सोमवार, 26 अगस्त 2024

नारी हीरा चल बसे ....

अप्रैल 2006 का स्टारडस्ट 

कल रविवार की टाइम्स ऑफ इंडिया के फ्रंट पेज के एक किनारे पर दुबकी यह ख़बर मेरे से भी मिस ही हो जाती अगर कल का पेपर पढ़ने से पहले मुझे फेसबुक से नारी हीरा के गुज़रने की ख़बर न पता लगी होती…


मुमकिन है आप ने भी कल का अख़बार तो देखा हो लेकिन इस ख़बर से बेख़बर रह गए…

कोई बड़ी बात नहीं है…क्योंकि बात ही कुछ ऐसी है ….मुझे लगता है कि मैंने यह नाम ही कल पहली बार सुना…हां, ख़बर में जो लिखा था कि नारी हीरा मैगज़ीन प्रकाशन में एक बहुत नाम थे …और उन्होंने स्टार डस्ट जैसे मैगजीन की शुरुआत 1971 में की थी, यह देखते ही ख़बर को पूरा पढ़ने की ख़्वाहिश हुई…


स्टारडस्ट हो या हो मायापुरी, फिल्मीकलियां, सिने-ब्लिटज़ या फिल्मफेयर, सभी तरह के मेगज़ीन हमारे साथी रहे हैं …पढ़ाई के दौरान तो सिर खुजाने की फ़ुर्सत न थी लेकिन आज से 40 साल पहले नौकरी लगने पर इस तरह के मैगज़ीनों में भी रुचि बढ़ने लगी…


अच्छे से याद है कि 40 साल पहले स्टारडस्ट जैसे मैगज़ीन की कीमत 20-25 रुपए हुआ करती थी और उन दिनों मेरे लिए तो यह एक बड़ी रकम थी …अकसर इस तरह की मैगज़ीन किसी बुक स्टोर पर किराए पर मिल जाती थीं….चार पांच रुपए रोज़ाना किराए पर। 


2006 की एक स्टारडस्ट का एक फीचर 


कभी खरीद भी लिया करते थे ..लेकिन बहुत कम। हां, गाड़ी में सफ़र पर निकलने से पहले इसे स्टेशन के किसी बुक स्टॉल से खरीद लिया जाता …और अकसर उस दौर में एक नहीं,कईं बार दो तीन चार मैगज़ीन, नावल, किताबें खरीद ली जाती …महिलाएं अकसर सरिता, गृहशोभा और बच्चे लोटपाट, चम्पक, नंदन से खुश हो जाते …वैसे यह दौर था आज से चालीस-पचास बरस पुराना जब किसी रेलवे स्टेशन से यह सब किताबें-रसाले खरीदने से पहले स्टेशन के बाहर जा कर एक सुराही खरीद कर उसमें स्टेशन से पानी भी भरना होता था …


रेल के फर्स्ट क्लास के डिब्बे में एक दिक्कत यह भी थी …कि जैसे ही कोई ये मैगज़ीन अपने सामने वाले रैक कर रखता, आप के साथ बैठे हमसफर अगर एक दो मैगज़ीन उठा लेते तो फिर आप के नींद आने पर ही वापिस रखते…यह एक सिरदर्दी सी थी लेकिन चलता है ….यह चलता है आज लगता है, लेकिन उन दिनों बड़ी कोफ़त होती थी …लेकिन एक बात यह भी है कि चलती ट्रेन में वैसे भी कहां इतना पढ़ा जाता है….बस, एक-डेढ़ दिन तक चलने वाले सफ़र के लिए खरीद लिया करते थे…वैसे ट्रेन के अंदर भी ये मैगज़ीन और किताबें बिका करती थीं…


हां, मैं बात तो नारी हीरा की कर रहा था …यह मैं कहां से किधर निकल पड़ा ….ईमानदारी से एक बात यह भी कह दूं कि कल से पहले मैं भी इस नारी हीरा के बारे में नहीं जानता था….जानना तो दूर, मैं तो शायद कल नाम ही पहली बार सुना था…लेकिन फिर वही बात है जो लोग शांति से चुपचाप अपने काम में लगे रहते हैं, वही इतिहास रच पाते हैं….जैसा कि नारी हीरा ने अपने काम ही से मोहब्बत की। 


स्टारड्स्ट के बारे में अपनी यादों के बारे में सोचता हूं तो याद आता है कि अकसर यह बड़ी रंगीन और चमकदार मैगज़ीन रही है …बहुत सुंदर मनमोहक तस्वीरें जो हमें इस मैगज़ीन को देखने पर मजबूर करती थीं, और उन के लेख भी काफी चटपटे, फिल्मी चटर-पटर, गॉसिप से भरे होते थे …आज सोचता हूं कि 40 साल पहले भी इतनी चमक-दमक वाली मैगज़ीन को नियमित निकालना एक चैलेंज तो रहता ही होगा….40 साल मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैंने इसे 1985 के आसपास देखना-पढ़ना शुरू किया था …वैसे तो यह 1971 से छप रही थी। 


हां, मैंने किराये पर लेकर इसे पढ़ने की बात की थी …अभी याद आया कि कभी कभी पुरानी स्टाऱडस्ट (2-3 महीने पुरानी) पर फुटपाथ पर आधी कीमत पर भी बिक रही होती …दस रूपये में ….वह खऱीद लिया करते थे। स्टॉरडस्ट ही नहीं, ऐसी बहुत सी पत्रिकाएं आधे दाम पर बिका करती थीं ..खरीद लिया करते थे, हमें क्या फ़र्क पड़ता था, हम ने कौन सा करैंट इवैट्स का पेपर देना होता था इन को पढ़ कर …ऐसे ही थोड़ी दिल्लगी के लिए पन्ने उलट-पलट लिया करते थे …हां, कभी होस्टल में कुछ कमरों में इस तरह की पत्रिकाओं के सेंट्रल-स्प्रेड वाला पेज किसी दीवार पर टंगा हुआ भी दिख जाता था ….लेकिन नाई की पुरानी दुकानों में अभी भी मायापुरी, फि्लमी कलियां और पंजाब केसरी के फिल्मी पोस्टर ही दीवारों पर चिपके दिखते थे …


ये सब पत्रिकाएं नारी हीरा की कंपनी मैगनामैग्स प्रकाशित करती थी 

मुझे पुरानी पत्रिकाएं रोमांचित करती हैं….करती हैं तो करती हैं, कोई कारण नहीं, कोई वजह नहीं…मेरे लिए ये पुरानी पत्रिकाएं उन दिनों में झांकने के लिए झरोखे हैं…बहुत कुछ याद आ जाता है कॉलेज के दौर के इन प्रकाशनों के पन्ने कभी उलट पलट लेने से ही ….इसीलिए मुझे आज से 40-50-60 साल पुरानी कोई मैगज़ीन कहीं भी बिकती दिखती है -आनलाईन या ऑफळाईन …परवाह नहीं, खरीद लेता हूं …इसी शौक के चलते मेरे पास हमारे ज़माने की कुछ पत्रिकाओं की एक एक प्रति तो है ही ….जैसे मेेेरे लिए यह एक लिंक है उस गुज़र चुके दौर के साथ जु़ड़ने के लिए ….इसी क्रम में जब तलाश की तो मुझे 16 साल पुरानी स्टारडस्ट की एक अंक मिल गया ….यह सब कुछ मेरा संभाल कर रखा हुआ नहीं है, हम तो सब कुछ रद्दी में दे देने वाले हैं…ये सब बाद में खरीदी हुई पत्रिकाएं हैं….। 


इसी तरह मेरे पास ईवज़ वीकली, फेमिना, वीमेन इरा का एक एक अंक भी है ….और नारी हीरा की पत्रिका सैवी (Savvy) का भी एक अंक है …


सैवी - मई 1987 

सैवी पत्रिका भी महिलाओं की एक बोल्ड पत्रिका थी …(अभी भी होगी, पता नहीं अब चल भी रही है या नहीं) लेकिन आज जब उस को देख रहा था तो यही लगा कि अपने वक्त से काफ़ी आगे की मैगजीन थी….आप को भी पता ही होगा…लेकिन वही बात है देश में शुरू से पढ़े लिखों का, कम पढ़े लिखों का और अनपढ़ लोगों की दुनिया ही अलग रही है….यह कोई बडी बात नहीं है, स्वभाविक सी बात है ….लेकिन एक बात और है …जो लोग अंग्रेज़ी पढ़ना लिखना बोलना जानते हैं, उन की दुनिया भी दूसरे लोगों से अलग थलग ही थी, अभी भी अलग ही है, और हमेशा रहेगी…….इसलिए ये दोनों श्रेणियां एक दूसरे से खिंची खिंची सी, तनी तनी सी रहती हैं, ऐसा मुझे लगता है ….मैं गलत भी हो सकता हूं लेकिन मैं सैवी को और अन्य दूसरी इंगलिश मैगज़ीन के बारे में सोचता हूं और उस वक्त प्रचलित हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के बारे में सोचता हूं तो यही पाता हूं कि इन के बीच तो खाई बहुत गहरी है …लेकिन जो है, सो है, क्या आप को लगता है कि इस का कोई समाधान है…. मुद्दे अलग, आशाएं अलग, आकांक्षाएं अलग। 


आज भी क्या है, किसी भी हिंदी या स्थानीय भाषा के अखबार को देखिए और टाइम्स ऑफ इंडिया या किसी भी नेशनल इंगलिश डेली न्यूज़-पेपर के कंटैंट को देखिए….फ़र्क साफ दिखता है, मेरे जैसे जो बहुत सा कंटेंट अंग्रेज़ी में भी पढ़ते तो हैं, लेकिन लिखते हिंदी में इसलिए हैं क्योंकि हिंदी हमें भावनाओं को खुल कर लिखने की आज़ादी देती है …इंगलिश में कहां ढूंढते फिरेंगे सटीक शब्द…बड़ी सिरदर्दी हो जाएगी।


अप्रैल 1987 की सैवी में दिखा यह विज्ञापन 

पुरानी मैगज़ीन जब देखते हैं तो उस के पन्नों पर बिखरा सब कुछ बहुत कुछ कहता है….किस तरह के विज्ञापन थे उन दिनों, कहानियां किस्से क्या कहती थीं, तस्वीरें क्या ब्यां करती थीं…इस के अलावा भी बहुत कुछ जिसे महसूस किया जा सकता है, लिखा नहीं जा सकता, कुछ लोग मेरी इस बात से इत्तफ़ाक रखेंगे शायद….


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1980 के दौरान नारी हीरा ने वीडियो फिल्में भी तैयार करनी शुरू कीं….एक ऐसी ही फिल्म का विज्ञापन मैंने सैवी मैगज़ीन में देखा…आप भी देखिए…




कल की अखबार में जो नारी हीरा के स्वर्गवास होने का जो संदेश छपा था, वह भी अलग ही लगा …नारी हीरा इस फोटो में भी विलक्षण शख्सियत ही दिख रहे हैं….प्रकाशक का काम बहुत मुश्किल होता है, कभी कोई नाराज़ तो कभी कोई खुश….किस किस की नाराज़गियों का हिसाब रखें ये प्रकाशक लोग …नारी हीरा ने जो भी काम किया शानदार किया, इतने लंबे अरसे तक हमारे मनोरंजन का ख्याल रखा ….ईश्वर उन की आत्मा को शांति प्रदान करे….

पोस्ट बंद करते करते सैवी के 1987 के इस अंक के आखिर पन्ने पर नज़र पड़ गई ....आप खुद ही पढ़ लेंगे और सब से नीचे लिखी लात मारने वाली बात भी ....😎

अभी मुझे बेंजमिन फ्रेंकलिन का कहा एक वाक्य याद आ रहा है ….


"If all printers were determined not to print anything till they were sure that it would offend nobody, there would be very little printed."


PS....29 अगस्त, 2024...आज मैं मुंबई वी.टी स्टेशन के बाहर पंचम पूरी वाले के सामने एक न्यूज़-पेपर मैगज़ीन वेंडर के पास गया स्टारडस्ट और सैवी मैगजीन के लिए ....उसने बताया कि लॉक-डॉउन के दिनों से ये सब पत्रिकाएं बंद हो चुकी हैं....। उस के पास सभी अखबार और पत्रिकाएं मिल जाती हैं...। 

बुधवार, 21 अगस्त 2024

देखते देखते पोस्टकार्ड भी एंटीक हो गए....

हमारे देखते देखते पोस्टकार्ड भी एंटीक स्टफ बन कर रह गए….मुझे याद है सात आठ बरस पहले की बात है लखनऊ की एक दुकान पर अन्य एंटीक चीज़ों के साथ साथ पुराने पोस्टकार्ड भी बिका करते थे …एक पोस्टकार्ड की कीमत 50 रुपये…..उन की खासियत यही होती थी कि वे आज़ादी से भी पहले के लिखे हुए …डिप पेन से या तो फाउंटेन पेन से …सुंदर लिखाई….


एक बात सोचने वाली यह भी है कि आखिर पुराने ख़त बाज़ार तक पहुंचे कैसे ….लिखने वाले को या जिसे वे लिखे गए होंगे, उन्हें अगर इस बात की भनक भी लग जाती कि उन के आंखें मूंदने के बाद उन के ख़तूत का यह हश्र होने वाला है तो सच में वे यमराज से चंद मिनट मांग कर अपने ख़तों को अपने हाथों से ठिकाने लगा कर के कूच करते …


कितनी बातें हम लोग ऊल जलूल लिख देते थे …कितनी बातें हम तक ऊल जलूल लिखी पहुंच जाती थीं…लेकिन वे सब अपने तक ही रहती थीं अमूमन…


मैं शायद पहले भी कईं बार यह लिख चुका हूं कि पहले घरों में ख़तों को एक लोहे की तार में पिरो कर रखने का चलन था…मेरी नानी के यहां भी था, और छुट्टियों में हम जब वहां जाते तो उस रेडियो के दौर में अकसर नानी का रेडियो खराब ही रहता था ….ऐसे में वे ख़त ही हमारे मनोरंजन का साधन हुआ करते थे …एक तरह से छोटे मोटे कॉमिक्स…यह लिखते हुए ऐसे लग रहा है जैसे हम लोग अभी अभी तार में से सभी ख़त निकाल कर, ज़मीन पर नीचे बिछा कर, उन का गहन अध्ययन कर रहे हैं….एक बात और भी मज़ेदार थी न, कि कोई रोकता-टोकता भी न था…वैसे वो रोक-टोक करें भी तो क्यों, इसी बहाने खुराफाती बच्चों की टोली आरे तो लगी हुई दिखती …(काम पर लगी हुई तो दिखती)....


एक बात मज़ेदार यह भी होती थी वैसे तो लोग पड़ोसियों के बच्चों से ख़त लिखवा भी लेते थे, बाहर से आए ख़त उन से पढ़वा भी लेते थे ……लेकिन जो कुछ पढ़े-लिखे लोग थे उन का पोस्टकार्ड अगर डाकिया गलती से या अपनी सुविधा के लिए पड़ोस में दे जाता था और जब शाम को या अगले दिन वह उन के पास पड़ोसी पहुंचाने आता था, तो बहुत ही ज़्यादा अजीब लगता था ….यह तो मेरे अनुभव की बात है …क्योंकि पोस्टकार्ड में तो सब कुछ खुला ही रहता था …और जब कोई पड़ोसी वह हमें देने आता तो यही लगता कि यार, अब तो इसमें रहा ही क्या, तू ही रख लेता इसे अब अपने पास…। यहां तक कि इस तरह से कोई अंतर्देशीय पत्र या वह पीला लिफाफा भी कोई दे जाता और उस की गोंद इत्यादि थोड़ी ढीली दिखती तो यही लगता कि यह भी लगता है किसी के हत्थे चढ़ कर और किसी की निगाहों से हो कर ही हमारे तक पहुंचा है ….

शायद कोई यकीन न करे कि हमारी नौकरी लग चुकी थी और हमें बहुत बार माता पिता जी के पोस्टकार्ड आते थे …जब हम उन से मिलते थे तो कहा करते थे कि पापा जी, पोस्टकार्ड न भेजा करो, लिफाफा नहीं तो कम से कम अंतर्देशीय ख़त ही लिख दिया करो….मुझे नहीं लगता कि इस तरह की रिक्वेस्ट का कोई असर हुआ …क्योंकि पिता जी की आखिरी पोस्टकार्ड भी अभी मैंने संभाल कर रखा हुआ है …


और हां, मज़ेदार बात एक और ….पहले लोगों में विश्वास बहुत था …छोटे बच्चे खुद ही स्कूल जा रहे हैं पैदल ……कोई चिंता नहीं, शाम को वापिस लौट आते थे …कोई ढूंढने नहीं जाता था …उसी तरह डाक विभाग पर भी पूरा पक्का भरोसा तो था ही ….कि चिट्ठी अगर बक्से में पहुंच गई तो समझ लीजिए देर-सवेर अपने ठिकाने पर भी पहुंच ही जाएगी….और एक बात यह कि अगर किसी पड़ोसी की चिट्ठी अगर डाकिया दे गया है और पड़ोसी अब दूसरे किसी शहर में रहते हैं तो पिता जी उस खत पर लिखा हुआ पता काट कर या उस के ऊपर एक छोटा कागज़ चिपका कर उस पर नया पता लिख देते और ऊपर बडे़ बड़े अक्षरों में लिख देते …..Redirected.और हमें हमेशा यह बात बड़ी रोमांचक लगती कि पापा जी कि इतनी ज़्यादा चलती है और डाक विभाग वाले उन की इतनी मानते हैं कि वह गलत पते पर पहुंची चिट्ठी को कहीं से कहीं पहुंचाने की काबिलियत भी रखते हैं…मुझे याद है मैं जब होस्टल में था दो साल के लिए मेरी कोई नौकरी की चिट्ठी या कोई इंटरव्यू की चिट्ठी मेरे पिता जी इस रि-डॉयरेक्टेड नामक जादू से मुझे भिजवा दिया करते थे और वह मुझे पहुंच भी जाती थी …


कुछ बरस पहले कभी कभी दुकानों पर जो पुरानी चिट्ठियों के बंडल सूतली से बांध कर दिख जाते थे…अब सोच कर इतनी हंसी आती है कि क्या बताएं…यार, ख़त भी कोई बेचने वाली वस्तु हैं….अपने मन के उद्गार हैं जो किसी ने लिख कर आप तक पहुंचाए और आपने आव देखा न ताव, उन को इक्ट्ठा कर के रद्दी में आगे सरका दिया….मुझे 

ऐसा लगता है कि यह काम अगली पीढ़ी या उससे भी अगली पीढ़ी करती होगी …..आम के पेढ़ के बारे में कहते हैं दादा बोए, पोता खाए…..ख़त के बारे में यह है कि दादा उन को अपने ट्रंक में सजोए, पोता घर की सफाई के बहाने उन्हें कबाड़ी को थमाए …..यही होता है अकसर ….और हो रहा है…


वैसे अभी तो फिर भी एंटीक ही सही,दिख तो जाते हैं ...पुरानी पीढ़ी देख तक सकती है कि कभी यह भी राब्ता कायम रखने का ज़रिया हुआ करते थे ..लेकिन आने वाले दौर में तो पोस्टकार्ड गूगल सर्च कर के नेट पर ही दिखा करेंगे...


शनिवार, 17 अगस्त 2024

डाक विभाग के नाम पर चल रहा फ़र्ज़ी मैसेज



अभी मैंने यह लिखने के लिए गूगल-डाक्स खोलने की कोशिश की तो दो एक बार नहीं खुला…मुझे यही लगा कि हो गया अपना भी जे-मेल खाता हैक…..लेकिन अगली बार आराम से खुल गया…आए दिन तरह तरह के फिशिंग अटैक, साइबर फ्रॉड ने हमें बात बात पर शक करने की आदत सी डाल दी है ….गलत है या ठीक, मुझे भी नहीं पता…लेकिन ऑनलाइन संसार में दाल में सिर्फ़ कुछ काला ही नहीं है, इस से बढ़ कर कालापन तो है ही …बस, जब तक कोई बचा हुआ है, ठीक है, जब कभी किसी के झांसे में आ गया तो समझिए फिर हो गया कांड…..


अखबारें हमें तरह के फ्रॉड के बारे में सचेत तो करती ही हैं, सरकारी विज्ञापन भी यह काम करते हैं लेकिन आए दिन जैसे ये शातिर लोग नए नए हथकंड़े अपना लेते हैं, इन को समझना बहुत मुश्किल है …इन से बचने का शायद सब से कारगर तरीका यही है कि किसी भी अनजान इंसान द्वारा भेजे गए लिंक पर क्लिक मत करिए….



मुझे भी कुछ दिन पहले एक टैक्स्ट मैसेज आया कि आप अपने पते को दुरुस्त करवा लीजिए, नहीं तो हम आप का पार्सल वापिस भिजवा देंगे …


एक बार नज़रअंदाज़ कर दिया …


दो दिन बाद फिर आया ऐसा ही संदेश ….


वैसे भी मैं उन दिनों हिंदी की कुछ पत्रिकाओं की इंतज़ार कर रहा है जो मुझे रजिस्टर्ड डाक से मिलती हैं। 




इसलिए उस दिन मैंने उस टेक्स्ट में दिए गए लिंक पर क्लिक कर दिया ….और तुरंत एक फॉर्म सा खुल गया जिस में लिखा था कि अपना ठीक ठीक पता लिखिए….


मैंने अपना पूरा पता लिख दिया ….अभी शहर ही लिखने वाला था कि मेरी ट्यूबलाइट जली कि डाक विभाग को जितना मेरी उम्र के लोग जानते हैं, उस से ज़्यादा भी क्या कोई जान सकता है। कब कहीं ऐसा सुना कि डाक विभाग इस तरह के मैसेज भेजने लगा कि पता सही करवा लो ….बस, कुछ गड़बड़ सा लगा तो उस फॉर्म को नहीं भरा….


लेकिन उत्सुकता फिर भी कम नही हुई ….कि कहीं पोस्टल विभाग से ही न हो …उस फॉर्म के नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करने पर जो पेज खुला उस पर लिखा था कि हमें डाक विभाग द्वारा आउटसोर्स किया गया है ….और नीचे एक लिंक था जिस पर किल्क करने पर डाक विभाग की साइट खुल रही थी (वैसे इस लिंक को कोई कहीं भी लगा सकता है, कोई बड़ी बात नहीं) …बस, मैंने फिर एक बार समझ लिया कि शायद यह डाक विभाग द्वारा ही पूछा जा रहा होगा….




मैंने सोचा कि पास ही के एक डाकखाने में जा कर पूछूंगा कि क्या उन का विभाग इस तरह के मैसेज भी भेजने लगा है …


लेकिन उस दिन फुर्सत ही न मिली ….बैठे बैठे जिस जिस फोन से मैसेज आया था …उन को फोन मिलाया लेकिन कोई धार्मिक सा भजन सुनाई दिया लेकिन किसी ने फोन उठाया नहीं, कुछ कुछ समझ में आने लगा और नेटफ्लिक्स पर देखी जामतारा सीरीज़ का भी ख्याल आने लगा …


मैंने उन में से नंबर पर मैसेज किया ….कि कौन हो तुम, तुम फोन भी नहीं उठा रहे…


खैर, उधर से जवाब तो क्या आना था, मैं समझ गया कि ये सब फ्रॉडिए हैं….उस के बाद ऐसे ही कुछ लिख कर गूगल किया तो पता चला कि डाक विभाग तो पहले ही से जनता को इस तरह के साइबर-फ्रॉड के बारे में आगाह कर चुका है….


अब मुझे यह चिंता सताने लगी कि मैंने तो उन के भेजे लिंक पर दो चार बार क्लिक तो किया था ….इस तरह की ज्ञान रखने वाले किसी बंदे से पूछा। उसने कहा कि आइ-फोन में किसी के द्वारा इस तरह से किसी लिंक के ज़रिए घुसपैठ करना लगभग नामुमिकन है….उसने यह भी पूछा कि तुम ने कुछ अपलोड तो नहीं किया ….मैंने कहा …नहीं….


मेरे यह पूछने पर कि अगर मैं अपना पता उन को भेज भी देता तो क्या हो जाता, उसने कहा कि सूचना उन के पास चली जाती ….मैं यही सोचने लगा कि फिर शायद वे लोग पार्सल भेजने वाले फ्रॉड को आगे बढ़ाने का काम करते …..सब गोलमाल है सच में ….वैसे भी हमारे बारे में सब तरह की सूचना हर तरफ़ फैल रही है निरंतर ….सब से ज़्यादा मुझे गुस्सा उस सेल्समेन पर आता है जो किसी स्टोर के केश-काउंटर पर बैठ कर पूछता है …..अपना फोन नंबर बताइए….और हम हर बार यह सोच कर उसे नंबर दे देते हैं जैसे वह हमारा कोई जैक-पॉट लगा देगा ….हर जगह हमारी व्यक्तिगत सूचना बिखरी पड़ी है ….हर जगह ….आधार की वजह से, आधार को यहां-वहां बेतहाशा लिंक करने की वजह से …जगह जगह पर हम लोग कैमरे की नज़र में तो हैं ही, और जहां कैमरे की नज़र में नहीं हैं, वहां पर डिजीटल सर्विलैंस की नज़र में हैं…..कहां जा रहे हैं, क्या खरीद रहे हैं, कहां ठहरे हैं….किधर जा रहे हैं….इस सब का हिसाब रखा जा रहा है ….


और इस तरह के साइबर अटैक्स में, फिशिंग के अटैक में सब से ज़्यादा बुज़ुर्ग लोग फंस रहे हैं….बच्चों ने महंगे महंगे स्मार्ट फोन तो उन के हाथों में थमा दिए हैं, लेकिन आगे उन खिलौनों से कैसे खेलना है, वह उन्हें ज़्यादा नहीं समझता…….क्योंकि किसी अनजान नबंर से आई वीडियो कॉल का जवाब नहीं देना, यह समझ बुज़ुर्गों को ब्लैकमेल होने पर और लाखों रुपए गंवाने पर ही समझ आता है ….


चलिए, छोडे़ें इन फ्रॉड की बेकार बातों को …..कुछ भी हो सकता है अगर ये फ्रॉडिए ठान लें तो ….


खैर, अगले ही दिन घर पहुंचने पर मुझे एक कागज़ पर लिखा डाकखाने की तरफ़ से मैसेज मिला कि आप का लिफाफा आया हुआ है, पांच दिनों के अंदर फलां फलां वक्त पर आ कर ले जाइए (जिस की फोटो आप इस पोस्ट के शुरु में देख रहे हैं)….नहीं तो ……..नहीं तो, वही तो, कुछ नहीं …..ऐसा कुछ भी नहीं लिखा था कि वरना आप का लिफाफा वापिस लौटा देंगे…


अगले दिन वहां जाकर वह कागज़ का टुकडा़ दिखाया ….अपनी पहचान दिखाई ….और वह चिट्ठी मिल गई …बहन की भेजी हुई चिट्ठी थी और साथ में राखी ….अब डाक विभाग को राखी के मौसम में करोड़ों रुपए की आमदनी ज़रूर होती होगी….सब लोग स्पीड-पोस्ट ही से भेजते हैं, ऐसा मुझे लगता है ….जैसा मैं अपने आस पास देखता हूं कईं बरसों से ….लोगों को लगता है कि स्पीड पोस्ट से भेजी है तो देर सवेर मिल तो जाएगी….मैं अकसर यह सोचता हूं कि क्यों लोगों का भरोसा सामान्य डाक से ख़तों से उठ सा गया है ….लिखने के लिए ही शायद मैं भी ऐसा लिख रहा हूं ….भिजवाता मैं भी हर जगह स्पीड पोस्ट ही हूं ….और कभी कभी रजिस्टर्ड डाक के ज़रिए भी ….


वैसे स्पीड पोस्ट का एक किस्सा सुनाऊं….पास की एक बिल्डिंग में रहने वाले किसी शख्स की स्पीड पोस्ट चिट्ठी (जो बहुत ज़रूरी थी ….कोई न कोई कॉर्ड वॉड था) हमें मिली….डाकिया बाबू दे भी गया और वॉचमैन ने ले भी ली, हमारे घर तक पहुंचाने के लिए…ऐसा मैंने पहली बार देखा। खैर, उस स्पीड पोस्ट पर फोन लिखा था, सो फोन कर के उस लिफाफे को सही जगह पर पहुंचा दिया गया…लेकिन हैरानी वाली बात है कि स्पीड पोस्ट के साथ भी ऐसा हो सकता है। 


हां, इस ख़त को बंद करते करते याद आया कि हो तो कुछ भी सकता है ….कुछ दिन पहले मैंने किसी जगह पर कुछ ख़त बिकते देखे….पूरा बंडल था, सौ पचास का …जब अंतर्देशीय पत्र 10 पैसे के हुआ करते थे …1960 के दशक की लिखे ख़त थे …किसी रेल के अफ़सर को लिखे हुए खत थे ….मैंने पढ़े तो नहीं, लेकिन उन को बेचने वाला जो कीमत मांग रहा था, वह मुझे बहुत ही ज़्यादा लगी …..मैं उसे उस की आधी कीमत पर लेने को तैयार था …..क्यों, मेरी क्या रूचि थी इन ख़तों में ….कुछ नहीं, इस तरह के साठ साल पुराने ख़त एक दस्तावेज़ हुआ करते हैं…..बहुत कुछ ब्यां करते हैं उस बीते दिनों के बारे में ….यह किसी की चिट्ठी पढ़ने का मामला नहीं है, है भी क्या करें, जिन लोगों को पुरानी चिट्ठीयां डिस्पोज़ करने की समझ ही नहीं है, उन को कोई क्या कहे….वैसे अगर इस तरह की चिट्ठीयां न हों जिन को इतनी बेफ्रिकी से हम लोग लिखा करते थे ……लिखने वाले ने और पढ़ने वाले ने कभी सोचा भी न होगा कि कभी ये भी कलेक्टर-आईट्म का दर्जा पा लेंगी ……..दुकानदार बहुत ज़्यादा कीमत मांगने को यह कह कर ठीक ठहरा रहा था कि हम भी तो कलेक्टर लोगों से ही खरीदते हैं…….

लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता ….


अपनी चिट्ठीयां भी अपने ज़िदा रहते ठीक से ठिकाने लगा देनी चाहिए…..एक सबक यह भी है ……वैसे क्या फ़र्क पड़ता है आंखें मूंदने के बाद कोई क्या करे उन चिट्ठियों को बेचे …उन को कौन किस नज़रिए से पढ़े, कैसे इस्तेमाल करे, कोई सीरिज़ बनाए, कोई नावल लिखे, किस्सा लिखे, जो कुछ भी करे …वह जाने ……लिखने वाले को और उस ख़त पाने वाला को क्या फ़र्क पड़ता है ….हां, इसी बहाने, इन के ज़रिए किसी के बच्चे पल रहे हैं…….मैंने नहीं खरीदीं, लेकिन किसी न किसी ने ज़रूर खरीद ली होंगी, मुझे पक्का विश्वास है ….


एक बात और ….जब मैंने उन फ्रॉड लोगों को यह मैसेज किया तो अगले दिन से ही उन का भेजा लिंक भी खुलना बंद हो गया, मैं ऐसे ही चैक कर रहा था अगले दिन …..पहले कहते थे …बच्चों को हमारे ज़माने से कि अनजान लोगों से कुछ भी लेकर मत खाओ, फिर हम बच्चों को हिदायत देने लगे कि स्कूल आते जाते किसी अनजान बंदे से बात न करो, फिर आज के बच्चों को शायद यह हिदायत है कि किसी अनजान बंदे की तरफ़ देखो भी मत (कहीं सम्मोहन न कर ले, हिप्नोटाइज़ ही न कर ले कोई कमबख्त), बात करने का तो कोई सवाल ही नहीं रहा अब…..फिर धीरे धीरे हम ने वह ज़माना देखा कि किसी अनजान नंबर से आया फोन भी न उठाने का रिवाज़ चल निकला ….अभी भी वह चलन में है…..फिर उस के आगे अब यह किसी अनजान नंबर से आए टैक्सट मैसेज पर दिए लिंक पर क्लिक भी मत करो……इतनी बंदिशों के साथ जीने से क्या हुआ …..जैसे पंजाबी की एक महान् लेखिका अकसर कहती हैं कि हमारी बातें ही सुंघड़ गई हैं (सिमट गई) हैं….हमें बात करना ही नहीं आता अब ….हमें बातों से बात निकालना, दिल खोल कर बात करना जैसे भूल गया हो ….हम हूं. हां, यैस, नो तक ही सीमित हो कर रह जाएंगे …..मैं इस लेखिका से बिल्कुल सहमत हूं….


अब सोच रहा हूं कि अगले साल से यह पत्रिकाएं भी डाक से मंगवाने वाला झमेला खत्म कर दूंगा ...पढ़ लिया अपने हिस्से का जितना पढ़ना था ....अब तो पढ़ने से कहीं ज्यादा गुढ़ने का वक्त आ पहुंचा है ....और ज़िदगी में जब गुढ़ने का वक्त होता है तो अहसास होता है कि इतना पढ़ना तो ज़रुरी था ही नहीं, ज़िंदगी की खुली किताब तो वैसे भी हर पल सिखा ही रही है ....😀😀😁😁😂


सुबह सुबह बेवजह इतनी गूढ़ ज्ञान की बातों से होने वाली बोरियत का एक एंटीडोट भी है मेरे पास....हिना फिल्म का मेरे एक बहुत ही पसंदीदा गीत ....वह भी ख़त के बारे में, चिट्ठी के बारे में .....और मेरी सब से पसंदीदा लाइन इस गीत की .....पल्ले विच अग दे अंगारे नहीं लुकदे ...(इस गीत का लिंक)


मंगलवार, 13 अगस्त 2024

ए.सी फर्स्ट क्लास की स्टोरी बढ़िया थी, कैप्शन नहीं....

 टाइम्स ऑफ इंडिया का नियमित पाठक हूं …कईं कईं दिन बीच में वक्त नहीं मिलता या थकावट की वजह से दो चार पन्ने ही पलट पाता हूं …अच्छे से पढ़ नहीं पाता और नींद घेर लेती है, लेकिन मन में मलाल रह जाता है…मेरे लिए पिछले 32-33 वर्षों से इसने एक टीचर और दोस्त जैसा काम किया है …बहुत कुछ सीखा है इन पन्नों से ….जब मुंबई के बाहर भी रहे तो पढ़ते टाइम्स ही थे, लेकिन वह वाली टाइम्स मुंबई वाली टाइम्स से बहुत फीकी होती थी ….लेकिन हम अपनी आदत से मजबूर थे…

और हां, कईं बार कुछ लेखों की इंगलिश इतनी कठिन होती है इसमें भी हमें बस इतना तो पता चल जाता है कि यह किस के बारे में है, बस इस के आगे कुछ हाथ-पैर उस स्टोरी की समझ नहीं आता…


लेकिन परसों संडे टाइम्स ऑफ इंडिया में एक स्टोरी छपी थी ….No ruffing it! How AC First class became the ‘kutton ka dabba’. जो लोग तो इस अखबार को रोज़ पढ़ते हैं उन्होंने तो इसे पढ़ भी लिया होगा…मैंने भी उसी दिन पढ़ लिया था, लेकिन मुझे इस का कैप्शन बहुत अजीब सा लगा था …


हमारे घर की शान....यह लगभग सभी कुर्सियों और सोफों  की सीटों को ऐसा कर चुकी हैं ...लेकिन इस लाडली को सब कुछ करने की इजाज़त है, ...चलिए, यह तो घर की बात है ...लेकिन सफर के दौरान पेट्स के पेरेन्टस रेलवे 
 की प्रापर्टी को कैसे किसी तरह के नुकसान से बचाते होंगे, इस वक्त यह सोच रहा हूं... 

इस में क्या लिखा है, वह तो आप पढ़ ही लेंगे ….अभी मैंने देखा जब ऊपर लिंक शेयर किया तो पता चला कि लेख पढ़ने के लिेए सब्सक्राईब करना पड़ता है, मुझे इस सब के बारे में ज़्यादा पता नहीं रहता क्योंकि मैं तो किताबें हो अखबारें ..सब की हार्ड कापी ही पढ़ना पसंद करता हूं …वैसे मैं नीचे इस स्टोरी की एक फोटो भी लगा दूंगा जिस पर क्लिक कर के आप इसे अच्छे से पढ़ सकते हैं कि कैसे फर्स्ट क्लास ए.सी को कुत्तों के डब्बे के नाम से जाना जाने लगा ….


स्टोरी मैंने पूरी पढ़ ली, कैप्शन भी देखा……लेकिन मुझे यह बात बिल्कुल भी हज़्म हुई नहीं कि इस डब्बे को अब कुत्तों का डब्बा कहा जाता है ….मैं इतने विश्वास और भरोसे के साथ इसलिए कह रहा हूं कि ट्रेनें,स्टेशन, प्लेटफार्म, रेलवे के परिसर भी मेरे लिए दूसरे घर जैसे ही हैं…एक दिन किसी भी कारणवश इन ट्रेनों, स्टेशनों पर दुनिया का मेला न देखूं तो बड़ी बेचैनी सी हो जाती है ….ऐसे लगता है कुछ छूट सा गया है, जैसे खाना हज़्म नहीं होगा….और हमारा बेटा तो हम से भी दो गज़ आगे …1990 के दशक में रात के वक्त जब तक हम उसे बंबई सेंट्रल के प्लेटफार्म नं 5 पर दस मिनट रात के वक्त घुमा कर नहीं लाते थे, उसे नींद ही नहीं आती थी….और मेरा तो रेलों से रिश्ता तब से है जब से होश संभाला है ….अमृतसर में डीएवी स्कूल से जब पांचवी-छठी-सातवीं कक्षा में पैदल घर आते थे, तो जानबूझ कर मालगोदाम वाला रास्ता पकड़ते थे ….बड़ा कारण तो था कि उस रास्ते में छाया होती थी, और जब कोई माल गाड़ी पर सामान चढ़ या उतर रहा होता तो हम दो चार मिनट उस को देखते रहते, हमें बड़ा मज़ा आता था इस माल ढुलाई को देख कर ….और उस रास्ते से कैसे जल्दी से घर आ जाता था, पता ही नहीं चलता था….हां, कभी कभी खाकी कपड़े पहने हुए कोई पुलिस सा दिखने वाला उस रास्ते से जाने से टोक भी देता था, लेकिन उस उम्र में कौन परवाह करता है इन सब चीज़ों की …


हां, टाइम्स में छपी इस स्टोरी के कैप्शन को देख कर बहुत अजीब सा लगा …क्योंकि ए.सी फर्स्ट क्लास में सफर करना तो जैसे रेल के मुलाज़िमों के लिए एक हसीं सपने जैसा है। हम भी पिछले 20-22 साल से इसी डब्बे में सफर करते हैं, जब भी मौका मिलता है ….जहां तक मुझे याद है इस डब्बे में सफर करने के लिए रेल अधिकारियों को पात्रता तक पहुंचने में 13 वर्ष तो लग ही जाते हैं…


और इस डब्बे के साथ बहुत बढ़िया सी यादें हैं…राजधानी का और दूसरी गाडियों का ए.सी फर्स्ट क्लास अलग सा होता है, सुविधाओं एवं साज सज्जा के हिसाब से …ऐसा मुझे लगता है। 


मुझे अच्छे से याद है जब मैंने पहली बार वर्ष 2003 या 2004 के आसपास इस डब्बे में यात्रा की थी तो बहुत अच्छा लगा था…शायद नए नए कैमरे वाले फोन आए थे….मेरे पास भी कोई नोकिया वोकिया था जिसे खरीदने के लिए हमारा सारा खानदान फिरोज़पुर छावनी की एक मोबाइल की दुकान में गया था ….अभी भी उसे किसी सोविनियर की तरह रखा हुआ है …दस-बारह हज़ार के करीब आया था उन दिनों …हां, उस कैमरे से फोटो खिंचवाना याद है एसी फर्स्ट क्लास के डब्बे में बैठ कर ….हर चीज़ बेहतरीन ….परदे, स्टॉफ, खाना परोसने का तरीका…..


उन दिनों में –आज से बीस साल पहले….एक तो एसी फर्स्ट क्लास के केबिन में एक वॉश-बेसिन भी हुआ करता था ….हाथ धोने के लिए बाहर जाने की भी ज़रूरत न होती थी, वैसे तो वह बेसिन ढका सा रहता था, लेकिन  इस्तेमाल के वक्त उस कवर को थोड़ा ऊपर करना होता था, और हम हाथ धो लेते थे ….उन दिनों यह बहुत बात लगती थी, राजसी ठाठ-बाठ जैसी….


और, खाना परोसने से पहले उस डब्बे का स्टॉफ नीचे की दोनों सीटों के आगे दो दो खाने के छोटे छोटे लकड़ी के टेबल खोल देता था (वे फोल्डेबल होते थे), और फिर वह सूप से शुरू करता, कैसरोल में खाना आता था। 


एसी फर्स्ट क्लास में लिनिन भी कुछ अलग ही रहता था ….एक दम चकाचक सफेद चादरें और बढ़िया तकिये ….और जब आप अपनी सीट से काल-बेल बजाते थे तो वह आ कर आप का बिस्तर भी बना देता था…..


अब तो इस एसी फर्स्ट क्लास के डिब्बे में ऐसे भी इंडिकेटर लगे रहते हैं कि कौन सा वॉश-रूम, कौन सा वेस्टर्न कमोड (WC) खाली है और किस में कोई गया हुआ है…..और कईं बार तो बाहर एसी फर्स्ट के पैसेज में सीसीटीवी भी लगा देखा है ….


और एक बात तो लिखनी भूल ही गया….यह उन दिनों की बात है जब मैने इस कोच में नया नया सफर करना शुरू किया ….तो एक बात देख कर हैरान था कि उसमें एक वॉश-रूम गुसलखाने का काम भी करता था …उस में आप सिर्फ नहा सकते थे …शॉवर लगा हुआ था…यह भी एक अलग तरह का टशन था उन दिनों ….नहाया हूंगा मैं भी उसमें एक दो बार …फिर शौक पूरा हो गया….


अब आप देखिए कि मेरे जैसे लोगों के पास जब इस एसी फर्स्ट क्लास से जुड़ी इतनी हसीं यादें हैं तो अचानक आप किसी दिन अखबार में पढ़ें कि अब यह कुत्तों का डब्बा बन गया है, तो कैसा लगेगा….अजीब लगा मुझे भी …पढ़ लीजिए आप भी इस स्टोरी को ….स्टोरी में बताया गया है कि एक युवती जो अपने कुत्ते के साथ एक डब्बे को तलाश कर रही थी, जब उसने कुली से पूछा कि एसी फर्स्ट क्लास कहां है तो कुली ने जवाब दिया ….आप कुत्तों वाले डब्बे के बारे में पूछ रही हैं न ….


अपने पालतू, कुत्ते, बिल्लियां लोग गाड़ी में लेकर जाते हैं, पता है…लेेकिन इस एसी फर्स्ट के डिब्बे को कुत्ते वाला डिब्बा कहा जाने लगा है, यह मुझे इस स्टोरी से ही पता चला…..और मैं इस से इत्तेफाक नहीं रखता बिल्कुल कि इस डब्बे को अब इस नाम से बुलाया जाता है …और मुझे तो कुली के द्वारा इस डब्बे को कुत्तों वाले डब्बे के नाम से पुकारना भी अजीब ही लगा ….मैंने तो किसी को आज तक यह कहते नहीं सुना ….और वैसे भी बंबई के तो कुली भी इतने पॉलिशड हैं कि ……


खैर, मुझे भी याद है कि 2017 में जब मां बहुत बीमार थी तो मेरे बेटे ने बिल्ली को बंबई से लखनऊ अपनी दादी को मिलाने लाना था ….हमें तो इस के बारे में कुछ पता नहीं थी, उसने पूछा था हमसे ….लेकिन फिर उसने खुद ही दो टिकटें खरीदीं, एसी फर्स्ट क्लास की पुष्पक एक्सप्रेस की ….और बंबई से लखनऊ बिल्ली के साथ आया ….कुपे में आया था, पूरी तैयारी के साथ बिल्ली की बास्केट के साथ, उस का लिटर और उस की लिटर वाली ट्रे और स्कूप भी लेकर आया था पूरे कायदे से …..मां वैसे तो उस की बिल्ली की बहुत दीवानी थी….मां कहती थीं उसे जैसे तेरी बिल्ली सयानी है, अपने लिए कोई बहू भी ऐसी ही ढूंढना ….और मां खिलखिला कर हंसने लगती थी …लेकिन उस बार जब बिल्ली खुद चल कर मां के पास लखनऊ पहुंची थी तो मां को अपनी सुध-बुध ही न थी, वह तो दर्द से बेहाल पड़ी रहती थीं, और बिल्ली मां के पलंग के ऊपर उन के पैरों के पास बैठी रहती थीं ….बस, दो चार दिन में मां का दुनियावी सफ़र पूरा हो गया……क्या कहें!!


हां, मुझे यहां यह भी लिखना है जो उस टाइम्स की स्टोरी में नहीं लिखा कहीं भी …पालतू जानवर जिस के होते हैं उन को वे बहुत प्यारे होते हैं, बेशक। और रेलवे की बात करें तो यह विभाग बहुत लिबरल है, बहुत बड़े दिल वाला है …हम और आप देखते ही हैं रोज़, और आप इस स्टोरी में भी पढ़ ही लेंगे ….लेकिन एक बात बचपन में किसी किताब में पढ़ी थी कि जहां मेरी नाक शुरू होती है, तुम्हारी आज़ादी वहां खत्म हो जाती है….


मैंने भी देखा है, अंधेरी, बोरिवली स्टेशन पर कुछ लोगों को अपने शेर जैसे कुत्तों के साथ खड़े हो कर ट्रेन का इंतज़ार करते हुए …कभी कभी तो किसी ने उन के मुंह पर एक बास्कट (एक छोटा सा शिकंजा) भी नहीं बांधा होता …और वे इतनी भीड़ भाड़ देख कर उछल कूद भी करने लगते हैं…पालतू जानवरों के मालिकों (नहीं यह शब्द गलत है, स्टोरी में पेरेन्ट्स कहा गया है) …तो हां, पालतू जानवरों के माता-पिता को इन सब बातों का भी अच्छे से ख्याल रखना चाहिए….


और हां, जैसे इस स्टोरी में कहा गया है कि लोग इस लिए भी अपने पालतू ट्रेन के एसी फर्स्ट क्लास के कोच में लेकर जाते हैं क्योंकि वे उन्हें बीच बीच में जब कोई स्टेशन आता है तो प्लेटफार्म पर घुमाने ले जाते हैं…..सोचने वाली बात यह भी है कि क्या भीड़-भाड़ वाले प्लेटफार्मों पर इन को घुमाए बिना काम नहीं चल सकता, क्या है न जनता जनार्दन आम तौर पर डरती है इन भारी भरकम या किसी भी तरह के जानवरों से ………वह अलग बात है कि जनता जनार्दन की सहनशीलता अद्भुत है….जिस के समक्ष मैं सदैव नतमस्तक हूं….


पेट्स की बात हुई तो तेरी मेहरबानियां फिल्म का यह गीत कैसे याद न आता.....




PS.... Times of India Headlines have been quite popular. After assassination attempt on Donald Trump, there was a front page headline-- Donald Trumps Death.  I too was a bit scared to read it for a moment....कि कल खबरों में कह रहे थे कि बंदा ठीक है ..फिर जब मेेेरे दिमाग की बत्ती जली तो समझ में आया कि यह एक बेहतरीन कैप्शन है...जिसे करोड़ों अरबों लोगों ने सराहा ....मैंने भी इस से बढ़िया कैप्शन शायद ही पहले कभी देखा हो .....अगले दो तीन दिनों तक अखबार में इस के बारे में आता रहा ...Power of Apostrophe! जिन बच्चों को अंग्रेज़ी के व्याकरण सीखने में दिक्कत हो उन को इस तरह के कैप्शन सिखा सकते हैं हर चिन्ह के बारे में .....

अभी जब विग्नेश की खबर भी टाइ्म्स में छपी पहले पेज पर तो कैप्शन था.... 100gms crush Billion Hopes...
Amazing expression, 4-words say it all and with so much power and conviction! 

शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

खाओ पियो ऐश करो मितरो .....

Dr Praveen Chopra


पिछली बार जब अमृतसर में था तो वहां पर केसर के ढाबे पर मेरे लंच की थाली -😎

मैंने सोचा बहुत हो गईं गाने-बजाने की पोस्टें, कुछ खाने पीने की बात भी की जाए….अच्छा लगता है गाने पीने की बातें करते हुए, पुराने दिनों के खान-पान के तौर तरीके याद कर के …


आज पुराने दौर के खाने पीने की बातें कैसे याद आ गईं, सुनाता हूं पूरी बात …

आज एक स्टोर में गए…बहुत चलता है, बहुत पुराना भी है, खाने-पीने की सभी चीज़ें वहां मिलती हैं…मेरे काम के तो आटे के बिस्कुट और सैंकडो़ं तरह की ओर चीज़ें जो मुझे अब पसंद नहीं हैं ज़्यादा….मिठाईयां-विठाईयां बहुत खा लीं, अब अपराध-बोध घेर लेता है दो टुकड़े मिल्क-केक के खा कर भी ….


हां, तो उस स्टोर में हम कुछ सामान खरीद रहे थे तो एक युवक को मैंने देखा कि वह एक बर्नी और हाथ में कुछ डिस्पोज़ेबल चम्मच लेकर इधर उधऱ घूम रहा था …अचानक मेरी नज़र उस की तरफ़ गई तो वह किसी महिला को एक चम्मच उस बर्नी में से निकाल कर दे रहा था ….मैंने सोचा आचार होगा…


आप को भी याद होगा पहले जब हम लोग कभी मेलों वेलों मेंं जाते थे तो एक स्टॉल जहां पर दुनिया भर के खट्टे-मीठे चूरण और चटपटी गोलियां बिक रही होतीं तो वो बुला बुला कर कोई हाजमा दुरुस्त करने वाला चूरण चटवा के या दो चार चूरण की हींग वाली गोली का प्रसाद देकर ही मानते ….एक बार किसी का चूरण चाट लिया तो कोई भी बंदा कोई भी छोटा-मोटा पैकेट-डिब्बी तो लेकर ही जाएगा। 


मां राजमां कहते हैं हम बचपन से, फिर लोगों को दाल मक्खनी कहते सुना...और अब कोयला दाल मक्खनी...लिखते लिखते याद आ गई एक बात ...कुछ अरसा पहले एक फंक्शन के सिलसिले में एक केटरर आया हुआ था ...बार बार कहे जा रहा था ..दाल मखानी...मैं यही सोच रहा था जिसे सही नाम ही नहीं लेना आता, वह क्या खिलाएगा....

आज जब उस युवक को देखा तो मुझे लगा कि यह भी कोई चटपटा आचार चटवा रहा है ….मैंने कुछ सुना भी ऐसा ..लेेकिन मेरे पूछने पर उसने बताया कि यह दाल मक्खनी है जो कोयले पर पकी हुई है….झट से उसने चम्मच पर थोड़ी सी लाग लगा कर (जैसे रबड़ी खिला रहा हो) मेरी तरफ कर दी…..मैंने मना भी किया ….लेकिन उसने कहा कि आप देखिए तो चख कर …ठीक है, चख ली…अच्छी है मैंने कहा ….


फिर उसने उस की तारीफ़ का पुराण सुनाना शुरु किया। बताने लगा कि इसे कोयले पर पकाने में 12 घंटे लगते हैं….मैं भी कौन सा शरारती कम हूं….मैंने पूछा कि इसे कोयले पर पकाते कहां हो। 


मालाड़ में हमारा गोदाम है, वहीं पर पकाते हैं….


बंबई जैसे महानगर में कोयले पर किसी चीज़ को पकाना एक बहुत बड़ी बात है, इस से उस की वेल्यू बढ़ जाती है…कईं बार किसी रेस्टरां में जाएं तो कोयले पर पकी या फ्राई हुई कोई चीज़ लाते हैं तो सारे कमरे में धुआं धुआं सा हो  जाता है, वह भी एक स्टेट्स सिंबल भी है….मुझे ऐसा लगता है …लोग उस धुएं की तरफ़ देखने लगते हैं….शायद सिज़लर्स कहते हैं इन चीज़ों को ….तुक्का ही लगा रहा हूं, शायद कभी खाया नहीं और न ही खाने की कोई तमन्ना ही है। 




हां, कोयले पर बनी हुई दाल मकखी क्या, लगभग हर दाल, साग सब्जी हम लोगों ने अंगीठी या चुल्हे पर पकी हुई खाई है ….इसलिए मां के हाथ की उन चीज़ों ने हम लोगों (हम लोगों का मतलब मेरी उम्र के लोग) के नखरे का लेवल बड़ा ऊपर सेट किया हुआ है …हम अभी भी हर खाने पीने वाली चीज़ की तुलना मां की रसोई से ही करते हैं….है न मज़ेदार बात…..इतनी मेहनत से पहले अंगीठी को जलाना, और वह भी 3-4 डिग्री तापमान वाली कड़ाके की ठंड में भी ….कोई नागा नहीं, कोई छुट्टी नहीं…..फिर उस पर दाल को मिट्टी की हांड़ी (पंजाबी में उसे कुन्नी कहते हैं) में चढ़ाना और साथ में तंदूर तपा देना ….क्या क्या याद करें, यादें पीछा ही नहीं छोड़ती …पता नहीं कब कैसे घेर लेती हैं अचानक ….जैसे आज उस दाल मक्खनी का मर्तबान (बर्नी) देखी आधा किलो दाल 570 रुपए में और एक किलो वाली दाल मक्खनी की बर्नी 970 रूपए की…..वैसे मां के खाने का स्वाद तो शायद पीढ़ियों तक आगे चलता है यूं ही ...क्योंकि मां जब तक रहीं वह अपनी मां (हमारी नानी) के बनाए लज़ीज़ राजमा, आलू-बैंगन, बैंगन का भुर्ता और भरवें करेले याद करती रहीं ...और हां, एक कदम कड़क तंदूरी रोटियां भी ...वह मैं कैसे भूल गया...नानी को भी अकसर देखते हम पसीने से तरबतर परात भर भर कर शिखर दोपहरी में रोटियां लगाती रहतीं, और हम उन को आलू-बड़ी की सब्जी, राजमां के साथ खाते न थकते ..... पेट भरने पर भी कमबख्त नीयत भरने का नाम ही न लेती....



बंबई के हिसाब से रेट कोई ज़्यादा नहीं हैं, वैसे भी किसी भी रेस्टरां में पांच-छः सौ रुपए से कम कहां कोई डिश मिलती है….सो रेट तो बिल्कुल सैट है, और स्टोर की मार्केटिंग भी एक दम टनाटन ….जिस युवक ने यह बर्नी उठाई हुई है उस की सारे दिन की ड्यूटी यही है ग्राहकों को चटनी की तरह इस दाल को चटवाना….जैसे चंदू की चाची चंदू के चाचा को चांदनी रात में चांदी के चम्मच से चटनी चटवाया करती थी ….


वैसे जो मेरा तजुर्बा है …वह यही है कि दाल मक्खनी बंबई में एक तो दादर (सेंट्रल साइड) में प्रीतम के ढाबे में ….और एक बांदरा में पाली हिल नाका (पाली नाका) पर पापा पॉचो ढाबे में बहुत लज़ीज़ मिलती है ….दाल मक्खनी ही नहीं, पंजाबी खाना सभी तरह का …बहुत ही बढ़िया मिलता है …और खिलाते भी पापा पॉचो ढाबे में तो एक बहुत पुरानी थालियों और कटोरियों में हैं ….पंजाबी में हम उस धातु को ‘कैं’ कहते हैं …हिंदी इंगलिश में पता नहीं….


एक बात का अहसास होता है कि ज़िंदगी भर घर में, बाहर कुछ भी खा लो लेकिन मां के हाथ की सब्जी और रोटियां दुनिया क्या, सारी कायनात का सब से बढ़िया खाना होता है…


और हां, एक बात और …उस स्टोर में एक भिंड़ी भी बिक रही थी, लिखा था वेक्यूम फ्राईड थी…दो सौ रूपए की सौ ग्राम ….यानि सिर्फ 2000 रुपए किलो ….

लीजिए, सौ ग्राम भिंडी भी लीजिए....210 रुपए में केवल ...चटपटी भिंड़ी ..जो लड़का बार बार चखने के लिए कह रहा था, उस के कहने पर खा ली, और जब भिंड़ी के किनारे पर ठूंठ बच गया तो मैंने पूछा कि इस का क्या करना है, फैंक दें,...उसने झट से समझा दिया ....इसे तो खा जाइए,इसी में तो सारे विटामिन हैं.....मैंने सोचा अब अगले गुरुवार वाले दिन विटामिनों के ऊपर तुम्हारा लेक्चर रखवाते हैं....साथ में यह पैेकेट भी ले आना, इनकी मार्केटिंग भी कर चले जाना....


मैंने कुछ ऐसे खाने पीने के वीडियो चेैनल सब्सक्राईब कर रखे हैं जहां पर मुझे आए दिन अमृतसर से और पंजाब से बहुत बढ़िया बढ़िया खाने पीने की चीज़ें बनती दिखती हैं, उन के ज़ायका पहुंचता है मेरे पास …….लेेकिन मुझे लगता है कि पंजाब में या पंजाबियों की और अब कहें तो सारे हिदोस्तान की खाने पीने की आदतें बहुत बिगड़ी हुई हैं…तेल, मसाले, मैदा, घी, मक्खन …ज़्यादा नमक, ज़्यादा चीनी …इसलिए मैं इन सब चीज़ों के अंधाधुंध इस्तेमाल की कभी किसी को सलाह नहीं देता …कभी कभी ठीक है ….क्योंकि मैं भी कोशिश करता हूं कि मैं सेहतमंद खाना ही खाऊं…..मेरा टॉरगेट है दिन भर में जो खाता हूं उस का दो तिहाई तो कच्चा ही खाऊं…..लेकिन अभी भी शायद 30 फीसदी तक ही पहुंचा हूं….और वैसे भी कच्चा खाना (रॉ-फूड) कम ही खाया जाता है …बहुत कम …बहुत जल्दी तृप्ति हो जाती है ….यह लिखने का मेरा मकसद यह है कि हमें एक दूसरे से कुछ न कुछ प्रेरणा लेनी चाहिए….



अगर किसी को यह प्लेट देख कर कोई प्रेरणा मिलेगी तो अच्छा ही है …दिन में एक बार तो कोशिश रहती है कि एक मील तो ऐसा ही हो ….बहुत बार मन बेईमान हो जाता है …लेकिन फिर भी कच्चा खा ही लेता हूं कुछ न कुछ …जंक फूड लगगभ न के बराबर लेता हूं …बीकानेरी भुजिया थोड़ा बहुत खा लेता हूं …यह ध्यान में रहता है कि क्यों खा रहा हूं, कुछ पौष्टिकता तो है नहीं, फ़िज़ूल में कैलरी जमा करने का जुगाड़ है…कईं महीनों से चाय में चीनी कम बिल्कुल और मिठाईयों से भी दूर ही रहता हूं जब तक घर में दिख न जाएं….

पंजाबियों का सीधा सादा फंडा खाने पीने के मामले में ...



वैसे एक फोटो मेरे पास और भी है, हिंदोस्तान में मेरे सब से फेवरेट ढाबे ..अमृतसर के केसर के ढाबे की मेरे लंच की थाली की ….मैंने इस से बेहतर खाना कहीं नहीं खाया अभी तक ….यह अमृतसर का केसर का ढाबा सौ साल से ज़्यादा पुराना है, और वहां कितना भी खा लो, कितनी भी फिरनी चटम कर लो, सब कुछ हज्म होना ही है ….और ऊपर से, उस के बाद भी हाल बाज़ार वाले ज्ञानी की मिट्ठी लस्सी के लिए जगह हमेशा बन ही जाती है ….


अभी मैंने व्लर्ड-काउंट से देखा तो पाया कि इस पोस्ट में 1250 शब्द लिख दिए….बात ऐसी भी नहीं थी कि इतना लंबा लिखा गया ….जब कि अगर मैं थोड़ा सा भी दिमाग लगा देता तो चुपचाप उसी पुराने दौर का यह गीत लगा कर फ़ारिग हो सकता था ….दाल रोटी खाओ..प्रभु के गुण गाओ….1973 में आई फिल्म ज्वार भाटा फिल्म का सुपर-डुपर गीत ...लक्ष्मी प्यारे के संगीत का जादू ...,सारी ज़िंदगी का फ़लसफ़ा पांच मिनट में पल्ले पड़ जाए किसी के भी .....इसे सुन कर ....