्वीर को मैंने फेसबुक पेज़ से तुरंत डिलीट किया क्योंकि यह बात वह नहीं थी जो मैं सोच रहा था।
उस साईकिल रिपेयर दुकानवाला भी मुस्लिम भाई था। मैंने उस से पूछा कि ज़रा यह तो बताओ कि ये लोग हर बच्चे के मुंह के ऊपर फूंक क्यों मार रहे हैं। उस ने तुरंत जवाब दिया… जिन बच्चों को नज़र जल्दी लग जाती है, उन की  माताएं अपने बच्चों की नज़र उतरवाने के लिए शाम की नमाज़ के समय इन्हें ले कर यहां आती हैं… और इस से इन के बच्चों को नज़र नहीं लगती।
दुकानदार ने आगे बताया कि यह फूंक मारने तक तो ठीक है, लेकिन कुछ माताएं पानी या दूध के गिलास भी साथ लेकर आती हैं, और फिर उन में भी फूंक मरवाने की ख्वाहिश रखती हैं। लेकिन उस ने बताया कि वह उन को ऐसा दूध या पानी में फूंक मरवाने से मना करता रहता है। मेरे प्रश्न को भांप लिया शायद उसने…अपने आप ही कहने लगा कि आप स्वयं ही देखो कि मेरे जैसा ५० का आदमी दूध-पानी में फूंक मारेगा तो ज़रासीम (कीटाणु) भी १-२ साल के बच्चों के शरीर में जाने के इमकाईनात रहते हैं। मैं उस की बात ध्यान से सुन रहा था……कहने लगा कि हमें तो अपने बच्चों का भी मुंह नहीं चूमना चाहिए….कहने लगा मुंह से मतलब कि ऐसे नहीं चूमना चाहिए कि हमारी लार बच्चे के मुंह में चली जाए……..मैं उस की बात से पूरी तरह इत्तफाक रखता हूं।
मैं यही सोचने लगा कि बातें तो यह सारी बड़े पते की कर रहा है… अभी मैं इतनी बात कर ही रहा था कि देखते ही देखते जो १०-१२ बच्चों वाली महिलाएं तुरंत अपने अपने घर लौट रही थीं।
एक बात ध्यान से मैंने नोटिस की ये सभी मुस्लिम वर्ग की महिलाएं ही न थीं, जो मैंने समझा। इस देश में आम आदमी तो बिल्कुल प्रेम, भाईचारे और तखल्लुस से रहते हैं, मैं देख रहा था जिस शिद्दत से वे नमाज़ी बंधु इन बच्चों के चेहरों पर फूंक मार रहे थे ..ऐसे लग रहा था कि इन के अपने ही बच्चे हैं ये सब। अच्छा लगा यह सब देख कर।
मैं सोच रहा था कि हमें स्वयं भी और अपने बच्चों को भी सभी धर्म के धार्मिक स्थलों पर लेकर जाना चाहिए….इस से हमें एक दूसरे को अच्छे से समझने में मदद मिलेगी, प्यार बढ़ेगा। लेकिन जो अकसर देखने में आता है कि एक धर्म का बंदा दूसरे धर्म के धार्मिक स्थान से इस तरह से थोड़ा झिझक कर, शायद थोड़ा कहीं न कहीं डर कर निकलता है जैसे कर्फ्यू लगा हुआ है। नहीं, यह झिझक हमें दूर करनी होगी…….मैं जितना मंदिर में जाना पसंद करता हूं, उतना ही गुरूद्वारे और चर्च में जाना भी मुझे अच्छा लगता है, पीरों की जगह पर, दिल्ली की जामा मस्जिद (बाहर बाहर से), हज़रत निजामुद्दीन ओलिया,  बंबई के हाली अली दरगाह पर जा चुका हूं, इधर लखनऊ में बड़े इमामबाड़े में स्थित मस्जिद में ही हो कर आया हूं. लेकिन सोचता हूं मस्जिदों में और भी जाना चाहता हूं……..
लेकिन आप को अपना अनाड़ीपन  बता दूं …मुझे यही नहीं पता कि क्या गैर मुस्लिम समुदाय के लोग मस्जिद में जा कर प्रार्थना कर सकते  हैं, शायद मेरी यही झिझक है, मुझे यह भी नहीं पता कि वहां पर किस तरह से सजदा करते हैं, बस यही बातें रोक लेती हैं…और हिमाकत से भरी यह बात कि आज लिखते हुए इस बात का ध्यान आ गया ..कभी किसी से इस के बारे में चर्चा करने की शायद ज़रूरत ही नहीं समझी…… बड़े इमामबाड़े में भी जिस समय गया वहां पर मस्जिद बिल्कुल खाली पड़ी थी। लेकिन मुझे पता है कि किसी भी धार्मिक जगह पर कोई कोड-ऑफ-कंडक्ट नाम की चीज़ नहीं होती, हम अपने मन में ही ख्यालों का पुलाव बना कर पकाते रहते हैं।
चलिए अब सोचता हूं कि अपने मित्र ज़ाकिर अली के साथ मस्जिदों में खूब जाऊंगा।
और एक बात, यह पोस्ट आस्था की थी, मैंने साईंस के बारे में कोई बात नहीं की…..इस की साईंस पर किसी दूसरे दिन बात कर लेंगे, क्या जल्दी है। बस, अभी तो इतना ध्यान आ रहा है कि नज़र तो हमारी भी उतरती रही है, कभी मां ने तो कभी उम्र में १० वर्ष बड़ी बहन बचपन में मुझे अच्छे से तैयार-वैयार कर के, केश सज्जा कर के और पावडर इत्यादि लगा कर मेरे मुंह पर सुरमचू (सुरमे दानी का वह हिस्सा जिस से हम सुरमा डाला करते थे) से नज़र बट्टू कभी कभी लगा दिया करती थीं….. बुरी नज़र से बचाने के लिए।