सोमवार, 14 जनवरी 2008

दोस्तो, मेरी तो भई आज तलाश खत्म हो गई !!


मैं बहुत दिनों से एक ऐसी बलोग लिखने की कोशिश में था जिस में जो मेरा दिल करे मैं लिखूं, जितना मन करे लिखूं, जब चाहे लिखना बंद कर दूं, जब चाहे फिर से शुरू कर दूं.....बेसिकली वह बलोग मैं अपने लिए ही लिखूं......जिस में अपनी प्लस प्वाईंटस एवं निगेटिव पवाईंटस बस मैं अपने आप को रिलीज़ करने के लिए लिखूं न कि टिप्पणीयां पाने के लिए। बस,जैसा मैं सोचूं वैसा ही लिख डालूं.....बिना किसी फिक्र-फाके के ......मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि अपने आप को किसी विषय विशेष में बांध कर रखने में मेरा तो सिर भारी हो जाता है। ठीक है, डाक्टर हूं, डाकटरी मेरा पेशा है, उस पर तो लिखूंगा ही , लेकिन मेरे अंदर भी जो आम आदमी की तरह लावा दहक रहा है उसे मैं कहां उंडेलूं.....मैं भी इंसान हूं.....मैं अपने आप को कैसे शांत करूं.......बस बहुत दिनों से क्या, बहुत महीनों से और शायद बहुत बरसों से ही ऐसे विचार तंग आते जा रहे थे.......अखबार वालों की शायद अपनी मजबूरी है कि वे ऐसा वैसा क्यों छापेंगे, लेकिन मेरी मजबूरी है कि मैं ऐसा वैसा लिखे बगैर रह नहीं सकता क्योंकि अपने मनकी बातें मन के अंदर दबा के मेरा तो भई सिर भारी हो जाता है। बस , मैं यही सोच रहा था कि इस को शीर्षक क्या दूं......बहुत दिनों से सोच रहा था कि इस को ग्रैफिटि नाम से पुकारूंगा...फिर लग रहा था कि यार, हिंदी ब्लागिंग में ऐसा नाम कुछ जंचता नहीं.....लेकिन, मैं अपने बलोग का शीर्षक कुछ इस तरह का देना चाह रहा था जिस में मेरे विचारों की स्वतंत्रता, लापरवाही, बेपरवाही झलके और मैं अपने आप को उड़ता हुया सा महसूस करूं। लेकिन दोस्तो कोई appropriate नाम सूझ नहीं रहा था, बस ऐसे ही सपने देखता रहा, ऐसे ही विचार करता रहा, ऐसे ही मनसूबे बनाता रहा।
दोस्तो, आज शाम को बैठे बैठे ध्यान आया कि चलो डिक्शनरी ले कर बैठ जाता हूं और ढूंढता हूंकोई अच्छा सा उपर्युक्त सा शीर्षक.........तो मैंने एक ओक्सफोर्ड डिक्शनरी, एक समांतर कोश- हिंदी का, और एक अंगरेजी हिंदी कोश ली और रजाई में बैठ गया। पहले तो ग्रैफिटी के ही अर्थ को हिंदी कोश में ढूंढने की कोशिश की.....लेकिन मजा आया नहीं, फिर और भी कुछ कुछ शब्द मन में आए----पोस्टर, placard आदि ...लेकिन पता नहीं , मुझे लगा सभी शब्द जो मेरे ध्यान में आए वे मेरी अभिव्यक्ति से कोसों दूर हैं।
बहुत परेशान सा लग रहा था कि अचानक बचपन में अमृतसर के कुंदन स्कूल में लिखी फट्टी की याद आ गई........दोस्तो, आप की जानकारी के लिए बताना चाहूंगा कि पंजाबी में हम लोग तखती को फट्टी कहते हैं। एक बार फट्टी की याद आ गई तो सलेट और सलेटी की याद भी आ गई। तो फिर वोह छोटी सी लोहे की दवात, काली स्याही और कलम कहां पीछे रह जाती।
बस,दोस्तो, मेरी तलाश आज पूरी हो गई है, और मैं एक बार अपने आप को चार-पांच साल के बच्चे जितना ही बेपरवाह महसूस कर रहा हूं ....मेरा जो दिल करेगा मैं अपनी सलेट पर लिखूंगा, लिखूंगा फिर मिटा दूंगा, फिर कुछ और बनाऊंगा.....बस बिलकुल किसी लापरवाह बच्चे की तरह....जिसे किसी तरह की सीमाएं बांध नही पाती हैं और न ही उसे किसी प्रकार की इन फिजूल की बंदिशों से कोई मतलब ही होता है। बस, आज तो मजा आ गया---मेरी फट्टी मुझे एक बार फिर मिल गई लगती है, जो चाहे करूंगा.......जब दिल करेगा अतीत की तस्वीर इस पर बनाऊंगा, जब दिल आने वाले समय के सपने बुनने को करेगा, तो उस में भी आशाओं के रंग भर कर अपनी फट्टी पर तैयार करूंगा.....................बस, शाम को उन सब को मिटा दिया करूंगा। दोस्तो, मुझे तो यही अफसोस हो रहा है कि मेरी यह प्यारी फट्टी, मेरी सलेट मेरे को पहले क्यों नहीं मिली......अब तक तो पता नहीं अपने अंदर तूफान मचा रहे विचारों को शांत भी कर चुका होता। लेकिन कोई बात नहीं ....There is a very important saying ……There is never a wrong time to do the right thing.
दोस्तो, आप ने अगर कभी तख्ती पर या स्लेट पर लिखा है तो आप भी मेरे से सहमत होंगे ही कि यारो हम उन दिनों में कितने बादशाह हुया करते थे.......जेब में पैसे टोटल दस.....पांच पैसे की दो स्लेटियां लेने पर, फिर यह च्वाईस तो अपनी ही हुया करती थी कि बचे हुए पांच पैसे का आमपापड़ लेना है, खट्टी मीठी कोई गोली लेनी है या वह टाटरी वाला बेहद खट्टा चूरऩ लेना है....यही बात हम जैसों को बादशाह की फिलींग दिलाने के लिए काफी थी ----थी न दोस्तो .........मैं कोई झूठ बोलया......कोई ना ...भई कोई ना !!!
दोस्तो, वो भी क्या दिन थे......कोई टेंशन नहीं ( केवल स्लेटी के जल्दी जल्दी घिसने के सिवा.....जिसे मैं कभी कभी खा भी जाया करता था...लेकिन किसी और से न कहना, नहीं तो वो मेरी डाक्टरी वाली बलोग्स में विश्वास करना बंद कर देंगे........खैर, दोस्तो, आज मुझे कोई परवाह नहीं....यह उन की प्राबलम होगी क्योंकि मुझे मेरी तख्ती, मेरी स्लेट इस ब्लोग के रूप में वापिस मिल गई है जिस पर मैं कुछ भी लिख कर एक बार फिर से अपनी मरजी का बादशाह बन कर आप को दिखाऊंगा.....क्या यार, मैं भी क्या क्या लिख जाता हूं... आप को क्या दिखाना---- आप तो अपने ही बलागर बंधु हो, मेरी किशती में ही सवार हो और अपना अपना खोया बेपरवाह बचपना ढूंढने में व्यस्त हो, आप से कोई कंपीटीशन थोडा ही है, आप तो सहयात्री हो, दुःख सुख के साथी हो। वो बचपन का साथी तो पता नहीं अब कहां है जिस के साथ जब पहले दिन हाथ में हाथ डाल कर, बस्ते में स्लेट डाल के, पीतल की छोटी सी डिब्बी में एक परांठा और एक गुड़ की ढली और वह पीले रंग का दस पैसे का वह सिक्का मुझे जो मेरे पिता जी ने बड़े प्यार से दिया था......इन सब से लैस होकर दुनिया के सबक सीखने के लिए उस पहले दिन जब स्कूल के लिए पैदल निकला था, तो रास्ते मे एक ग्रांउड में एक गहरा खड्डा देख कर हम ने पहले तो अपने उस लंच का भरपूर लुत्फ उठाया ,फिर अपनी मंज़िल की तरफ बढ़ चले। कहां हो यार, चंद्रकांत आज कल तुम। लेकिन आज कल आप सब ब्लागर बंधुओं में भी मुझे उस दोस्त चंद्रकात की तस्वीर ही दिख रही है क्योंकि मुझे जब से मेरी फट्टी , मेरी स्लेट मिली है न , मैं बहुत ज्यादा लापरवाह, बेपरवाह, आज़ाद, बिल्कुल उड़ता हुया सा ही महसूस कर रहा हूं।
हां, तो जाते जाते एक बात और कीअब चूंकि मुझे मेरे बचपन की स्लेट .... एवं फट्टी मिल गई है, अब मुझे कोई भी किसी भी विषय की सीमाओं में नहीं बाँधा पाएगा। पर, अब एक दुःख है कि अपने आप को इतना तीसमार खां समझने लगा हूं कि यही समझ नहीं पा रहा हूं कि अब तख्ती पर पूरने किस से डलवाऊंगा-----पूरने समझते हैं न आप, जी , वही पैंसिल के साथ फट्टी के ऊपर लिखे गए फीके-फीके अक्षर जो अकसर मेरी बड़ी बहन बड़े ही प्रेम से डाल दिया करती थीं, जिस के ऊपर फिर मुझे लिखना होता था। ठीक है, दोस्तो, अब बिना किसी तरह के पूरनों की मदद से लिखने की कोशिश करूंगा.........................आप, प्लीज., मेरा साथ दीजिएगा।