रविवार, 31 जनवरी 2016

रोज़नामचः ३०.१.२०१६

एक बात मेरे ध्यान में बार बार आ रही है पिछले कईं दिनों से कि अगर ब्लॉग हमारी अपनी ऑनलाइन दैनिक डायरी है तो फिर हम उसे दूसरों को पढ़ाने के लिए इतना मरे क्यों जा रहे हैं, अपनी बात कर रहा हूं...मुझे यह कुछ अजीब या असहज सा लगने लगा है...किसी ब्लॉग ऐग्रीगेटर में आप अपनी पोस्ट को शेयर कर रहे हैं, समझ में आता है ..लेिकन फेसबुक, ट्विटर या व्हाट्सएप पर अपनी हर पोस्ट शेयर करना अजीब सा लगता है।

मैंने भी एक व्हाट्सएप ग्रुप पर अपने ब्लॉग की पोस्ट शेयर करने के लिए एक ब्रॉडकास्ट ग्रुप बनाया हुआ है..लगभग २०० लोगों का ...मेरी ताज़ा पोस्ट का एक लिंक भेजने पर सभी को एक साथ चला जाता है।

एक सज्जन हैं जिनसे मैं मिला नहीं हूं...दूसरे किसी शहर से हैं...अपनी किसी शारीरिक समस्या के लिए दो तीन बार फोन किया था उन्होंने...नंबर स्टोर था.. उन्हें भी यह लिंक जाने लगा ...परसों उन का मैसेज आया कि यह आप रोज़ाना क्या भेजते रहते हो!. मुझे थोड़ा अजीब सा लगा... मैंने उसी समय निश्चय किया कि किसी को भी अपनी पोस्ट का लिंक भेजना ही नहीं है...क्या फर्क पड़ता है, मैं लिखता हूं इस डायरी को ..बस अपनी खुशी के लिए, कोई पढ़े न पढ़े इस से क्या फ़र्क पड़ता है, यह मेरे समस्या है ही नहीं।

अब लिखते हुए ऐसा लगने लगा है कि अगर मैं अपनी पोस्ट को शेयर नहीं करूं तो मैं कितना आज़ाद हो जाऊंगा.. सच में इतने सारे भिन्न भिन्न लोगों को पोस्ट का लिंक भेजने के चक्कर में मुझे लिखते समय किसी न किसी की भावनाओं का ख्याल रखना ही पड़ता है ...थोड़ा चाहे बिल्कुल थोड़ा ...लेकिन कहीं न कहीं मन में रहता है कि फलां मेरा पुराना मित्र है, यह मेरा सहकर्मी है, यह परिचित है, इस से रोज़ मुलाकात होती है ......वगैरह वगैरह .. लेिकन इस सब के चक्कर में मुझे ऐसा लगने लगा है कि मैं कईं बार खुल कर लिख ही नहीं पाता...इसलिए मुझे अब इस से घिन्न आने लगी है ..

फेसबुक पर भी इसी चक्कर में मैंने अपनी पोस्ट शेयर करनी बंद कर दी थी.. शायद दो एक साल पहले ... लिखते समय ध्यान आने लगता था कि यह पोस्ट किन किन मित्रों तक पहुंचेगी। इस से लिखना प्रभावित होने लगा था...अब व्हाट्सएप पर भी यही होने लगा है...जिसे मेरा ब्लॉग देखना होगा, पहुंच जाएगा कैसे भी, वैसे इस में ऐसा पढ़ने लायक है भी क्या!...अपनी ही डायरी में लिखी चंद बातें ...

अब इन बातों को यहां विराम देता हूं और अपना आज का रोजनामचा लिख रहा हूं...कल टाटास्काई के मिनिप्लेक्स में "मैं ऐसा ही हूं" हिंदी फिल्म आ रही थी, देखी हुई है पहले से ..लेकिन फिर भी देखने लगा... मिनिप्लैक्स में यह फिल्म दिन में पांच छः बार आती है और बिना किसी एड-ब्रेक के....बहरहाल, किश्तों में देखते देखते यह पूरी फिल्म रात तक ही पूरी देख पाया।

बहुत अच्छी फिल्म है, एक संदेश है...और एक गीत जो इस का बहुत पापुलर हुआ था .. और है भी बहुत बढ़िया उसे आप को सुनाना चाहूंगा..



कल रात में Epic चैनल पर देख रहा था कि रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानी पर आधारित काबुलीवाला नाटक चल रहा था... बहुत ही बढ़िया... ध्यान आ गया उस समय कि काबुलीवाला फिल्म मैंने १९७० के दशक में देखी थी ...शायद १९७४ -७५ के आसपास जब अमृतसर में टी वी नया नया ही आया था.. कितना बड़ा प्रभाव छोड़ा था इस फिल्म ने मेरी उस बालावस्था में ...मुझे याद है अच्छे से।



काबुलीवाला नाटक देखते देखते रविन्द्रनाथ टैगोर का ध्यान आ गया .. आज दोपहर में ही महान लेखक दूधनाथ सिंह जी से यह सुना कि टैगोर जी ने १९१५ में लंदन से अमेरिका का २६ बार दौरा किया और हर बार राष्ट्रवाद विषय पर व्यक्तव्य प्रस्तुत किया... आप भी सोच रहे हैं कि यह अचानक से राष्ट्रवाद कहां से आ गया।


दरअसल आज दोपहर में मुझे कुछ समय के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ में जयशंकर प्रसाद जयन्ती समारोह में भाग लेने का अवसर मिला...संगोष्ठी का विषय था.. प्रसाद के साहित्य में राष्ट्रीयता एवं लोकमंगल की भावना।

दूधनाथ सिंह जी को सुनने का सौभाग्य मिला  

श्री दूधनाथ सिंह जी मुख्य अतिथि थे.. उन्हें सुनना बहुत अच्छा लगा...उन्हें सुनते हुए ऐसे लग रहा था जैसे वह श्रोताओं से बातचीत कर रहे हैं.. और एक बात जो मैंने कल महसूस की कि मेरे तो जो मन में होता है उसे लिखना तो बहुत दूर कह भी नहीं पाता हूं बहुत बार ... और बहुत बार उस पर अमल करने से भी बहुत दूरी है अभी ...लेिकन दूधनाथ सिंह जी को सुनते हुए लग रहा था कि जो उन के मनोभाव थे वे उन्होंने बहुत बेबाकी से ... बिना किसी हिचकिचाहट के श्रोताओं के सामने रखे....उस में नहीं जाते कि क्या कहा, क्या नहीं कहा, यह सब तो पेपर वाले लिख ही देंगे....लेिकन मैं तो उन की ईमानदारी की दाद देता हूं...ऐसा करना हरेक के बश की बात है भी नहीं, इस के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए होती है ... एक तरह से आत्मावलोकन का अवसर मिल गया मुझे दूधनाथ सिंह जी को सुनते हुए। 

कल ३० जनवरी थी...राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी की पुण्यतिथि भी थी, वहां पर एक वक्ता ने राष्ट्रवाद के बदलते मायनों पर चिंता ज़ाहिर करते हुए बताया कि आज गोवा में नाथूराम गोड़से पर एक किताब का विमोचन होने वाला है ... इसे सुनने के बाद श्री दूध नाथ सिंह जी ने अपने भाषण के दौरान कहा कि यह सुन कर उन्हें बहुत दुःख हुआ... उन्होंने बताया कि मैं तो गांधी जी का भक्त हूं... उन्होंने बताया कि गांधी जी की शहादत को दूसरा क्रूसीफिकेशन कहा जाता है।

अमेरिका में गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर द्वारा दिए गए व्यक्तव्यों में से राष्ट्रवाद की परिभाषा दूधनाथ सिंह जी ने शेयर की .. मुझे ठीक से याद हो कि नहीं, इसलिए किसी त्रुटि के लिए क्षमा करिएगा...इतिहास बताता है कि राष्ट्रवाद जो है वह एक दूसरे से लड़ने झगड़ने और अपना स्वार्थ साधने की चिंता है और उस की तैयारी है लेिकन टैगोर साहब ने कहा कि इतने बड़े देश में जहां कईं संस्कृतियां एक साथ रहती हों, उन सब की सुरक्षा को सुनिश्चित करना और यह भी सुनिश्चित करना कि वे सब आगे बढ़ें, यही राष्ट्रीयता है।



हां, एक बात और ... घर आते ही मैंने सब से पहले जयशंकर प्रसाद जी कि एक किताब अपने संग्रह से निकाली .. अभी तो बस निकाली है, देखता हूं पढ़ने का कब मुहूर्त निकलता है ...मैं पढ़ने के मामले में अव्वल दर्जे का आलसी प्राणी हूं..

बस यही फुल-स्टाप लगाता हूं.....वैसे भी आज कोई टेंशन नहीं, कहीं पर पोस्ट को शेयर करना नहीं, जो पढ़े उस का भला..जो न पढ़े उस का भी भला...  अपनी पोस्ट पढ़वाने का यह फितूर उतारना पड़ेगा......जो मन में है, अपनी डायरी में लिख कर छुट्टी करो....its as simple as that...unnecessarily it has become so complex!...मैं कितने लोगों के व्हाट्सएप मैसेज और लिंक खोलता हूं......शायद ९९ प्रतिशत तो बिना देखे ही रहते हैं, सच में .....ऐसे में भला कोई मेरे भेजे लिंक्स क्यों खोलने लगा!

हां, एक काम की बात और है ... वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर आप सैंकड़ों-हज़ारों कहानियां, उपन्यास...नामचीन लेखकों द्वारा रचे हुए ..मुफ्त पढ़ सकते हैं ...मैं यहां पर जयशंकर प्रसाद की कहानियों का लिंक लगा रहा हूं.... just check this out!

जाते जाते प्रिय बाबू की पावन स्मृति को बहुत बहुत नमन ...





शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

लखनऊ महोत्सव की दूसरी शाम - एक रिपोर्ट




कल मैंने लखनऊ महोत्सव के बारे में पहली पोस्ट लिखी तो मुझे कुछ मित्रों ने फोन किया, मैसेज किया कि यार, तुम्हारी पोस्ट में बढ़िया पार्किंग व्यवस्था का ज़िक्र तो है, कोई प्रूफ तो दिखा नहीं...मैंने कहा कि प्रूफ़ शाम को जुटाऊंगा।


आज लखनऊ महोत्सव की दूसरी शाम थी... दो तीन घंटे वहां बिताने का मौका मिला..सब से पहले मैंने महोत्सव की बढ़िया पार्किंग का प्रूफ़ जुटाया... यहां पेश कर रहा हूं....बात है भी सही ..आजकल हम ने कहीं जाना है या नहीं, पार्किंग की सुगमता या दुर्गमता ही यह तय करती है...लेकिन आप भरोसा रखिए, बिना किसी परेशानी के आप को पार्किंग की सुविधा उपलब्ध हो जायेगी। 

मुख्य पंडाल में गीतों का प्रोग्राम चल रहा था, मैंने साथ बैठे सज्जन से पूछा कि यह गायिका कौन हैं..उन्हें भी शायद पक्का नहीं पता था, कहने लगे शायद श्रुति पाठक। अचानक मुझे अहसास हुआ कि मेरा सामान्य ज्ञान औसत से भी निचले स्तर का है। 

श्रुति पाठक ने अपनी मदमस्त आवाज़ से पापुलर हिंदी फिल्मी को गा कर श्रोताओं का मन जीता...कुछेक जिन का मुझे ध्यान आ रहा है... एह दुनिया पित्तल दी, आ जा फोटो मेरी खींच, कल हो ना हो...हर पल यहां जी भर जिओ, इतना मज़ा आ रहा है (jab we met!) ...अभी मुझ में बाकी है थोड़ी ज़िंदगी, हाय हाय नशा है ज़िंदगी मज़ा है.. और एक गीत काय पोचे फिल्म से भी....यंगस्टर्स भी खूब एंज्वाय कर रहे थे..

मैं ये गीत सुनते हुए यही सोच रहा था कि ये सभी गीत श्रुति ने ही गाये होंगे .....लेकिन नहीं, यू-ट्यूब से देखा तो पता चला कि ऐसा नहीं था.. बहरहाल, श्रुति ने भी बेहतरीन गीत गाये हैं... उन में से एक दो गीतों को यहां एम्बेड कर रहा हूं.. 




अपने प्रोग्राम के आखिरी हिस्से में श्रुति ने बच्चों और युवाओं को स्टेज पर बुला लिया... एक बात जो मैंने नोटिस की .. ये सब स्कूली बच्चे एवं युवा श्रुति के साथ गा रहे थे, डांस कर रहे थे और साथ में अपने अपने मोबाइल से श्रुति के साथ शेल्फी भी लेने की पूरी कोशिश कर रहे थे....सच में आज का युवा भी बिना वजह बड़ा load ले रहा है...एक समय में एक काम कर ही नहीं पाता!

एक पते की बात शेयर करनी तो भूल ही गया मैं....महोत्सव स्थल में जाते ही यह खबर पता चली कि अब लखनऊ महोत्सव धूम्रपान रहित कर दिया गया है .....पढ़ लिया जी मैंने भी उस नोटिस को....कुछ विचार आए मन में, लिखने वाले नहीं हैं......लेिकन आज सुबह पता चला गया कि इस नियम का कितनी कठोरता से पालन किया गया....सराहनीय पहल। दरअसल हम लोग बिना दंड के किसी की सुनते ही कहां हैं!

श्रुति पाठक के बाद स्टेज पर आईं स्थानीय लोकगीत गायक वंदना मिश्रा...इन्होंने भी अपनी कला से सभी दर्शकों को खुश कर दिया... इसे लिखते यही सोच रहा हूं कि यहां लखनऊ आने से पहले मुझे इन गीतों की समझ नहीं आती थी, लेकिन अब अच्छे से समझ आने लगी है .. जैसा देश वैसा भेष... इन्होंने जो गीत गाए और जिन्हें दर्शकों के हुजूम ने बेहद पसंद किया वे थे.... 



हमरी गुलाबी चुनरिया हम का लागे नजरिया, ले चलो पटना बाज़ार जिया न लागे घर मा... और फगुनवा मा रंग रच रच बरसे....आज सुबह मैं यू-ट्यूब पर देख रहा था तो ये वहां भी दिख गये... फगुनवा वाला गीत तो मालिनी अवस्थी का गाया हुआ ही दिख गया... आप भी सुनिएगा... मुझे वहां बैठे ऐसे लग रहा था कि जैसे पंजाबी लोकसंगीत में गुरदास मान, वड़ाली बंधु...हंस राज हंस, बिट्टी का रुतबा है, वही स्थान भोजपुरी और अवधी लोकगीत-संगीत में इन कलाकारों का है। निःसंदेह ये महान कलाकार हमारी लोकसंस्कृति की जड़ों को सींचने का काम कर रहे हैं....इन की अनूठी कला को हमारा सलाम!

मालिनी अवस्थी का गीत यू-ट्यूब पर सुनते हुए राहत फतेह अली खां दिख गये तो उन का बहुत पापुलर गीत भी आप तक पहुंचाना तो बनता ही है ... गुम सुम गुम सुन प्यार दा मौसम... हुन नां दर्द जगावीं...इसे मैं हज़ारों नहीं तो भी सैंकड़ों बार तो सुन चुका हूं ..... and i never get tired of listening to this melody! 

विपुल आर जे रेडियो मिर्ची 
कत्थक नृत्य 
श्रीसारंगी द्वारा प्रस्तुत ओडिशी नृत्य 
कुछ समय के बाद मंच का संचालन करने रेडियो मिर्ची के आर जे विपुल पहुंच गये...with his great initimable style to mesmerize the audience!. ...कल कार्यक्रम मे सुरभि सिंह द्वारा निर्देशित कथक नृत्य भी देखने को मिला और दिल्ली से आई ७-८ साल की श्री सारंगी ने ओडिशी नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन किया... मैं वहां बैठा यही सोच रहा था कि स्कूली स्तर पर ही हमें विद्यार्थीयों को इन सांस्कृतिक धरोहरों के बारे में बताना चाहिए... this all must be a vital part of holistic education! 



दादी का सेल्यूट 
अब बारी थी ... कपिल की दादी (अली असगर) और गुत्थी (सुनील ग्रोवर) की ...उन्होंने हंसाया भी और लड़कियों को पूरा लंदन ठुमकदा वाले गीत पर डांस करने के गुर भी सिखाए.....इन दोनों को लखनऊ के एसएसपी श्रीं पंाडेय द्वारा सम्मानित भी किया गया... वैसे उस समय मेरे मन में भी कुछ ऐसे विचार आ तो रहे थे, लेकिन आज अखबार में भी वे दिख गये... 

बस, अब छुट्टी करते हैं .. कुछ फोटो लगा के...जिस से पता चल रहा है कि त्योहार का माहौल चल रहा है .. बिल्कुल गांव के मेलों जैसा भी बहुत कुछ ...वही खिलौने, वही खेल....बहुत कुछ वही का वही ...एक विचार यह भी कल आ रहा था कि इस तरह के त्यौहार देश के हर शहर, हर कसबे में लगने चाहिए..... ताकि लोग फुर्सत के कुछ पल मस्ती में बिता सकें...ज़रूरी है यह भी बहुत ही ..







 इस तरह के त्योहारों पर अकसर मेलों तीज त्योहारों के अपने दौर के फिल्मी गीत भी अकसर याद आ जाते हैं.. शायद आप भी इसे बहुत बरसों बाद सुन रहे होंगे.....



गुरुवार, 28 जनवरी 2016

लखनऊ महोत्सव ...१


आज सुबह लखनऊ महोत्सव की तरफ़ जाने की इच्छा हुई..घर के बिल्कुल पास ही में है। वहां पर कुछ तस्वीरें लीं जो यहां इस पोस्ट में शेयर कर रहा हूं...ज्यादा बातें नहीं करूंगा...आज सुबह ही किसी पेपर से यह ज्ञान हुआ है कि बातें कम करनी चाहिए... 



इस जोनल पार्क में मैं जैसे ही बिजली पासी किले की तरफ़ से दाखिल हुआ तो यह टॉवर देख कर हैरानी हुई...दूर से देख कर यही लगा कि इतने कम समय में इतना बड़ा टॉवर कैसे तैयार हो गया। हैरानगी हो रही थी ...लेकिन जैसे जैसे मेैं इस के पास पहुंचता चला गया, वह हल्की फुल्की उत्सुकता में बदलती गई...ऐसा लगने लगा कि यह कोई माडल होगा...

स्वस्थ भारत मिशन कार्यक्रम के अंतर्गत जगह जगह पर देखा कि सुलभ इंटरनेशनल ने इस तरह के कूड़ादान तो रखे ही हैं, साथ में सामाजिक संदेश भी लगा दिये हैं...साधुवाद।
मुझे पिछले दो वर्षों से इस लखनऊ महोत्सव में जाने का मौका मिल रहा है...मुझे वहां जाना और टहलना-घूमना अच्छा लगता है लेकिन एक समस्या तो बहुत थी ... हर तरफ़ मिट्टी के गुब्बार उड़ा करते थे... इस मिट्टी की वजह से आने वाले लोगों का हाल बेहाल हुआ करता था...लेिकन मैं देख रहा था पिछले कुछ महीनों से कि इस बार की तैयारियों में यहां इस मैदान में सड़कें तैयार की जा रही थीं..इसलिए अगर आप मिट्टी के गुब्बार से डर रहे हैं तो अब की बार ऐसी कोई बात है ही नहीं।
केवल सड़कें ही नहीं, अब यहां पर पार्किंग की भी कोई समस्या नहीं होगी क्योंकि पार्किंग स्थल को बहुत ही व्यवस्थित कर दिया गया है। अगर आप अपने वाहन पर आ रहे हैं तो आप के लिए उस को पार्क करने का कोई झंझट नहीं होगा।

जिस जगह पर भी  वृद्ध जनों या दिव्यांग जनों के लिए कुछ विशेष सुविधा रहती है, उसे देखना ही अपने आप में एक सुखद अहसास रहता है। हरेक का मन होता है कि मेलों में जा कर रौनक-मेले का आनंद लिया जाए।
कुछ लोगों ने आग तापने का ऐसा बढ़िया जुगाड़ कर रखा था..

खाने पीने के बहुत से स्टाल...हर तरह का खाना...बिरयानी, लखनवी कबाब..भेल पूरी और पता नहीं क्या क्या...हां, पिछली बार की मेरठ की खताईयां नहीं भूली अभी भी...

इस महोत्सव में पुस्तक मेले का आयोजन तो है ही, शायद रोज़ाना साहित्यिक संगोष्ठियां भी हुआ करेंगी...जैसा कि इस पंडाल से पता लग रहा है. वहां पर मौजूद स्टॉफ से इस के बारे में पूछा तो उसे इस के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।



इस टावर के बिल्कुल पास जाने से ही इस भेद से परदा खुल गया....


  मेरे फेवरेट रेडियोसिटी का भी अड्डा तैयार हो चुका है।



इस महोत्सव का यह मेन हाल है ....इस में हज़ारों लोगों के बैठने की सक्षमता है।


जब मैं इस महोत्सव स्थल में घुसा तो पता चला कि अभी तो विभिन्न स्टालों वाले अपनी अपनी दुकानें सजाने में जुटे हैं... होता है शुरूआती एक दो िदन तो किसी भी आयोजन को गर्म होने में लग जाते हैं... वैसे कल इस महोत्सव की शुरूआत हो चुकी है.. और शायद यह अगली ७ फ्रेबुवरी तक चलेगा...

अच्छा लगता है...मेले यूं ही लगते रहें, लोग जश्न मनाते रहें, आपस में प्रेम से रहें, सद्भाव बनाए रखें....यही जीवन है... इसी बात पर मुझे मेला फिल्म का यह गीत ध्यान में आ गया...यह नई वाली मेला फिल्म है...

गुरुवार, 21 जनवरी 2016

ई-चौपाल से खबरिया ..१

स्कूल के दिनों में मेरे लिए लाइब्रेरी पीरियड का बहुत महत्व था...मुझे लाइब्रेरी में हिंदी और अंग्रेज़ी के समाचार पत्रों से पांच छः खबरों के शीर्षक एक कागज़ पर नोट करने होते थे...इस बात की मुझे पूरी आज़ादी थी कि मैं किस खबर के शीर्षक को लिखूं, किसे रहने दूं..याद नहीं कि कभी किसी भी टीचर में कोई भी हस्ताक्षेप किया हो। फिर उन खबरों को स्कूल के ब्लैक-बोर्ड पर जो स्कूल के कंपाउंड में था...उन पर गीले चॉक के साथ लिखना होता था...इस सारे काम में आधा घंटा लग जाता था...लेकिन अच्छा लगता था...अच्छा नहीं, बहुत ही अच्छा लगता था, एक खास तरह की फीलिंग हुआ करती थी कि यार, अपने लिखे को रिसैस में इतने सारे लड़के आते जाते पढ़ रहे हैं.. यह छठी-सातवीं-आठवीं कक्षा की बातें हैं... उस के बाद मेरा प्रमोशन हो गया ...मैं स्कूल की पत्रिका अरूण का छात्र संपादक नियुक्त कर दिया गया। 

कुछ दिन पहले अपने स्कूल के एक साथी से बात हो रही थी ..रमन बब्बर का मुझे एक व्हाट्सएप ग्रुप से पता चला ..लगभग ३५ वर्षों के बाद .. उसने भी सब से पहले वही ब्लैक-बोर्ड पर खबरें लिखने वाली बात को याद दिलाया। 

मैं कल सोच रहा था कि अब स्कूल के उन दिनों को बीते हुए भी चालीस वर्ष होने वाले हैं, लेिकन कभी कभी ध्यान कुछ वैसा ही करने का हो जाता है.. कईं बार... वैसे आपने भी नोटिस किया होगा कि हर दिन कुछ खबरें हम ऐसी देख-सुन और पढ़ लेते हैं जो हमारे मन को उद्वेलित करती हैं..हम उन्हें आगे शेयर करना चाहते हैं.. उन पर रिएक्ट करना चाहते हैं ...उन के बारे में अपने विचारों से दूसरों को रू-ब-रू करवाना चाहते हैं ...हां, वे विचार अच्छे, बुरे, नैतिक, अनैतिक, वाजिब-गैर वाजिब कुछ भी हो सकते हैं, लेिकन परवाह नहीं क्योंकि वे विचार अपने व्यक्तिगत हैं...

दरअसल गांव-कसबों की चौपालों पर यही कुछ तो हुआ करता था... यही ओपिनियन मेकिंग के अड्डे हुआ करते थे.. जाने अनजाने में ... सब लोग कुछ न कुछ --पढ़े, गुढ़े और अनपढ़े ---सब कुछ न कुछ सीख पा लिया करते थे...जहां पर एक अदद अखबार को बीसियों लोगों द्वारा पूरी तरह से चबा लिया जाता है शाम तक .. लेिकन अब अपनी बात आगे भेजने को मेरे जैसे pseudo-intellactuals के पास ब्लॉगिंग के अलावा कोई माध्यम है नहीं ... शायद और कुछ सीखने की कोशिश की भी नहीं।  

बहरहाल जो भी अच्छा लगा, बुरा लगा दिन भर की खबरों में ...सोच रहा हूं कभी कभी इस का तप्सरा भी पेश कर दिया जाना चाहिए... एक बार लिख देने से छुट्टी हो जाया करेगी, वरना वही खबरें दिन भर उद्वेलित किए रहती हैं। चलिए, आज ही से शुरूआत किए देते हैं..

कल पेपर से पता चला कि दूध भी पॉलीथिन पैक में नहीं मिलेगा... आज से यहां यू पी में पॉलीथिन पर प्रतिबंध लग रहा है... मुझे यह खबर बड़ी सुखद लगी ..कम से कम अब हम लोग अपने थैलों को लेकर तो चला करेंगे...प्लास्टिक ने तो जैसे हम लोगों की ज़िंदगी में ज़हर घोल दिया है... यह खबर मैंने पढ़ी तो मुझे यह जान कर दुःख हुआ कि इस का विरोध करने वाले अभी से डट गये हैं... पूछ रहे हैं, पानी के पाउच भी तो बंद होने चाहिए.....अरे भाई, सरकार कुछ बढ़िया काम कर रही है, शुरूआत तो होने दो यारो, वे पाउच भी बंद हो जाएंगे... लेकिन कहीं से शुरूआत तो करनी होगी... इस के लिए प्रदेश सरकार को बहुत बहुत बधाईयां ... 

कल के ही अखबार में एक यह भी व्यंग्य दिख गया...लिखने वाली स्याही, फेंकने वाली स्याही ... आप भी पढ़िए... मैं राजनीतिक बात कभी नहीं करता ... कुछ अनुभव नहीं है, न ही हो तो ठीक हो....लेिकन जिस तरह से एक महिला ने केजरीवाल पर स्याही फैंकी, मुझे उस औरत की यह हरकत बेहद बेहूदा लगी ....कोई परेशानी है, कोई कष्ट है तो प्रजातांत्रिक तरीकों से उसे बताएं.... कलम का इस्तेमाल करिए....यह तो कोई बात न हुई कि किसी के ऊपर स्याही गिरा दी.....बेवकूफ़ाना हरकतें..इन का प्रजातंत्र में कोई स्थान नहीं है।

एक और खबर जो मैं शेयर करना चाहता हूं वह यह है कि अब यू पी की जेलों में कैदियों को छोला भटूरा और दूध भी मिलेगा...मुझे लगता है कि जेलों और वहां के खाने के बारे में जो हम लोगों के मन में एक तस्वीर है वह अधिकतर हिंदी मसाला फिल्मों की बनाई हुई है जिस में अमिताभ बच्चन किसी जेल अपनी एल्यूमीनियम की प्लेट में मोटे चावल और दाल डलवाने पहुंचता है तो किसी १० नंबरी से उस का पंगा हो जाता है और उसे कहना पड़ता है कि जहां हम खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है... फिर वह खतरनाक कैदी उस एल्यूमीनियम की प्लेट को दोहरा कर के अपनी शक्ति का परिचय देता है ... बस, आगे तो आप जानते ही हैं कि फिर कैसे अपना हिंदी फिल्म का हीरो उसी प्लेट से उस के सिर पर वार कर के उसे सबक सिखा देता है.. और जिस तरह का खाना कैदियों को उन की कोठरियों में पहुंचाया जाता है, उसे देख कर प्रेमरोग की बालविधवा पद्मिनी कोल्हापुर की खाने की प्लेट का ध्यान आ जाता है...
लेकिन कल पता चला कि अब यह स्थिति इतनी निराशाजनक नहीं है... तिहाड़ जेल में परोसे जा रहे व्यंजनों की तर्ज पर अब सूबे की जेलों में भी भोजन मिलेगा। बूंदी, दूध-जलेबी और छोले-भटूरे भी खाने को मिलेंगे, उबला अंडा भी मिलेगा..


मुझे यह खबर पढ़ कर बहुत खुशी हुई... लेकिन एक बार लगा कि शायद यह ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि अब बहुत बड़े बड़े नामचीन लोग भी तो जेलों में बंद हैं.....वैसे जो भी हो, बहाना कोई भी हो, सभी बंदियों का इस में फायदा है...वैसे भी ह्यूमन राईट्स का मामला है यह ....सजाएं चलती रहेंगी ...लेकिन अगर थोड़ा खाना ठीक ठाक हो, पौष्टिक हो तो बहुत ही अच्छा है....बहुत अच्छा कदम है यह। 


इतना तो मैं अच्छे से जानता हूं कि अब लखनऊ में सुबह-शाम के वक्त कहीं जाना सेहत के लिए बहुत खराब है, लेिकन पर्यावरण की स्थिति इतनी दयनीय है, वह मैंने इस खबर से जाना... इस का असर यह हुआ कि कल मैंने जब शाम छःबजे एक युवक को जेल रोड पर जॉगिंग करते देखा तो मैंने रुक कर उसे समझाया कि भाई, इस समय इतनी बिज़ी रोड़ पर इस व्यायाम से फायदा तो होगा नहीं, बल्कि नुकसान हो जायेगा...दो मिनट बात की, समय और जगह का सही इंतिख़ाब करने की उसे मुफ्त में नसीहत बांट दी .....बंदा पढ़ा लिखा था, समझ गया तुरंत। 




के सी त्यागी नाम के एक नेता हैं, मुझे इन के बारे में बस इत्ता पता है कि ये रवीश कुमार के प्राइम टाइम में या अन्य टीवी के प्रोग्रामों में अपनी बात बड़े अच्छे ढंग से रखते हैं... एकदम सटीक... जब मैं जीएम क्राप्स पर इन के इस लेख को पढ़ रहा था तो मुझे अचानक ध्यान आ गया कि आज कल बहुत सी सब्जियां तो बाज़ार में एक ही आकार की, एक ही साइज़ की बिल्कुल ऐसे बिक रही होती हैं..जैसे खेत में नहीं, किसी फैक्ट्री में तैयार हुई हों...कल चारबाग पुल से गुज़रते हुए मैंने जब भीमकाय पपीते देखे ...लगभग तरबूज जैसे-- तो पहले तो मुझे हंसी आई ...फिर चिंता हुई कि अब पता नहीं ये पपीते कौन सा मुसीबतों का पहाड़ लेकर आएंगे......वे सामान्य तो हो नहीं सकते, इतने जम्बो साइज़ के पपीते देखे तो पहले भी हैं दो तीन बार.....लेकिन सोचने वाली बात है कि अगर ये जम्बो साइज़ के पपीते पेड़ों पर ही उगते हों तो सच में पेड़ की जान ही ले लें! मुझे लगता है कि पेड़ों से तो इन्हें समय पर ही उतार लिया जाता होगा....बाकी की कारीगिरी नीचे ही होती होगी..अगर हो सके तो इस तरह के सुपर-डुपर पपीतों से परहेज़ ही करिएगा। 

लेिकन त्यागी जी की बातें बहुत बढ़िया लगी इस लेख में ...जैसे उन्होंने गागर में सागर भर दिया हो ...अच्छे से यह समझा दिया पाठकों को कि जी एम फसलें (genetically modified crops) का कितना बड़ा नुकसान है, सेहत पर भी और पर्यावरण को भी। 

कल लखनऊ में एक चौराहे पर यह पोस्टर दिख गया... सस्ते मूल्य के सैनेटरी नेपकिन का उपयोग बढ़ाने के लिए उत्पादन वृद्धि पर जोर दिया जा रहा है ..यह अच्छी पहल है क्योंकि इस तरह के उत्पादों का सस्ता एवं सुगमता से न मिल पाना बीमारियां पैदा करने में जिम्मेदार तो है ही ..बहुत ही छात्राएं स्कूल जाना ही इन सब के न उपलब्ध होने की वजह से छोड़ देती हैं....यह काम बहुत सराहनीय शुरू किया गया है। 

                                        डिंपल यादव की यह पहल काबिले-तारीफ़ है..

इसी बात पर एक सुंदर से वीडियो का ध्यान आ गया...