अप्रैल 2006 का स्टारडस्ट |
कल रविवार की टाइम्स ऑफ इंडिया के फ्रंट पेज के एक किनारे पर दुबकी यह ख़बर मेरे से भी मिस ही हो जाती अगर कल का पेपर पढ़ने से पहले मुझे फेसबुक से नारी हीरा के गुज़रने की ख़बर न पता लगी होती…
मुमकिन है आप ने भी कल का अख़बार तो देखा हो लेकिन इस ख़बर से बेख़बर रह गए…
कोई बड़ी बात नहीं है…क्योंकि बात ही कुछ ऐसी है ….मुझे लगता है कि मैंने यह नाम ही कल पहली बार सुना…हां, ख़बर में जो लिखा था कि नारी हीरा मैगज़ीन प्रकाशन में एक बहुत नाम थे …और उन्होंने स्टार डस्ट जैसे मैगजीन की शुरुआत 1971 में की थी, यह देखते ही ख़बर को पूरा पढ़ने की ख़्वाहिश हुई…
स्टारडस्ट हो या हो मायापुरी, फिल्मीकलियां, सिने-ब्लिटज़ या फिल्मफेयर, सभी तरह के मेगज़ीन हमारे साथी रहे हैं …पढ़ाई के दौरान तो सिर खुजाने की फ़ुर्सत न थी लेकिन आज से 40 साल पहले नौकरी लगने पर इस तरह के मैगज़ीनों में भी रुचि बढ़ने लगी…
अच्छे से याद है कि 40 साल पहले स्टारडस्ट जैसे मैगज़ीन की कीमत 20-25 रुपए हुआ करती थी और उन दिनों मेरे लिए तो यह एक बड़ी रकम थी …अकसर इस तरह की मैगज़ीन किसी बुक स्टोर पर किराए पर मिल जाती थीं….चार पांच रुपए रोज़ाना किराए पर।
2006 की एक स्टारडस्ट का एक फीचर |
कभी खरीद भी लिया करते थे ..लेकिन बहुत कम। हां, गाड़ी में सफ़र पर निकलने से पहले इसे स्टेशन के किसी बुक स्टॉल से खरीद लिया जाता …और अकसर उस दौर में एक नहीं,कईं बार दो तीन चार मैगज़ीन, नावल, किताबें खरीद ली जाती …महिलाएं अकसर सरिता, गृहशोभा और बच्चे लोटपाट, चम्पक, नंदन से खुश हो जाते …वैसे यह दौर था आज से चालीस-पचास बरस पुराना जब किसी रेलवे स्टेशन से यह सब किताबें-रसाले खरीदने से पहले स्टेशन के बाहर जा कर एक सुराही खरीद कर उसमें स्टेशन से पानी भी भरना होता था …
रेल के फर्स्ट क्लास के डिब्बे में एक दिक्कत यह भी थी …कि जैसे ही कोई ये मैगज़ीन अपने सामने वाले रैक कर रखता, आप के साथ बैठे हमसफर अगर एक दो मैगज़ीन उठा लेते तो फिर आप के नींद आने पर ही वापिस रखते…यह एक सिरदर्दी सी थी लेकिन चलता है ….यह चलता है आज लगता है, लेकिन उन दिनों बड़ी कोफ़त होती थी …लेकिन एक बात यह भी है कि चलती ट्रेन में वैसे भी कहां इतना पढ़ा जाता है….बस, एक-डेढ़ दिन तक चलने वाले सफ़र के लिए खरीद लिया करते थे…वैसे ट्रेन के अंदर भी ये मैगज़ीन और किताबें बिका करती थीं…
हां, मैं बात तो नारी हीरा की कर रहा था …यह मैं कहां से किधर निकल पड़ा ….ईमानदारी से एक बात यह भी कह दूं कि कल से पहले मैं भी इस नारी हीरा के बारे में नहीं जानता था….जानना तो दूर, मैं तो शायद कल नाम ही पहली बार सुना था…लेकिन फिर वही बात है जो लोग शांति से चुपचाप अपने काम में लगे रहते हैं, वही इतिहास रच पाते हैं….जैसा कि नारी हीरा ने अपने काम ही से मोहब्बत की।
स्टारड्स्ट के बारे में अपनी यादों के बारे में सोचता हूं तो याद आता है कि अकसर यह बड़ी रंगीन और चमकदार मैगज़ीन रही है …बहुत सुंदर मनमोहक तस्वीरें जो हमें इस मैगज़ीन को देखने पर मजबूर करती थीं, और उन के लेख भी काफी चटपटे, फिल्मी चटर-पटर, गॉसिप से भरे होते थे …आज सोचता हूं कि 40 साल पहले भी इतनी चमक-दमक वाली मैगज़ीन को नियमित निकालना एक चैलेंज तो रहता ही होगा….40 साल मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैंने इसे 1985 के आसपास देखना-पढ़ना शुरू किया था …वैसे तो यह 1971 से छप रही थी।
हां, मैंने किराये पर लेकर इसे पढ़ने की बात की थी …अभी याद आया कि कभी कभी पुरानी स्टाऱडस्ट (2-3 महीने पुरानी) पर फुटपाथ पर आधी कीमत पर भी बिक रही होती …दस रूपये में ….वह खऱीद लिया करते थे। स्टॉरडस्ट ही नहीं, ऐसी बहुत सी पत्रिकाएं आधे दाम पर बिका करती थीं ..खरीद लिया करते थे, हमें क्या फ़र्क पड़ता था, हम ने कौन सा करैंट इवैट्स का पेपर देना होता था इन को पढ़ कर …ऐसे ही थोड़ी दिल्लगी के लिए पन्ने उलट-पलट लिया करते थे …हां, कभी होस्टल में कुछ कमरों में इस तरह की पत्रिकाओं के सेंट्रल-स्प्रेड वाला पेज किसी दीवार पर टंगा हुआ भी दिख जाता था ….लेकिन नाई की पुरानी दुकानों में अभी भी मायापुरी, फि्लमी कलियां और पंजाब केसरी के फिल्मी पोस्टर ही दीवारों पर चिपके दिखते थे …
ये सब पत्रिकाएं नारी हीरा की कंपनी मैगनामैग्स प्रकाशित करती थी |
मुझे पुरानी पत्रिकाएं रोमांचित करती हैं….करती हैं तो करती हैं, कोई कारण नहीं, कोई वजह नहीं…मेरे लिए ये पुरानी पत्रिकाएं उन दिनों में झांकने के लिए झरोखे हैं…बहुत कुछ याद आ जाता है कॉलेज के दौर के इन प्रकाशनों के पन्ने कभी उलट पलट लेने से ही ….इसीलिए मुझे आज से 40-50-60 साल पुरानी कोई मैगज़ीन कहीं भी बिकती दिखती है -आनलाईन या ऑफळाईन …परवाह नहीं, खरीद लेता हूं …इसी शौक के चलते मेरे पास हमारे ज़माने की कुछ पत्रिकाओं की एक एक प्रति तो है ही ….जैसे मेेेरे लिए यह एक लिंक है उस गुज़र चुके दौर के साथ जु़ड़ने के लिए ….इसी क्रम में जब तलाश की तो मुझे 16 साल पुरानी स्टारडस्ट की एक अंक मिल गया ….यह सब कुछ मेरा संभाल कर रखा हुआ नहीं है, हम तो सब कुछ रद्दी में दे देने वाले हैं…ये सब बाद में खरीदी हुई पत्रिकाएं हैं….।
इसी तरह मेरे पास ईवज़ वीकली, फेमिना, वीमेन इरा का एक एक अंक भी है ….और नारी हीरा की पत्रिका सैवी (Savvy) का भी एक अंक है …
सैवी - मई 1987 |
सैवी पत्रिका भी महिलाओं की एक बोल्ड पत्रिका थी …(अभी भी होगी, पता नहीं अब चल भी रही है या नहीं) लेकिन आज जब उस को देख रहा था तो यही लगा कि अपने वक्त से काफ़ी आगे की मैगजीन थी….आप को भी पता ही होगा…लेकिन वही बात है देश में शुरू से पढ़े लिखों का, कम पढ़े लिखों का और अनपढ़ लोगों की दुनिया ही अलग रही है….यह कोई बडी बात नहीं है, स्वभाविक सी बात है ….लेकिन एक बात और है …जो लोग अंग्रेज़ी पढ़ना लिखना बोलना जानते हैं, उन की दुनिया भी दूसरे लोगों से अलग थलग ही थी, अभी भी अलग ही है, और हमेशा रहेगी…….इसलिए ये दोनों श्रेणियां एक दूसरे से खिंची खिंची सी, तनी तनी सी रहती हैं, ऐसा मुझे लगता है ….मैं गलत भी हो सकता हूं लेकिन मैं सैवी को और अन्य दूसरी इंगलिश मैगज़ीन के बारे में सोचता हूं और उस वक्त प्रचलित हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के बारे में सोचता हूं तो यही पाता हूं कि इन के बीच तो खाई बहुत गहरी है …लेकिन जो है, सो है, क्या आप को लगता है कि इस का कोई समाधान है…. मुद्दे अलग, आशाएं अलग, आकांक्षाएं अलग।
आज भी क्या है, किसी भी हिंदी या स्थानीय भाषा के अखबार को देखिए और टाइम्स ऑफ इंडिया या किसी भी नेशनल इंगलिश डेली न्यूज़-पेपर के कंटैंट को देखिए….फ़र्क साफ दिखता है, मेरे जैसे जो बहुत सा कंटेंट अंग्रेज़ी में भी पढ़ते तो हैं, लेकिन लिखते हिंदी में इसलिए हैं क्योंकि हिंदी हमें भावनाओं को खुल कर लिखने की आज़ादी देती है …इंगलिश में कहां ढूंढते फिरेंगे सटीक शब्द…बड़ी सिरदर्दी हो जाएगी।
अप्रैल 1987 की सैवी में दिखा यह विज्ञापन |
पुरानी मैगज़ीन जब देखते हैं तो उस के पन्नों पर बिखरा सब कुछ बहुत कुछ कहता है….किस तरह के विज्ञापन थे उन दिनों, कहानियां किस्से क्या कहती थीं, तस्वीरें क्या ब्यां करती थीं…इस के अलावा भी बहुत कुछ जिसे महसूस किया जा सकता है, लिखा नहीं जा सकता, कुछ लोग मेरी इस बात से इत्तफ़ाक रखेंगे शायद….
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1980 के दौरान नारी हीरा ने वीडियो फिल्में भी तैयार करनी शुरू कीं….एक ऐसी ही फिल्म का विज्ञापन मैंने सैवी मैगज़ीन में देखा…आप भी देखिए…
कल की अखबार में जो नारी हीरा के स्वर्गवास होने का जो संदेश छपा था, वह भी अलग ही लगा …नारी हीरा इस फोटो में भी विलक्षण शख्सियत ही दिख रहे हैं….प्रकाशक का काम बहुत मुश्किल होता है, कभी कोई नाराज़ तो कभी कोई खुश….किस किस की नाराज़गियों का हिसाब रखें ये प्रकाशक लोग …नारी हीरा ने जो भी काम किया शानदार किया, इतने लंबे अरसे तक हमारे मनोरंजन का ख्याल रखा ….ईश्वर उन की आत्मा को शांति प्रदान करे….
पोस्ट बंद करते करते सैवी के 1987 के इस अंक के आखिर पन्ने पर नज़र पड़ गई ....आप खुद ही पढ़ लेंगे और सब से नीचे लिखी लात मारने वाली बात भी ....😎 |
अभी मुझे बेंजमिन फ्रेंकलिन का कहा एक वाक्य याद आ रहा है ….
"If all printers were determined not to print anything till they were sure that it would offend nobody, there would be very little printed."