मंगलवार, 31 मार्च 2015

31 मार्च का दिन और वे गुलाब के फूल..

अभी मैं घर से बाहर निकला तो ये गुलाब के फूल मेरा स्वागत करते दिखे...फिर अचानक ३१ मार्च का दिन याद आ गया...मेरे िलेए विशेष महत्व का दिन..बचपन में हम लोगों का रिजल्ट इस दिन आता था...और हम लोग उस दिन फूलों की माला घर में तैयार की हुई अवश्य लेकर जाया करते थे।

मुझे इस दिन मेरी वह पोस्ट भी याद आती है जो मैंने आठ साल पहले इसी दिन लिखी थी ...आप इस लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं...३१ मार्च का दिन ..मेरी बड़ी बहन और ढेर सारे गुलाब।

जितनी उमंग, लगन और चाव से मैं ३१ मार्च के दिन अपनी बड़ी बहन को वह गुलाब के फूलों की माला अपने हाथों से सूईं धागे से तैयार करते देखा करता ...वह शिद्दत मैंने फिर अनुभव नहीं की... अब वह स्वयं विश्वविद्यालय में प्रोफैसर हैं और एक आदर्श टीचर हैं।

बात दोस्तो फूलों की माला की नहीं है...बात भावनाओं की है...अब हम लोग बड़े मौकापरस्त से हो गये हैं... है कि नहीं ?...पहले लोग बड़े मासूम से थे, बिल्कुल मासूम ...अब हमने चालाकियां सीख लीं....पैसा फैंक तमाशा देख वाली बात हो गई है....जैसी सामने वाली औकात है उसी के हिसाब से बुके तैयार करवाए जाते हैं...मुझे बुके पर एक रूपया भी खर्च करना बेवकूफी लगती है......उस की बजाए मंदिर के बाहर बैठे लोगों का कुछ भी जश्न करवा देना चाहिए।

अपने टीचर के गले में फूलों का वह हार डालते हुए जो झनझनाहट महसूस की उन दिनों ...वह फिर कभी महसूस न हुई....बाकी सब जगह रस्म अदायगी ही दिखती है। 

यह फूल भी अभी दिखा...
एक तरह से ये जो बुके वुके हैं ...इन में फूल तो होते हैं ...सुंदर से सुंदर...बाज़ार है...लेिकन शायद खुशबू इन में बहुत पहले से गायब हो चुकी है.......वह मासूमियत की, स्नेह की , कृतज्ञ भाव की ...अपनेपन की .......अब तो जो बुके वुके दिये और लिये जाते हैं उन के बारे में चुप ही रहूं तो ज़्यादा ठीक रहेगा...

जाते जाते आज की पीढ़ी को एक छोटी सी सीख.....अपने गुरूओं का सारी उम्र सम्मान करते रहिए....कृपा आती रहेगी ....यह किसी बाबा का टुच्चा नुस्खा नहीं है जो कहता है कि  गुलाब जामुन खाने से भी रूकी हुई कृपा फिर से बरसने लगेगी.........यह गुरू वाली कृपा हमें सारी उम्र मिलती रहेगी अगर हमारे मन में उन का आदर-सत्कार सदैव बना रहेगा।

अच्छा, आप बताएं क्या आप ने इस दौरान अपने प्राइमरी के टीचर को याद किया?

फूलों से ध्यान आया....कुदरत तो यार हर तरफ़ हर पल संभावनाओं से भरी पड़ी है और हम फिर कैसे निराशात्मक रवैया कभी कभी अपना लेते हैं...

सोमवार, 30 मार्च 2015

भट्ठी वाली माई की मीठी यादें...

दोस्तो, व्हाट्सएप भी वैसे है अद्भुत...आज सुबह किसी ग्रुप ने यह फोटो शेयर की ...एक दम से मुझे सत्तर का दशक याद आ गया जब रब जैसी इन बीबीयों के पास अपना लगभग रोज़ जाना हुआ करता था।

मुझे नहीं पता कि पंजाब के अलावा इस तरह का काम करने वालों को किस नाम से मुखातिब किया जाता है..लेकिन पंजाब में तो हम इन्हें भट्ठी वाली माई कहा करते थे।

रोज़ाना बाद दोपहर चार पांच बजे के करीब बच्चों की यह ड्यूटी लगा करती थी कि दाने भुनवा के आओ। दाने भुनवाने का मतलब... मक्का, चना या चावल जा कर भुनवा कर ले आओ।

अधिकतर तो मक्का ही हुआ करता था... मक्का तो अब हम कहने लगे हैं, पंजाब में मक्की बोलते हैं... कल की ही बात लगती है कपड़े के थैले में मक्की लेकर जाना ...और उस भट्ठी वाली माई ने उन्हें भून कर फुल्ले (पॉप-कार्न) तैयार कर देने...और पता है इस का क्या लिया करती थी...मात्र पांच पैसे ...या कभी कभी दस पैसे....अच्छे से याद है मुझे।

और उन फुल्लों को खाने का ..भट्ठी पर ताजे भुने हुए...क्या लुत्फ होता है, यह ब्यां करना भी आसान नहीं है।

कभी कभी हम लोग काले चने भी लेकर जाया करते ...भुनवाने के लिए। और हां, जब कभी थोड़ा बहुत जुकाम होता तो याद है फिर तो काले चने भुनवा कर लाने बिल्कुल लाजमी हुआ करते थे...एक रूमाल में गर्मागर्म चने डाल कर नाक के ऊपर रख लिया करते ...साथ साथ गुड़ के साथ खाते भी जाते.. खांसी-जुकाम के लिए पता ही नहीं था कोई दवाईयां भी होती हैं, बस इस तरह के जुगाड़ और मुलैठी चूसने से ही काम चल जाया करता था।

वैसे मक्की के फुल्ले भी गुड़ के साथ ही खाया करते थे...और याद है जब कभी घर में काले चने न हुआ करते या थोड़ा स्वाद बदलने का ध्यान आता तो कभी कभी चावल ही लेकर चले जाते और भुनवा लाते।

बढ़िया दिन थे....कुछ ज़्यादा जंक-फंक चला नहीं था, यही हम लोगों की खाने की चीज़ें हुआ करती थीं।

आज सुबह यह तस्वीर देखी तो बस वह भट्ठी वाली की याद आ गई।

ऐसा नहीं कि दाने तुरंत ही भून दिये जाते थे....यार, वहां भी इंतज़ार करना पड़ता था, तीन चार लोग होते थे .. लेकिन इंतज़ार बस पांच दस मिनट ही करना पड़ता था...घर से भट्ठी की दूरी पैदल पांच सात मिनट की थी...फिर साईकिल चलाना सीखा तो साईकिल पर चले जाना।

और वहां पर कोई बैंच स्टूल थोड़े ही ना पड़े रहते थे...वहां भट्ठी के इर्द-गिर्द किसी ईंट या पत्थर-वत्थर पर जा कर बैठ जाना...और बड़े ही कोतहूल से उस को अपना काम करते देखते रहना। अच्छा लगता था वहां बैठना भी...कईं बार तो लगता था कि बारी जल्दी ही आ गई...अभी तो और बैठने का मन कर रहा होता...

दोस्तो, आप को पढ़ कर यही लगता होगा कि हमारे ज़माने में भी हम ने वेलापंती के अपने जुगाड़ कर रखे थे।

एक बात और...मैंने आप को बताया ना कि वह दाने भुनने के लिए पांच या दस पैसे लेती थी...दोस्तो, वह ज़माना भी अद्भुत था..कुछ लोग पांच दस पैसे भी नहीं लेकर जाते थे ... उन से वह मक्के का ही भाड़ा ले लिया करती थी, मतलब यह कि उन के दाने भुनने से पहले वह कच्चे दाने निकाल कर अपनी वसूली कर लिया करती थी। इसे भाड़ा लेना कहा जाता था।

अपने अतीत में झांकना और फिर सब कुछ ईमानदारी से शेयर करना ...अब आसान लगने लगा है....क्या अच्छा था, क्या बुरा ...किस बात को लिखने से असहज महसूस होता है ....जब इन बातों का ध्यान नहीं रहता ना, तो सच में लिखने से बड़ा सुकून मिलता है। सच में.......हल्कापन बहुत अच्छा लगता है। लेकिन जैसे ही कोई बात दबाने की कोशिश की ..तो उस पर कोई झूठ वूठ का लेप लगाने की कोशिश करते हैं तो फिर मत पूछो यार कि सिर कैसे भारी होता है। जैसे हैं ..जैसे थे...वैसा ही ब्यां करने में मज़ा है।

आज तो मुझे मेरे मोहल्ले की भट्ठी वाली याद आ गई थी... कुछ अरसा पहले मुझे सांझा चूल्हा याद आ गया था....सच में दोस्तो उस दिन भी वे यादें शेयर करने में भी बहुत ही मज़ा आया था... अगर आप पढ़ना चाहें तो इस लिंक पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं.......शुक्र है रब्बा सांझा चुल्हा बलेया....

अच्छा अभी बातें चल रही थीं भट्ठी की, तंदूर की .....तो अंगारें ज़हन में होंगे और अगर ऐसा हो तो मुझे मेरा ऑल-टाइम फेवरेट हिना फिल्म का वह गीत कैसे न ध्यान में आए.......पल्ले विच अग्ग दे अंगारे नहीं लुकदे...इश्क ते मुश्क छुपाए नहीं छुपते......(पल्ला पंजाबी का शब्द है, मतलब ..दामन ..और मुश्क का मतलब है महक, खुशबू)..

आप भी चंद लम्हों के लिए इस गीत के सुंदर बोलों, बेहतरीन संगीत, कश्मीर की हसीं वादियों और ज़ेबा बख्तियार के किरदार में खो जाइए...



शनिवार, 28 मार्च 2015

अटल जी की विलक्षण शख्शियत...

कल बहुत खुशी हुई...अटल जी को भारत रत्न सम्मान से नवाज़ा गया।

आज सुबह अखबार खोली तो उन के निजी सहायक शिव कुमार की लिखी दो बातें दिख गईं...आप से शेयर करना चाहता हूं...

शिव कुमार ने लिखा है...

"अटल जी सरिता की तरह सरल हैं। उनसे अगर कोई छोटी-सी भी गलती हो जाती है तो उसका मलाल उन्हें उस समय तक सालता रहता है, जब तक उस गलती को सुधार नहीं लेते। ये १९८०-८१ की बात है।  
तब मारूति कार बाज़ार मे नई-नई आई थी। हम और अटल जी उसी कार से आगरा जा रहे थे। रास्ते में फरा गांव के पास भैंसों का झुंड मिल गया। हमारे ड्राइवर ने किसी तरह भैंसों के झुंड से बचने की कोशिश की तो एक भैंस कार से टकरा गई और हमारी कार पलट गई।  
कार के नीचे आई भैंस ने पलटा मारा तो कार दूसरी तरफ जा पलटी। उसके बाद उस भैंस ने फिर पलटा मारा तो कार सीधी खड़ी हो गई। कार की विंड स्क्रीन टूट गई, लेकिन मुझे, ड्राइवर और अटल जी को खरोंच तक नहीं आई, पर भैंस मर गई।  
उधर से गुजर रहे एक टैक्सी ड्राइवर ने भैंस को मरा देखा तो हल्ला मचाने लगा। आसपास के गांव वाले लाठी-डंडे के साथ वहां इकट्ठे होने लगे। मैंने अटल जी से कहा कि आप गाड़ी के अंदर रहिए। गांव वाले गुस्से में हैं। अटल जी गाड़ी में बैठने को तैयार नहीं थे। किसी तरह उन्हें समझा-बुझा कर गाड़ी के अंदर किया गया।  
मैंने अपनी लाइसेंसी पिस्तौल निकाल कर उससे हवाई फायर किया, तब जाकर भीड़ तितर-बितर हुई। मैंने ड्राइवर से गाड़ी जल्दी आगे बढ़ाने के लिए कहा। इसी बीच टैक्सी ड्राइवर ने सिकन्दरा थाने पर भैंस मरने की सूचना दे दी थी।  
मैं जब अटल जी के साथ सिकन्दरा थाने पर पहुंचा और थानेदार को गाड़ी से भैंस के मरने की जानकारी दी तो थानेदार को पहले से ही इस बारे में जानकारी थी।  
अटल जी ने थानेदार से कहा कि भई, भैंस के मालिक को बुलाओ, जो मुआवजा होगा, दे देंगे। थानेदार अटल जी को अच्छी तरह से जानता था। उसने कहा कि अरे साहब, आप जाइए। हम गांव वालों को समझा लेंगे और जो मुआवजा होगा, दे देंगे। अटल जी मान नहीं रहे थे , पर थानेदार के आश्वस्त करने पर मैं और वे आगरा चले गए।  
इस घटना के दो साल बाद एक नेत्रहीन कवि राम खिलाड़ी दिल्ली आए और उन्होंने २३ जनवरी को लाल किले में होने वाले कवि सम्मेलन में अपनी कविता पढ़ने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने अटल जी से कहा कि आप आयोजकों से मेरी सिफारिश कर देंगे तो हमें भी वहां कविता पढ़ने का मौका मिल जाएगा।  
अटल जी ने पूछा, कहां से आए हो?..उन्होंने कहा कि उसी गांव से, जहां आपकी कार से भैंस मर गई थी। यह सुन कर अटल जी ने कवि के सामने शर्त रख दी कि उन्हें कविता पढ़ने का मौका तभी मिलेगा, जब वे भैंस के मालिक को लेकर आएंगे। खैर, यह कवि भैंस मालिक को लेकर आ गए। अटल जी ने भैंस मालिक को भैंस मरने के मुआवजे के तौर पर १० हजार रूपये दिए।  
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अटल जी किसी भी कार्यकर्ता को निराश नहीं करते। उनके पास जो भी कार्यकर्ता अपनी दरख्वास्त लेकर आता, उस पर अपनी सिफारिश ज़रूर लिख देते। यूपी में एक जगह गए तो एक कार्यकर्ता अपनी एप्लिकेशन लेकर आ गया कि फलां साब से मेरी सिफारिश कर दीजिए। अटल जी ने उससे पूछा, वह साहब हमें जानते होंगे?..उसने कहा कि बस आप लिख दीजिए।  
अटल जी ने लिखा कि प्रिय महोदय, मैं आपसे परिचित तो नहीं हूं, लेकिन यह आवेदनकर्ता की इच्छा है कि मेरे लिखने से उसका काम हो जाएगा, इसलिए मैं इसकी सिफारिश कर रहा हूं। यकीन मानिए, उसका काम हो गया।  
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अटल जी को पशु-पक्षियों से बहुत प्रेम है। एक बार उन्होंने अपने आवास पर खरगोश पाला। उस खरगोश ने बच्चे को जन्म दिया। बच्चे को देख कर अटल जी बड़े खुश हुए। उन्होंने उसे रुई से दूध पिलाया और संसद चले गए। इसी बीच बच्चा धूप में निकल आया। उसे लू लग गई और वह मर गया। अटल जी दोपहर में आए तो बच्चे को मरा देख कर उनकी आंख में आंसू आ गए। फिर उन्होंने अपने लॉन में स्वयं गड्ढा खोदा और उसे दफनाया। फिर उसके ऊपर एक पौधा लगा दिया।  
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अटल जी को लोगों से मिलने और उनके बीच बैठ कर बात करने में बड़ा आनंद आता था। प्रधानमंत्री बनने के बाद अटल जी का एसपीजी का घेरा इस आनंद को छीनने की कोशिश करता था तो वह एसपीजी वालों को झिड़क देते।"
दोस्तो, जब हम लोग स्कूल में आठवीं दसवीं कक्षा में पढ़ते थे तो कोई भी कहानी जब हमें पढ़ाई जाती ...नमक का दारोगा, गोदान या कोई भी ...तो फिर हमारे मास्साब किसी किरदार का चरित्र-चित्रण करने को कहते। क्या अटल जी का चरित्र-चित्रण ऊपर वर्णित घटनाओं से नहीं होता!

निःसंदेह अटल जी एक ऐसी विलक्षण शख्शियत हैं कि उन की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। वे १२५ करोड़ लोगों के दिलों पर आज भी राज करते हैं....मैं आप से जल्द ही शेयर करूंगा कि इस महान नेता ने १९८४ के सिख दंगों, बाबरी मस्जिद के विध्वंस के समय और २००२ के गुज़रात दंगों पर क्या कहा था ..इन के जन्मदिन वाले दिन २५ दिसंबर को मैं लखनऊ से बाहर था...लैपटाप था नही...और मोबाइल पर मैं ज़्यादा लिखने के झंझट में पड़ता नहीं, सिर भारी हो जाता है... इसलिए मैंने हाथ से लिख कर इन घटनाओं पर अटल जी की प्रतिक्रिया को मीडिया डाक्टर के गूगल-प्लस पेज पर शेयर किया था... लेकिन यह अच्छे से पढ़ा नहीं जाता...मैं जल्द ही इस पर पोस्ट करता हूं...



एक अजीब लत चुकी है...पोस्ट को खत्म करते समय ...पब्लिश करते समय जो फिल्मी या गैर फिल्मी मेरे ज़हन में आता है, उसे मैं आपसे शेयर कर देता हूं..

आज अटल जी की बातें करते करते एक और महान् शख्शियत अशोक कुमार दी ग्रेट का ध्यान आ गया और उन पर फिल्माया गया यह गीत...याद होगा, टीवी सीरियल वाले हम लोग वाले दिन...हर एपिसोड के बाद दो मिनट के लिए उन की बेशकीमती नसीहत की घुट्टी पीने का किसे इंतज़ार नहीं रहता था!

तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो, 
तुम को अपने आप ही सहारा मिल जायेगा..
कश्ती कोई डूबती पहुंचा दो किनारे पे..
तुम को अपने आप ही किनारा मिल जाएगा.....

वाह ...वाह.....लिखने वाले ने क्या गजब लिख दिया! इस के एक एक शब्द की तरफ़ ध्यान देने की ज़रूरत है। यह गीत भी मेरा फेवरेट है...मैं इसे हज़ारों नहीं तो सैंकड़ों बार तो देख सुन चुका ही हूं...और हर बार उतना ही आनंद आता है।

कितना प्लास्टिक अंदर लेंगे और कितना फैलाऐंगे !

हर जगह पर खाने पीने के अपने तौर तरीके होते हैं...इन पर वैसे तो कोई टिप्पणी करते नहीं बनती और न ही करनी चाहिए शायद। आम आदमी की बिल्कुल मासूम सी छोटी छोटी खुशियां हैं, जैसे वह लूटना चाहे....लूट ले।

लेकिन अगर कुछ दिख जाए जो सेहत के लिए या पर्यावरण के लिए खराब हो तो बात कहने में हिचकिचाहट कैसी!

चाय से बात शुरू करते हैं...मैंने बात दरअसल करनी है लखनऊ की चाय की...लेकिन मुझे पहले थोड़ा इधर उधर की हांकनी पड़ेगी। सीधा ही लखनऊ की चाय का तवा लगाने लगूंगा तो पक्षपात लगेगा। 

शुरू से अमृतसर रहे, वहीं पढ़े-लिखे....वहां पर चाय पीने का अंदाज़ अपना अलग ही था, होता है हर जगह की अपनी खाने पीने की आदते हैं...मुझे अच्छे से याद है कि वहां पर दो तीन जुमले चाय वालों को ज़रूर सुनने पड़ते हैं....यार, पत्ती रोक के ते मिट्ठा ठोक के (यानि पत्ती कम और चीनी दिल खोल के डालना)...जी हां, उस दौर में लोग शर्बत जैसी चाय पीना पसंद किया करते थे... और एक बात.... एक जुमला यह भी...मलाई मार के ... मुझे अच्छे से याद है, चाय वाला चाय की प्याली या गिलास से ऊपर एक चम्मच मलाई का छोड़ दिया करता था...हां, उस दौर में चॉकलेट पावडर भी फ्लेवर के लिए चाय तैयार करते समय डाला जाने लगा था...शायद हम लोग घरों में भी इसे इस्तेमाल करने लगे थे। ओह माई गॉड... काम की बात मैं फिर भूल गया... बेसन के लड्डू...गर्मागर्म चाय के साथ दो एक बेसन के लड्डू होने पर रूह खुश हो जाया करती थी। 


बंगलोर में चाय-काफी परोसने का अंदाज़
मुझे याद है मैं पहली बार १९८७ जनवरी में बंगलौर गया....वह पर हर जगह चाय काफी (अधिकतर काफी) पीने का बेहद साफ़ सुथरा एवं सुंदर अंदाज़ देखा जो मुझे बहुत अच्छा लगा....मैंने वहां से आकर बहुत से लोगों के साथ वह एक्सपिरिएंस शेयर किया..

दिल्ली में तो सारा खाना-पीना पंजाब जैसा ही है...उसे रहने देते हैं.....कुछ साल हरियाणा में मास्टरी की, वहां भी सब कुछ ऐसे ही चलता है.. लेिकन अकसर तीन चार दोस्तों को एक साथ चाय पीते जब देखते थे तो एक स्टील की प्लेट में एक किलो जलेबी या एक किलो लड्डू पड़े देख कर कुछ लगता तो था.... क्या, वह नहीं बताऊंगा!

अब आते हैं लखनऊ शहर में ... मुझे यहां आए दो साल हो गये हैं...मैंने क्या देखा अपने अस्पताल में कि कॉरोडोर में लोग पतली सी प्लास्टिक की पन्नियों में से चाय उंडेल उंडेल कर प्लास्टिक के छोटे छोटे ग्लासों में डाल कर पिया करते।

पहले पहले मुझे लगा कि शायद आज ही यह हो रहा होगा क्योंकि गिलास-प्याली नहीं मिले होंगे..लेकिन नहीं, मैं गलत था, अस्पताल में ही क्या, लखनऊ में अकसर मैंने बहुत जगहों पर यही सिलसिला देखा। बेशक इस से लखनऊ की नफ़ासत और नज़ाकत पे कोई आंच नहीं आती..


मुझे भी यह लोग चाय पीने के िलेए कहते ..लेकिन मुझे कभी नाश्ते और लंच के दरमियान चाय पीने की तलब होती ही नहीं.... लेिकन मैं अपने अटेंडेंट को भी अकसर देखता, जब देखो आधे घंटे के बाद प्लास्टिक का छोटा सा कप मुंह पे लगाए दिखता.....फिर मैंने इन्हें समझाना शुरू किया .. धीरे धीरे अब ये लोग अपनी चाय एक थर्मस में लाते हैं और फिर कांच के गिलास में पीने की आदत डाल रहे हैं। 

दोस्तो, यह जो प्लास्टिक की पन्नियों में चाय पीने-पिलाने का सिलसिला है, यह सेहत के लिए बहुत खराब है...मुझे याद है जब आज से बीस तीस साल पहले इन प्लास्टिक की थैलियों में दही मिलने लगा तो हम नाक-मुंह सिकोड़ लिया करते थे..लेिकन फिर हमें इस की आदत पड़ गई...फिर हम ने देखा ..बंबई में जिस भी डेयरी से दूध लेते थे...वह भी इन्हीं पन्नियों में ही डाल कर दिया करता .... इस की भी लत लग गई...

लेिकन हम रूकने वाले नहीं....फिर धीरे धीरे देखा कि ढाबे वाबे वालों ने दाल-सब्जी भी इन्हीं घटिया किस्म की प्लास्टिक की थैलियों में ही पार्सल करनी शुरू कर दीं। 

सोचने वाले बात यह है कि अगर हम लोग फ्रिज में पानी रखने के लिए प्लास्टिक की बोतलों के बारे में इतने ज़्यादा सज है तो फिर यह कैसे हो गया कि इन सब चीज़ों की तरफ़ ध्यान ही नहीं देते। 

हां, वह पत्तों के दोनों की जगह वह चमकीले से प्लास्टिक जैसी लाइनिंग वाले दोने आ गये....एक बार आठ साल पहले जब मैं ब्लॉग लिखना सीख रहा था तो एक बार इमरती खाते हुए इस तरफ़ ध्यान गया था... यहां लिंक दे रहा हूं...

यह समस्या प्लास्टिक की छोटी छोटी ग्लासियों में चाय पीने की यह भी है कि मुझे पूरा यकीन है कि ये सब रिसाईक्लड प्लॉसिक से ही बनती हैं...बेशक, लेकिन इन का डिस्पोज़ल भी कहां ढंग से हो पाता है...सब इधर उधर फैंक कर छुट्टी कर लेते हैं..

और तो और जिस सतसंग में हम लोग जाते हैं वहां पर सुबह सुबह चाय भी सभी श्रद्धालुओं को ५०-६०प्लास्टिक के ग्लासों में ही परोसी जाती है.. अब तो प्रसाद भी वही प्लास्टिक की लाइनिंग वाले दोनों में ही मिलता है हर जगह... और लंगर भी वहीं डिस्पोज़ेबल प्लेटों में......गुज़रे जमाने की बातें याद करें तो मुझे अच्छे से याद है कि १९७० के दशक में अकसर लंगर को हाथों में ही लिया जाता था....परशादे (रोटी) के ऊपर ही दाल डाल दी जाती थी..और हम सब ऐसे ही उस का लुत्फ़ उठा िलया करते थे....और स्वर्ण मंदिर में प्रसाद की बेहद सुंदर व्यवस्था तो है ही...गर्मागर्म हलवा आप को हाथ ही में दिया जाता था... और दोने भी वही पुराने दौर वाले ... पत्तल के। 

आज सुबह सुबह ये बातें करने की इच्छा हो गई......इन सब बातों के प्रति थोड़ा सा भी हम सब सजग और सचेत रहेंगे तो अपनी सेहत के साथ साथ पर्यावरण की सेहत की भी थोड़ी संभाल कर लेंगे।

लिखते लिखते बंबई की कटिंग चाय का ध्यान आ गया....

और मेरी मां की बात भी याद आ गई कि जब वे विभाजन से पहले गाड़ी में यात्रा किया करती थीं तो स्टेशन आने पर चाय की आवाज़ें इस तरह से लगा करती थीं.....हिंदु चाय...हिंदु चाय.......मुस्लिम चाय... मुस्लिम चाय.........और मां के स्कूल में भी ...पानी के मटके भी हिंदु बच्चों के लिए अलग और मुस्लिम बच्चों के िलेए अलग!! उस दौर की कल्पना कर के तो लगता है कि हम लोग सच में बहुत सुधर गये हैं...वैसे एक बात जो मां बड़ी शिद्दत से दोहराती हैं कि बस यह पानी और चाय के अलावा, कभी उन्हें हिंदु-मुस्लिम अलग अलग होने का अहसास दिलाया ही नहीं गया, सब का आपस में घुल मिल कर रहना भी उस दौर की एक पहचान थी।

सब से बढ़िया वही दौर था जब लोग चाय मिट्टी के कुल्हड़ों में पिया करते थे... गाड़ी में भी ऐसे चाय पीने में अच्छा लगता था...तब यह नियम नहीं था, लोगों ने वैसे ही ऐसे चाय पीना स्वीकार किया हुआ था...कुछ साल पहले रेल मंत्री लालू यादव के जमाने में एक दौर वह भी आया...जब एक नियम भी बन गया कि रेलों में चाय ऐसे ही कुल्हड़ों में बिका करेगी...लेकिन अकसर देखने में आता कि स्टाल वाले अपना सारा धंधा कांच, प्लास्टिक एवं थर्मोकोल वाले गिलासों में ही किया करते ...बस, बीस तीस कुल्हड़ वे लोग अपने स्टाल पर सजाए रखते कि कहीं कोई अधिकारी अपने औचक निरीक्षण में पूछ ले तो!!

                                                वैसे मुझे चाय पीना ऐसे ही अच्छा लगता है....

आज पता नहीं सुबह से मेरे को यह गीत बार बार याद आ रहा है ....आप भी सुनिए...सत्तर अस्सी के दशक में इसे रेडियो पर बहुत सुना....मोहम्मद रफी साहब और सुलक्षणा पंडित की मधुर आवाज़ में...


गुरुवार, 26 मार्च 2015

नहीं जी, मैं तो बस हाउस-वाईफ...

जब कभी मैं ओपीडी में आई किसी महिला से पूछ लेता हूं कि आप क्या करती हैं?..क्या आप सर्विस करती हैं?...और बहुत बार मुझे जब यह जवाब मिलता कि नहीं जी, बस घर में ही, बस हाउस-वाईफ ...मुझे यह सुन कर बहुत बुरा लगता है।

अब आप सोच रहे होंगे कि जो महिला होम-मेकर है, उसने तुम्हें बता दिया कि वह हाउस-वाईफ है तो इसमें मुझे इतना बुरा लगने वाला है क्या!

है, दोस्तो, यह हाउस-वाईफ या बस घर ही में ...शब्द बोलते जो अधिकतर महिलाओं के चेहरे के भाव मैंने पढ़े हैं ...वह देख कर अच्छा नहीं लगता। सीधे सीधे बात करूं तो मुझे यही अनुभव होता है कि इन्हें यह कहते हुए अपने आप में किसी कमी का अहसास हो रहा है।

लेिकन सच्चाई इस से बिल्कुल अलग है...हम सब जानते हैं कि एक गृहिणी का एक घर में कितना अहम् योगदान है...सारे घर की क्या, पूरे संयुक्त परिवार की धुरी होती है एक गृहिणी। कोई शक?

हां, आज गृहिणी की बात कैसे चल पड़ी.... आज सुबह वाट्सएप पर एक फारवर्डेड मैसेज दिखा....चेतन भगत ने कामकाजी पत्नी की बहुत प्रशंसा की थी..उसने लिखा था कि उस की मां भी ४० वर्ष तक सर्विस में रही हैं। ठीक है, अच्छा लगा उस के विचार पढ़ कर...

यकीनन् दोस्तो इस में दो राय हो ही नहीं सकती कि कामकाजी महिलाएं दोहरी भूमिका निभाती हैं...हम लोग चाहे जितनी भी जेंडर सेंसेटाईज़ेशन की बातें हांकते रहें, लेकिन ज़मीनी हकीकत से हम सब वाकिफ़ हैं कि किस तरह से अधिकतर कामकाजी महिलाएं घर और काम के चक्कर में पिसती रहती हैं। सभी कामकाजी महिलाओं के इस जज्बे को हम सब का सलाम..

यह तो थी बात कामकाजी महिलाओं की लेकिन जब कामकाजी महिलाओं की बात चलती है और उस के साथ ही गृहिणियों की बात न की जाए तो बिल्कुल अधूरी सी लगती है बात, दोस्तो, कामकाजी महिलाएं की संख्या तो आज भी शायद आटे में नमक जैसे अनुपात में होगी...शायद इस से थोड़ी ज़्यादा, लेकिन दोस्तो देश की करोड़ों गृहिणियों का दिन भी तो सुबह काम से शुरू होता है और रात में सोने तक यही सिलसिला चलता रहता है।

मुझे ऐसा लगता है कि जब भी कामकाजी महिलाओं की दोहरी भूमिका के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाए तो गैर-कामकाजी (वैसे तो मुझे इस शब्द से ही आपत्ति है, क्या सुबह से रात तक घर को संभालना कामकाज नहीं है!) ..महिलाओं के कामकाज के लिए भी प्रशंसा के दो शब्द कहे जाएं।

और सब से बड़ी बात...मुझे आज लगा कि चेतन भगत ने कामकाजी महिलाओं की तारीफ़ के पुल बांध दिए...लेकिन अगर इसी बहाने हम ने अगर उन सैंकड़ों गैर-कामकाजी (!!)महिलाओं को आज याद न किया जिन्हें हम बचपन से देखते रहें....हमारी नानी, दादी, फूफी, मौसी, मामी, चाची, ताई, भाभी, मां, बहन.....और हां, जहां जहां भी हम लोग रहे उस के अड़ोस-पड़ोस की महिलाओं के संघर्षमय जीवन को देखा, लहरों के विपरीत उन के चलने की हिम्मत देखी..

और बहुत सी बहुत कम पढ़ी लिखी महिलाएं भी देखीं ...कुछ अनपढ़ भी देखीं....(पंजाबी में एक कहावत है, वह पढ़ा नहीं है गुढ़ा है)...लेिकन जीवन की परीक्षा में अच्छे से सफल.....हर तरह से.....हर तरह से घर की आर्थिक, सामाजिक प्रतिष्ठा बनाए रखने में पूरी तरह से सक्षम...

टॉिपक आज गलत चुन लिया गया है.......लिखते कुछ बन नहीं रहा......समाज में गैरकामकाजी महिलाओं के योगदान पर ग्रंथ िलखे जा सकते हैं...अपनी अधिकतर इच्छाओं और ज़रूरतों को दबाते हुए अपने घर-परिवार की मर्यादा के लिए इन के त्याग की गाथाएं लिखने लगेंगे तो ग्रंथ तैयार हो जाएंगे। हर घर में इन पर कईं कईं नावल लिखे जा सकते हैं।

डर लगता है आज की गैरकामकाजी महिलाओं की भूमिका को इतना ग्लोरीफाई करते हुए....डर लगता है कि यह भी हम पुरूषों की मानसिकता तो नहीं बन गई...ताकि लकीर की फकीरी ज्यों की त्यों बनी रहे।

नहीं दोस्तो ऐसा नहीं है, बदलाव की हवाएं चल निकली हैं....खुशामदीद, स्वागत है, हरेक को खुले में सांस लेने का, प्रश्न पूछने का, कम से कम अपने फैसले स्वयं करने का हक तो है ही!

इन्हीं बदलती हवाएं को हवा देती हुई जब कोई फिल्म आती है ना तो बहुत सुखद अनुभव होता है.....आज भी दोपहर में एक चैनल पर बेटे ने हिंदी फिल्म डोर लगाई हुई थी.....कह रहा था कि अब यह बहुत बार रिपीट हो रही है....मुझे इस फिल्म को बार बार देखना अच्छा लगता है, यह एक दबी हुई महिला के सिर उठाने की दास्तां है, सड़ी गली कुछ पुरानी दकियानूसी प्रथाओं की जंजीरों को तोड़ने की संभावनाएं टटोलते हुए... .... अगर आपने अभी तक नहीं देखी, तो ज़रूर देखिएगा... मुझे इस का यह गीत बेहद पसंद है...मैं कईं बार सुबह सुबह किसी भक्ति-वक्ति गीत की जगह इस तरह के गीत ही सुनना पसंद करता हूं....

बुधवार, 25 मार्च 2015

एक ७५ वर्षीय युवा की सेहत का राज़- प्राणायाम्

हमारा पेशा ही ऐसा है कि हमें बहुत से लोगों से मिलना होता है....कुछ जो लीक से हट कर दिखते हैं उन के बारे में जानने की उस्तुकता तो होती ही है।

कल भी जब एक सज्जन मेरे पास आए तो मैंने उन के पर्चे पर उम्र देखी ...७५ वर्ष..मुझे ताजुब्ब इसलिए हुआ कि वे जितने सक्रिय थे उस से उन की इतनी उम्र लग नहीं रही थी।

मैंने ऐसे ही पूछ लिया कि तिवारी जी, इस उम्र में भी आप टिप-टाप रहते हैं, देख कर खुशी हुई..लेकिन इस ज़िंदादिली का कोई राज़ हो तो शेयर करिए...अच्छा लगा उन की बात सुन कर। मेरे मुंह से टिप-टाप शब्द सुन कर खुश हो गये और कहने लगे कि इस का मुझे शौक है।

दोस्तो, तिवारी जी को रिटायर हुए १८ साल हो चुके हैं...ये सादा जीवन उच्च विचार वाली जीवन शैली में विश्वास रखते हैं. किसी भी तरह के व्ययसन को छुआ तक नहीं..बस सादी दाल, रोटी, साग सब्जी में ही आनंद आता है। बच्चे अच्छे से सेटल हैं...संयुक्त परिवार है।


जो अहम् बातें इन्होंने शेयर की हैं तीन चार...वही मैं आप से शेयर करने वाला हूं।

यह टहलते रोजाना हैं...पहले पांच छः किलोमीटर चलते थे ...अब कहते हैं तीन चार किलोमीटर ही चलता हूं और जाड़े के दिनों में तो बंद कर देता हूं।

लेकिन एक बात इन्होंने १९९९ से गांठ बांध रखी है...ये नित्य-प्रतिदिन प्राणायाम् करते हैं। मैंने पूछा बाबा रामदेव से सीखा होगा टीवी पर.....नहीं, कहने लगे कि उन के सेंटर में जाकर उन के शिक्षकों से सीखा।

कहने लगे कि पहले मैं बीमार ही रहता था लेकिन अब एक दम फिट रहता हूं...इन से मिल कर बहुत खुशी हुई... कहने लगे साईकिल चलाता हूं...लेकिन आज आप के पास अपने पुराने चेतक पर आया हूं...बीवी कह रही थी कि मत जाओ स्कूटर पर, अब उम्र हो गई है... कहने लगे कि मैंने उसे कहा कि तुम चिंता मत करो, यह देखो, मेरे पास मोबाइल है, जब चाहो मेरे से बात कर लेना।

हां, एक बात और ... कहते हैं मैं सुबह एक लिटर पानी पीता हूं...पहले सवा लिटर पी लिया करता था...बता रहे थे कि उस से मुझे अच्छा लगता है।

इस के बारे में मैं फिर कभी चर्चा करूंगा कि कितना पानी पीना चाहिए ... लेकिन मेरा व्यक्तिगत विचार है कि सुबह एक दो गिलास पानी पीना ठीक है, अपनी क्षमता अनुसार। लेकिन मैंने इस बात को अकसर अनुभव किया है कि हम लोग सुबह सुबह पानी पीने में इतनी रूचि लेते नहीं हैं.....अब देखिए,मेरे जैसे लोग थोड़ा बहुत जानते ही हैं, मैं भी इस के बारे में ज़्यादा सचेत नहीं था....पिछले दिनों अखबार में एक विशेषज्ञ का लेख देखा था, इसलिए अब सुबह उठ कर एक दो गिलास पानी पीने की आदत डाल रहा हूं।

हां तो दोस्तो, मैंने इस ७५ साल के जवान की बातें आप से इसलिए शेयर की ताकि हम लोग जहां से भी प्रेरणा मिले ले लिया करें.....मैं भी १९९० के दशक में कईं वर्ष तक नियमित प्राणायाम् किया करता था ...फिर जब से बंबई छूटा तो यह प्राणायाम् भी दूर छूट गया।

मैंने तिवारी जी को कहा कि आप की बातों से मुझे इतनी प्रेरणा मिली है कि मैंने भी निश्चय किया है कि आज ही से मैं भी प्राणायाम् फिर से शुरू कर करूंगा...मैंने इसकी बाकायदा सिखलाई ली हुई है..लेकिन मैं अपनी सेहत के बारे में ज़्यादा जागरूक नहीं हूं....कोई चिराग भी नहीं हूं ..कि वह वाली कहावत ही कह लूं......चिराग तले अंधेरा।

लेकिन इतना पक्का है कि मुझे जहां से भी कुछ अच्छी बातें मिलती हैं, मैं ग्रहण करने का एक अदना सा प्रयास ज़रूर कर लेता हूं...

तिवारी जी को मैंने भी दो हिदायतों की घुट्टी पिला ही दी.....एक तो इन का नाश्ता मुझे कमजोर दिखा...मैंने बताया कि नाश्ता डट कर किया करिए...सूखी रोटी साग सब्जी... दलिया आदि का सेवन अच्छा रहता है और शाम के समय या कभी भी पिसे हुए भुने चने ज़रूर लिया करें...कह गये कि आप की बात ज़रूर मानूंगा।

आप सोच रहे होंगे कि तिवारी जी की सेहत अगर इतनी ही बढ़िया है तो फिर अस्पताल में करने क्या आए थे...हां, तो दोस्तो, तिवारी जी के दांत में कुछ कष्ट था, उस के निवारण के लिए आए थे, वह ठीक हो गया है।

आप ने तिवारी जी की जीवनशैली से क्या सीखा...........अच्छा मुझे यह भी बताइए कि यह जो मैने इन की तस्वीर यहां लगाई है, इस में इन की उम्र कितनी दिखती है?... यह फोटू मैंने इन की आज्ञा से खींची है ....मैंने इन्हें बताया कि मैंने आप की सेहत का राज़ बहुत से लोगों से शेयर करना है। मेरी बात सुन कर खिलखिला कर हंस दिए।