शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

यह कैसा कचरा प्रबंधन है ?

आज जब मैं प्रातःकाल भ्रमण के लिये निकला तो रास्ते में मेरा मूड बहुत ज़्यादा खराब हुआ....अकसर सड़कों पर बिल्कुल छोटे छोटे पिल्ले मस्ती करते दिख जाते हैं--आज भी तीन-चार ऐसे ही मदमस्त पिल्लों की टोली की तरफ मेरा ध्यान गया जो अपनी मस्ती में मस्त थे और मुझे लगा कि एक पिल्ला कोई प्लास्टिक जैसी चीज़ खा रहा था---मैंने ध्यान से देखा तो वह एक कांडोम को चबा रहा था।

मैंने दो-चार बार प्रयत्न किया कि किसी तरह से यह उस कॉंडोम को नीचे गिरा दे लेकिन मैं सफल न हो पाया। मुझे उन की मां से डर भी लग रहा था। जिस घर के आगे यह कचरा पड़ा हुया था वह अपने दरवाजे पर खड़ा दिखाई दिया तो मैंने उसे भी कहा कि देखो, भई, यह कुछ खराब सी चीज़ खा रहा है। उस ने बस इतना ही कहा ----ये तो बस ऐसे ही !!

अभी उस ने इतना ही कहा था कि मैंने वापिस पलट कर उस पिल्ले की तरफ़ देखा---और यह देख कर मुझे इतना ज़्यादा दुःख हुआ कि वह उस कांडोम को निगल चुका था। मुझे उस प्यारे से पिल्ले पर जितना तरस आया उतना ही गुस्सा उस अनजान "ही-मैन" पर आ रहा था जिस ने काम पूरा होने पर उस कांडोम को बिना कुछ सोचे समझे घर के आगे फैंक कर अपनी मर्दानगी का परिचय तो दे दिया लेकिन उसे कागज़ में लपेट कर पास के ही डस्टबिन में डालने की भी ज़हमत नहीं उठाई। और उस पिल्ले का उस कांडोम को चबा जाना उस के शरीर में क्या कोहराम मचाएगा, यह सोच कर मेरा मन रो पड़ा। कुछ साल पहले अखबारों में देखा करते थे किस तरह से गायों के पेट से कईं कईं किलों पालीथीन की थैलियां निकाली गईं। इस पिल्ले की मदद करने वाला भी तो कोई नहीं हैं।



अस्पतालों में कचरा प्रबंधन जिस तरह से हो रहा है इस के बारे में तो आप सब मीडिया में देखते सुनते ही रहते हैं। और जिस तरह से प्लास्टिक की थैलियों ने कहर बरपा रखा है उस के बारे में कितना कहें ----- कहें क्या, अब तो करने की बारी है। लेकिन पता नहीं हम में ही कहीं न कहीं कमी है। अगर हम सब यह निश्चय कर लें कि पोलीथीन की थैलियों को छोड़ कर हम जूट या कपड़े के थैले ही खरीददारी के लिये लेकर चलेंगे तो भी हालात कितने बदल सकते हैं।

और यह जो आज कर दिल्ली में रेडियोएक्टिव कोबाल्ट-60 जिस ने कबाड़ियों के यहां ऊधम मचा रखा है, यह तो एक बेहद संगीन मसला है। ठीक है अब यह बात सामने आ गई, एक हादसे के रूप में यह मामला सामने आया तो हडकंप मच गया। लेकिन मैं तो पिछले कईं दिनों से यही सोच रहा हूं कि ऐसा तो हो ही नहीं सकता यह हादसा पहली बार हुआ हो-----रेडियोएक्टिव कोबाल्ट-60 को लेकर इस तरह के हादसे कबाड़ियों के यहां, उन के वर्करों के साथ पहले भी ज़रूर होते ही होंगे लेकिन जागरूकता के अभाव में कुछ पता ही नहीं चल पाता होगा कि कब इस तरह के प्रभाव शरीर में उत्पन्न होते होंगे और कब सब कुछ "ठीक ठाक" सा लगने लग जाता होगा और लंबे अरसे जब इस तरह की किरणों के दुष्परिणामों की वजह से इन निर्धन, बेजुबान वर्करों को कैंसर जैसे जानलेवा रोग दबोच लेते होंगे तो शायद किसे ने इस तरह की मौतों के पीछे कारण जानने की कोशिश ही नहीं की होगी......बस, शायद किसी ने हल्का सा यह कह कर छुट्टी कर ली होगी कि चलो, बस यह तो इतनी ही लिखवा के आया था !!

2 टिप्‍पणियां:

  1. भारतीयों की इस आदत पर पूरी पोस्ट बनती है, फिर भी संक्षेप में कहूँ तो चीजों को अपनाते ही अधूरी है. जैसे मैक्डोनाल्ड से बर्गर तो शान से खाया मगर डिब्बा सड़क पर. डिब्बा कहाँ डालना है, नहीं सीखा. कण्डोम/सेनिटरी नैपकिन का क्या करना है पता है मगर उपयोग के बाद सड़क है ना. ऐसी तो हजार चीजे हैं. सहुर कहते है ना, वह नहीं है.

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  2. उस अनजान "ही-मैन" पर आ रहा था जिस ने काम पूरा होने पर...........हा हा
    डा. साब तीर निशाने पर मारा है हा हा

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