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गुरुवार, 5 जून 2008

जब भी मुझे यह कमीशन का चांटा लगता है...

यह लेख नहीं है ....मेरी पर्सनल डायरी का 25 अगस्त 2006 को लिखा गया एक पन्ना है...जिसे मैं बिल्कुल बदले बिना यहां डाल रहा हूं.....आशा है आप स्वीकार करेंगे !!

यह जो अखबार वाले अपने लेखकों को उनके लेखों एवं फीचरों के लिये मानदेय भेजते हैं, मुझे यह सब बहुत हास्यास्पद सा लगता है। लेखकों की तकदीर पर बस करूणा आती है। अब मैं अपना ही किस्सा ब्यां करता हूं....मैंने शायद जनवरी 2006 में एक अखबार में मसूड़ों से खून आने के संबंध में एक लेख लिख भेजा था। लगभग पांच-छः महीने बाद उन्होंने मुझे 200 रूपये का एक चैक भेज दिया था( आउट-स्टेशन चैक)...पानीपत से जारी किया हुया।
मेरे पास भी वह चैक एक-डेढ़ महीने तक तो ज्यों का त्यों पड़ा रहा। फिर मैंने कुछ दिन पहले –लगभग 10-15 दिन पहले- अपने जगाधरी के खाते में जमा करवा दिया।

आज जब मैं पास-बुक में एन्ट्री करवाने के लिये गया तो बाबू कह रहा था कि आप का चैक भी पास हो गया है। मैंने कहा...ठीक है। जब मैंने पास-बुक में प्रविष्टियां देखीं तो 60रूपये( साठ रूपये) उन 200रूपयों में से कटे हुये थे। मैंने बाबू से पूछा कि यह 60 रूपये का तमाचा किस लिये ? ….तो वह कहने लगा कि 25 रूपये तो डाक-खर्च और बाकी बैंक की कमीशन !! मैं उस से पूछना चाह रहा था कि देख लो, भाई, कोई और भी कटौती रह गई हो तो हसरत पूरी कर डालो।
गुस्सा तो मुझे बहुत आया और बहुत अजीब सा भी लगा ...क्या,यार, लेखकों की यह हालत !! इन कमीशनों के चक्कर में उन के फाके करवाओगे क्या ? उन से ही काहे की ये....... ............( खेद है, ये शब्द मैं यहां लिखने में असमर्थ हूं क्योंकि उन्हें सैंसर करना पड़ रहा है....कभी मौका मिलेगा तो व्यक्तिगत रूप में इस शब्द का रहस्य उजागर कर दिया जायेगा) .....भई , किसी बंदे को आपने 200 रूपये भेजे हैं तो उस के हाथ में लगे केवल 140 रूपये।

अखबार वाले इस राशि का ड्राफ्ट नहीं भेज रहे क्योंकि शायद उन्हे यह झँझट लग रहा होगा, और शायद इसलिये भी नहीं कि ड्राफ्ट बनाने में पैसे लगते हैं...लेकिन आप एक काम तो कर ही सकते हैं कि उसे मनीआर्डर तो करवा ही सकते हैं । और मनीआर्डर का खर्चा आप उस की राशि से घटा लें, जैसे कि अगर आपने किसी मेरे जैसे स्ट्रगलर लेखक को 200 रूपये भेजने हैं , जिस के मनीआर्डर पर दस रूपये लगने हैं तो आप उसे 190 रूपये मनीआर्डर करवा कर छुट्टी करें, और क्या और ये पैसे उसे अगले दो-तीन दिन में पहुंच भी जायेंगे !! आउटस्टेशन चैक के भुगतान के लिये इतने दिन भी तो लग जाते हैं।

कोई पता नहीं किसी लेखक के द्वारा उस राशि की कितनी शिद्दत से इंतज़ार हो रही होगी !!.......लेकिन बात कहीं ना कहीं संवेदना की है....मानवीय मूल्यों की है...अब अखबार वालों को यह सब कौन समझाए ? कौन डाले बिल्ली के गले में घंटी !!.......इसलिये सब कुछ जस का तस चलता आ रहा है......खूब चल रहा है और माशा-अल्ला आने वाले समय में भी बखूबी चलता ही रहेगा।

मंगलवार, 3 जून 2008

वो मैला कुचैला रद्दी कागज़ !


जब मैं अखबारों के लिये लिखा करता था तो पहले किसी भी रफ कागज़ पर आईडिया लिख लिया करता था.....फिर किसी दूसरे कागज़ पर लेख लिखता था.....एक-दो बार लिखने के बाद मैं या तो उसे फेयर कर लिया करता था...अन्यथा कंप्यूटर में डाल कर तुरंत फैक्स कर दिया करता था।
लेकिन अगर मुझे कोई लेख लिखने से पहले ही फेयर कागज़ थमा दे, तो मुझे लगता है कि मैं तो कुछ भी लिख ही ना पाऊं। पता नहीं मेरे साथ ऐसा क्यों है कि मैं किसी रद्दी पेपर जैसे पेपर पर ही अपने विचारों का खाका खींच सकता हूं। यह मैं बहुत बार सोचता हूं। और इन रद्दी कागज़ों में से मेरा सब से फेवरट है.....वह कागज़ की पैकिंग जिस में हम लोगों के ग्लवज़ पैक हो कर आते हैं। मेरे हास्पीटल के रूम में ये कागज़ प्रतिदिन कितने पड़े होते हैं और इन पर मैं एक-दो मिनट की फुर्सत के दौरान अपने आइडिया लिखता रहता हूं और जेब में बस इन्हे ठूंसता रहता हूं। उस के बाद पता नहीं कब किस कागज़ के भाग्य खुलते हैं..............जी, आप बिलकुल ठीक सोच रहे हैं कि तू अगर इतने रद्दी कागज़ इक्ट्ठे करता है तो फिर तेरा स्टडी-रूम कबाड़खाना तो लगना ही है। कईं बार मुझे कोई रद्दी कागज़ नज़र नहीं आता तो मैं अखबार के साथ आये हुये तरह तरह के हैंड-बिल्ज़ की पिछली तरफ़ भी अपनी कलम से खेल लेता हूं। और कईं बार किसी इस्तेमाल किये हुये एनवेल्प के इधर-उधर लिख कर मन को ठंड़ा कर लेता हूं।
मुझे ऐसा लगता है कि मैं इन रद्दी कागज़ों के ऊपर जब कलम चलाता हूं ना तो मुझे पूरी आज़ादी का अहसास होता है.....मैं शत-प्रतिशत पूरी स्वच्छंदता का अनुभव करता हूं.....मुझे लगता है कि जो भी मैं लिखूंगा, बस अपनी मरजी से लिखूंगा......यह मेरा एरिया है.....इस में कोई नहीं घुस सकता ......इस में मुझे किसी की टोका-टोकी पसंद नहीं है.....मुझे लगता है कि मैं अपने इलावा केवल इस रद्दी कागज़ के ही ऊपर ही तो अपना दिल खोल सकता हूं.....मुझे शायद यह भी तो लगता है किसी साफ़-सुथरे, फेयर कागज़ की तुलना में यह रद्दी कागज़ मेरे जैसा कमज़ोर भी है.....मैं शायद सोचता हूं कि इस मैले-कुचैले कागज़ में भी ढेरों कमज़ोरियां हैं , इसलिये यह मुझे क्या कहेगा!......मैं सोचता हूं कि यह मेरा सच्चा साथी है , मेरा हमराज़ है, मेरे दुःख-सुख का साझीदार है, इसलिये इस के ऊपर जब मैं अपनी कलम से अपने विचारों का कोई खाका खींच रहा होता हूं तो यह विचार मन में आते हैं कि यार, मैं भला इस बेकार से दिखने वाले ( दो-कौड़ी के भी नहीं!!) कागज़ को भी बेइमानी से लिख कर शर्मिंदा क्यों करूं। मुझे यह अहसास है कि इस के साथ किसी तरह की चालाकी करना अपनी मां के साथ फरेब करने के बराबर है। इन सब बातों की वजह से मैं इस मैले-कुचैले कागज़ों को अपना सब से बड़ा हमराज़ मानता हूं। लेकिन मेरी खुदगर्ज़ी की इन्तहा भी तो ज़रा देखिये.......इन का और मेरा साथ केवल लैप-टाप में लिखने तक का ही होता है।
इन कईं तरह के रफ कागज़ों को अपने सामने रख के मैं अपने लैप-टाप पर बैठ जाता हूं और जो भी ये रद्दे कागज़ मुझ से लिखवाते हैं मैं लिखता जाता हूं। लिखने के बाद या तो यहीं से लेख को पब्लिश कर देता हूं , नहीं तो पैन-ड्राइव में लेकर दूसरे किसी डैस्क-टाप से पब्लिश कर देता हूं।
सीधी सी बात करूं तो मुझे इन रद्दी कागज़ों पर कुछ भी लिखना दुनिया में किसी भी चीज़ की परवाह किये बिना अपने बचपन में मिट्टी के साथ खेलने के दिनों की याद दिलाता है.......शायद यही तो अब अपने बचपन के दिन जी लेने का एक बहाना है.....मुझे अकसर याद आते हैं वो दिन जब हम लोग गीली-रेत में खूब भागा-दौड़ा करते थे, अपना पांव उस में धंसा कर बड़े बड़े घर उस रेत में बना डालते थे ....अगले ही पल उसे गिरा कर नया घर बना डालते थे......और फिर आपस में एक दूसरे से पूछते थे कि देख, मैंने कितना बड़ा बना लिया...................जी हां, जैसे अब टिप्पणीयों की संख्या और आज कितनी बार पढ़े गये के आंकड़े ये सब बातें हमारे लेखन के बारे में बताते रहते हैं।
लेकिन मेरे दुःख-सुख में इतना साथ निभाने के बाद, मेरा मन निर्मल करने वाले , मुझे सुकून देने वाले उस रद्दी कागज़ का क्या हश्र होता है.....जानना चाहेंगे ??............लेख छपते ही पहली फुर्सत में उसे नोच कर रद्दी की टोकड़ी के हवाले कर दिया जाता है....जी हां, बिल्कुल उसी तरह जैसे अपना मतलब निकल जाने के बाद हम उसी बंदे से आंखें चुराने में ज़रा भी नहीं हिचकाते। वाह.....भई ....वाह.......हम इंसानों की भी क्या फितरत है......अपना उल्लू सीधा करने के बाद अगर हम एक छोटे से रद्दी के कागज़ को नहीं झेल सकते तो आदमी की क्या बिसात कि हमारे सामने हमारा उल्लू सीधा होने के बाद टिक भी पाए !!
इस रद्दी कागज़ से एक और बात याद आ रही है....जब चुनाव के दिनों में कपड़े के बैनर जगह-जगह लगे देखता हूं और अगले दिन किसी नुक्कड़ पर बैठे भिखारी को उस से अपना तन ढांप कर लंबी ताने देखता हूं तो मन ही मन एक विजय का , एक संतोष का, एक सुकून का अहसास करता हूं.......इतना संतोष कि मैं ब्यां नहीं कर पा रहा हूं.......क्योंकि बिना वजह अभी से ही भावुक हो रहा हूं.......वैसे भी अभी तो चुनाव होने में कईं महीने पड़े हैं !!

मंगलवार, 8 अप्रैल 2008

अगर सुबह सुबह कुछ इस तरह का सुन लिया जाये............दिन की शुरूआत अच्छी होती है !

अच्छा तो , ब्लॉगर बंधुओ, अपने चिंतन को दो-तीन मिनट विश्राम देकर इन बेहद खूबसूरत पंक्तियों को सुनिये और लौट जाइये तीस साल पहले दिनों की तरफ.....जब छःदिन पहले यह पता चलने पर कि अगले रविवार को टीवी पर गुड्डी फिल्म आ रही है .....यह सब जानना कितना थ्रीलिंग लगता था........लेकिन आज जब ये सब कुछ हम से अदद एक क्लिक की दूरी पर ही है, लेकिन अफसोस अब हम लोगों के पास अपने ही झमेलों से फुर्सत ही नहीं है।

मंगलवार, 1 अप्रैल 2008

इतने सारे मैसेज एक साथ !

यह गीत चंद ही मिनटों में हम सब को इतने सारे मैसेज दे रहा है कि मेरी कमैंट्री की तो ज़रूरत ही नहीं है , बस आप इस पर क्लिक कर के इस के जश्न में खो जाइए। पांच मिनट के लिये अपनी बलोगरी को थोड़ा रोक दें.....यकीन मानियेगा, रीडरशिप में खास फर्क नहीं पड़ेगा।

गुरुवार, 20 मार्च 2008

मेरी लेखन यात्रा.....


कल मैंने अपनी पोस्ट में उल्लेख किया था कि किस तरह से लेखक बनने की जब मेरे ऊपर धुन सवार हुई और किस तरह से मैंने इस के लिये दो दूरस्थ पाठ्यक्रमों में पूरे पैसे भेजे, किताबें भी आ गईं लेकिन कुछ कारणों के कारण( जिन का जिक्र कल मैंने किया था..) उन्हें कभी देखने की भी इच्छा नहीं हुई। मेरी श्रीमति जी अकसर मेरे से कभी कभार पूछ भी लेतीं कि हां, उस कोर्स का क्या बना जिस में तीस हज़ार रूपये भेजे थे......लेकिन मैं भी कहां कम था....बिलकुल एक स्कूली बच्चे की तरह हर बार टाल जाता....हां, हां, करना है, क्या करूं सारी दिक्कत टाइम की हो रही है। खैर, इतने सारी रकम एक टुच्चे से कोर्स के लिये भेज देने के लिये मैं अपने हाथ ज़ोर से अपने माथे पर मारने में मशगूल ही था कि एक हल्की सी आशा की किरण दिखी....यह वर्ष 2002 की बात है।
केंद्रीय हिंदी निदेशालय के बारे में तो आप में से काफी लोग जानते ही होंगे...यह संस्था तरह तरह के कार्यक्रम हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिये चलाती रहती है। उन में से एक यह भी है कि यह नवलेखकों के लिये भी नवलेखक शिविर लगा कर उन्हें उत्साहित करती है। ऐसा ही एक विज्ञापन एक बार मेरी नज़र में पड़ गया....इस में उन्होंने अहिंदी भाषी नवलेखकों से उन की एक रचना मांगी थी.......मैंने भी अपने आप को कहा कि यार, तू इतने वर्षों से कुछ न कुछ लिख रहा है, अनगिनत सरकारी निबंध लेखन प्रतियोगिताओं में बार-बार पुरस्कृत होता रहता है ...इसलिये इस नवलेखक शिविर वाली ओखली में भी सिर घुसा ही दे। अपने आप को समझाने की कोशिश की कि देख, उन्होंने नव-लेखक ही मांगा है ....तू भी लिख कुछ भी ऐसे ही .....उस को भेज दे इस निदेशालय को और करवा ले अपने नाम को नव-लेखकों की सूची में दाखिल।
मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं कईं दिन सोचता रहा कि यार, अब मैं क्या लिखूं.....ठीक है, मैं चिकित्सा विषयों के ऊपर लिखता रहता हूं लेकिन अब इन को क्या लिख कर भेजूं। तभी मुझे एक ऐसी शख्सियत का ध्यान आया जिस से मैं बचपन से ही बहुत प्रभावित रहा हूं............यानि अपना डाकिया। बचपन से ही डाकिये के बारे में मेरे मन में बहुत विचार आते थे.....एक दिन मैंने इन सब विचारों को एक लेख में पिरो कर तैयार कर दिया एक लेख ......डाकिया डाक लाया। मुझे अपने आप को यह लेख बहुत पसंद आया ( किस लिखने वाले को यह खुशफ़हमी नहीं होती..!)…और मैंने इसे केंद्रीय हिंदी निदेशालय को भेज दिया।
मुझे याद है कि इस लेख को लिखने के लिये मुझे अच्छी खासी मेहनत करनी पड़ी थी...पहले शायद एक-दो बार रफ लिखा। उस की एक प्रति मैंने अब भी संभाल कर रखी हुई है...........जब भी उसे पढ़ता हूं तो अच्छा लगता है....चलो, ठीक है कल होली के उपलक्ष्य में अपने इस पहले लेख....डाकिया डाक लाया......को अपनी पोस्ट के माध्यम से प्रस्तुत करूंगा। मुझे याद है कि यह लिखने के बाद मैं अपने आप में बहुत हल्कापन महसूस कर रहा था।
और हां, मैं यहां पर यह भी बताना चाहूंगा कि वर्ष 2001 में मैंने इंगलिश टाइपिंग भी सीखी...क्योंकि अपनी चिट्ठीयां किसी से टाइप करवा के मेरी कभी तसल्ली नहीं होती थी। या तो टाइप करने वाले को बार-बार कोमा, साइऩ ऑफ एक्सक्लैमेशन....इत्यादि के लिये खुद याद दिलायो ...नहीं तो उस के द्वारा टंकित कागज़ को देख देख कर कुढ़ते रहो। और 2002 के शुरू शुरू में कंप्यूटर पर हिंदी किस तरह से टाइप करनी है...यह भी सीख लिया, लेकिन इंस्क्रिप्ट शैली में और तब से एक सॉफ्टवेयर...आईएसएम2000....की मदद से हिंदी में टाइप करना शुरू कर दिया।
अच्छा तो मैंने उस डाकिया डाक लाया वाले लेख के बारे में आप को बता दिया है कि मैंने उसे केंद्रीय हिंदी निदेशालय को भेज दिया। और लगभग एक-डेढ़ महीने के पश्चात् मुझे चिट्ठी आई कि मेरी रचना का चयन कर लिया गया है और मुझे उन्होंने नव-लेखक शिविर में सम्मिलित होने का आमंत्रण भी दिया । यह शिविर जोरहाट( आसाम) में होना तय हुया था और यह आठ-दस दिन चलने वाला था। मुझे इस चयन की इतनी खुशी थी कि मैं वहां पहुंच गया।
उस नवलेखक शिविर में इस निदेशालय द्वारा हिंदी लेखन की विभिन्न विधाओं के मंजे हुये खिलाड़ीयों को नवलेखकों के साथ अपने अनुभव साझे करने के लिये बुलाया गया था....सो, वह अनुभव बहुत सार्थक सिद्ध हुया । यह कार्यशाला सुबह से शाम नौ दिन तक चली.........मैंने चिकित्सा क्षेत्र के बाहर आकर पहली बार यह अनुभव किया कि यह लेखन-वेखन वाली बात भी कितनी रोमांचाक है। वे हमें वहां से एक टापू ...मजौली...पर स्टडी-टूर पर भी एक दिन के लिये ले गये थे।
खैर , वहां पर जब भी कुछ लिखने को कहा जाता है, मैं भी उस में पूरी तरह से सम्मिलित होता.....लेकिन जब कभी कविता लिखने की बारी आती, मेरी सारी पोल खुल जाती। मुझ से कभी कविता की एक लाइन भी नहीं लिखी गई। मुझे यह दुनिया का सब से मुश्किल काम लगता है...और मैं उन सब कवियों को बहुत हैरानी से सुनता रहता, देखता रहता….और देख कर हैरान होता रहता कि यार, किसी का मन इतनी लंबी उड़ान भी भर सकता है ! खैर, जब वहां पर मैंने एक कहानी लिखी तो इस की बहुत प्रशंसा हुई ...और मुझे कहा गया कि आप सरिता के स्तर की कहानी तो लिख ही सकते हो।
और हां, उन दस दिनों में यह भी तो सीखा कि लेखन है क्या.....किस तरह से इस झिझक को दूर किया जाये। सब से अहम् बात जो मैंने वहां से सीखी कि लेखन का मतलब है बस लिखते जायो...........कुछ भी लिखो.....किसी भी विधा में ...जिस में भी आप अपने आप को सहज सा अनुभव करते हो..........लिखो..........और जब लिख रहो हो तो बिल्कुल एक अबोध बालक की तरह बेपरवाह हो कर लिखो.......जैसे वह पतंग के पेचे लगाते हुये सारी दुनिया भूला होता है, बस उस तन्मयता से लिखो...............और लिखते समय किसी बात की फिक्र न करो.............बस, अपनी कलम को कागज़ पर खुला छोड़ दो..............बाकी सब कुछ अपने आप हो जायेगा। ये विचार-वार तो अपने आप आयेंगे..............लेकिन आप तो बस पहला कदम उठायो और कलम लेकर बैठ जायो ..........एकांत में। और हां, उस शिविर में यह भी जाना कि किस तरह से हमारे आस-पास सैंकडों लेख बिखरे हुये हमारी कलम की इंतजार में हैं। बस, यही समझा कि अपने विचारों को बेलगाम छोड़ कर कागज पर लिख देना ही लेखन है। वहां पर एक विद्वान आये थे...तिवारी जी....उन्होंने बताया कि देखो, यह साहित्य रचना कोई दुर्गम काम तो है नहीं.....आप लोग अपने आस पास जो भी देखते हो, बस शुरूआत इसी बात से करो कि उन सब बातों को कागज़ पर उतारते जायो। उन्होंने यह भी कहा कि आप लोग कम से कम एक पन्ना रोज़ाना लिखा करें.........साल में लिखे उन 365 पन्नों में से चालीस-पचास पन्ने तो ऐसे होंगे ही जो प्रकाशित किये जा सकते हों। उन्होंने बतलाया कि उन के नाना जी सन् 1901( जी हां, सौ साल पहले...)....में एक कापी पर रोज़ाना सारे दिन का बस हिसाब-किताब ही लिख लेते थे कि घी इतने रूपये में इतने सेर आया, गुड़ इस रेट में मिला.........उन्होंने बताया कि अब वह वाली कॉपी भी किसी साहित्यिक कृत्ति से क्या कम है !!
उस लेखक-शिविर में हमें यह भी बताया गया कि हमें हिंदी भाषा में अपना ज्ञान बढ़ाने के लिये कौन कौन से शब्द-कोष पढ़ने चाहिये.........कॉमिल बुरके का महान नाम भी इसी शिविर में ही पहली बार सुना, वहीं से अरविंद कुमार एवं कुसुम कुमार द्वारा रचित हिंदी समांतर कोष के बारे में सुना और वापिस आ कर तीन-चार शब्द-कोष और समांतर कोष खरीदे।
लेखन के तालाब में छलांग लगाने की इच्छा और भी दृढ़ हो गई। और लेखक शिविर से वापिस लौटते ही खूब लिखना शुरू किया....समाचार-पत्रों के लिये खूब लिखा....सामाजिक विषयों पर लिखा, व्यंग्य-बाण छोड़े और हां, चिकित्सा से संबंधित मुद्दों पर तो लिखा ही। बस, ऐसे ही हौंसला बढ़ता चला गया।
शायद एक-दो साल बाद एक अन्य नवलेखक शिविर में बुला लिया गया...यह शिविर डीएवी कॉलेज अमृतसर में होना तय हुया था......चूंकि यह मेरा पुराना कॉलेज भी था, इसलिये वहां भी मैंने इस शिविर में पूरा भाग लिया। यह शिविर भी केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा ही आयोजित किया गया था। वहां जा कर भी बहुत अच्छा लगा....बहुत कुछ सीखा...चोटी के हिंदी लेखक एवं अनुवादक आये हुये थे....वहां पर मैंने एक लेख लिया....एंटीबॉयोटिक दवाईया...कहीं आप की सेहत न बिगाड़ दें !!........इस लेख की बहुत सराहना हुई ....जब इतने इतने महान लेखकों ने इसे सराहा तो मुझे लगा कि मेरे लेखन में कुछ तो बात होगी .......अब इतने सारे लोग तो गल्त नहीं ना कह रहे होंगे। खास कर मेरी सहज, साधारण, आसानी से समझ में आ जाने वाली शैली की बहुत प्रशंसा हुई। सो, एक बार फिर हौंसला बुलंद हो गया। ( और हां, वह वाला लेख भी एक-दो दिन बाद पोस्ट में डालूंगा)....।
इन्हीं वर्षों में ही एनसीईआरटी के लिये उन के निमंत्रण पर हिंदी में एक किताब की मैन्यूस्क्रिप्ट लिख कर उन्हें सौंप दी......। बस, यह लेखन-यात्रा तो चल ही रही थी....लेकिन अब संपादकों को बार बार अपने लेख फैक्स करना और फिर फोन पर पूछना कि फैक्स ठीक ठाक पहुंच गया है ना .....यह सब पिछले कुछ अरसे से अखर रहा था....और वैसे भी कुछ संपादक कहने लगे थे कि आप फलां-फलां फांट में अपने लेख ई-मेल ही कर दिया करें.............लेकिन मुझे लगता था कि अब मैं कैसे यह लिख पायूंगा...क्योंकि मुझे तो केवल इंस्क्रिप्ट के द्वारा ही लिखना आता है।
लेकिन मेरा बेटा जो अकसर कंप्यूटर पर बैठा कुछ न कुछ पंगे लेता रहता है ....मेरी इसी हिंदी में ई-मेल न कर सकने की समस्या का तोड़ निकालने में लगा हुया था कि उसे इस हिंदी बलोगिंग के बारे में पता चला............उस ने पता नहीं कैसे रविरतलामी जी का हिंदी बलाग किसी सर्च इंजन से ढूंढ निकाला और मेरे को इस के बारे में बतलाया। दो-दिन बाद बताने लगा कि बापू, अब तुम हिंदी में भी ई-मेल भेज सकते हो ....और मुझे यह जान कर बहुत खुशी हुई कि कैफे-हिंदी नाम से कुछ नेट पर है.........ट्राई किया तो मेरी बांछे खिल गईं.......और अगले ही दिन ब्लागर पर अपनी बलाग बना कर पोस्टें डालनी शुरू कर दीं......यह सब चार-पांच महीने की ही बातें हैं..........लेकिन यह मुझे अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम प्रतीत हो रहा है।
बस, सफर अभी ज़ारी है...........मंज़िल बहुत दूर है........लेकिन बस इन्हीं पंक्तियों को अपने मन ही मन दोहराता रहता हूं और दूसरे लोगों को भी कुछ भी लिखने के लिये उकसाता रहता हूं............
इन परिंदों को भी मिलीगी मंज़िल एक दिन
ये हवा में खुले इन के पंख बोलते हैं।
अच्छा, तो साथियो, इस बेहद लंबी पोस्ट पढ़ने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद.................भगवान आप की कलम भी सलामत रखे !!!


मंगलवार, 11 मार्च 2008

अब मुश्किल नहीं कुछ भी !

मैंने तो जब से इस गाने को सुना है मुझे तो नहीं लगता कि नामुमकिन नाम का कोई शब्द शब्द-कोष में है। इस गीत का एक एक शब्द, इस के म्यूज़िक नोट्स और श्रेयस तलपड़े की बेहतरीन एक्टिंग में इतना ज़्यादा जादू है कि किसी भी गिरे हुये बंदे को उठने के लिए प्रेरित ही नहीं कर दें, बल्कि उस की बांह पकड़ कर उसे उठा ही दे। मुझे तो यह गाना बेहद पसंद है ...जब भी यह कभी टीवी वगैरा पर देखता हूं तो किसी और लोक में ही पहुंच जाता हूं। इस फिल्म की सिनेमैटोग्राफी भी इतनी है कि इस की जितनी भी तारीफ़ की जाये कम चाहे। सिम्पली सुपर्ब।
एक बार फिर से इस का आनंद लेता हूं।

शनिवार, 23 फ़रवरी 2008

क्या हम सब ऐसा कुछ नहीं कर सकते ?


आज कल अकसर घर में टीवी पर जब डांस डायरेक्टर सरोज खान का एऩडीटीवी इमेजिन पर वह कार्यक्रम आ रहा होता है जिस में वह सारे देश को डांस करना सिखा रही हैं तो बहुत अच्छा लगता है। उस में सब से बढ़िया बात जो मन को बहुत ही ज़्यादा छू जाती है वह यही है कि वह बहुत ही शिद्दत से यह डांस सिखाने का काम करती हैं। मैं नहीं समझता कि उस से बेहतर ढंग से भी कोई डांस सिखा सकता है......सोचता हूं कि ऐसा करना बहुत ही मुशिकल है, अपने सारे गुर, अपने ट्रेड-सीक्रेट्स दिल खोल कर सारी दुनिया के सामने रख देना बहुत ही हिम्मत की और दिलदारी की बात है। यह हर किसी के बस की बात नहीं है.....हम तो यूं ही संकीर्णताओं में जकड़े रहते हैं कि अगर मैंने अपना हुनर ही किसी को सीखा दिया तो मेरे पास क्या बचेगा। चिंता नहीं करे...ऐसा करने से आप का हुनर कई गुणा बढ़ेगा। वैसे भी जो भी प्रक़ृति के वरदान हमें मुफ्त में प्राप्त हो रहे हैं, अगर प्रकृति भी यह सोचने लग जाये तो फिर क्या होगा। सूरज सारे संसार का अंधेरा दूर कर रहा है, सारे झरने, नदियां हमें पानी उपलब्ध करवा कर निहाल कर रही हैं तो सैंकड़ों तरह के रंग-बिरंगे फूल हमें हर पल गुदगुदाते रहते हैं।
हां, तो बात हो रही थी ,सरोज खान की......वह तो ऐसे एक एक स्टेप सिखाती हैं ,इतने अपनेपन से कि इतनी गर्मजोशी से ,इतनी चाहत से , इतने दिल से तो मां-बाप या एक समर्पित गुरू ही सिखा सकता है। मैं सरोज खान जैसे लोगों को कोटि कोटि नमन करता हूं क्योंकि ये लोग अपना ज्ञान दिल खोल कर बांट रहे हैं।
और हां, मेरे को ध्यान आ रहा है कि अगर हम सब अपने अपने ज्ञान को दिल खोल कर बांटना शुरू कर दें तो स्वर्ग तो ज़मीन पर ही उतर आयेगा। लेकिन एक तो हम लोग अपनी ताकत पहचान नहीं पाते, दूसरा यही सोचते हैं कि हमे तो कुछ नहीं पता....हमें तो सिर्फ सीखना ही है.....यही हमारा ब्लाक है....ठीक है, हम 99 बातें सीखना चाह रहे हैं लेकिन जो एक बात हम जानते हैं उसे तो दुनिया के साथ बांटे। सोचिए, उस ज्ञान को दुनिया में कितने लोग हाथों-हाथ लेने को इतनी आतुरता से हमारी तरफ़ देख रहे हैं। और यह सब कुछ हम अपने छोटे से ढंग से शुरू कर सकते हैं। बलोग हैं, अखबारे हैं , किसी बच्चे को कुछ सिखा के, जिस विषय के आप माहिर हैं , उस के बारे में कम पैसे लेकर ( या अगर आप चाहें तो फ्री भी) टयूशन दे कर.....लिस्ट इतनी लंबी है ....पर आप तो यह सब जानते हैं , आप को क्या बताना।

शनिवार, 26 जनवरी 2008

सुप्रभात..............आज का विचार..26जनवरी,२००८.

--"जब मैं एक आवाज़ को सुनता हूं तो सोचता हूं कि उस की तुलना किस से करूं। फिर सोचता हूं कि अगर सभी पर्वतों से निकलने वाली नदियों के मधुर संगीत, आकाश पर उन्मुक्त हो कर विचर रहे सभी पंक्षियों की चहक, मधुमक्खियों के छज्जों से टपकते हुए शहद की ध्वनि और बागों में सभी रंग बिरंगी तितलियों के मनलुभावन रंगों को मिला दिया जाए और इन सब को चांदनी में गूंथा जाए तो शायद आशा भोंसले की आवाज़ बन जाए।"-----दोस्तो, ये शब्द जावेद अख्तर द्वारा आशा भोंसले के लिए २००२ में ज़ी-सिन अवार्ड्स के दौरान कहे गये थे और मैंने इन्हें अपनी डायरी में लिख लिया था....क्योंकि मैंने ऐसी जबरदस्त तुलना आज तक ही देखी है, ही सुनी है - इसीलिए आज के विचार में आप के लिए पेश कर रहा हूं
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सीखो
फूलों से नित हंसनी सीखो,
भोरों से नित गाना,
फल की लदी डालियों से नित
सीखो शीश झुकाना।

सीख हवा के झोंकों से लो
कोमल कोमल बहना
दूध तथा पानी से सीखो
मेल जोल से रहना।

सूरज की किरणों से सीखो,
जगना और जगाना,
लता और पेड़ों से सीखो,
सब को गले लगाना।

दीपक से सीखो तुम
अंधकार को हरना,
पृथ्वी से सीखो सब की ही ,
सच्ची सेवा करना।।
( दोस्तो, यह प्रेरणात्मक पंक्तियों मुझे उस कागज़ पर बहुत साल पहले दिख गईं थीं जिस में मैं एक रेहड़ी के पास खड़ा हो कर भुनी हुई शकरकंदी का मज़ा लूट रहा था.....यह किसी छोटे बच्चों की किताब का कोई पन्ना था जो मुझे हिला गया).....
दोस्तो, अभी तो कोई शक करने की गुजाइश ही नहीं रह गई कि क्यों कहते हैं कि जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि।
अच्छा , दोस्तो, गणतंत्र दिवस की ढ़ेरों बधाईआं।

शुक्रवार, 25 जनवरी 2008

सुप्रभात.............आज का विचार


जिस आदमी ने आदमी की बनाई चीज़ें देखीं वह आदमी कठोर हो जायेगा। जिसने परमात्मा की कोमल बनाई चीज़ें देखी वह आदमी भावनाओं की दृष्टि से सभ्य हो जायेगा। .....
...........
रात में क्या जाने
कोई गिनता है कि नहीं गिनता,
आसमान के तारों को यों,
कि कोई रह तो नहीं गया आने से।
प्रभात में क्या जाने कोई
सुनता है कि नहीं सुनता यों
कि रह तो नहीं गया कोई पंछी गाने से
दोपहर को कोई देखता है कि नहीं देखता
वन-भर पर दौड़ा कर आँख
कि पानी सब ने पी लिया कि नहीं।
और शाम को यह
कि जितना जिसे दिया गया था,
उतना सब ने जी लिया है कि नहीं।
I never climbed any ladder. I have achieved eminence by sheer gravitation…………………………..George Bernard Shaw
तो, दोस्तो, अगर हम सोचें तो आज का विचार हमें बहुत कुछ कह रहा है।
“Many people believe that humility is the opposite of pride, when,in fact, it is a point of equilibrium. The opposite of pride is actually a lack of self-esteem. A humble person is totally different from a person who cannot recognize and appreciate himself as part of this worlds marvels.”

गुरुवार, 24 जनवरी 2008

Good morning, Everybody…….सुप्रभात्..............आज का विचार


दोस्तो, एक अंग्रेज़ी की कहावत जिसे मैं बार-बार पढ़ता रहता हूं और हर बार जब उसे पढ़ता हूं तो अपने आत्मबल को बढ़ा हुया पाता हूं ...उसे इस सुप्रभात् के आज के विचार में आप के सामने प्रस्तुत करने में बेहद खुशी हो रही है......पढ़िए, सोचिए और लिख कर अपनी टेबल पर भी रख लीजिए......
What do you first do when you learn to swim?’’ ---You make mistakes, do you not? And what happens? You make other mistakes and when you have made all the mistakes you possibly can without drowning- and some of them many times over—what do you find ? -----That you can swim? ……Well, life is just the same as learning to swim ! Do not be afraid of making mistakes, for there is no other way of learning how to live !!
-Alfred Adler
दोस्तो , क्या यह बात हमें सुबह सुबह हमें कुछ नया, नराला, अद्भुत करने के लिए कमर कसने के लिए नहीं कर रही है। दोस्तो, मैंने तो इसे एकांत में बैठ कर बीसियों बार पढ़ा है और हर बार अपने में ऩईं सोच, नईं शक्ति का संचार होते पाया है.......
अच्छा, तो मित्रो, फिर मिलते हैं।

बुधवार, 23 जनवरी 2008

Good Morning, India...............सुप्रभात !!


यह भी क्या, दोस्तो, सुबह सुबह उठ कर लग गए इस बलागिंग के चक्कर मे, किसी से राम-रहीम नहीं, दुया-सलाम नहीं.....यार, सारा दिन अपने पास पढ़ा है, थोड़ा ताज़ी ताज़ी सुबह का आनंद भी तो लें...........
जागती आंखों से भी देखो दुनिया को,
ख्वाबों का क्या है वो हर शब आते हैं।
पिछले लगभग 15वर्षों से ओशो-टाइम्स पढ़ता हूं ---पढ़ता क्या हूं....उस में लिखी बातें पढ़ कर इतना आनंद मिलता है कि अपनी स्लेट पर उस में से ही लिए कुछ वाक्य लिख रहा हूं.........
You be true to yourself. Never try to be anybody else. That is the only sin I call sin. Accept yourself! Whatever you are , you are beautiful. Existence accepts you; you also accept yourself.
Comparison : A great Disease.
We are all unique, so it is pointless to compare ourselves to others.
Comparison is a disease, one of the greatest diseases. And we are taught from the very beginning to compare, Your parents start comparing you with other children.
From the very beginning you are being told to compare yourself with others. This is the greatest disease; it is like a cancer that goes on destroying your very soul—because each individual is unique, and comparison is not possible.
I am just myself and you are just yourself. There is nobody else in the world you can be compared with.
Do you compare a marigold with a roseflower? Do you compare a mango with an apple? You don’t compare. You know they are different; comparison is not possible.
Man in not a species, because each man is unique. There has never been any individual like you before and there will never be again. You are utterly unique. This is your privilege, your prerogative, your unique-ness. Comparison will bring trouble.
If you fall victim to this disease of comparison, naturally you will either become very egoistic or you will become very bitter; it depends on whom you compare yourself with.
If you compare yourself with those who seem to be bigger than you, higher than you, greater than you, you will become bitter. You will become angry : “ why am I not greater than I am? Why am I not physically so beautiful, so strong? Why am I not so intelligent? Why am I not this, not that?” Your life will become poisoned by the comparison. You will remain always in a state of depression, as if existence has deceived you , betrayed you, as if you have been let down.
Or if you compare yourself with people who are smaller than you, in some way lesser than you, then you will become very egoistic…
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Ok friends, good morning.
सुप्रभात........आज की यह नई सुबह आप की ज़िंदगी में बहारें ले आये।