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बुधवार, 3 जून 2009

मिलावटी दूध का गोरख-धंधा

चंद मिनट पहले आजतक न्यूज़-चैनल पर मिलावटी दूध पर एक विशेष रिपोर्ट देख रहा था। डा राम मनोहर लोहिया से एक विशेषज्ञ भी अच्छी तरह से सब कुछ बता रहे थे। रिपोर्ट में ऐसे फोटो भी दिखे जिस में मिलावटी दूध तैयार करने के लिये उस में शैंपू, यूरिया मिलाया जा रहा था और इस को तैयार करने के लिये तरह तरह के ऊल-जलूल कामों का खुलासा भी किया गया।

मुझे अच्छा लगता है जब कोई लोकप्रिय चैनल इस तरह का कार्यक्रम पेश करता है ---क्योंकि मैं समझता हूं कि इस तरह के पाठों को बार बार दोहराने में ही हम लोगों की भलाई है क्योंकि हम लोगों की यादाश्त में ज़रूर कुछ न कुछ गड़बड़ है। हम लोग सब कुछ जानते हुये भी इस तरह के दूध का इस्तेमाल करने से ज़रा भी गुरेज़ क्यों नहीं करते। अब अगर कोई यह कहे कि कोई विकल्प भी तो नहीं है ना -----लेकिन इस का मतलब यह भी तो नहीं कि हम लोग ऐसे दुध का इस्तेमाल करने लगें जो केवल सेहत बिगाड़ने का ही काम करता हो।

मैंने तो इस मिलावटी दूध के बारे में ----- चलिये, इस वाक्य को बाद में पूरा करता हूं । पहले तो मेरी इच्छा यह जानने की हो रही है कि इस मिलावटी दूध के कारण कितने लोगों पर आज तक मुकद्मा चला है और कितनों की सज़ा हुई है। अब मेरे पास प्रश्नों का तो अंबार है ..... लेकिन समय की कमी है। सारा दिन हास्पीटल की ड्यूटी करने के बाद ये प्रश्न केवल प्रश्न ही बने रहते हैं। लेकिन कभी न कभी इन सब सवालों का जवाब तो ढूंढ ही लूंगा और इस से भी बहुत बड़े बड़े प्रश्न हैं जिन्हें मैं अभी तो इक्ट्ठे ही किये जा रहा हूं। उपर्युक्त समय आने पर ही इन का झड़ी लगाऊंगा, इस के बिना मुझे भी चैन आने वाला नहीं है।

हां, तो मैं पिछले पैरे में कह रहा था कि इस मिलावटी दूध के बारे में इतना कुछ पढ़ लिया है कि अब तो मुझे दूध से बनी कोई भी चीज़ बाहर खाने से एक ज़बरद्स्त फोबिया सा ही हो गया है । और मैं जहां तक हो सके खाता भी नहीं हूं। मैंने बहुत सोच विचार कर यह फैसला किया हुया है।

ड्यूटी के दौरान अपने हास्पीटल में चाय पीना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है --शायद साल में एक दो बार फार्मैलिटी के तौर पर यह दिखावा करना ही पड़ता है।

घर के बाहर मैं कहीं भी चाय पीना पसंद नहीं करता हूं लेकिन कईं बार दो-चार महीने में यह कसम टूट ही जाती है। लेकिन इस समय मैं उन लोगों का ध्यान कर रहा हूं जो अपने काम पर बार बार चाय पीने के शौकीन हैं---अब कैसे दूध की क्वालिटी का पता लगे। हर चाय भेजने वाला कहता तो यही है कि वह तो बिल्कुल शुद्ध दूध ही इस्तेमाल करता है।

आज जब मैं उस आजतक का यह विशेष कार्यक्रम देख रहा था तो सुन रहा था कि विशेषज्ञ बता रहे थे कि मिलावटी दूध खालिस दूध से कैसे भिन्न होता है। बता तो वह रहे थे कि उस की महक अलग होगी, जब दही जमेगा तो भी पता चल जायेगा कि दुध कितना शुद्ध है और एक बात और भी बता रहे थे कि अगर दूध बार बार फटता है तो समझ लीजिये मामला गड़बड़ है।

जैसा कि आप जानते हैं कि मैं दंत-चिकित्सक हूं और मूलतः पिछले 25 वर्षों से यही काम कर रहा हूं और किसी तरह का आत्मा पर बोझ नहीं है ---- बिल्कुल सच बात ही करता हूं और कोई भी मेरे से मेरे प्रोफैशनल अनुभव पूछे तो शत-प्रतिशत इमानदारी से साझे भी कर दूंगा ----बिना किसी परवाह के जैसा कि मैं अपनी दांतों के सेहत वाले लेखों में करता ही रहता हूं।

हम लोग 100 करोड़ से भी ऊपर हैं लेकिन क्यों हमारे डेयरी विशेषज्ञ दूध की शुद्धता के बारे में अपना मुंह क्यों नहीं खोलते ----मुझे इस से बहुत ज़्यादा आपत्ति है । कईं बार सोचता हूं कि शायद दूध के धंधे में इतना ज़्यादा गोरख-धंधा है कि कुछ चंद लोग चाहते हुये भी मुंह नहीं खोल पाते ----सोचने की बात है कि हम लोगों ने इतनी तरक्की हर क्षेत्र में कर ली है लेकिन हम लोगों को दो-चार साधारण टैस्ट घर में ही करने क्यों नहीं सिखा पाये जिस से कि वे पूरे विश्वास से अपने दूधवाले से कह सकें कि कल से यह गोरख-धंधा बंद करो --- बहुत हो गया।

अब आप से समझ सकते हैं कि अगर कोई ग्राहक दूध वाले से यह सब कहेगा कि दूध की महक ठीक नहीं लगती, दूध पिछले कुछ दिनों से कुछ ज़्यादा ही पीला सा लग रहा है, दही सही नहीं जम रही और पिछले हफ्ते में दो बार दूध फट गया ----- तो ग्राहक यह सब कह कर अपनी ही खिल्ली उड़वाता है क्योंकि हर बात का उस शातिर दूध वाले के पास रैडी-मेड जवाब पहले ही से तैयार होता है।

ऐसे में ज़रूरत है किसी वैज्ञानिक टैस्ट की जो कि लोग घर पर ही दूध में कुछ मिला कर थोड़ा जांच कर के देख लें कि कहीं वे दूध के भेष में यूरिया तो नहीं पीये जा रहे , कहीं दूध में पड़ा शैंपू ही तो नहीं आंतों को खराब किये जा रहा और भी तरह तरह के कैमीकल्स जिन की आप कल्पना भी नहीं कर सकते। बेहतरी होगी कि ये डेयरी विशेषज्ञ कुछ इस तरह के टैस्टों के बारे में लोगों को बतायें जिस से कि लोग अपने आप ये टैस्ट कर सकें और मिलावटी दूध को तुरंत बॉय-बॉय कह सकें।

बहरहाल, मिलावटी दूध से बच कर रहने में ही समझदारी है । लेकिन अफसोस इसी बात का है कि जब हम लोग बैठे आजतक चैनल पर दिखाई जा रही कोई ऐसी विशेष रिपोर्ट देखते हैं तो हम सब यही सोचते हैं कि यह समस्या कम से कम हमारे दूध वाले के साथ तो नहीं है ------यह तो किसी दूसरे शहर की, दूसरे लोगों की समस्या है ----अगर आप भी ऐसा ही सोचते हैं तो शायद आप भी मेरी तरह कुछ ज़्यादा ही खुशफहमी का शिकार हैं।

और क्या लिखूं ? ----बस बार बार यही लिखना चाहता हूं कि दूध के बारे में पूरे सचेत रहा करें ------मिलावटी दूध पीने या इस से बने प्रोडक्टस खाने से हज़ारों गुणा बेहतर है कि इस से बच कर रहा जाये। सिर दुखता है इस विषय पर लिखते हुये, लेकिन लालच की आंधी में ये दूध बेचने वाले अंधे हुये जा रहे हैं।

रविवार, 29 मार्च 2009

नमक के बारे में सोचने का समय यही है

आज कल पब्लिक को नमक के ज़्यादा इस्तेमाल के बारे में बहुत ही ज़्यादा सचेत किया जा रहा है। कहा जाता है कि अमेरिका में भी लोग बहुत ज़्यादा नमक का इस्तेमाल करते हैं और इस का कारण यही बताया जाता है कि वहां पर प्रोसैसेड एवं रेस्टरां का खाना बहुत ज़्यादा प्रचलित है। ठीक है, हमारे यहां पर अभी तो यह प्रोसैसेड फूड्स इतने पापुलर नहीं हैं लेकिन इन का चलन धीरे धीरे बढ़ ही रहा है। रेस्टरां में खाने का भी रिवाज़ बढ़ता ही जा रहा है।

हमारी ज़्यादा समस्या यही है कि हम लोगों के यहां लोगों में नमक से लैस जंक फूड का क्रेज़ दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। ये समोसे, कचौरियां, मठड़ीयां, भुजिया, ..........................इतनी लंबी लिस्ट है कि क्या क्या लिखें। इन से बच कर रहने में ही बचाव है।

कुछ समय पहले मद्रास अपोलो में एक डाक्टर से मुलाकात हुई --उसने अपना अनुभव बताया कि उस का वज़न एवं ब्लड-प्रैशर बहुत ज़्यादा बढ़ा हुया था लेकिन उस ने अपने वज़न कम कर के एवं नमक के इस्तेमाल पर कंट्रोल कर के ही अपनी ब्लड-प्रैशर दुरूस्त कर लिया । लेकिन ऐसे अनुभव बहुत ही कम देखने सुनने में मिलते हैं , भला ऐसा क्यों है, क्या आपने कभी ऐसा सोचा है ?

ब्लड-प्रैशर, मोटापे, गुर्दे की बीमारी आदि बहुत ही शारीरिक व्याधियों में सब से ज़्यादा यही देख कर दुःख होता है कि लोग सलाह तो जाकर बड़े से बड़े डाक्टर से लेते हैं ---एक बार परामर्श के लिये पांच पांच सौ फीस भी भरते हैं लेकिन बहुत ही छोटी दिखने वाली लेकिन बहुत ही ज़्यादा महत्वपूर्ण बात कि नमक का इस्तेमाल करने की तरफ़ अकसर देखा जाता है कि लोग इतना ज़्यादा ध्य़ान देते नहीं हैं। यही कारण है कि ब्लड-प्रैशर का हौआ हमेशा बना ही रहता है।

रविवार, 14 दिसंबर 2008

स्कूल में मूंगफली खाने पर प्रतिबंध कितना उचित ?

सोचने की बात है कि ब्रिटेन में अगर स्कूल में मूंगफली खाने पर भी बैन लग जायेगा तो देर-सवेर उस का प्रभाव कहीं हमारे स्कूलों में भी तो नहीं देखने को मिलेगा ---क्योंकि हम लोग अकसर उन देशों की नकल करने में कभी भी पीछे रहते नहीं हैं।

हम लोग तो अकसर मूंगफली को गरीब के बादाम के नाम से जानते हैं – और यह प्रोटीन प्राप्त करने का एक बहुत उम्दा स्रोत है और लगभग 25-30 प्रतिशत प्रोटीन होता है मूंगफली में। और हमारे देश में तो धूप में बैठ कर इस का सेवन करने से तो मज़ा ही बहुत आता है। स्कूल क्या , यहां तो सर्दी की रुत में बस जहां देखो मूंगफली खाते लोग मिलते हैं --- पार्क में, गाड़ी में, सिनेमा में .....।

ब्रिटिश मैडीकल जर्नल के 12 दिसंबर के संस्करण में स्कूलों द्वारा अपने स्कूलों को मूंगफली रहित घोषित किये जाने के निर्णय की चर्चा की है। हुआ यह है कि मूंगफली एवं अन्य खाद्य पदार्थों से होने वाले एलर्जी के केस बढ़ रहे हैं , इसलिये स्कलों ने मूंगफली को बैन करने का ही निर्णय कर डाला है।

लेकिन विशेषज्ञों ने इस मुद्दे को उठाया है कि इस तरह से नट्स पर बैन लगाने से तो एक हिस्टीरिया सा ही पैदा हो जायेगा और जो बच्चे नान-एलर्जिक हैं उन का तो नट्स से एक्पोज़र ही नहीं हो पायेगा- हारवर्ड मैडीकल स्कूल के प्रोफैसर क्रिसटैकिस ने कहा है कि जो बच्चे छोटी उम्र में मूंगफली खाना शुरू कर देते हैं उन में पी-नट्स ( मूंगफली) से होने वाली एलर्जी के केस कम होते हैं।

इस तरह का जो हिस्टीरिया पैदा किया जा रहा है उस का एक उदाहरण देते हुये प्रोफैसर ने कहा है कि इस का आलम यह है कि 10 साल के बच्चों से भरी एक बस में जब मूंगफली का एक दाना नज़र आ गया तो सारी बस ही खाली कर दी गई।

अमेरिका में 33 लाख लोगों को नट्स से एलर्जी है – लेकिन फिर भी इन की वजह से किसी सीरियस रिएक्शन होने का अंदेशा बहुत कम है।

आप इन आंकड़ों से ज़्यादा परेशान न होइये, क्योंकि हमारे यहां यह समस्या लगती नहीं है और अगर है भी तो हम इस तरफ़ कभी ध्यान ही नहीं देते, हमारे पहले ही से इतने ज़्यादा सेहत से संबंधित मुद्दे हैं कि इस मूंगफली वगैरह के बारे में कौन ज़्यादा सोच कर अपना समय खाली-पीली बर्बाद करे। वैसे भी हम लोगों ने कभी इस तरह की मूंगफली की एलर्जी से होने वाले केसों में बारे में सुना नहीं है ----या यूं कहें कि हमारे यहां पर न तो इस के बारे में अवेयरनैस ही है और न ही इस तरह की डॉयग्नोसिस के कोई साधन ही ज़्यादा प्रचलित हैं।

वैसे भी मुझे नहीं लगता है कि हम लोग किसी को मूंगफली खाने से मना करें और वे इसे खाना बंद कर दें ---- और सोचने की बात है कि आखिर हम लोग ऐसा करने को किसी को कहें ही क्यों, इस देश में बच्चों और बड़ों के लिये प्रोटीन पाने का एक बहुत ही बढ़िया स्रोत है यह मूंगफली ।

स्कूलों द्वारा मूंगफली बैन किये जाने की बात तो हो गई। कईं स्कूलों में तो जंक-फूड को भी बैन किया जा चुका है। अगर हमें किसी तरह की नकल ही करनी है तो यही करनी होगी कि देश के सारे स्कूलों में जंक-फूड पर पूरी तरह से बैन कर दिया जाये।

स्कूलों में उपलब्ध जंक-फूड( बर्गर, हाट-डाग, पेटीज़, समोसे, ब्रैड-पकोड़े, चिप्स, भुजिया, बिस्कुट, चामीन......ये सब जंक-फूड ही तो हैं ) .... बिस्कुट भी अगर एक-दो दूध चाय के साथ खा लिये जायें तो अलग बात है लेकिन अगर खाने की जगह पर पूरे पूरे पैकेट ही खाने का चलन है तो यह बेहद खतरनाक आदत है ---सेहत खराब करने का श्यूर-शॉट फार्मूला।

हर देश की अपनी राष्ट्रीय समस्यायें होती हैं ---मेरे विचार में इस देश की एक बहुत बड़ी विकट समस्या है कि यहां पर स्कूल-कालेज के बच्चे स्कूल में टिफिन ले जाना अपना अपमान समझने लगे हैं और कुछ हद तक जाने-अनजाने में इस को मां-बाप की स्वीकृति भी प्राप्त हो चली है। किसी पेरेन्ट को यह पूछो कि क्या बच्चा स्कूल या कालेज में खाना लेकर जाता है तो यही जवाब मिलता है कि आजकल बच्चे कहां खाना वाना लेकर जाते हैं ,वहां पर कैंटीन में ही कुछ खा लेते हैं , सब कुछ मिलता है।

ठीक है, सब कुछ मिलता तो है, लेकिन सब जंक ही मिलता है, फूड-हाइजीन का कोई ध्यान रखा नहीं जाता और नतीजा यह निकलता है कि इन बच्चों को भविष्य में होने वाली बीमारियों की नींव पड़नी शुरू हो जाती है। सुबह बच्चे जल्द बाजी में नाश्ता करते नहीं है, और स्कूल में लंच ले कर जाने से उन्हें बेहद शर्मिंदगी महसूस होती है, और शाम तक भूखे-प्यासे क्लास में बैठे रहते हैं ----इस हालत में इन की क्या कंसैंट्रेशन बनती होगी !!
और जंक-फूड थोड़ा खा भी लिया तो उस से किसी तरह की एनर्जी मिलने के स्थान पर एनर्जी का ह्रास ही होता है और इस परिस्थिति में ढंग से पढ़ाई में मन लगाना बेहद मुश्किल काम होता है। मैं उस से बड़ा मूर्ख किसी को नहीं समझता जो स्कूल-कालेज में टिफिन नहीं ले कर जाता --- और जो मां-बाप भी इस में बच्चों का साथ देते हैं मुझे उन से भी बेहद शिकायत है ---क्योंकि आप भी अपने बच्चों की सेहत बिगाड़ने के लिये जिम्मेदार हैं ----वैसे तो मैं भी इस में शामिल हूं ---- क्योंकि मेरा कालिजेएट बेटा भी टिफिन लेकर जाना अपनी सब से बड़ी बेइज्जती समझता है ----और मैं इस के बारे में कुछ कर नहीं पा रहा हूं ---बस, इतना इत्मीनान है कि डाक्टर मां-बाप होने की वजह से जंक-फूड के बारे में उस की इतनी ज़्यादा ब्रेन-वाशिंग हो चुकी है कि कालेज में जंक-फूड खाता नहीं है। लेकिन सोचता हूं कि यह भी कैसा इत्मीनान है --- सुबह नाश्ते करने के बाद शाम के पांच बजे तक भूखा रह कर वह अपनी सेहत ही बिगाड़ रहा है, लेकिन क्या करें ---- सब कुछ अपने हाथ में कहां होता है ? –जो देश के अन्य करोड़ों युवाओं का होगा, वह उस का भी हो जायेगा, और क्या !!

स्कूल ही क्यों, किसी भी कार्यालय में चले जायें -----किसी भी समय पर चाय के साथ जो जो खाद्य़ पदार्थ वहां पर उपलब्ध रहते हैं --- उन की लिस्ट सुनिये ----बर्फी, बेसन की बर्फी, समोसे, ब्रेड-पकोड़े, चामीन, पकौड़े( भजिया), रसगुल्ले, गुलाब-जामुन – ऐसा नहीं लगता कि वे किसी कार्य-स्थल पर नहीं वरना किसी बारात में आये हुये हैं -----वहां पर मिलने वाला सब कुछ शरीर को बीमार करने वाला ही है, लेकिन सुनता कौन है , इस का यह मतलब भी तो नहीं कि मैं चिल्लाना बंद कर दूं ----मुझे अपना काम तो करना ही है !!

और हां, मूंगफली वाली बात को एक कान से अगर अंदर डाल भी लिया है तो दूसरे से तुरंत निकाल बाहर करें -----धूप निकल आई है और मूंगफली लेकर कर बाहर बैठ जायें -----सारी बातें औरों की मान लेनी कहां की अकलमंदी है !! अगर बैन ही करना है तो स्कूलों से जंक फूड का खात्मा करें ----ताकि सब विद्यार्थी घर का खाना लाने के लिये मजबूर हो जायें ---फिर किसी को किसी तरह की बेइज़्जती महसूस भी न होगी।

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

क्या आप जो दूध पी रहे हैं उस की क्वालिटी के बारे में आश्वस्त हैं ?

हो ही नहीं सकता कि आप ने कभी मेरी तरह इसे टैस्ट करवाने की या इस की उत्तमता जानने की रत्ती भर कोशिश भी की हो। बस, यहां वहां नकली सिंथैटिक दूध, मिलावटी दूध की खबरें देख-पढ़ कर थोड़ा सा डर लिये, सहम गये ( और हर बार यही सोच कर बेफिक्र हो गये कि अपना रामू काका तो पिछले 35 सालों से आ रहा है , इस के दद्दू के ज़माने से ) ----बस हो गई अपनी ड्यूटी पूरी .... क्योंकि तभी अपने मोटर-साइकल ब्रांड दूध वाले ने घंटी दे दी । और साथ में ही पड़ा है आज का अखबार जिस से हम ने न्यूक्लियर समझौते के बारे में और भी गहराई से जानना है-----दूध के बारे में सोचने की अभी किसे फुर्सत है !!

इस पोस्ट में लिखे जाने वाले दूध के बारे में मेरा विचार एकदम पर्सनल हैं ---इसलिये कृपया इन्हें इसी ढंग से लें। बचपन से देख रहे हैं कि दूध की उत्तमता जानने का एक तरीका जो हिंदोस्तानी घरों में बहुत इस्तेमाल होता है वह यही है कि अंगुली को दूध में डुबो के देखा जाता है जैसे कि यह कोई गोल्ड-स्टैंडर्ड टैस्ट हो।

दूसरा, हमारे यहां दूध को उबालने के बाद कितनी मलाई आती है ---यह भी देश की करोड़ों महिलायों के लिये सत्संग के पंडाल में पीछे बैठ कर विचार-विमर्श करने लायक एक बहुत हॉट टॉपिक होता रहा है और आज भी है। ये भोली महिलायें आज तक यह नहीं जानतीं कि मलाई की मात्रा किसी दूध की उत्तमता की कोई गारंटी नहीं है-----कम से कम मैं तो ऐसा ही सोचता हूं क्योंकि सिंथैटिक दूध में और मिलावटी दूध भी मलाई तो अच्छी खासी आ जाती है।

इस मिलावटी दूध की वजह से शायद आप लोग इतना परेशान नहीं होंगे क्योंकि आप ने तो अपने परिवार के लिये ही यह निर्णय लेना होता है लेकिन मुझे एक आठ-दस के बच्चे का हाथ थामे उस सीधी-सादी मां को यह कहना बहुत अजीब सा लगने लगा है कि इस को दूध पिलाया करो। और विशेषकर के बिना दूध के स्रोत को जाने तो यह काम और भी मुश्किल लगता है। पिछले कुछ हफ्तों से तो मीडिया में दूध के बारे में जो कुछ पढ़ा है, उस ने तो और भी डरा दिया है।

इस पोस्ट के ज़रिये किसी तरह का पैनिक क्रियेट करना मेरी मंशा नहीं है----लेकिन जब कभी मन को हिला देने वाली खबरें दिख जाती हैं तो आम पब्लिक के स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिये मन बहुत कुछ सोचने तो लगता है लेकिन लाख सोचने के बाद भी इस लंबी सी पोस्ट के इलावा आज तक तो कुछ हाथ लगा नहीं।

अभी अभी मैं यह सोच रहा था कि हमारे विज्ञानिक इतने चोटी के हैं कि उन्होंने हमें चन्द्रमा तो दिला दिया लेकिन अफ़सोस इस बात का बहुत ही ज़्यादा है कि हम लोग एक आम-आदमी को आज तक यह नहीं बता पाये कि यह जो दूध तुम बच्चे को पिला रहे हो......क्या यह शुद्ध है, मिलावटी है, मिलावट किस चीज़ की है, या फिर है ही सिंथैटिक !

कुछ दिन पहले मेरी मुलाकात एक बुजुर्ग महिला से हुई जो पिछले पचास सालों तक भैंसों-गायों का दूध बेचने का काम करती रही हैं। और उस की एक बात मेरे को हमेशा याद रहेगी कि गाय-भैंस का दूध तो जब उस के स्तन से निकल रहा है तब ही शुद्ध है।

मेरा बहुत दृढ़ विश्वास है कि हम लोग जिस दूध को इस्तेमाल कर रहे हैं उस के बारे में कुछ भी नहीं जानते----शायद हम भी कहीं दूध में मैलामाइन की मिलावट की दो-चार रिपोर्टों की इंतज़ार ही तो नहीं कर रहे।
हां, तो मिलावट से याद आया कि चार पांच दिन पहले REUTERS की साइट पर एक खबर दिखी कि झारखंड के एक स्कूल में मिलावटी दूध पिये जाने से छः बच्चों की मौत हो गई और साठ के करीब हास्पीटल में इलाज करवा रहे हैं। मुझे यह खबर अपने समाचार-पत्र में तो कहीं दिखी नहीं----शायद इसलिये कि ये सभी बच्चे आदिवासी थे ---शायद मीडिया के लिये इन आदिवासी बच्चों की मौत की खबर से कहीं ज़्यादा यह खबर थी कि इस दुनिया में सब से हसीं नितंब किस महिला के हैं ----जी हां, चार पांच दिन पहले एक न्यूज़ यह भी थी और तस्वीर के साथ ---Most beautiful bottom of the world!! अगर यह खबर ना भी होती तो उस की जगह पर दिल्ली के किसी बड़े स्कूल के एमएमएस कांड की फोटो की छोंक उसी पेज पर लगी होती। अब आदिवासी बच्चों की मिलावटी दूध की वजह से हुई मौत से रीडरशिप पर खाक असर पड़ना था ?

चीन से आने वाला पावडर दूध बहुत ज़्यादा मात्रा में आज कल नष्ट किया जा रहा है –अमेरिका में तो वे उन डेयरी उत्पादनों को नष्ट करते जा रहे हैं जिन में भी मैलामाइन की मिलावट का अंदेशा है । ज्ञात रहे कि पिछले दिनों चीन में मैलामाइन ( एक इंडस्ट्रियल कैमीकल) की पावडर-दूध में मिलावट की वजह से चीन में कुछ बच्चों की दुःखद मौत हो गई थी और बहुत से बच्चे गुर्दे की पथरी से होने वाली बीमारी से जूझ रहे हैं।

क्या आप को लगता है कि हमारे यहां बिकने वाला मिल्क पावडर एकदम शुद्ध होगा ---- इस का जवाब टटोल कर अपने पास ही रखिये, प्लीज़। वैसे इस पावडर दूध की खपत हमारे देश में बहुत ही ज़्यादा है---दरअसल इस की भी बहुत सी किस्में बाज़ार में उपलब्ध हैं और मुझे बताया गया है कि दूध की मिलावट के लिये उस पावडर-दूध का इस्तेमाल किया जाता है जो 80 रूपये किलो बिकता है। और इस एक किलो पावडर दूध से दस किलो दूध तैयार किया जाता है। और मैं समझता हूं कि इन ब्याह-शादियों में और बड़े बड़े समारोहों में सब कुछ इसी तरह के पावडर दूध से ही बना हुआ खाने के बाद ही हम इतना अजीब सा अनुभव करते हैं।

पहले कहा करते थे कि शादी-ब्याह में ज़्यादा खाना ठीक नहीं होता---बस दही-चावल लेकर ही बस कर लेनी चाहिये। लेकिन अब तो दही का एक चम्मच भी इन जगहों पर खाने की इच्छा ही नहीं होती -------केवल मन में इतना विचार ही आता है कि और कुछ भी हो यह शुद्ध दूध से बना हुआ नहीं हो सकता।

थोड़ी सी अपनी बात कहता हूं ----- बिल्कुल पर्सनली स्पीकिंग ----मैं घर से बाहर जब भी होता हूं तो ऐसी किसी भी चीज़ से बिल्कुल परहेज़ ही करता हूं जिस में दूध का इस्तेमाल हुआ हो। मेरी ऐसी सोच है ---बस वो पिछले तीन-चार में तरह तरह की अजीबो-गरीब रिपोर्टें देख कर बन चुकी है कि जब तो सिद्ध न हो, जो भी दूध बिक रहा है उस में गड़बड़ी है। कृपया नोट करें कि ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं और आप इन से कतई प्रभावित न हों----आप सच्चाई को अपने ढंग से खोजने की कोशिश कीजिये।

हां, तो मैं परहेज़ की बात कर रहा था ---वैसे तो मैं चाय का ही इतनी कोई ज़्यादा शौकीन हूं नहीं लेकिन मैं बाहर कहीं भी चाय पीने से गुरेज़ ही करता हूं क्योंकि उस चाय बेचने वाले से आप उम्मीद ही कैसे कर सकते हैं कि उसे अपने दूध की क्वालिटी का कुछ भी ज्ञान होगा या वह भी कुछ गोरख-धंधा नहीं करता होगा।

आगे आते हैं ---मिल्क प्राड्क्टस-----ये आइस-क्रीम, मिठाईयां, बाज़ारी पनीर, खोआ----- इन सब से एकदम नफ़रत सी ही हो चुकी है और इस के पीछे भी इस विषय पर दिखी अनगिनत रिपोर्टों का ही हाथ है।

बच्चे अकसर खुश होते हैं कि फलां-फलां ज्वाईंट पर सात रूपये में सॉफटी मिलती है-------मैं अकसर कहता हूं कि सात रूपये का दूध तो हम लोग जानते ही हैं कि कितना होता है तो फिर यह बड़ी सी साफ्टी आखिर जो सात रूपये में बिक रही है इस की शुद्धा कितनी होगी, कितनी नहीं राम जाने। मिठाईयां इसी चक्कर में मैं कभी नहीं खाता ----- बिल्कुल भी नहीं -----कुछ सालों से ही नहीं खाता था लेकिन जब से यह चीनी दूध की बातें सुनी हैं तो इन्हें बिल्कुल चखने का भी दुःसाहस नहीं कर पाता। मेरा पर्सनल अनुभव यही रहा है कि अगर हमें या अपने बच्चे को बीमारी की छुट्टी दिलानी हो तो किसी ब्याह-शादी में जाकर शाही पनीर का आनंद ले कर लौट आयें-----अगले दिन की छुट्टी लगभग पक्की !!

सात रूपये वाली साफ्टी का तो रोना रो लिया ---लेकिन उस का क्या करें जो दूध की कुल्फियां दो-दो रूपये में मैले-कुचैले थर्मोकोल में जगह जगह बिकती दिखती हैं। यह भी दूध तो नहीं हो सकता ----और क्या क्या है , इस की तो रिसर्च करनी होगी ----परसों मैं दिल्ली में भी देख रहा था कि ऐसे बीसियों कुल्फी-वाले लोगों को अपना माल बेधड़क, सरे-आम परोस रहे थे -----विचार तब भी यह आ रहा था कि क्या पब्लिक को गर्मी में गन्ने के रस के बारे में जागरूक करने के इलावा हमारे पास कोई विषय नहीं है !!

जो लोग किसी जगह पर एकदम शुद्ध बर्फी के मिलने की बात करते हैं उन्हें मैं हमेशा यही याद दिलाना चाहता हूं कि जितने में बर्फी का एक डिब्बा मिल रहा है, आप उतने पैसे में दूध,चीनी स्वयं उबाल कर देख लीजेये कि कितना वज़न आप के हाथ में आता है ----सो , यह शुद्ध बर्फी वाली बातें कोरी ढकोसलेबाजी ही हैं----शुद्ध बर्फी और वह भी आज के दौर में ---मैं तो यही सोचता हूं कि शुद्ध एवं नरम-नरम बर्फी वही थी जो हम लोग बचपन में पचास-सौ ग्राम किसी ऐसे हलवाई से लेकर खाया करते थे जो बेचारा सुबह से दूध की कडाही में कड़छी घुमा घुमा कर शाम तक पसीने से लथ-पथ हुआ करता था----और यह दो-तीन किलो बर्फी बनाने की सारी प्रक्रिया सब के सामने ही किया करता था और इतनी मेहनत करने का उसे बहुत गर्व हुआ करता था ------सच में बतलाइये कि अपने बचपन के दौर के किसी मशहूर हलवाई की याद आ गई ना ?----तो बढ़िया है उस की मिठाईयों का स्वाद हम सब से भी बांटिये।

मैं यह चाहता हूं कि देश का हर बंदा दूध एवं दूध उत्पादों की गुणवत्ता के बारे में सजग हो और सवाल पूछने शुरू करे। यही एक आशा है----वरना कोई बात नहीं, चलता है ,हम अकेले थोड़े ही हैं, करोड़ों लोग यही सब खा-पी रहे हैं.....ऐसी सोच नहीं चलेगी, दोस्तो। आप का आज पूछा हुआ सवाल आने वाले कईं वर्षों तक आप की और अगली पीढ़ी की सेहत का फैसला करेगा !!

इस विषय पर मैं भी बार बार इंटरनैट खंगाल लेता हूं और 3-4 वर्षों में इस विषय के बारे में पढ़ पढ़ कर जितना समझ पाया, जो इस विषय के बारे में अपना ओपिनियन बना पाया, उसे आप तक रख दिया ----सिर्फ़ एक राइडर के साथ ( शायद एक ज़रूरी फारमैलिटि के लिये ही !!) कि यह मेरे व्यक्तिगत विचार हैं -----आप अपने विचारों से हम सब को रू-ब-रू करवाइये।

जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा है कि हम डाक्टरों की समस्या और भी विकट इसलिये है क्योंकि हम लोगों को इस बात का ध्यान तो रखना ही होता है कि लोग जिस चीज़ का भी सेवन कर रहे हैं उस से उन्हें अवश्य स्वास्थ्य लाभ होना ही चाहिये ---और यह तो कतई बरदाश्त ही नहीं हो सकता कि फायदा-वायदा तो कुछ हुआ नहीं ---लेकिन बीमारियां ज़रूर मोल ले लीं। इसलिये कुछ मरीज़ों को जवाब देना बेहद मुश्किल हो जाता है कि क्या बच्चे को दूध पिलाने से उस की सेहत ठीक हो जायेगी !! हमें खुद ही नहीं पता कि दूध में आखिर कौन-कौन सी मिलावट है तो हम क्या जवाब दें ----इसलिये केवल इतना ज़रूर कह देता हूं कि दूध की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दें ---मात्रा पर नहीं।

पावडर से बने हुये दूध के बारे में आप भी सोचिये कि क्या उस को बनाने के लिये भी श्रेष्ठ दूध का ही इस्तेमाल हुआ होगा-----वैसे आप इस समय यही सोच रहे हैं ना कि अब तू बस कर, हमारी खटिया-चाय का समय हो रहा है , पहले ही से तूने इतना लिख दिया है कि हो न हो आज तो उस का स्वाद कड़वा ही लगेगा और उस कड़वाहट को झेलने के बाद तो हमें अपने दूध-वाले को शक की निगाहों से देखने पर मजबूर होना ही पड़ेगा।

बस, कुछ भी खायें, कुछ भी पियें, लेकिन अपना ध्यान रखियेगा। पिछले बड़े अरसे से ये सारी बातें, अपने विचार आप सब के साथ साझे करने के लिये व्याकुल हो रहा था, आज सुबह जल्दी जाग आ गई ( क्योंकि ठंडी लगने से ,छींकों से परेशान हूं !!) तो सोचा यही काम कर लेता हूं -----इतना लिखने के बाद हल्कापन सा महसूस हो रहा है---जुकाम में भी राहत लगने लगी है। सोचता हूं अब दो-एक घंटे के लिये सो ही जाता हूं, उस के बाद टहलने का समय हो जायेगा।

अच्छा तो दोस्तो, सुप्रभात !!....a very good morning to all of you !!
PS....मैंने यह पोस्ट लिखी तो कल 19नवंबर की सुबह सुबह लिखी थी ...लेकिन पोस्ट नहीं कर पाया ---कल से ब्राड-बैंड में कुछ तकनीकी खराबी थी ।

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

कब्ज़ के इलाज के लिये क्यों न लें जुलाब !!


कब्ज़ का इलाज जानने से पहले यह समझना आवश्यक है कि कब्ज़ है क्या। यदि मल बहुत सख्त आए तो उसे कब्ज़ समझना चाहिए। यदि मल रोज न आए, परन्तु जब आए तो बहुत सख्त न हो तो उसे कब्ज़ नहीं कहेंगे। सख्त स्टूल यदि रोज आए तो फिर भी कब्ज़ समझकर उसका इलाज करना चाहिए।

सख्त मल को बाहर करने के लिये जोर लगाना पड़ता है, और उससे कई प्रकार की हानि हो सकती है। मल को नर्म करने के लिये आवश्यक है कि उस में पानी अधिक हो। मल में पानी अधिक तभी बचेगा यदि पानी का चूस लेने के लिये कुछ तत्व मल में हों। ऐसे तत्व भोजन के अपाच्य तत्व हैं, जो साबुत अनाज तथा दालों, और फल व सब्जियों में पाए जाते हैं। अपाच्य का अर्थ है कि वे छोटी आंत में पचते नहीं, और बिना हज़म हुए बिना बड़ी आंत में पहुंच जाते हैं। पानी चूस लेने के कारण वे बड़ी आंत में मल का आयतन बढ़ा देते हैं, और उसे नर्म कर देते हैं।

इसलिए यदि कब्ज़ हो तो
- हमें साबुत अनाज का प्रयोग करना चाहिए। यदि ऐसा न हो सके तो कम से कम छिलका हटाना चाहिए। अर्थात् हमारा आटा मोटा होना चाहिए, और उसे जाली में छानकर चोकर को फैंकना नहीं चाहिए। मैदे का प्रयोग कम से कम करना चाहिए।

-साबुत दालों का प्रयोग करना चाहिए। धुली हुई दालों में छिलका निकल जाने के कारण अपाच्य तत्व कम होते हैं।
हरी सब्जियों और फलों का अधिक प्रयोग करना चाहिए।

-जल अधिक पीना चाहिए ताकि अपाच्य तत्व काफी जल चूस सकें।

यदि फिर भी कब्ज ठीक न हो तो दिन में एक बार, एक या दो चम्मच ईसबगोल की भूसी को दूध या पानी में भिगो कर लेना चाहिए। ईसबगोल की भूसी एक बीज का ही छिलका है जिसमें पानी चूसने वाले अपाच्य तत्व बहुत मात्रा में होते हैं। इसलिए यह उतना ही प्राकृतिक तरीका है जितना साबुत दालें या फल व सब्जियां लेना है। इसे जुलाब नहीं समझना चाहिए। आहार में परिवर्तन के साथ साथ यदि थोड़ा व्यायाम भी कर लिया जाए तो कब्ज़ को लाभ होता है।

यह तो हुई करने वाली बातें। एक महत्वपूर्ण बात जो नहीं करनी चाहिए, वह यह है कि कब्ज़ के इलाज के लिए जुलाब नहीं लेने चाहिए।इसका कारण यह है कि जुलाब हमारी बड़ी आंत को इतना खाली कर देते हैं कि उसे भरने के लिए 2-3 दिन की आवश्यकता होती है। यदि कोई इतना समय धैर्य से प्रतीक्षा नहीं कर सकेगा तो वह फिर से जुलाब ले लेगा। जुलाब लेने से आंत फिर से खाली हो जाएगी, और इस प्रकार जुलाब लेने का सिलसिला चलता ही रहेगा।
तो आइए, बाईं तरफ  दी गई चार तस्वीरों को देखते हैं और इस जुलाब न लेने के फंडे को समझने की कोशिश करते हैं। जब हम शौचालय जाते हैं तो बड़ी आंत का केवल थोड़ा सा ही भाग खाली होता है (1) खाली भाग को भरने के लिए प्रायः एक-दो दिन लग जाते हैं।
जुलाब से बड़ी आंत बहुत अधिक खाली हो जाती है (2)
फलस्वरूप अगले दिन (3) या उस से भी अगले दिन (4) बड़ी आंत इतनी भरी नहीं होती कि शौचालय जाने की इच्छा हो। ऐसी अवस्था में आवश्यकता है धैर्य की। यदि एक दिन और ठहर जायेंगे तो अपने आप ही बड़ी आंत इतनी भर जाएगी कि शौचालय जाने की इच्छा होगी।

रविवार, 23 मार्च 2008

दूध-दही की नदियां............लेकिन कहां हैं ये ?


जैसे ही गर्मी थोड़ी बढ़ने लगेगी हमारे दूध वाले (जिस घर से जाकर हम ताज़ा दूध लाते हैं)...कहने लग जाते हैं कि पशुओं ने दूध सुखा दिया है, इसलिये अब कुछ महीनों तक आधा किलो या एक किलो दूध कम ही मिलेगा। यह आज की बात नहीं है, बचपन से ही देख रहा हूं। चलिये, सब से पहले अपने दूध लाने वाले दिनों की ही यादें थोड़ी ताज़ी कर लें।

सब से पहले तो हम लोगों को कभी भी उन दूध वालों के दूध पर कभी भरोसा हुया ही नहीं कि जो घर-घर साईकिल पर या मोटर-साईकिल पर दूध पहुंचाने जाते हैं। हो सकता है कि आप के विचार इस के बारे में बिलकुल अलग हों ,लेकिन मेरे विचार तो भई इस मामले में बहुत रिजीड़ से हैं .....शायद बचपन से ही किसी ने किसी परिवार के सदस्य को ही इस दूध को ढोते देख-देख कर ऐसी धारणा बन चुकी है। और बचपन के दिन याद हैं कि छठी-सातवीं कक्षा में जैसे ही साईकिल चलाना आया, तो दूध लाने के बहाने साईकिल पर घूम कर आने में बहुत मज़ा आता था। लेकिन छोटी छोटी अंगुलियां कभी कभी दूध के उस एल्यूमीनियम के या पीतल के भारी से ढोल को उठा कर थोड़ा थोड़ा दर्द भी करना शुरू कर देती थीं, लेकिन तब इस तरह की छोटी-मोटी बातों की भला किसे परवाह थी। खैर, बहुत मौके आये कि काफी लोगों ने जब ऑफर किया कि डाक्टर साहब, दूध आप के यहां घर ही पहुंच दिया करेंगे ना......लेकिन कभी भी मन माना नहीं ................हर बार यही लगा कि यार, इसे क्या इंटरैस्ट हो सकता है कि यह शत-प्रतिशत खालिस दूध ही मेरे यहां पहुंचायेगा। जब लोग आप की आंखों के सामने सब तरह की हेराफेरी कर रहे हैं तो ऐसे में इतनी ज़्यादा ईमानदारी की उपेक्षा करना भी कहां मुनासिब है।

खैर, जहां जहां से भी दूध लिया...........इतने विविध अनुभव रहे कि इस पर एक अच्छा खासा छोटा मोटा नावल लिख सकता हूं लेकिन अब किस किस बात पर ग्रंथ रचूं.........ब्रीफ़ में ही थोड़ा सा बतला रहा हूं कि कभी यह कहा जाता कि आज तो आप दूध दोहने के टाइम से पहले ही आ गये ...इसलिये जानबूझ कर आधा घंटा खड़ा रखा जाता....और अगले दिन जब लेट पहुंचा जाता तो पहले से ही निकला दूध यह कह कर थमा दिया जाता कि आज तो आप लेट हो गये, हमारे बछड़े को भूख लगी थी इसलिये हमें पहले ही निकालना पड़ा। अब पता नहीं असलियत क्या थी....बछड़े की भूख या कुछ और !!.....और भी बहुत सी बातें तो याद आ रही हैं लेकिन उन के चक्कर में पड़ गया तो केंद्र बिंदु से ही कहीं न हट जाऊं।

खैर, एक तरफ तो यह बात है कि गर्मी आते ही दूध की कमी की दुहाई दी जाने लगती है, लेकिन कईं वर्षों से मेरे मन में कुछ विचार रोज़ाना कईं कईं बार दस्तक देने के बाद ...हार कर, थक टूट कर लौट जाते हैं.................ऐसे ही कुछ विचारों से आप का तारूफ़ करवाना चाह रहा हूं.......

- बाज़ारों में इतना दूध हर समय कैसे बिकता रहता है ?
- इतनी शादियों, पार्टियों में इतना दूध लगता है , यह कहां से आता है?
- इतना ज़्यादा पनीर बाज़ार में बिकता है, इतनी बर्फी बिकती है, इतना मावा बिकता है, इतनी दही बिकती है ..........सोच कर सिर दुःखता है कि यह सब कहां से आता है?
- कुछ शहरों में जगह जगह सिक्का डालने पर मशीन से दूध बाहर आ जाने का भी प्रावधान है, यह दूध कैसा दूध हैर ?
- बम्बई में जहां हम रहते थे ....बम्बई सैंट्रल एरिया .....में, तो पास ही में एक बहुत बड़ी दूध की दुकान थी जिस में एक दूध का टैंकर बहुत बड़ी पाइप से दुकान के अंदर रखी एक बहुत बड़ी स्टील की टैंकी को भरने रोज़ाना आता था. यह क्या है ?...........क्या यह शुद्ध दूध है ?
- मिलावटी दूध की मीडिया में इतनी बात होती है लेकिन फिर भी डेयरी विशेषज्ञ लोगों को केवल इतना ही क्यों नहीं बता देते कि देखो, इस सिम्पल टैस्ट से आप यह पता लगा सकते हैं कि आप के यहां आने वाला दूध असली है या मिलावटी है......इस में कितना पानी मिला हुया है........ओहो, मैं भी पता नहीं किस सतयुग की बातें उधेड़ने लग जाता हूं.....अब कहां यह मुद्दा रहा है कि दूध में पानी कितना मिला हुया है और न ही अब यह मुद्दा ही रहा है कि जिस पानी से मिलावट की गई है ....वह स्वच्छ है भी या नहीं ......यह सब गुज़रे ज़माने की घिसी-पिसी बातें हैं.....अब तो बस यही फिक्र सताती है कि इस में यूरिया तो नहीं है, साबुन तो नहीं है.................लेकिन यह चिंता भी कभी कभी ही सताती है क्योंकि ज़्यादा समय तो हमें वो सास-बहू वाले सीरियल्स की , पाकिस्तान के नये प्रधानमंत्री के नामांकन की, या किसी विवाहित फिल्मी हीरो के अपनी को छोड़ कर किसी दूसरी अनमैरिड के साथ इश्क लड़ाने की चिंता सताती रहती है...............हमारा अजैंडा भी तो अच्छा खासा बदल गया है।

- ये जो बाज़ार में तरह तरह के पैकेटों में भी दूध बिकता है उस की भी शुद्धता की आखिर क्या गारंटी है ?....उन की मिलावट के बारे में भी आये दिन सुनते ही रहते हैं ।
- मैंने स्वयं अपनी आंखों से कुछ अरसा पहले देखा कि एक सवारी गाड़ी में सुबह के समय कुछ लड़के लोग अपनी अपनी दूध की कैनीयों में बाथरूम से पानी निकाल निकाल कर उस में उंडेल रहे थे। ये वही लोग हैं जिन के बारे में हम जैसे शहरी लोग यही सोच कर खुशफहमी पालते रहते हैं कि यार, हमारा दूध तो गांव से आता है। लेकिन मेरी उन नौजवानों को रोकने की हिम्मत थी नहीं.......और न ही कभी मैं यह हिमाकत करूंगा..............क्योंकि मैं भी खबरों में पढ़ता रहता हूं कि आज कल चलती गाड़ी में से किसी को फैंकने की वारदातें हो रही हैं।

आज तो इस पोस्ट के माध्यम से मैंने एक अच्छे मास्टर की तरह आप के मन में तरह तरह के प्रश्न डालने का काम किया है क्योंकि मैं समझता हूं कि एक अच्छा मास्टर अपने शागिर्दों के मन में विषय के प्रति उत्सुकता जगाने का काम ज़्यादा करता है.....सो, मैंने भी एक तुच्छ सा प्रयास किया है ।

यानि कि सब गोलमाल है भई सब गोलमाल है.................ईमानदारी से बतला दूं तो मुझे तो इस चक्रव्यूह से निकलने का कोई समाधान दिख नहीं रहा ।इसीलिये आप के सामने यह मुद्दा रख रहा हूं। कुछ दिन पहले मैं एक आर्थोपैडिक सर्जन का इंटरव्यू कर रहा था...जब दूध के कैल्शियम के सर्वोत्तम स्रोत होने की बात चली तो मैंने यह कहा कि बाज़ारों में तो इतना मिलावटी, सिंथैटिक किस्म का दूध बिक रहा है तो ऐसे में आम बंदे को आप का क्या संदेश है...................उस ने तपाक से उत्तर दिया कि मेरी तो लोगों को यही सलाह है कि दूध अच्छी क्वालिटी का ही खरीदा करें,...चाहे उस के लिये उन्हें कुछ ज़्यादा ही खर्च करना पड़े।

मैं उस का यह जवाब सोच कर यही मंगल-कामना करने लगा कि काश ! यह सब कुछ इतना आसान भी होता !!

वैसे जाते जाते एक विचार तो यह भी आ रहा है कि शहरों में अब गायें दिखती ही कहां हैं................नहीं ,नहीं , दिखती तो हैं ....जो तिरस्कृत कर दी जाती हैं और वे जगह जगह पर पालीथिनों के अंबारों पर तब तक मुंह मारती रहती हैं जब तक उन की जान ही नहीं निकल जाती या फिर बंबई के फुटपाथों पर भी अकसर एक गाय दिख जाती है जिस के पास बैठी औरत का पेट यह गाय पालती है......वह राहगीरों को एक-दो रूपये में चारे की एक दो शाखायें देती हैं जिसे वह उसी की गाय को खिला कर अपने पापों की गठड़ी को थोड़ा हल्का करने की खुश-फहमी पालते हुये आगे दलाल-स्ट्रीट की तरफ़......नहीं तो कमाठीपुरे जाने वाली पतली गली पकड़ लेता है।

और रही देश में दूध दही की नदियां बहने वाली बातें, वे तो शायद मनोज कुमार की किसी पुरानी फिल्म में दिखे तो दिखे........................वैसे, छोड़ो आप भी किन चक्करों में पड़ना चाह रहे हो, यह गीत सुनो और इत्मीनान से इंतज़ार करो अपने दूधवाले का , वह भी आता ही होगा !!


5 comments:

Gyandutt Pandey said...
दूध के बारे में जमाने से मेरा विचार था कि स्किम्ड मिल्क का पाउडर ले कर दूध बनाया जाये - वसा तो जरूरी है नहीं। अथवा सोयाबीन का दूध घर में बनाया जाये। पर हम किचन के प्रबन्धक हैँ नहीं। सो हमारी चल नहीं पाई!
आपने वाजिब चिंता व्यक्त की है।
राज भाटिय़ा said...
चोपडा जी एक राय आप भी एक बकरी खरीद लो ,फ़िर जब चाहो तभी ताजा दुध, याकिन ना आये तो मुंशी प्रेमचन्द जी की कहानी* कोई दुख न हो तो बकरी खरीद लो *पढे सच दुध बिना मिलावट के ओर ताजा मिलेगा.
SUNIL DOGRA जालि‍म said...
दूध तो बच्चे पीते हैं..
Neeraj Rohilla said...
हम तो कक्षा ५ तक यही समझते थे कि हिन्दुस्तान में दूध दही की नदियाँ बहती हैं और दूध बेचने वाले वहीं से डिब्बे भर कर लाते हैं । जब माताजी ने इस मिथक को तोडा था तब असलियत पता चली थी ।
mamta said...
प्रवीन जी पर इस समस्या का हल क्या है क्यूंकि हर कोई अपने घर मे गाय-बकरी तो नही पाल सकता है ना।