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बुधवार, 19 दिसंबर 2007

बदपरहेज़ी करने का लाइसेंस ?

प्लीज़ आप चौंकिए, नहीं अब तो वैसे ही देश में लाइसेंस राज खत्म हो गया है, ऐसे में हम बदपरहेज़ी के लाइसेंस इश्यू करने की बात कर रहे हैं। जी हां, बात ही कुछ ऐसी है। आज के अंग्रेज़ी अखबार में छपी एक रिपोर्ट से पता चला है कि कोलेस्ट्रोल कम करने के लिए एक नई दवा के आने की उम्मीद लग गई है। वैसे यह दवा तो अभी ट्रायल स्टेज पर ही बताई जा रही है, लेकिन जैसा अकसर होता है - इस दवा की तारीफ़ के कसीदे पढ़ने वालों ने इस काम के लिए आज कल चल रही स्टेटिन्स नामक दवाईयों के साइड-इफैक्टस भी गिनवा दिए हैं जैसे कि दस्त लगना, सिर-दर्द आदि। अखबार में यह भी छपा है कि इंगलैंड में 30 लाख से भी ज्यादा लोग कोलेस्ट्रोल कम करने के लिए स्टेटिन्स नामक दवाईयां लेते हैं, लेकिन ब्रिटिश हार्ट फांउडेशन के अनुसार एक लाख से भी अधिक लोग वहां भी हर वर्ष दिल की बीमारी के कारण मुत्यु का ग्रास बन जाते हैं।
कोलेस्ट्रोल कम करने की कोई नई दवा की बात हो या पुरानी दवा की - मैं तो इस संबंध में केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि आने वाले समय में ये दवाईयां भी कहीं स्टेटस सिंबल अथवा कोई फैशन ही न बन जाए। लेकिन ये कोई जादू की पुड़िया तो हैं नहीं ........ये भी कोलेस्ट्रोल घटाने में तभी मददगार हो सकती हैं जब हम अपने खाने-पीने के तौर तरीकों पर भी थोड़ी लगाम लगाएं, चिकनाई से दूर ही रहें, ट्रांसफैटी एसिड्स से परहेज़ करें और इन सब के साथ साथ शारीरिक परिश्रम भी नियमित रूप से बिना किसी न-नुकुर के करें। समझने की बात यह है कि अगर हम इन बातों का पूरा ध्यान रखें तो शायद हमारे कोलेस्ट्रोल का स्तर बिना किसी फैंसी दवाइयों के वैसे ही ठीक रहे, और डाक्टर को हमें इन दवाईयों को खाने की सलाह की न देनी पड़े। लेकिन अगर हम अपने खान-पान में तो टस से मस होने को तैयार नहीं, शरीर हिलाने को राज़ी नहीं तो भला ये दवाईयां क्या कर लेंगी।
देखने में यही आया है कि कई लोग इन ट्रेंडी दवाइयों के उपयोग को अपनी बदपरहेज़ी करने का लाइसेंस सा ही मान लेते हैं। यह सोचना उनकी भूल है।
सदियों के गलियारों से यूं ही तो यह आवाज़ नहीं गूंज रही......
इलाज से परहेज बेहतर ..

रविवार, 16 दिसंबर 2007

अंग्रेज़ी अखबार के ये हैल्थ-कैप्सूल.........आखिर किस के लिए ..

अंग्रेजी का एक समाचार-पत्र जो काफी लोकप्रिय है उस में नियमित तौर पर एक छोटा-सा हैल्थ-कैप्सूल छपता है। उस में किसी भी स्वास्थ्य विषय के ऊपर एक संक्षिप्त एवं सटीक सी जानकारी दी जाती है। कई बार तो बात समझ में आ जाती है। लेकिन कईं बार यही नहीं पता चल पाता कि आखिर ये किस श्रेणी के पाठक के लिए लिखे जा रहे हैं-क्योंकि डाक्टर होते हुए भी उस में लिखी वस्तुओं( साग-सब्जियों आदि) का नाम भी मैं पहली बार ही देख रहा होता हूं। और भी रोचक बात यह है कि कई बार तो मैं उन का नाम डिक्शनरी में भी नहीं ढूंढ पाता। एक बात जो और बहुत अखरती है वह यह है कि इन हैल्थ-कैप्सूलों में हैल्थ के प्रति एक बड़ी फ्रैगमैंटिड सी एपरोच सी दी जाती है। पता नहीं मुझे कभी होलिस्टिक एपरोच की महक उस में नहीं आई- प्रोस्टेट कैंसर से बचने के लिए कुछ खाने को कहा जाता है और स्तन कैंसर से बचने को कुछ और खाने को कहा जाता है। यह तो एक उदाहरण मात्र थी। वैसे भी उस कैप्सूल में दिए गए आंकड़े विदेशी अध्यय़नों के ही होते है-- अपने देशी आंकड़े तो कभी मुझे दिखे नहीं। क्या समाचार -पत्र वाले इस तरफ ध्यान देने का कष्ट करेंगे ?

जाते जाते एक शेयर ध्यान में आ रहा है....
हीरे की शफक है तो अंधेरे में चमक,
धूप में आ के तो शीशे भी चमक जाते है।

बुधवार, 12 दिसंबर 2007

ये काहे के स्वास्थ्य परिशिष्ट.......आप भी ज़रा सोचिए

हिंदी के कुछ एवं कुछ अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के समाचार-पत्रों में मैंने यह देखा है कि स्वास्थ्य परिशिष्ट तो हर सप्ताह वे निकाल देते हैं लेकिन उन में स्वास्थ्य संबंधी जानकारी बेहद अधकचरी होती है। मुझे इन परिशिष्टों से सब से ज्यादा आपत्ति यह है कि काफी बार तो ये किसी डाक्टर के द्वारा लिखे ही नहीं होते हैं। दूसरी बात यह है कि कई बार किसी स्वास्थ्य संबंधी लेख के नीचे केवल यही लिखा होता है कि फीचर डैस्क के सौजन्य से। एक बात और जो खलती अहै कि कई बार तो उस लेख के लेखक का नाम ही नहीं लिखा होता। और सब से अहम बात मैं जो रेखांकित करना चाह रहा हूं वह यह है कि कई बार तो किसी डाक्टर को उस पृष्ठ को अपने विज्ञापन के लिए ही इस्तेमाल किए दिया जाता है और इस के पीछे के कारण मुझे आप जैसे प्रबुद्ध पाठकों के समक्ष रखने की कोई ज़रूरत नही है। एक बात और भी है कि कई बार तो इन समाचार-पत्रों में विज्ञापनों को भी लेखों का ही रूप दे कर छाप दिया जाता है। अंग्रेज़ी के समाचार-पत्रों में ये सब धांधलिय़ां बहुत कम दिखती हैं क्योंकि उन का पाठक अगले ही दिन अपनी आवाज़ उठानी शुरू कर देता है। वैसे आप को नहीं लगता कि ये अखबारों वाले अच्छे लेखक आखिर कहां से लाएं.....मै अपने अनुभव से कह सकता हूं कि ये अखबार वाले चाहे विज्ञापनों से अरबों खरबों कमा लें, लेकिन किसी लेखक को उस का पारिश्रमिक देते वक्त ये अपनी दीनता दिखाने लगते हैं। ऐसे में तो ये अजीबों गरीब स्वास्थ्य लेख छाप कर एक आम पाठक की लाइफ से खिलवा़ड़ नहीं तो और क्या कर रहे हैं।....इन अखबारों का आम पाठक अखबार में लिखी हर बात को गहन गंभीरता से लेता है।
काश उसे भी समझ आ जाए कि .....These are best taken with a pinch of salt!!!!

The most beautiful things in the universe can not be seen or touched....these must be felt with heart..!!

शुक्रवार, 23 नवंबर 2007

अखबार के पन्नों पर नीम-हकीमों के रोज़ाना सजते बाजार....

हिंदी के कई अखबार सुबह-सुबह देखो तो ऐसा लगता है कि पेज-3 जर्नलिज़्म और बलात्कार, चोरी चकारी और डकैती की खबरों के इलावा सारी अखबार तो नीम हकीमों के खानदानी नुस्खों के इश्तिहारों से ही भरी पड़ी होती है। कभी आप यह भी सोचें कि ऐसे इश्तिहार अंग्रेज़ी अखबारों से गाय के सींघ की तरह क्यों गायब होते हैं ? कुछ हिंदी के अखबारों तथा कुछ क्षेत्रीय भाषाओं के अखबारों को देख कर तो निसंदेह ऐसा लगता है कि मानो ये सारे नीम हकीम झोला-छाप डाक्टर और करिश्माई दवाई के विक्रेताओं ने अखबार के पन्नों पर ही आम बंदों को उल्लू बनाने के लिए बड़े करीने से एक बाज़ार सा ही सजा रखा है।
कोई कहता है कि कद इतने इंच बढ़ा दूंगा, तो दूसरा सभी प्रकार के वास्तविक एवं काल्पनिक गुप्त रोगों के शर्तिया इलाज का चिट्ठा छपवा कर मछली के फंसने का इंतजार कर रहा है। कोई नौजवानों को इस ताकत की कमी के कारण आत्महत्या से बचाने का दावा करता है। कुछ विज्ञापन तो बेहद कामुक चित्र छाप कर ही समझ लेते हैं कि उन्होंने किला फतह कर लिया। कोई विज्ञापन स्मरण शक्ति बढ़ाने का है तो कोई वक्ष-स्थल को उन्नत करवाने की भ्रामक जानकारी दे रहा होता है....निसंदेह बेचारे आम बंदे का तो सिर ही घूम जाए। लेकिन एक बात पर ध्यान दीजिए कि ये विज्ञापन अपने शिकारों को फंसाने के लिए बड़ी मीठी भाषा का प्रयोग करते हैं।
कुछ अखबारें तो इन्हीं विज्ञापनों के द्वारा खूब चांदी कूट रही हैं। आम पाठक की परवाह है किसे आखिर......जी हां, उस के लिए वे कभी कभी एक छोटा सा नोटिस छपवा कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं कि किसी भी विज्ञापन के दांवों को जांचना स्वयं पाठक की जिम्मेदारी है। अब आम बंदे की त्रासदी देखिए कि वह तो एक ही काम करता है न--- या तो वह सुबह से शाम तक बीसियों लाइनों में खड़ा हो ले या वह इन दावों को जांचने का दुःसाहस कर ले। यह तो हम सब बुद्धिजीवियों का ही कर्त्तव्य बनता है कि हम उस आम जन तक सच्चाई दोगुनी आवाज़ से पहुंचाएं।
अच्छा जाते जाते एक बात का ध्यान आ गया--- अश्लील विज्ञापनों का बात हो रही थी...अब बच्चों पर होने वाले इन के बुरे असर की तो बात कर कर के हम लोग थक से ही गये हैं, लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि लालच में अंधे हो चुके ये विज्ञापन देने वालों ने अब बड़े-बुजुर्गों को भी इस गोरख-धंधे में शामिल कर लिया है--- जी हां, 10-15 दिन से हिंदी के एक पेपर में एक ऐसे ही विज्ञापन में कम से कम अस्सी साल के वृद्ध एवं वृद्धा को प्रेमालाप करते देख परेशान हूं। अगर आप भी उसे देख लें, तो आप भी परेशान हुए बिना नहीं रह पाय़ेंगे।...
जाते जाते एक विचार........................
When you are good to others, you are BEST to yourself..