शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008

कैंसर की आखिरी स्टेज में है तो क्या है, उस का नायक तो वह ही है !


जी हां, अगर वह कैंसर की आखिरी स्टेज या बहुत ही ज्यादा फैल चुकी टीबी रोग से या गुर्दै फेल होने की टर्मिनल स्टेज से भी ग्रस्त है तो भी एक हिंदोस्तानी नारी का नायक तो उस का पति ही है...मेरी इस बात से तो आप शत-प्रतिशत सहमत हैं ना।

तो चलिए मैं सीधे अपनी बात पर आता हूं...मैं पिछले कईं दिनों से इस के बारे में बहुत ज़्यादा सोच विचार कर रहा हूं कि आखिर कुछ डाक्टरों का इतना ज़्यादा नाम हो जाता है और कुछ डाक्टर लोग अपने फील्ड में बहुत ज़्यादा महारत हासिल किएहुए होते भी इतने पापुलर नहीं हो पाते यानि कि मरीज़ों की नज़र में उन की इमेज इतनी ज़्यादा अच्छी नहीं होती।

तो, मुझे तो सब से महत्त्वपूर्ण बात यही दिखी कि डाक्टर की कम्यूनिकेश्नस स्किल्स एवं इंटरपर्सनल स्किल्स बहुत ही ज़्यादा अच्छी होनी चाहिए...इस मे ज़रासी भी कम्प्रोमाइज़ करने की गुंजाइश नहीं है।

जब कोई मरीज़ डाक्टर के पास जाता है तो वह ही नहीं उस के साथ आने वाले उस के रिश्तेदार डाक्टर की बात का एक एक शब्द बेहद ध्यान से सुन रहे होते हैं, वे उस के शब्द के साथ साथ उस के चेहरे के भाव एवं उस की बॉडी-लैंग्वेज़ को भी पढ़ने की पूरी कोशिश करते रहते हैं। वैसे देखा जाए तो यह सब है भी तो कितना स्वाभाविक ही ....क्या हम ऐसा नहीं करते ?....करते हैं भई बिलकुल करते हैं, इस में आखिर बुराई क्या है।

जिस बात पर मैं विचार कर रहा था वह यही है कि जब कभी भी कोई डाक्टर किसी भी मरीज़ के साथ पूरे सम्मानपूर्वक ढंग से बात नहीं करता तो वह उस मरीज़ की नज़रों में तो शायद इतना न गिर जाता होगा जितना उस मरीज़ के साथ आए उस के अभिभावकों की नज़र में बहुत ही ज़्यादा ही गिर जाता है। एक उदाहरण लेते हैं ..अब बीमारी पर तो किसी का कोई बस है नहीं....अब अगर किसी को बहुत ही कोई भयानक रोग है तो अगर किसी डाक्टर ने उस के बीवी के सामने उसे पूरा सम्मान न दिया या यहां तक कि तुम ही कह दिया तो उस महिला को बहुत ही ज़्यादा चोट पहुंचती है, मेरे ख्याल में वह स्वयं बहुत अपमानित महसूस करती है....बंदा चाहे बीमार है तो क्या है, बीमारी का क्या है , उस का नायक तो वही है , उसे किसी दूसरे की अच्छी सेहत से क्या लेना देना, उस की सारी ज़िंदगी तो भई उस बंदे की सेहत की धुरी के इर्द-गिर्द ही घूमती है

यह सब मैं पता नहीं क्यों लिख रहा हूं...बस यूं ही लिखना चाह रहा हूं । इस में कोई थ्यूरी इनवाल्व नहीं है, पिछले पच्चीस सालों से मरीज़ों के एवं उन के अभिभावकों के चेहरों को पढ़ रहा हूं, जो इन से पढ़ा बस वही लिखना चाह रहा हूं।

अब बच्चा वैसे अपने पिता की कोई बात माने या ना माने लेकिन वो किसी डाक्टर द्वारा अपने पिता को तुम कहे जाने से नाराज़ हो उठता है , किसी ह्स्पताल के कर्मचारी के द्वारा उस के पिता की शान में कहे कुछ शब्द जो उसे पसंद नहीं होते, इस से वह भड़क उठता है, कईं बार अपना आपा खो बैठता है...दोस्तो, बात वही है ...किसी डाक्टर के लिए तो शायद वह कोई अन्य मरीज़ ही होगा, लेकिन उस के बेटे के लिए तो वह संसार है, जब उस के पिता को आई.सी.यू में रखा गया है तो उस के दिमाग में बचपन के वे सब सीन घूम रहे होते हैं जब उस के पिता ने उसे अंधेरे का सामना करना सिखाया था, जब उसे उस का पिता कंधे पर चढ़ा कर सारा मेला घुमा लाता था, जब उन की उंगली पकड़ कर उस ने चलना सीखा था, जब साइकिल सीखने के दिनों में बार बार गिरने पर भी उस के पिता ने उसे कभी भी निरूत्त्साहित नहीं होने दिया था। ऐसे हालात में कैसे वह किसी तरह की गुस्ताखी बर्दाश्त कर सकता है। चाहे उस का पिता एँड-स्टेज किडनी फेल्यर से आईसीयू में पड़ा हुया है लेकिन उस बच्चे के लिए तो उस का पिता ही है ...मॉय डैड..स्ट्रांगैस्ट , ये तो केवल कुछ उदाहरण हैं लेकिन इन बातों को हम कितनी ही ऐसी सिचुएशन्स में अप्लाई कर सकते हैं।

अब मैं देखता हूं कि किस तरह से बहुत बहुत बुज़ुर्ग अपनी वयोवृद्ध बीवियों को उन के छाती के कैंसर अथवा बच्चेदानी के कैंसर के इलाज के लिए बेचारे बावले से हुए फिरते हैं....निःसंदेह यह देख कर यही लगता है कि शायद दिस हैपन्स आन्ली इन इंडिया....जहां पति पत्नी का रिश्ता सचमुच आज भी एक रूहानी रिश्ता है....सैक्स वैक्स से बहुत ही ज़्यादा ऊपर की बात जो शायद वैस्टर्न वर्ल्ड की भी अब समझ मेंथोड़ी-थोड़ी आ रही हैं।

बस ,बात अपनी यही खत्म करता हूं कि डाक्टर की डिग्रीयों के साथ साथ उस की बोलचाल का ढंग भी बहुत ही बढ़िया होना बेहद लाज़मी है, क्यों कि उसे बेहद अन्य फैक्टर्ज़ का भी ध्यान रखना होगा, नहीं तो लोग क्लीनिक से बाहरनिकल कर इलाज की बात करने से पहले कईं बार यह बात करनी भी नहीं भूलते...यार, डाक्टर है तो लायक लेकिन पता नहीं इतना बदतमीज़ क्यों है।