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रविवार, 2 नवंबर 2008

क्या ब्रेसेज़ से बचा जा सकता है ?


इस प्रश्न का जवाब ढूंढने से पहले कुछ बातें करते हैं। तो, सब से पहले तो जब मैं किसी 18-20 साल के युवक अथवा युवती को देखता हूं जिसके दांत टेढ़े-मेढ़े होते हैं तो मुझे बहुत दुःख होता है क्योंकि बहुत बार तो उन के दांत देखने से ही पता चल जाता है कि उन के लंबे समय तक इन ब्रेसेज़ के चक्कर में पड़ना पड़ेगा, बार-बार आर्थोडोंटिस्ट के क्लीनिक के चक्कर काटने पड़ेगे।

डैंटिस्ट्री के प्रोफैशन में पच्चीस साल बिताने के बावजूद भी कभी मैं इन ब्रेसिस के इलाज से बहुत ज़्यादा इम्प्रैस नहीं हो पाया। क्या यह इलाज कारगर नहीं है ?—नहीं, नहीं , ऐसी कोई बात नहीं है, बस केवल इतनी सी बात है कि यह काफी महंगा इलाज है। इस में इस्तेमाल होने वाले मैटीरियल्ज़ काफी महंगे हैं, इस का इलाज आर्थोडोंटिस्ट विशेषज्ञ द्वारा ही हो पाता है – इन सब कारणों की वजह से यह काफी महंगा इलाज है और मरीज़ को लंबे समय तक डाक्टर के पास नियमित रूप से जाना पड़ता है। इसलिये मैंने जो कुछ खास इम्प्रैस न होने वाली बात कही है उस का कारण भी केवल यही है कि यह इलाज आम आदमी की पहुंच के बहुत ज़्यादा बाहर है और यह केवल मेरी व्यक्तिगत परसैप्शन है।

वैसे तो कुछ झोला-छाप डाक्टर भी दांत सीधे करने का पूरा ढोल पीटते रहते हैं लेकिन मैं अपने मरीज़ों को बार बार आगाह करता रहता हूं कि या तो आप टेढ़े-मेढ़े दांतों के लिये कुछ भी इलाज करवाओ नहीं ----अगर किसी विशेषज्ञ से इलाज करवाना अफोर्ड कर सकते हैं तो ही करिये- वरना, ये नीम-हकीम पता नहीं कौन कौन से गलत तरीके अपना कर दांतों को थोड़ा सरका तो देते हैं लेकिन दांतों की सेहत की पूरी धज्जियां उड़ाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते। दो-चार हज़ार रूपया भी ये मरीज़ों को बातें में उलझा कर ले लेते हैं----अब मरीज़ क्या जाने कौन सच्चा है कौन झूठा !!

आज कल टेढ़े-मेढ़े दांतों की समस्या बहुत आम हो गई है। लेकिन आम तौर पर मां बाप बच्चों को बहुत लेट ले कर आते हैं। इस का कारण यह है कि हमारे यहां पर दंत-चिकित्सक के पास नियमित तौर पर छः महीने के बाद जाकर चैक-अप करवाने का कंसैप्ट ही नहीं है।

कल मेरे पास एक 23 वर्ष की युवती आई जिस की दो महीने में शादी थी –शकल-सूरत अच्छी भली थी लेकिन उस की प्राब्लम थी कि जब वह हंसती है तो साइड के दो दांत बहुत भद्दे से दिखते हैं। लेकिन इस तरह की तकलीफ़ को बिना ब्रेसिस के ठीक किया ही नहीं जा सकता। इस उम्र की युवतियां एवं युवक तो इन टेढ़े-मेढ़े दांतों से बहुत परेशान होते हैं। वे कईं तरह के कंपलैक्स के शिकार हो जाते हैं—अंदर ही अंदर कुढ़ते रहते हैं। हंसना तो लगभग भूल ही जाते हैं---बस सब जगह पीछे ही पीछे रहते हैं।

और मुझे यह लिखने में कोई संकोच नहीं है कि अधिकांश लोग इस देश में इतनी महंगी ट्रीटमैंट अफोर्ड भी नहीं कर सकते--- 15-20 हज़ार रूपये एक आम परिवार के लिये दांतों को सीधा करवाने के लिये खर्च करने काफी होते हैं। वैसे तो ब्रेसेस के इलावा तारें लगवा कर ( removable orthodontic appliance) भी काफी कम खर्च में भी टेढ़े-मेढ़े दांतों को ठीक करवाया जा सकता है लेकिन मैं तो इन्हें एक कमज़ोर सी सैकेंड- ऑप्शन ही मानता हूं। वैसे भी बिलकुल साधारण से केसों को ही इन रिमूवेबल-एपलाईऐंसिस के ज़रिये ठीक किया जा सकता है।

तो अब थोड़ी सी बातें हो जायें कि इन ब्रेसिस से आखिर बचा कैसे जाये। तो, मेरी पहली सिफारिश है कि हर छः महीने के बाद किसी दंत-चिकित्सक से दांतों का चैक-अप ज़रूर ही करवाया जाये –इस के इलावा कोई रास्ता है ही नहीं है। इस का मतलब यह बिलकुल नहीं है कि नियमित चैक-अप करवाने से दांत टेढ़े-मेढ़े होंगे नहीं और ब्रेसिस लगवाने की ज़रूरत बिलकुल पड़ेगी नहीं। हो सकता है कि आप ब्रेसिस लगवाने से बच जायें लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि अगर आप डाक्टर के पास जा कर नियमित बच्चों के दांतों की जांच करवाते रहे हैं तो शायद ब्रेसिस लगें लेकिन बहुत कम समय के लिये क्योंकि दांतों के टेढ़े-पन वाला केस बिलुकल सिंपल है, कोई कंपलीकेशन है ही नहीं।

तो चलिये इन टेढ़े-मेढ़ेपन से बचाव की कुछ बातें करते हैं----इलाज की बातें तो होती ही रहती हैं----सारा नैट भरा पड़ा है----लेकिन बचाव की बातें ही लोगों की समझ में आनी बंद हो गई हैं।

सब से पहले तो यह ज़रूरी है कि जब शिशु एक साल का हो जाये तो उसे डैंटिस्ट के पास ले कर जाना बहुत ज़रूरी है ---उस समय वह उस के मुंह के अंदरूनी हिस्सों के विकास का आकलन करेगा और उस के मां-बाप को उस के दूध के दांतों की केयर के बारे में बतायेगा।

जब आप बच्चे को हर छःमहीने के बाद डैंटिस्ट के पास लेकर जायेंगे तो कुछ विचित्र सी आदतें( oral parafunctional habits) जैसे कि अंगूठा चूसना, जुबान से बार बार अपने ऊपरी दांतों को धकेलना, दांतों से होंठ अथवा गाल काटते रहना इत्यादि ---ये सब आदतें दांतों को टेढ़ा-मेढा करने का काम करती हैं और जैसे ही डैंटिस्ट इन्हें नोटिस करता है वह इन आदतों से मुक्ति दिलाने में पूरी मदद करता है।

इसी तरह से अगर किसी बच्चे में मुंह से सांस लेने की आदत है ( mouth-breathers) तो भी इस आदत का निवारण किया जाता है क्योंकि इस आदत की वजह से ऊपर वाले आगे के दांत बाहर की तरफ़ आने लगते हैं।
अब अगर आप ने नोटिस किया है कि बच्चे के कुछ दूध वाले दांत तो गिरे नहीं हैं लेकिन उन के पास ही गलत जगह पर पक्के दांत निकलने लगे हैं। ऐसे में अगर आप बच्चे को डैंटिस्ट के पास ले जाकर दूध वाले दांत उखड़वायेंगे नहीं तो पक्के दांत किसी दूसरी जगह पर ही अपनी जगह बनानी शुरू कर देते हैं-----और अगर इन परिस्थितियों में दूध के दांत अथवा दांतों को सही समय पर निकलवा दें तो कुछ ही महीनों में पक्के दांत बिलकुल बिना कुछ किये हुये ही अपनी सही जगह ले लेते हैं----ऐसे बहुत से केस हमारे पास आते हैं जिन में थोड़ा सा कुछ करने से ही दांतों के टेढ़े-पन से बचा जा सकता है।

अगर बच्चा नियमित डैंसिस्ट के पास जाता है तो अगर कहीं दंत-क्षय नज़र आयेगा तो उस का इलाज तुरंत करवा लिया जाता है ताकि ऐसी नौबत ही न आये कि दूध के दांत को समय से पहले निकालने की ज़रूरत ही पड़े। यह इसलिये ज़रूरी है कि दूध के दांतों के गिरने का और नये पक्के दांत मुंह में आने का एक निश्चित टाईम-टेबल प्रकृति ने बनाया हुआ है और अगर इस के साथ कोई पंगा हो जाता है तो बहुत बार दांतों के टेढ़े-मेढ़ेपन से बचा नहीं जा सकता।

एक बात और भी है कि कुछ मां-बाप के मन में अभी भी यह बात घर की हुई है कि जब तक दूध के पूरे दांत गिर नहीं जायें तब तक किसी डैंटिस्ट के पास जाकर टेढ़े-मेढ़े दांतों के बारे में बात करने का भी कोई फायदा नहीं है। यह बिलकुल गलत धारणा है----बस आप तो नियमित रूप से हर छःमहीने बाद बच्चों को डैंटिस्ट के पास जा कर चैक करवाते रहें ----अगर कुछ करने की ज़रूरत होगी तो साथ साथ होता रहेगा।

और कईं बार डैंटिस्ट को मरीज़ का एक एक्सरे OPG -orthopantogram- भी करवाना होता है जिसमें उस के सभी दांत -जितने मुंह में हैं और जितने भी नीचे हड्डी के अंदर विकसित हो रहे हैं, उन सब का पता चल जाता है और फिर उस के अनुसार डैंटिस्ट अपना निर्णय करता है। ऐसे ही एक एक्स-रे की आप तसवीर यहां देख रहे हैं।

जो मैंने डैंटिस्ट्री की प्रैक्टिस में देखा है वह यही है कि अगर आप दांत की तकलीफ़ों से बच सकें तो ठीक है ---वरना, मुझे नहीं लगता कि दांतों की तकलीफ़ों का पूरा इलाज करवाना इस देश की एक फीसदी ( जी हां, 1% only)--- जनता के भी बस की बात है । ठीक है, शायद आप समझ रहे होंगे कि पैसे का चक्कर है----दांतों का इलाज करवाना अच्छा-खासा महंगा है लेकिन इस के इलावा भी क्वालीफाइड डैंटिस्ट भी तो कहां मिलते हैं---ज़्यादातर शहरों में ही मिलते हैं और जहां तक विशेषज्ञ डैंटिस्टों की बात है अर्थात् जिन्होंने किसी स्पैशलटी में एमडीएस की रखी होती है ---ये तो अकसर बड़े शहरों में अथवा डैंटल कालेजों में ही दिखते हैं। और जहां तक डैंटल कालेजों की बात है----इन टेढ़े-मेढ़े दांतों को सीधा करवाने के लिये ब्रेसिस लगवाने के लिये उन के चार्जेज़ भी हज़ारों में हैं...जिन्हें आम आदमी अफोर्ड कर ही नहीं सकता ---वो मैं बता रहा था कि इस इलाज में इस्तेमाल होने वाला सामान ही इतना महंगा है।

तो केवल रास्ता एक ही है कि बचाव में ही बचाव है और दंत-चिकित्सक के पास जाकर नियमित तौर पर हर छःमहीने के बाद जा कर जांच करवाते रहिये ताकि काफी हद तक तकलीफ़ों से बचा जा सके ---हां, कुछ तकलीफ़े हमें कईं बार अनुवांशिक तौर पर मिलती हैं जैसे कि अगर मां के दांत बहुत बाहर की तरफ़ हैं , पिता के जबड़े की हड्डी कुछ आगे की तरफ है तो भी अगर समय रहते मां-बाप को इन बातों के बारे में सचेत कर दिया जाये तो बेहतर होता है।
वैसे आप को मेरी ओपन-ऑफर है कि आप अपनी कोई भी डैंटल परेशानी मेरे को ई-मेल कर सकते हैं ---आप को तुरंत जवाब देने का मेरा वायदा है। वैसे याहू आंसर्ज़ के मेरे इस पन्ने को भी आप कभी-कभार खंगाल सकते हैं।

रविवार, 5 अक्तूबर 2008

बच्चों में खून की कमी की तरफ़ ध्यान देना होगा ..


आज सुबह इंडियन कांउसिल ऑफ मैडीकल रिसर्च द्वारा फरवरी 2008 में बच्चों में खून की कमी ( Workshop on Child Anaemia) के विषय पर रखी एक वर्कशाप की सिफारिशें पढ़ रहा था जो मुझे बेहद महत्त्वपूर्ण लगीं औरजिन का सार प्रस्तुत कर रहा हूं।

2005-06 में जो नैशनल फैमली हैल्थ सर्वे हुआ है उस से पता चला है कि तीन साल से कम उम्र के चार में से तीनबच्चों में खून की कमी है। और जो एक बच्चा बचा है उस में भी ऑयरन की कमी हो सकती है अलबत्ता यह होसकता है कि वह एनीमिया( खून की कमी) के रूप में प्रकट हुई हो। और जिन बच्चों में एनीमिया की समस्या हैउन तीन बच्चों में से दो बच्चों की एनीमिया की समस्या काफी विकट है। इन आंकड़ों से पता चलता है कि बच्चों मेंखून की कमी कितनी विकट एवं आम समस्या है और इस कमी की वजह से उन के शारीरिक एवं मानसिकविकास पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। यही वजह है कि बच्चों में एनीमिया की रोकथाम एवं उपचार को इतनामहत्त्व दिया जा रहा है।

वर्कशाप के शुरूआत में इस समस्या के लिये आज कल चल रही स्ट्रैट्जी पर टिप्पणी करते हुये बताया गया किआज तक सिस्टम यह है कि हर बच्चे की एनीमिया के लिये क्लीनिक जांच की जाये और जिस में खून की कमीलगे उन को 100 दिनों तक ऑयरन एवं फोलिक एसिड (IFA) की टेबलेट खिलाई जायेंऐसी एक टेबलेट में 20 मि.ग्राम एलीमैंटल ऑयरन और 100 माइक्रोग्राम फोलिक एसिड होता है। विभिन्न कारणों की वजह से इसस्ट्रैट्जी को फिर से विशेषज्ञों द्वारा जांचने की ज़रूरत महसूस हो रही थी इस वर्कशाप में जिन विशेषज्ञों ने भागलिया उन में से न्यूट्रीशन, चाइल्ड-हैल्थ, मैटरनल हैल्थ एवं पब्लिक हैल्थ की बैक-ग्राऊंड वाले लोग शामिल थे।

तो आइये इस वर्कशाप की बेहद महत्त्वपूर्ण सिफारिशों पर एक नज़र डालते हैं

ऑयरन एवं फोलिक एसिड सप्लीमैंटेशन एहतियात के तौर पर पांच साल से कम उम्र के सभी बच्चों को दी जानी चाहियें – ना कि केवल उन बच्चों को जिनमें क्लीनिक्ली अनिमिया पाया गया हो।

वर्कशाप में इस बात की भी सिफारिश की गई कि पांच साल तक के बच्चों को आयरन एवं फोलिक एसिड को एक सिरिप के रूप में दिया जाना चाहिये – जिसे 100मिलीलिटर की प्लास्टिक की बोतलों में सप्लाई किया जा सकताहै जिस के साथ एक ऐसा डिस्पैंसर हो जिस से एक बार में 1 मिलीलिटर सिरिप ही निकाला जा सके।

यह सिफारिश की गई कि जैसे ही बच्चे के छःमहीने का हो जाने के बाद जब बच्चे की माता का किसी स्वास्थ्य-कार्यकर्त्ता से संपर्क हो उस समय यह आयरन एवं फोलिक एसिड सप्लीमैंटेशन शुरू हो जानी चाहिये। खसरे केइंजैक्शन के समय ( measles) अकसर मातायें स्वास्थ्य कर्मीयों के संपर्क में आती हैं और यही समय इससप्लीमैंटेशन को शुरू करने के लिये बहुत उपयुक्त है। लेकिन एक बात का ध्यान रहे कि जिन बच्चों का जन्म केसमय वजन कम था उन में यह सप्लीमैंटेशन तो उन के दो महीने के होने पर ही शुरू कर देनी चाहियेवर्ल्ड हैल्थआर्गेनाइज़ेशन की भी यही सिफारिश है।

वर्कशाप में यह भी सिफारिश की गई कि यह जानने के लिये कि किसी बच्चे को एनीमिया है कि नहीं ताकि उस को यह सिरिप दिया जाना शुरू किया जा सके ---इस के लिये उस की स्क्रीनिंग करने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन अगर हैल्थ-वर्कर को लगता है कि किसी बच्चे को अनीमिया कुछ ज़्यादा ही है तो उसे आयरन फोलिक एसिड सिरिप देने के साथ साथ मैडीकल एडवाईज़ एवं इलाज के लिये प्राइमरी हैल्थ सैंटर भी भेजा जाये।

आयरन एवं फोलिक एसिड की सप्लीमैंटेशन छः महीने से लेकर 60 महीने के बच्चों तक सभी को दी जानी चीहियेऔर यह सप्लीमैंटेशन हर वर्ष 100 दिनों तक दी जानी चाहिये।


इस के इलावा वर्कशाप की कुछ ऐसी सिफारिशें हैं जो थोड़ी ज़्यादा ही टैक्नीकल होने की वजह से इस लेख में डालनेयोग्य नहीं हैं....ये ज्यादातर पालिसी-मेकर्स के लिये हैं जैसे कि ICDS सप्लीमैंटरी न्यूट्रीशन को ऑयरन एवं अन्यमाइक्रोन्यूट्रीएंटस से फार्टीफाई करने की बात की गई है, हमारे स्टैपल खाने ( staple foods) की भी ऑयरनफार्टीफिकेशन करने की तरफ़ इशारा किया गया है।

जब बच्चे को कोई बुखार वगैरह हो या कोई और बीमारी हो तो उन चंद दिनों के लिये इस सिरिप को उसे दियाजाये और बच्चे के तंदरूस्त होते ही उसे दोबारा शुरू कर दिया जाना चाहिये।

जिन बच्चों के पेट में कीड़े हैं, उन को उपयुक्त दवाई देने की भी बात कही गई है।

अंत में एक प्वाईंट यह भी कहा गया कि चाहे किशोरावस्था में आने वाले बड़े बच्चे चाइल्ड-एनीमिया के अंतर्गतनहीं आते, लेकिन उन का भी अनीमिया से बचाव ज़रूरी है। किशोर युवकों को भी एहतियात के तौर पर ऑयरनसप्लीमैंटेशन दी जानी चाहिये।


शुक्रवार, 25 अप्रैल 2008

क्यो ले ली इस खसरे के टीके ने नन्हे-मुन्नों की जान ?

आज के अखबार में एक खबर तो बेहद दुःखदायी दिखी कि तमिलनाडू के थिरूवल्लूर ज़िले में चार शिशु खसरे(मीज़ल्स) का इंजैक्शन लगवाने के बाद अचानक चल बसे। अब इस की जांच तो होगी....लेकिन इस जांच का फायदा तभी ही होगा अगर हम इन जांच-रिपोर्टों से कम से इतना तो सीख ही लें कि भविष्य में ऐसा हादसा फिर कभी भी न होने पाये। हम ज़रा उन चार परिवार वालों की हालत की कल्पना करें कि वे अपने हंसते-खेलते शिशु लेकर बड़े चाव से उन्हें खसरे से बचाव का टीका लगवाने जाते हैं और कुछ समय बाद ही कुछ भी शेष नहीं रहता। रही बात, उस हर परिवार को तीन-तीन लाख देने वाली बात.....जिस तरह से इस राशि के बारे में अखबारों में आ जाता है, मुझे बेहद ओछापन लगता है जैसे कि उन शोकग्रस्त परिवारों को मुंह बंद रखने का मुआवजा दिया जा रहा हो......कि देखो, अब जो गया सो गया, वह तो वापिस आने से रहा, लेकिन अब तुम लोग अपनी जुबान पर ताला लगाये रखने का यह मोल रख लो।.... खैर, अपना अपना नज़रिया है.....शायद इस काम का ढिंढोरा पिटवाना भी उन की मजबूरी रहती होगी.......क्योंकि यह एक अच्छी खासी पब्लिक-रिलेशन एक्सर-साइज़ भी तो है। खैर, इस बात को इधर ही समाप्त करते हैं क्योंकि मेरा तो इस तरह की मदद-वदद की बातें देख-सुन-पढ़ कर सिर दुःखता है। जिस मां की गोद ही उजड़ गई, उस की आखिर क्या मदद हो सकती है!!.

ध्यान रहे कि मीज़ल्स का टीका बच्चों को केवल एक ही बार 9महीने की उम्र पर लगाया जाता है और यह टीका उसे मीज़ल्स से 95प्रतिशत सुरक्षा प्रदान करता है। सुनने में तो लगता है कि क्या है खसरा ही तो है.....बच्चों में अकसर हो ही जाता है और फिर ठीक भी हो जाता है। लेकिन ऐसी बात नहीं है....क्योंकि खसरा विकासशील देशों में हर साल लाखों बच्चों की जान ले लेता है। होता यूं है कि खसरा रोग से पैदा होने वाली जटिलतायों( कम्पलीकेशन्ज़).. जैसे कि डायरिया(दस्त रोग), निमोनिया, और एनसैफेलाइटिस ( दिमाग की सूजन)....की वजह से बहुत सी मौतें हो जाती हैं। पांच साल से कम उम्र के बच्चे तो इस के बहुत ज़्यादा शिकार हो जाते हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि मीजल्ज़ का टीका तैयार होने के बाद तीन घंटे के बाद इस्तेमाल हो जाना चाहिये। तैयार करने से यहां मतलब है ....रिकंस्टीच्यूशन ....( Reconstitution)….इस का मतलब यह है कि मीजल्ज़ का टीका फ्रीज़-ड्राइड फार्म ( freeze-dried form) अर्थात् एक पावडर जैसे रूप में हमें मिलता है और इसे इस्तेमाल करने से पहले लिक्विड-फार्म में लाया जाता है। और एक बार जब यह लिक्विड-फार्म में आ जाये तो तीन-घंटे के अंदर अंदर इस का इस्तेमाल किया जाना लाज़मी है.....जो बच जाये उसे फैंकना होता है।

टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपनी रिपोर्ट में आल-इंडिया इंस्टीच्यूट ऑफ मैडीकल साईंस के कम्यूनिटी मैडीसन विभाग के एक प्रोफैसर का यह स्टैटमैंट भी दिया है कि ऐसी रिपोर्टें कभी नहीं आई कि मीज़ल्स के टीके लगने से बच्चों की मौत हो गई क्योंकि इंजैक्शन खराब था। लेकिन उन्होंने यह भी बताया कि इस तरह के इंजैक्शन जिन्हें रिकंस्टीच्यूट करने के बाद गर्म-वातावरण में अथवा सीधी धूप( exposed to heat or direct sunlight) में ऱखा जाता है.....इस तरह का इंजैक्शन लगने से शिशुओं में एनाफाईलैक्टिक शॉक ( एक तरह का वैसा ही रिएक्शन जो पैनेसिलिन टीके के तुरंत बाद कभी कभी हो जाता है) ...हो जाता है जिस से ह्दय काम करना बंद कर देता है और सांस लेने में दिक्कत हो जाती है।

रोग-प्रतिरक्षण के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले टीकों के बारे में इतना जानना भी बहुत ज़रूरी है कि हर स्टेज पर इन्हें एक खास तापमान ( 2 से 8 डिग्री-सैंटीग्रेड) मुहैया करवाया जाता है। हर स्टेज पर इस तापमान को कायम रखने के लिये जो कड़ी है , जो सुदृढ़ ढांचा विकसित है उसे कोल्ड-चेन कहा जाता है.....एक तरह से यह समझ लें कि यह कोल्ड-चेन किसी भी टीकाकरण कार्यक्रम की सफलता की रीढ़ की हड्डी है......इस के साथ किसी भी स्टेज पर थोड़ा भी समझौता हुया नहीं कि यह सारा प्रोग्राम फेल हुया समझो। हमेशा से ही चिकित्सा विभाग के आगे यह चैलेंज रहा है कि इस कोल्ड-चेन को किसी भी तरह से कैसे टूटने से बचाया जाये.......क्योंकि जैसे ही यह कोल्ड-चेन टूटती है, टीके में खराबी ( contamination) के चांस बहुत बढ़ जाते हैं।

अब इस सारे एपीसोड की जांच तो होगी ही ....और यह भी पता लगाने की कोशिश की जायेगी कि क्या यह दुर्घटना कोल्ड-चेन में किसी किस्म की ब्रेक होने की वजह से हुई या इंजैक्शन के खराब ( contaminated) होने की वजह से चार शिशुओं ने अपनी जानें गंवा दीं।

जिस तरह से इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना की कवरेज समाचार-पत्रों में आज मैंने देखी है उस से एक बार फिर मुझे यह लगा है कि अंग्रेज़ी प्रिंट मीडिया में इस तरह की कवरेज का स्तर बहुत ज़्यादा अच्छा है....इस रिपोर्ट ने पाठक को अच्छी तरह से समझाने की और उस के मन में उठ रहे कईं प्रश्नों का जवाब देने की अच्छी कोशिश की है। दा हिंदु अंग्रेज़ी अखबार ने तो पहले पेज़ पर यह रिपोर्ट छापने के साथ साथ इस दुर्घटना पर पहला सम्पादकीय लेख छाप कर सारे पाठकों का ध्यान इस तरह आकर्षित किया है। मैं उस सम्पादकीय लेख में से कुछ लाइनें यहां दे रहा हूं......काफी बातें इन लाइनों से ही स्पष्ट होती दिखती हैं..........

..... The involvement of the vaccine belonging to the same batch in different health centres seems to indicate problems with quality, which could have occurred at the point of manufacture, during transfer or storage. Laboratory investigations can determine whether the vaccine produced by the Human Biologicals Institute, Hyderabad, was contaminated, but the death of the infants is bound to shake public confidence in the immunization programme. The priority must now be to restore faith in the system in order to maintain wide vaccination coverage. The benefits of good quality vaccines for diseases such as measles, mumps, diphtheria, polio, and tetanus are universally acknowledged and heavily outweigh the very rare adverse reactions.

जाते जाते, हिंदी समाचार-पत्र की इस न्यूज़-रिपोर्ट पर भी एक नज़र मार ही लें......आप को भी ऐसा लगेगा कि जैसे किसी सरकारी प्रैस-विज्ञप्ति को पढ़ रहे हैं। शायद हिंदी मीडिया ने सिर्फ़ एक सरकारी फरमान के रूप में ही इतनी अहम खबर को छापना सही समझा होगा लेकिन इतनी भी क्या जल्दी कि खसरे की दवा के टीके की जगह इस अखबार ने तो खसरे की दवा को पीने वाली बतला दिया। बात छोटी सी है......कवरेज हिंदी अखबारों का ज़्यादा है....ऐसे में इस तरह की आधी-अधूरी खबर का असर दो-दिन बाद होने वाले पल्स-पोलियो रविवार पर भी पड़ सकता है कि नहीं ?....आप का क्या ख्याल है.......इसीलिये तो कहता हूं कि अब समय आ गया है कि हिंदी अखबारों को भी हैल्थ-कवरेज को ऊंचा उठाने के यत्न करने चाहिये......क्या है..बात केवल इतनी सी है कि किसी क्वालीफाइड डाक्टर से बेसिक बातें तो चैक करवाई ही जा सकती हैं........ताकि खसरे का टीका टीका ही रहे.....पीने वाली दवा तो ना बने।

मंगलवार, 22 जनवरी 2008

थोड़ी थोड़ी पिया करो...?


तंग आ गया हूं, दोस्तो, मैं मरीजों की इस बात का जवाब दे देकर जब वे यह कहते हैं कि यह बात तो आजकल आप डाक्टर लोग ही कहते हो कि थोड़ी थोड़ी पीने में कोई खराबी नहीं है। इस का जो जवाब मैं उन्हें देता हूं—उस पर तो मैं बाद में आता हूं, पहले ब्रिटेन में हुई एक स्टडी के बारे में आप को बताना चाहूंगा।

कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के रिसर्चकर्त्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि जिन लोगों की जीवन-शैली में चार स्वस्थ आदतें शामिल हैं----धूम्रपान न करना, शीरीरिक कसरत करना, थोड़ी-थोड़ी दारू पीना,और दिन में पांच बार किसी फल अथवा सब्जी का सेवन करना ---- ये लोग उऩ लोगों की बजाय 14वर्ष ज्यादा जीतें हैं जिन लोगों में इन चारों में से कोई एक बिहेव्यिर भी नहीं होता। इस रिसर्च को 45 से 79 वर्ष के बीस हज़ार पुरूषों एवं औरतों पर किया गया।

यह तो हुई इस रिसर्च की बात....अब आती है मेरी बात...अर्थात् बाल की खाल उतारने की बारी। एक बार ऐसा अध्ययन लोगों की नज़र में आ गया ,तो बस वे समझते हैं कि उन्हें तो मिल गया है एक परमिट पूरी मैडीकल कम्यूनिटी की तरफ से कि पियो, पियो, डोंट वरी, पियो ...अगर जीना है तो पियो......बस कुछ कुछ ठीक उस गाने की तरह ही ....पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए।

अब मेरी व्यक्तिगत राय सुनिए। जब कोई मरीज मेरे से ऐसी बात पूछता है तो मैं उस से पूछता हूं कि पहले तो यह बताओ कि तुम्हारा स्टैंडर्ड आफ लिविंग उन विदेशियों जैसा है.... जिस तरह का जीवन वे लोग जी रहे हैं....क्या आपने तंबाकू का सेवन छोड़ दिया है, रिसर्च ने तो कह दिया धूम्रपान...लेकिन हमें तो चबाने वाले एवं मुंह में रखे जाने तंबाकू से भी उतना ही डरना है। दूसरी बात है शारीरिक कसरत की ---तो क्या वह करते हो। अकसर जवाब मिलता है ...क्या करें, इच्छा तो होती है, लेकिन टाइम ही नहीं मिलता। आगे पूछता हूं कि दिन में पांच बार कोई फल अथवा सब्जी लेते हो.....उस का जवाब मिलता है कि अब इस महंगाई में यह फ्रूट वूट रोज़ाना कहां से ले पाते हैं, दाल रोटी चल जाए – तब भी गनीमत जानिए। तो, फिर मेरी बारी होती है बोलने की ---जब पहली तीन शर्तें तो पूरी की नहीं, और जो सब से आसान बात लगी जिस से अपनी बीसियों साल पुरानी आदत पर एक पर्दा डालने का बहाना मिल रहा है, वह अपनाने में आप को बड़ी सुविधा महसूस हो रही है।

इसलिए मैं तो व्यक्तिगत तौर पर भी ऐसी किसी भी स्टेटमैंट का घोर विरोधी हूं जिस में थोड़ी-थोडी़ पीने की बात कही जाती है। इस के कारणों की चर्चा थोडी़ विस्तार से करते हैं। दोस्तो, हम ने न तो खाने में परहेज किया...घी, तेल दबा के खाए जा रहे हैं, ट्रांस-फैट्स से लैस जंक फूड्स में हमारी रूचि दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, उस के ऊपर यह दारू को भी अपने जीवन में शामिल कर लेंगे तो क्या हम अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने का काम नहीं करेंगे। शत-प्रतिशत करेंगे, क्यों नहीं करेंगे !

मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि सेहत को ठीक रखने के लिए आखिर दारू का क्या काम है....This is just an escape route…... अब अगर हम यह कहें कि मन को थोड़ा रिलैक्स करने के लिए 1-2 छोटे छोटे पैग मारने में क्या हर्ज है, यह तो बात बिलकुल अनुचित जान पड़ती है, वो वैस्टर्न वर्ड तो इस तनाव को दूर भगाने के लिए अपने यहां की ओरियंटल बातों जैसे कि योग, मैडीटेशन को अपना रहा है और हम वही उन के घिसे-पिटे रास्ते पर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।

एक बात और भी है न कि अगर छोटे-छोटे पैग मारने की किसी डाक्टर ने सलाह दे भी दी, तो क्या गारंटी है कि वे छोटे पैग पटियाला पैग में नहीं बदलेंगे। क्योंकि मुझे पता है न कि हमारे लोग इस सुरा के मामले में इतने मैच्योर नहीं है। यह जानना भी बेहद जरूरी है कि अच्छी क्वालिटी की शराब कुछ कम खराब असर करती है और वह भी तब जब साथ में खाने का पूरा ध्यान रखा जाए..यानि प्रोटीन का भी पीने वालों की डाइट में पूरा समावेश हो। अमीर देशों में तो वे ड्राइ-फ्रूट को भी पीते समय साथ रखते हैं............लेकिन हमारे अधिकांश लोग न तो ढंग की दारू ही खरीदने में समर्थ हैं, न ही कुछ ढंग का खाने को ही रखते हैं.....अब कटे हुए प्याज को आम के आचार के साथ चाटते हुए जो बंदा दारू पी रहा है, वह अपना लिवर ही जला रहा है, और क्या ! इस का अभिप्रायः कृपया यह मत लीजिए कि महंगी शराब जिसे काजू के साथ खाया जाए उस की कोई बात नहीं ----बात है, दोस्तो, बिल्कुल बात है। नुकसान तो वह भी करती ही है -----There is absolutely no doubt about that.

एक बात और भी है न कि जब आदमी शराब पीनी शुरू करता है न, तो पहले तो वह उस को पीता है, बाद में मैंने तो अपनी प्रैक्टिस में यही देखा है कि उस की ज़रूरत बढ़ती ही जाती है......जैसे लोग कहते हैं न कि फिर शराब बंदे को पीना शुरू कर देती है,और धीरे धीरे उस को पूरा चट कर जाती है।

क्या मैं नहीं पीता ?---आप की उत्सुकता भी शांत किए देता हूं। दोस्तो, मैं गीता के ऊपर हाथ रख कर सौगंध खा कर कहता हूं कि दारू तो दूर मैंने आज तक बीयर को भी नहीं चखा। इस के लिए मैं ज्यादातर श्रेय गौरमिंट मैडीकल कालेज , अमृतसर की पैथालोजी विभाग की अपनी प्रोफैसर मिसिज वडेरा को देता हूं जिस ने 18-19 साल की उम्र में हमें अल्कोहल के हमारे शरीर पर विशेषकर लिवर पर होने वाले खतरनाक प्रभावों को इतने बेहतरीन ढंग से पढ़ाया कि मैंने मन ही मन कसम खा ली कि कुछ भी हो, इस ज़हर को कभी नहीं छूना। सोचता हूं कि यार, ये टीचर लोग भी क्या ग्रेट चीज़ होते हैं न, क्यों कुछ टीचर्ज़ की बातों में इतनी कशिश होती है, इतना मर्म होता है कि उन की एक एक बात मन में घर जाती है..................क्योंकि वे सब अपना काम दिल से, शत-प्रतिशत समर्पण भाव से कर रहे होते हैं। आप इस के बारे में क्या कहते हैं, दोस्तो, कमैंट्स में लिखना।

सो, Lesson of the story is…….Please, please, please…..please stay away from alcohol…………..यह हमारी सीधी सादी मासूम ज़िंदगी में केवल ज़हर घोलती है। क्या हमारे आसपास वैसे ही तरह तरह का ज़हर कम फैला हुया है कि ऊपर से हमें इस के लेने की भी ज़रूरत महसूस हो रही है।

अच्छा, तो दोस्तो, अब उंगलियों को विराम दे रहा हूं क्योंकि खाने का समय हो गया है।

22.1.08 (9pm)

गुरुवार, 17 जनवरी 2008

बच्चों को क्या ऐसा खाया-पीया लग पाएगा ?

खाते-पीते बच्चों में खाने पीने की ही त्रासदी...........
अच्छे खाते-पीते घरों के बच्चों द्वारा खाए जाने वाली उन की मनपसंद विभिन्न वस्तुओं की कैलोरी वैल्यू कोजोड़-जोड़ कर उन के मम्मी-डैडी अकसर थोड़ा सुकून हासिल कर लेते हैं कि चलो, लाडले ने कुछ खायातो......लेकिन अफसोस तो इसी बात का ही है कि आज कल अधिकांश बच्चों में यह मांग अधिकतर चाकलेट, तरहतरह की कोल्ड-ड्रिंक्स, फलों के रस के नाम पर मिल रहे बढ़िया पैकिंग वाले खट्टे-मीठे जूसों,नूडल्स,चिप्स, बिस्कुट, बर्गर, भुजिया, केक-पेस्ट्री आदि जंक-फू़ड्स से ही पूरी होने लगी है

दोस्तो, बात जो सोचने वाली है वह यह है कि अगर केवल शरीर की कैलोरी मांग का ख्याल रखना ही इतना जरूरीहोता तो वह तो कोई भी 10-12 वर्ष की आयु का बच्चा दिन में दो चाकलेट और दो पैकेट बिस्कुट खा कर भी तो पूरीकर सकता है, लेकिन ऐसे में कहां से आएगी पौष्टिकता....ऐसा सब कुछ खाने पर कहां से आयेगी इन बच्चों केचेहरों पर रौनक, शरीर कैसे पल्लवित होगा ( हां, फूल कर कुप्पा जरूर हो जाएगा), कैसे बढ़ेगास्टेमिना-चुस्तीलापना-फुर्तीलापनयह भी एक तरह का कुपोषण ही है। ( This is another type of malnutrition only which is seen in these children). एक बात मेरे ध्यान में रही है चाहे पोषण ज्यादा होऔर चाहे कम हो---है तो दोनों ही कुपोषणयही कारण है कि हम डाक्टर लोग बार बार संतुलित आहार लेने की हीबात दोहराते रहते हैं

विडंबना देखिएजिस वर्ग को हम शायद जरूरत से थोड़ा ज्यादा ही पढ़-लिख बैठे लोग निम्न वर्ग कहते हैं, उन के बच्चों में कैलोरी की मांग पूरी होती है काफी हद तक सीधे-सादे, स्वास्थ्यवर्द्धक एक दम देसी हिंदोस्तानी खाने से ----वही दाल, रोटी, साग, सब्जी से !!--- उस बच्चे के सामने इसे खाने के इलावा कोई विकल्प है भी नहीं---खाना है तो खायो, वरना कल तक हवा ही खानी पड़ेगीयही बात उस बच्चे के लिए वरदान है क्योंकि दुनिया के बेशकीमती महंगे से महंगे टानिक भी इस देसी खाने के आगे टिक नहीं पाते---- शायद कुदरत का संतुलन बनाए रखने का यह अपना ही अनूठा ढंग हैयह बिल्कुल अंदर की बात है....एक तरह से ट्रेड-सीक्रेट....इसलिए इस पर शत-प्रतिशत विश्वास कर लेना

संतुलित आहार में सारे आवश्यक पौष्टिक तत्व उचित मात्रा और अनुपात में होते हैंसंतुलित आहार में हमें दोप्रकार के पौष्टिक तत्वों का ध्यान रखना चाहिएएक तो वे तत्व हैं जो ऊर्जा देते हैं और दूसरे वे हैं जो ऊर्जा नहींदेते हैं, बल्कि कुछ और काम करते हैंहम अभी इन दोनों तत्वों के बारे में बात करते हैं
ऊर्जा देने वाले तत्व तीन हैं---कार्बोहाइड्रेट, वसा एवं प्रोटीनइन तीनों को मिला कर हमारे शरीर को पर्याप्त ऊर्जामिलनी चाहिएहमारे भोजन में कार्बोहाइड्रेट अन्य पौष्टिक तत्वों के साथ अनाज और दालों के रूप में हमें प्राप्तहोता हैआलू और केला भी इस के महत्वपूर्ण स्रोत हैंकार्बोहाइड्रेट शरीर को ऊर्जा प्रदान करते हैं और यही इनकामुख्य कार्य हैप्रोटीन भोजन के नाइट्रोजन-युक्त तत्व हैं

उच्च श्रेणी का प्रोटीन प्राप्त करने के लिए मांस खाना आवश्यक नहीं हैशाकाहारी लोग इसे दूध और दही से प्राप्तकर सकते हैं और सब से महत्वपूर्ण बात यह है कि अनाज और दालों के मिश्रण से भी उच्च श्रेणी का प्रोटीन मिलसकता हैअनाज (गेहूं, चावल,बाजरा, ज्वार आदि) हमारा प्रमुख भोजन है और दालें तो इस का एक महत्वपूर्णअंग है
मजे की बात तो यह है कि यह तथ्य प्राचीन सभ्यताओं ने संभवतः अनुभव से जान लिया थाअपने देश के उत्तरी भागों में दाल-रोटी, दक्षिणी भागों में सांभर-चावल, चीन में सोयाबीन और चावल और दक्षिण अमेरिका में मकई और लोबिया का मिश्रण आदिकाल से प्रचलित है

घी और तेल वसा के स्रोत हैंउनका प्रयोग अनिवार्य नहीं हैशरीर को वसा की जितनी न्यूनतम मात्रा चाहिए, उतनी वसा तो अनाज और दालों में भी होती हैयदि हम आवश्यकता से अधिक ऊर्जा लेंगे ---वह कार्बोहाइड्रेट केरूप में हो या प्रोटीन के रूप में ...वह शरीर में वसा के रूप में इकट्ठी हो जाती है

अब बात करते हैं उन तत्वों की जो ऊर्जा नहीं देते अर्थात् अपाच्य तत्व, विटामिन, खनिज तत्व और जल जोसंतुलित आहार का एक बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा हैंअपाच्य तत्वों का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत साबुत अनाज औरदालें हैंमोटे आटे में और जिस आटे से चोकर निकाला गया हो, सेला चावल और साबुत दालों में ये अपाच्य तत्वअधिक मिलते हैंअपाच्य तत्व आंतों में पहुंचकर पानी को चूस लेते हैं और मल को नर्म करते हैंअपाच्य होतेहुए भी इन का स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव हैअनाज, दालें और हरी सब्जियां मिलकर हमें ऊर्जा प्रदान करने वालेऔर ऊर्जा प्रदान करने वाले, दोनों ही प्रकार के तत्व पर्याप्त मात्रा में देते हैं
विटामिन भोजन में बहुत थोड़ी मात्रा में होते हैंहमें उनकी आवश्यकता भी थोड़ी ही मात्रा में होती है, परंतु इस कामहत्व बहुत बड़ा हैविटामिन हमें चाहे ऊर्जा नहीं देते परंतु ये हमारे शरीर को दूसरे खाध्य तत्वों- कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन एवं वसा को इस्तेमाल करने में सहायता करते हैं

खनिज पदार्थों की आवश्यकता, विटामनों की तरह,बहुत कम होती है और ये भी ऊर्जा नहीं देतेलेकिन शरीर मेंकईँ प्रकार की अहम भूमिकाएं इन के द्वारा निभाई जाती हैं जैसे कि लोह (iron) रक्त की लाल कोशिकाएं बनाने केलिए आवश्यक है, कैल्शियम दांतों और हड्डियों को मजबूत बनाने के लिए, आयोडीन थाइराइड ग्लैंड के ठीक ठाककाम करने के लिए आवश्यक है
विटामिन और खनिज तत्व पर्याप्त मात्रा में पाने के लिए हरी सब्जियां और फल लेना बहुत ज़रूरी हैयही बच्चों केआहार की सबसे बड़ी कमी है कि वे सब्जियां एक तो वैसे ही बहुत कम खाते हैं और ऊपर से हम सब्जियों कोपकाते समय उनके कुछ विटामिन भी नष्ट कर देते हैं

फलों और सब्जियों में मुख्य अंतर यह है कि फलों को कच्चा ही खाया जाता है- इसलिए उन के विटामिनों औरखनिज तत्व नष्ट नहीं होतेइस दृष्टि से तो कच्ची खाई जाने वाली सब्जियां जैसे कि गाजर, टमाटर, खीरा, ककड़ी, मूली इत्यादि फलों के समान ही हैं

फलों के गुण उनके विटामिन और खनिज तत्वों पर निर्भऱ करते हैंप्रायः फलों के गुणों और उन के मूल्य में कोईसंबंध नहीं होता, इसलिए महंगे फल स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक नहीं हैंयदि सस्ते फल और कच्ची हरीसब्जियां पर्याप्त मात्रा में ली जाएं तो हमें पर्याप्त विटामिन और खनिज तत्व मिल जाते हैं

बात बहुत लंबी हो गई है...लंबी ही नहीं..बहुत लंबी हो गई ...लेकिन क्या करें पाठ ही कुछ ऐसा था जो हम दूसरीकक्षा से आजतक पढ़ते चले रहे हैं लेकिन इस से संबंध केवल पढ़ने तक ही रखते हैं, गुढ़ते नहीं हैंदोस्तो, please don’t mind….I am also sailing in the same boat…and sometimes take a lot of liberty with junk food……लेकिन मुझे इस समय मेरे गुरूजी परम पूज्यनीय ऋषि प्रभाकर जी की बात याद गई कि तुमजितनी बार किसी दूसरे को कोई बात कहते हो उतनी बार तुम स्वयं अपने आप को भी वह बात कह रहे होते होइसलिए आज से मैं स्वयं भी एक बार फिर इन खाने-पीने की बातों का और भी ज्यादा ध्यान रखूंगा
मुख्य बिंदु यही है कि प्रकृति हमें भोजन जिस रूप में देती है वही रूप उत्तम होता हैआधुनिकता के नाम पर हमचाहे जितनी भी लंबी अंधाधुंध दौड़ कर हांफ लें, फास्टफूड और तरह तरह के जंक फूड के फ़ज़लो-करम से शरीरपर जगह जगह जमीं चर्बी कम करने के लिए किसी बहुत बड़े हाई-फाई स्लिमिंग सैंटर में अंग्रेज़ी कसरत कर रहेहोंगे तो दूर विविध भारती पर अपने रेडियोनामा वाले यूसूफ भाई द्वारा चलाया गया गाना हमें चिढ़ा रहा होगा.....
दाल रोटी खाओ-----प्रभु के गुण गाओ

Really, friends,it is same simple as that….but we are hell bent on making it complex by doing all sorts of things against Mother Nature…….अभी भी सुधर जाएं...अभी भी वक्त है......Tomorrow it may be too late !!!

Good luck, friends, take care !!

रविवार, 13 जनवरी 2008

बच्चों में खांसी ?--- जब कुछ भी न करना ही गोल्डन !

जर्नल आफ अमेरिकी मैडीकल एशोशिएशन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार अब मां-बाप को अपने खांसते हुए बच्चे को दवाईयों की बजाए शहद देने के बारे में सोचना होगा। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि शहद लेने से बच्चों को खांसी में डैक्सट्रोमिथार्फैन से भी ज्यादा राहत महसूस हुई और वे रात को बेहतर ढंग से सो भी पाए। यहां यह बताने योग्य है कि आमतौर पर खांसी दबाने वाली कैमिस्ट से बिना किसी प्रैस्क्रिप्शन के मिलने वाली ज्यादातर दवाईयों में डैक्सट्रोमिर्थाफेन ही होती है। लेकिन इस तरह की खांसी-जुकाम के लिए कुछ भी न करने से शहद ले लेना बेहतर है, और कैमिस्ट की दुकान का रुख करने से पहले इस शहद को अवश्य ट्राई कर लेना चाहिए।

दोस्तो, वैसे भी हमारे देश में तो इस शहद को सदियों से ही खांसी की तकलीफ़ को भगाने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है, लेकिन क्या करें, दोस्तो, हम लोगों की मानसिकता ही कुछ ऐसी बन चुकी है कि जब तक हमारी किसी अच्छी से अच्छी प्रामाणिक एवं सिद्ध बात पर अमेरिकी वैज्ञानिकों की स्टैंप का ठप्पा नहीं लगता , हम कहां मानते हैं.........Generally, it is said that for anything to become popular( even it could be an ancient Indian practice), it has to be routed through America…………….that’s exactly what is happening with our Yoga………यह योग भी हमें तब ही ज्यादा भाया जब इसे अमेरिकी चासनी में घोल कर योगा बना कर हमारे सामने पेश किया गया। ।

अपनी शहद वाली बात पर वापिस आते हुए यह बताना भी जरूरी है कि शहद को एक साल से कम उम्र के बच्चों को नहीं देना चाहिए

अमेरिकी मैडीकल एसोशिएशन के इस अध्ययन को एक शुभ संकेत इस लिए भी माना जा रहा है क्योकि आजकल मां बाप अपने खांसी-जुकाम से जूझ रहे बच्चों के लिए कोई दूसरे रास्ते तलाश रहे हैं क्योंकि पिछले महीने ही अमेरिकी फूड एवं ड्रग एडमिनीस्ट्रेशन के एक पैनल ने यह महत्वपूर्ण सिफारिश की है कि छःसाल से कम बच्चों ( children under the age of 6) को अपने आप ही खांसी-जुकाम की दवाईयां देनी शुरू नहीं कर देना चाहिए क्योंकि ऐसी अधिकांश दवाईयों में डैक्स्ट्रोमिथार्फैन ही होती है।

इस अध्ययन में दो से पांच साल के बच्चों को एक टी-स्पून का आधा हिस्सा, छः से ग्यारह साल के बच्चों को एक टी-स्पून एवं बारह से अठारह साल के बच्चों को शहद के दो चम्मच दिए गए

नैट बंधुओं, इस बात का ज़रा ध्यान रखें कि यह सब बातें आम खांसी-जुकाम के लिए ठीक हैं, कहने से भाव यह नहीं कि अगर दूसरी तरह की खांसी वगैरह की तकलीफ है तो उस में शहद कारगर नहीं है, जी नहीं, शहद तो शहद है- उसने तो अपना काम करना ही है---लेकिन यह ध्यान भी रखना होगा कि कब एक बार डाक्टर से मिलना भी जरूरी होता है। सीधी सीधी सी बात है कि जब बच्चे को ज्यादा ही तकलीफ़ है, वह तेज़ बुखार से भी परेशान है, गले में बेहद दर्द भी है, और खांसी करने से पीली बलगम निकलती है-------ऐसे में अपने फैमिली डाक्टर से मिल लेना चाहिए क्योंकि कईं बार इस इंफैक्शन की नकेल कसने के लिए एँटीबायोटिक दवाईयां भी देनी पड़ सकती हैं।
मैंने इस चिकित्सा क्षेत्र में इन एंटीबायोटिक दवाईयों का बहुत ज्यादा मिसयूज़ देखा है और वह भी इस सादी खांसी-जुकाम की परेशानी के लिए ही------जिस में अकसर किसी एंटीबायोटिक दवाईयों की जरूरत होती ही नहीं है। बचपन में सुनी एक बात याद आ रही है -------If you take medicines for common cold, it will take seven days to cure it……..if you don’t take any medicines, it will be alright in a week.
So, the weather here is getting colder day by day………..take care……..
Enjoy all those seasonal delicacies that are offered to us during this Lohri festival……………………….HAPPY LOHRI !!