शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

चमड़ी रोग के लिये ली यह दवा मौत के मुंह में भी धकेल सकती है !

वैसे सुनने में बहुत हैरतअंगेज़ ही लगता है और खास कर किसी नॉन-मैडीकल इंसान को कि सोरायसिस नामक चमड़ी रोग के लिये ली गई एक दवा ( जिस में ईफॉलीयूमाब- efalizumab नामक साल्ट था) से तीन लोगों की अमेरिका में मौत हो गई। इसलिये वहां की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने एक चेतावनी जारी की है कि भविष्य में इस दवाई पर एक ब्लैक-बाक्स चेतावनी लिखी जायेगी। इस की विस्तृत जानकारी आप इस लिंक पर क्लिक कर के प्राप्त कर सकते हैं।

अकसर मैंने देखा है कि लोग चमड़ी रोगों को बहुत ही ज़्यादा हल्के-फुलके अंदाज़ में लेते हैं। चमड़ी की कुछ तकलीफ़ों के बारे में तो अकसर लोग यही सोच लेते हैं कि इन का क्या है, कुछ दिन में अपने आप ही ठीक हो जायेंगी, अब कौन जाये चमड़ी रोग विशेषज्ञ के पास। अपने आप ही कोई भी ट्यूब कैमिस्ट से लेकर लगा कर समझते हैं कि रोग का खात्मा हो गया। लेकिन यह बात बिल्कुल गलत है। विभिन्न कारणों की वजह से लोग अकसर चमड़ी-रोग विशेषज्ञ के पास जाना टालते रहते हैं।

मेरा विचार है जो कि छोटी मोटी चमड़ी की तकलीफ़ें हैं उन का उपचार तो एक सामान्य डाक्टर ( एम.बी.बी.एस) से भी करवाया जा सकता है ---उदाहरण बालों में रूसी, कील-मुहांसे, जांघ के अंदरूनी हिस्सों में दाद-खुजली, स्केबीज़ आदि ---- लेकिन कुछ चमड़ी रोग इस तरह के होते हैं जो बहुत लंबे समय तक परेशान किये रहते हैं, बीच बीच में ठीक हुये से लगते हैं और कभी कभी फिर से उग्र रूप में उभर आते हैं। सोरायसिस भी एक ऐसी ही चमड़ी की तकलीफ़ है , वैसे तो और भी बहुत सी चमड़ी की तकलीफ़ें हैं लेकिन इस की एक मात्र उदाहरण यहां ले रहे हैं।
वैसे तो आम से दिखने वाले चमड़ी रोगों का भी जब कोई जर्नल एमबीबीएस डाक्टर या कोई भी स्पैशलिस्ट ( चमड़ी रोग विशेषज्ञ नहीं ) इलाज कर रहा होता है और कुछ दिनों के बाद भी उपेक्षित परिणाम नहीं मिलते तो समय होता है उसे चमड़ी रोग विशेषज्ञ के पास रैफर करने का। और जहां तक चमड़ी की क्रॉनिक बीमारियां हैं जो लंबे समय तक चलती हैं उन का इलाज तो चमड़ी रोग विशेषज्ञ से ही करवाना चाहिये।

इस में किसी चिकित्सक के डाक्टर को अहम् को ठेस पहुंचने वाली बात तो है ही नहीं ---जो भी जिस रोग का विशेषज्ञ है उसी के पास जाने में समझदारी है। यह सोच कर कि चमड़ी के कुछ रोगों का इलाज तो लंबा चलता है –बार बार कौन स्किन स्पैशलिस्ट के पास जाये, ऐसे ही किसी पड़ोस के फैमिली डाक्टर से कोई दवा लिखवा कर, कोई ट्यूब लिखवा कर लगा कर देख लेते हैं। इस से कोई फायदा होने वाला नहीं विशेषकर उन तकलीफ़ों में जो क्रॉनिक रूप अख्तियार कर लेने के लिये बदनाम हैं। एक तो रोग बिना वजह बढ़ता है और दूसरा यह कि ऐसी दवाईयों के इस्तेमाल की जितनी जानकारी और जितना अनुभव एक चमड़ी-रोग विशेषज्ञ को होता है उतना एक सामान्य डाक्टर को अथवा किसी दूसरे विशेषज्ञ को नहीं होता । और आज आपने अमेरिका में सोरायसिस के लिये दी जाने वाली दवा का किस्सा तो सुन ही लिया जिस की वजह से तीन लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। अब इस बात का ध्यान कीजिये कि वहां पर कानून कायदे इतने तो कड़े हैं कि चमड़ी-रोग विशेषज्ञ ही चमड़ी के मरीज़ों का इलाज करते हैं। लेकिन फिर भी यह दुर्घटना हो गई ---- इस में चमड़ी रोग विशेषज्ञों का भी कोई दोष नहीं है, अब नईं नईं दवाईयां, नये नये इलाज आ रहे हैं जिन के इस्तेमाल को हरी झंडी मिल तो जाती है लेकिन फिर भी लंबे अरसे तक उन का इस्तेमाल करने से चिकित्सकों को बाद में पता चलता है कि उन के क्या क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं और जब ये फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन के नोटिस में आते हैं तो फिर वह भी हरकत में आ कर उचित कार्यवाही करती है।

अकसर मैं देखता हूं कि चमड़ी के रोगों के इलाज में खूब गोरख-धंधा चल रहा है ---और इस का मुख्य कारण यह है कि चमड़ी रोग विशेषज्ञ के पास ना जा पाना। मरीज़ जब अपनी मरजी से तरह तरह की ट्यूबें लगा कर थक जाते हैं तो फिर किसी नीम-हकीम देसी दवाई वाले की शरण ले लेते हैं --- वह भी सभी अंग्रेज़ी दवाईयां कूट कूट कर मरीज़ों को महीनों एवं सालों तक छकवाता रहता है और जब या तो रोग बहुत ही ज़्यादा बढ़ जाता है और या तो बिना किसी हिसाब किताब के ली गई इन अंग्रेज़ी दवाईयों ( स्टीरायड्स इस में सब से प्रमुख हैं) .... के कारण जब शरीर में अन्य भयंकर रोग लग जायेंगे तो फिर चमड़ी रोग विशेषज्ञ को ढूंढना शुरू किया जाता है ---- अब इतनी देर से उस के पास जाने से कैसे बात तुरंत ही बन जायेगी। एक बात यहां यह भी रखनी ज़रूरी है कि संभवतः चमड़ी-रोग विशेषज्ञ भी अन्य दवाईयों के साथ साथ मरीज़ को स्टीरायड्स दे सकता है लेकिन उसने इन दवाईयों का सही नुस्खा लिखने की तहज़ीब सीखने के लिये दस साल लगाये हैं -----और वह आप के इलाज के दौरान आप के तरह तरह के टैस्ट करवा कर यह भी सुनिश्चित करता रहता है कि सब कुछ ठीक चल रहा है, शरीर पर किसी तरह का दुष्परिणाम दवाईयों का नहीं पड़ रहा है।


दोस्तो, जिस का काम उसी को साजे ------वाली कहावत इस समय याद आ रही है --- कुछ साल पहले मेरी माता जी को आंख के पास भयानक दर्द थी, एक दो दिन में आंख के ऊपर माथे पर छोटी छोटी फुंसियां सी निकल आईं ---- दर्द बहुत भयानक था ---- याद आ रहा है कि उस दिन मैं, मेरा छोटा बेटा और मां जी भटिंडा स्टेशन पर बैठे थे ---जनवरी की सर्दी के दिन थे ---- वह लगातार दर्द से कराह रही थी ---- उस सारी रात वह एक मिनट भी नहीं सोईं ।

अगले दिन मैंने अपने एक चमड़ी-रोग विशेषज्ञ मित्र को अमृतसर फोन किया ---उस को सारा विवरण बताया , जिसे सुन कर उस ने बताया कि हरपीज़-योस्टर लग रहा है – फिर भी उस ने कहा कि तुरंत किसी चमड़ी-रोग विशेषज्ञ को दिखा कर आओ। हम लोग तुरंत गये शहर के एक चमड़ी-रोग विशेषज्ञ के पास, जिस ने कहा कि यह हरपीज़-योस्टर ही है ( जिसे अकसर लोग जनेऊ निकलने के नाम से भी जानते हैं) ---उस ने कुछ दवाईयां लिखीं और साथ में कहा कि तुरंत किसी नेत्र-रोग विशेषज्ञ को चैक अप करवायो (क्योंकि जब यह हरपीज़-योस्टर आंख को अपना शिकार बनाती है तो फिर कुछ भी हो सकता है) ---- तुरंत हम लोग नेत्र-रोग विशेषज्ञ के पास गये तो उस ने कहा कि आप बिल्कुल सही वक्त पर ही आये हो इस से आंख भी खराब हो सकती है। उन्होंने भी दवाईयां लिखीं ---खाने की और आंख में डालने की ---- और कुछ दिन इलाज करने के बाद सब कुछ ठीक हो गया।
यह उदाहरण इस लिये ही दी है कि किसी भी रोग को छोटा नहीं जानना चाहिये ---हमेशा यह मत सोचें कि सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा --- हां, अगर कोई विशेषज्ञ यह बात कहता है तो बात भी है !! कईं बार जिस तकलीफ़ को हम बिल्कुल छोटा समझते हैं वह स्पैशिलस्ट के लिये किसी बड़ी तकलीफ़ का संकेत हो सकती है और अकसर जब कभी हम यूं ही किसी बड़ी तकलीफ़ की कल्पना से डर कर किसी विशेषज्ञ से मिलने से कतराते रहते हैं लेकिन विशेषज्ञ से मिल कर भांडा फूट जाता है कि यह तो तकलीफ़ कोई खास थी ही नहीं ----कुछ ही दिनों की दवाई से तकलीफ़ छृ-मंतर हो जाती है।

एक बात और भी है कि आज कल कुछ तरह के चमड़ी रोगों के होम्योपैथी इलाज के विज्ञापन भी समाचार-पत्रों में हमें दिख जाते हैं --- अकसर जब मरीज़ इन के बारे में किसी डाक्टर से अपनी राय पूछता है तो वह चुप सा हो जाता है । ऐसा इसलिये होता है क्योंकि हमारी चिकित्सा शिक्षा में एलोपैथी और अन्य भारतीय चिकित्सा पद्वतियों का समन्वय न के बराबर है ---- ना तो यह चिकित्सकों के स्तर पर है और न ही मरीज़ों के स्तर पर ---- कईं बार बस असमंजस की स्थिति सी बन जाती है --- मेरे विचार में मरीज को यह पूर्ण अधिकार है वह सारी सूचना प्राप्त कर के अपने विवेक एवं सुविधा के अनुसार ही चिकित्सा पद्धति का चयन करे ---बस इतना ध्यान अवश्य कर ले कि जो भी होम्योपैथिक एवं आयुर्वैदिक चिकित्सक उस का इलाज करे वह प्रशिक्षित होना चाहिये और दूसरा यह कि दोनों चिकित्सा पद्वतियों के इलाज की खिचड़ी से दूर रहने में ही समझदारी है ---- वरना दो नावों की एक साथ सवारी करने वाले जैसी हालत हो जाती है। जाते जाते बस एक बात और करूंगा कि यह जो हमें अकसर बैंक, डाकखाने , पड़ोस में सेल्फ-स्टाईल्ड होम्योपैथ अथवा आयुर्वैदिक चिकित्सक मिल जाते हैं ना इन से तो बिल्कुल बच कर ही रहा जाये ---- इन के पास कोई प्रशिक्षण होता नहीं है , बस कहीं से एक किताब मंगवा कर उस के आधार पर देख देख कर ये अपने जौहर दिखाने पर हर समय उतारू रहते हैं--- बस ऊपर वाला हम सब की ऐसी नेक रूहों से रक्षा करें---- जी हां, होते ये बहुत नेक किस्म के इंसान हैं लेकिन बस वही बात बार बार याद आ जाती है ----नीम हकीम खतराये जान !!

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

वाह ! क्या सच में यह मशीन सब कुछ भला चंगा कर देगी !!

कुछ दिन पहले सूचना मिली कि शहर में फलां-फलां जगह पर जर्मनी से एक मशीन ला कर स्थापित की गई है जो कि बहुत से रोगों से निजात दिला देगी। कुछ दिन बाद मुझे पता चला कि जिस के यहां यह जर्मनी वाली मशीन स्थापित की गई है उस ने कुछ दिन के लिये फीस के लिये छूट दे रखी है—लोग रोज़ाना जा कर सिंकवाई करवाये जा रहे हैं।

दो चार दिन पहले रोहतक गया तो वहां पर भी इस जर्मनी वाली मशीन के इश्तिहार जगह जगह लगे हुये थे।
सोच रहा हूं कि क्या इस मशीन से सचमुच ही सब कुछ ठीक हो जायेगा---तो जवाब संतोषजनक मिलता नहीं। लगता है कि पब्लिक को बस उल्लू बनाया जा रहा है –अब रोज़ाना इस इलाज के हर मरीज़ से तीस रूपये लिये जा रहे हैं। इस से कुछ भी तो होने वाला नहीं है। आज मैं अपने एक मरीज़ को कह रहा था कि यार, इस तीस रूपये के तो यार तेरा परिवार फल खा सकता है --- वैसे आम आदमी की क्या कम सिंकाई हो रही है जो मशीन से भी यह काम करवाने की भी ज़रूरत आन पड़ी है, और यह काम तो घर पर भी किया जा सकता है। और जहां तक बड़ी उम्र के साथ और बढ़े हुये वजन की बदौलत घुटने चलते नहीं, जोड़ जाम हो गये हैं, चाल टेढ़ी हो गई है तो उस में यह कमबख्त मशीनें क्या कर लेंगी ----कुछ नहीं कर पायेंगी ---- केवल झूठी आस देती रहेंगी ----कब तक ? ----जब तक जनमानस रोज़ाना तीस रूपये इन जगहों पर जा कर पूजते रहेंगे !

अकसर यह भी सोचता हूं कि हम लोग बहुत ज़्यादा भटक चुके हैं ---इस के बहुत से कारण है। जिस तरह से आज कल टीवी पर हाई-फाई विशेषज्ञों द्वारा राशि फल सुनाया जाता है वह भी अच्छा खासा रोचक प्रोग्राम हो गया है ---- इस काम को भी प्रोड्यूसरों ने अच्छा खासा रोचक बना दिया है। इसे पेश करने वाले लोगों के हाव-भाव, उन के गले में मालाओं की वैरायिटी, डिज़ाइनर कपड़े और बेहद उतावलापन देखते बनता है।

कुछ प्रोग्रामों पर तो तरह तरह के तावीज़, यंत्र-तंत्र धारण करने की गुज़ारिश की जाती है और इन को पेश करने का ढंग भी इतना लुभावना होता है कि आदमी इन को पहनने के लिये मचल ही जाये क्योंकि इस के फायदे बताने वाली बहन जी की बातों में जादू ही कुछ इस किस्म का है कि क्या कहने !!

याद आ रहा है कि अपने पिता जी की अस्थि-विसर्जन के लिये जब हम लोग हरिद्वार गये तो वहां पर हम ने भी 1500 रूपये में एक रूद्राक्ष खरीद कर यही सोचा था कि यार, यह रूद्राक्ष हमें इतनी आसानी से आखिर मिल कैसे गया ---क्योंकि उस बेचने वाले की बातों में बात ही कुछ ऐसी थी कि यह रूद्राक्ष तो बस केवल एक ही बचा है। सरासर हम लोगों को बेवकूफ़ बनाया गया था।

दोस्तो, मैं भी जगह जगह इतनी बार धोखा खा चुका हूं ---- इतनी बार बेवकूफ़ बन चुका हूं कि अपनी सारी फ्रस्ट्रेशन निकालने का केवल एक ही रास्ता ढूंढ निकाला है कि जनमानस को खूब सचेत किया जाये ----सुना है कि हर आदमी के लिये ऊपर वाले ने कोई न कोई काम बनाया हुआ है --- मेरे लिये तो मुझे लगता है कि जनमानस को जागरूक करना ही मेरे हिस्से आया है। और मुझे पूरा विश्वास है कि यह काम मैं आप सब के आशीर्वाद से अच्छे खासे ढंग से कर लेता हूं।

कईं बार रात को डेढ़-दो बजे आप टी वी लगा कर देखिये --- स्थानीय चैनलों पर प्रादेशिक भाषाओं में विदेशी महिलायें जो फर्राटेदार पंजाबी अथवा हिंदी( सब डब किया हुआ ) बोलती दिखती हैं, वह देश कर कोई भी हैरान हुये बिना रह ही नहीं सकता। वह इतनी तेज़ी तेज़ी से बोल रही होती हैं कि सुनने वाले को लगता है कि अगले कुछ ही घंटों में वह उसे उस की फालतू चर्बी से निजात दिलवा कर एकदम छरहरा कर देंगी ----सब अजीबो गरीब विज्ञापन इसी समय भी दिखते हैं ---किसी विज्ञापन में वक्ष सुडौल करने की रणनीति समझाई जाती है , कहीं पर पेट को बिल्कुल अंदर धंसाने के गुर सिखाये जा रहे होते हैं ---- और यह विज्ञापन इतने कामुक अंदाज़ में पेश किये जाते हैं कि लोग बार बार इन्हें देख कर भी थकते नहीं---- और लोहे को गर्म देख कर तुरंत मेम घोषणा करती है कि अगर तू भी इतना ही बलिष्ठ एवं सुडौल बनता चाहता है तो तुरंत फोन उठा के अपना सौदा बुक करवा ले, और दो हज़ार की छूट वाली स्कीम केवल पहले एक सौ फोन करने वाले दर्शकों के लिये ही है।

मन तो मुसद्दी का भी कर रहा है कि एक मशीन मंगवा कर विलायती कसरत कर ही ली जाये, लेकिन पास ही चटाई पर बेपरवाह घोड़े बेच कर सो रहे सारे परिवार जनों की अंदर धंसी हुई आंखें और गाल देख कर वह डर जाता है ---तुरंत बती बुझा कर वह भी सोने की कोशिश तो करने लगता है लेकिन उस विज्ञापन वाली मेम की मीठी-मीठी (लेकिन महंगी बातें) उसे ढंग से सोने ही नहीं देतीं।

सुबह अखबार वाले की साईकिल की घंटी सुन कर जैसे ही वह दरवाजे की तरफ लपकता है तो अखबार से पहले उस के हाथ में एक पैम्फलेट लगता है ---- जिस पर यह लिखा हुआ है ----

खानदानी ज्योतिषी – ज्योतिष रत्न बहुत सारे सम्मान पत्रों से सम्मानित –विश्वविख्यात ज्योतिषी से आप भी नौकरी, विदेश यात्रा, प्रेम विवाह, शिक्षा, शादी, प्रमोशन, निःसंतान, कोर्ट कचहरी, तलाक, मांगलिक, कालसर्प योग, पितृ-दोष, किया-कराया, शारीरिक कष्ट, वास्तु दोष, ग्रह कलेश आदि समस्त समस्याओं के विधि पूर्वक समाधान हेतु मिलें।
(सोचने से नहीं मिलने से कष्ट दूर होता है)
100 प्रतिशत समाधान की गारंटी निश्चित समय में।
इस इश्तिहार के नीचे तीन सूचनायें भी लिखी हुई हैं ---
तांत्रिक, मौलवी और बंगाली बाबाओं से विश्वास खो चुके व्यक्ति एक बार अवश्य मिलें। फीस श्रद्धानुसार।
जब कहीं न हो काम तो हमसे लें तुरंत समाधान।
नोट – किसी माता बहिन के सन्तान न होती हो या होकर खत्म हो जाती हो तो एक बार अवश्य मिलें।
विशेष प्रावधान – हमारी पूजा का असर तुरन्त होता है।

इस विज्ञापन से चकराये हुये सिर को डेढ़ प्याली कड़क चाय से दुरूस्त करने के बाद जैसे ही वह अपने चहेते पेपर का पन्ना पलटता है तो उसे सेहत से संबंधित विज्ञापनों में इतना अपनापन नज़र आता है कि वह राजनीति दंगल की किसी भी खबर को पढ़ने की बजाह वह वाला विज्ञापन बार बार पढ़ता है जिस में उसे यह आस दिखती है कि उस दवाई के इस्तेमाल से उस की ठिगनी ही रह गई प्यारी बिटिया का कद झट से बढ़ जायेगा, उसे वह विज्ञापन भी बहुत लुभाता है जिस में बताया गया है कि फलां फलां दवाई के इस्तेमाल से उस के स्कूल में पढ़ रहे बेटे की यादाश्त बढ़ सकती है, विज्ञापन तो वह वाला भी काट कर रख के छिपा लेता है जिस में पुरानी से पुरानी कमज़ोरी को दूर करने का वायदा दिलाया गया होता है ------------------लेकिन अफसोस ये सब सरासर झूठे, बेबुनियाद , धोखा देने वाले विज्ञापन ------ भला ऐसे कद बढ़ता है, यादाश्त बढ़ती है या यौवन लौट कर आता है क्या !!

वह असमंज की स्थिति में है ---- बस जैसे तैसे अपने पड़ोस के नीम हकीम के पास अपने परिवार को लेकर पहुंच जाता है। वह उन सब की तकलीफ़ों के लिये एक ही समाधान बताता है कि ताकत के टीके पांच पांच लगवा लो --- सब ठीक हो जायोगे। वह भी कर लिया --- लेकिन कुछ हुआ नहीं ---- लेकिन एक बात ज़रूर हो गई ----उस नीम हकीम के यहां टीके लगवाने से उसके लड़के को हैपेटाइटिस बी ( खतरनाक पीलिया ) हो गया ---- बैठे बिठाये आफ़त हो गई।

उसे लेकर जब बड़े शहर गया तो पांच हज़ार तो टैस्ट पर ही लग गये और उन टैस्टों से यह पता चला कि इस तकलीफ़ के लिये कुछ कर ही नहीं सकते। सब कुछ ऊपर वाले पर ही छोड़ना होगा।

यह जो आपने बातें सुनीं ये आज घर घर में हो रही हैं दोस्तो, जनमानस में स्वास्थ्य जागरूकता की इतनी ज़्यादा कमी है (विभिन्न कारणों की वजह से) कि क्या कहें और ऊपर से आम आदमी को अपने जाल में फंसाने वाले व्यवसायी हर समय घात लगाये बैठे हैं कि कब इस की तबीयत ढीली हो और कब हम इस का खून चूस कर इस की हालत और भी पतली करें ----साला जी कर तो दिखाये !!, बहुत जी लिया है बेटा तूने ....................................
मैं अकसर सोचता हूं कि क्या केवल स्वास्थ्य जागरूकता बढ़ाने से ही बस लोगों की सेहत ठीक हो जायेगी ------ मुझे तो नहीं ऐसा लगता ---- क्योंकि हम लोगों की हर तकलीफ़ के कईं कईं पहलू हैं। लेकिन मुझे तो अपना काम करना है ----- जागरूकता की अलख जगानी है।

क्योंकि यह मेरा चिट्ठा है इसलिये मैं इमानदारी से कुछ भी लिख सकता हूं -----यह स्वास्थ्य जागरूकता का प्रचार-प्रसार करना ही मेरा मिशन है --- सर्विस कर रहा हूं लेकिन वह भी सोचता हूं कि एक तरह से भविष्य की सैक्यूरिटि के लिये भी कर रहा हूं वरना विचार तो यही बनता है कि किसी ऐसी संस्था के साथ जुड़ जाऊं जिस के साथ मिल कर इस जागरूकता को आगे बढाऊं -----सुबह से शाम तक गांव गांव जा कर लोगों से मिलूं ---- उन की जीवनशैली के बारे में उन से खूब बातें करूं, तंबाकू-शराब, अन्य नशों का सफाया करने में अपना योगदान दूं , और उन्हें प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति अपनाने के लिये प्रेरित करूं----------------लेकिन यह क्या आज की पोस्ट तो एक अच्छा खासा भाषण ही हो गया लगता है। एक बात जो मैं मुझे लगता है कि पत्थरों पर खुदवा देनी चाहिये वह यह है कि ताकत किसी टीके में, कैप्सूल में या टेबलेट में नहीं होती -------------------ताकत है तो सीधे सादे हिंदोस्तानी खाने में, बाकी सब वायदे झूठे हैं, फरेब हैं, झूठी आशा है , सरासर किसी को गुमराह करने के धंधे हैं-----------------जी हां, कुछ लोग इस प्रोफैशन को भी धंधे की तरह ही चला रहे हैं।

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

इस कैंडी को तो आप भी ज़रूर ही खाया करें ...




दो-तीन दिन पहले मैं अपनी माता जी के साथ बाज़ार गया हुआ था ---रास्ते में वे बाबा रामदेव के एक औषधालय के अंदर शहद लेने गईं ---मैं बाहर ही खड़ा हुआ था, जब वह बाहर आईं तो हाथ में दो पैकेट पकड़े हुये थे जिन्हें उन्होंने मेरी तरफ़ सरका कर खाने के लिये कहा।

यह निराली कैंडी मैंने पहली बार देखी थी – आंवला कैंडी – दो तरह के पैकेट में यह दिखीं। इस का स्वाद बहुत बढ़िया था। अब आंवले के गुण तो मैं क्या लिखूं---- बस, केवल इतना ही कहूंगा कि इसे प्राचीन समय से अमृत-फल के नाम से जाना जाता है और यह आंवला तो गुणों की खान है। यह आंवला कैंडी का 55 ग्राम का पैकेट 10 रूपये में मिलता है। यह बाबा रामदेव की दिव्या फार्मेसी द्वारा ही बनाया जाता है , इसलिये हम लोग इस की गुणवत्ता के बारे में आश्वस्त हो सकते हैं।

मैं जब भी अपने मरीज़ों को आंवला खाने की सलाह देता रहा हूं तो अकसर तरह तरह की प्रतिक्रियायें देखने-सुनने को मिलती रही हैं। कुछ तो झट से कह उठते हैं कि उस का तो स्वाद बहुत ही अजीब सा होता है, वह हम से तो नहीं खाया जाता।

अब मरीज़ों को जो भी बात कहनी होती है तो बड़ी सोच समझ कर कहनी होती है क्योंकि अधिकतर मरीज़ डाक्टर के मुंह से निकली बात को ब्रह्म-वाक्य समझ कर उस पर अमल करना शुरू कर देते हैं। यह मैं इसलिये कह रहा हूं क्योंकि बाज़ार से लेकर आंवले का मुरब्बा खाना आम आदमी के लिये थोड़ा बहुत महंगा ही है ---अगर तो इसे केवल किसी बीमार द्वारा ही लिया जाना हो तो शायद चल सकता है लेकिन अगर हम चाहते हैं कि एक औसत परिवार का हर सदस्य इस का नित्य-प्रतिदिन सेवन करे तो इस के इस्तेमाल का कोई सस्ता और टिकाऊ तरीका ढूंढना होगा।

यह आंवले का मुरब्बा तो मैं भी कभी कभी लेता रहा हूं ---- लेकिन बाज़ार में बिकने वाले मुरब्बा से मैं कोई ज़्यादा संतुष्ट नहीं हूं ---- बहुत अच्छी अच्छी दुकानों पर जिस तरह से बड़े बड़े टिन के डिब्बों में जिस तरह से इन की हैंडलिंग की जाती है , वह देख कर अजीब सा लगता है । व्यक्तिगत तौर पर मैं कम से कम अपने सेवन के लिये तो इस आंवले के मुरब्बे को बाज़ार से खरीद कर खाने के पक्ष में नहीं हूं---- और इस के कईं कारण हैं, दुकानों पर इस की इतनी बढ़िया हैंडलिंग न होना इस का एक मुख्य कारण है।

मैं अकसर जब मरीज़ों को आंवले के सेवन की बात कहता हूं तो वे समझते हैं कि मैं केवल इस के मुरब्बे की ही बात कर रहा हूं। कईं लोग मुरब्बे वाले आंवले को पानी से धो कर इस्तेमाल करने की बात भी करते हैं ---- क्योंकि उन्हें यह बहुत मीठा रास नहीं आता।

कईं बार मुझे अपने प्रयोग भी किसी किसी मरीज़ के साथ बांटने ज़रूरी हो जाते हैं --- क्योंकि हम सब लोग एक दूसरे से अनुभवों से ही सीखते हैं। कुछ साल पहले मुझे फिश्चूला की तकलीफ़ हो गई थी ---मैं लगभग चार पांच साल तक बहुत परेशान रहा --- अब क्या बताऊं कि चिकित्सा के क्षेत्र से जुड़ा होने के बावजूद भी मैं आप्रेशन करवाने के नाम से ही कांप उठता था --- मैं सोचा करता था कि अगर मैं आंवले का नियमित प्रयोग करता रहूंगा तो शायद धीरे धीरे सब कुछ अपने आप ही ठीक हो जायेगा लेकिन ऐसा कभी होता है क्या !--- जयपुर के सर्जन डा. गोगना जी से आप्रेशन करवाना ही पड़ा और पूरे छ- महीने ड्रेसिंग चलती रही थी।

इस बात लिख कर मैं तो बस यह बात रेखांकित करना चाहता था कि मेरी उन चार-पांच साल तक चलने वाली तकलीफ़ के दिनों में इस आंवले में एक सच्चे मित्र की तरह मेरा पूरा साथ दिया। सर्दी के मौसम में तो जब आंवला बाज़ार में बिकता है उन दिनों तो मैं इसे उसी रूप में ही लेना पसंद करता हूं। इस का एक बहुत ही आसान हिंदोस्तानी तरीका है ----आंवले का आचार --- पंजाब में सर्दी के दिनों में यह बहुत चलता है।

अच्छा जब कभी आचार नहीं होता था तो मैं एक आंवले के छोटे छोटे टुकड़े कर लिया करता था और आचार की जगह इन टुकड़ों को खा लिया करता था ---इस तरह से भी ताज़े आंवले का सेवन कर लेना बहुत आसान है, इसे आप भी कभी आजमाईयेगा।
अच्छा तो जब ताज़े आंवले बाज़ार में नहीं मिलते तो तब क्या करें ---- सूखे आंवले का पावडर बना कर एक-आधा चम्मच लिया जा सकता है और यह भी मैं लगभग दो साल तक लेता रहा हूं। वो बात अलग है जिस शारीरिक तकलीफ़ का उपाय ही सर्जरी है , वह तो आप्रेशन से ही ठीक होगी लेकिन इस तरह से आंवले के इस्तेमाल से मेरा पेट बहुत बढ़िया साफ़ हो जाया करता था और मैं सौभाग्यवश उस फिश्चूला की जटिलताओं से बचा रहा।

आंवले की यह कैंडी भी बहुत बढ़िया आइडिया है --- आज कल जब बच्चे सब्जियां तक तो खाते नहीं है, ऐसे में उन से यह अपेक्षा करना कि वे आंवला खायेंगे, क्या यह ठीक है ? लेकिन मेरे विचार में उन्हें आंवले का सेवने करने के लिये प्रेरित करने के लिये इस आंवला कैंडी से बढ़िया कोई चीज़ है ही नहीं ---- इस का सेवन करने के बहाने वे आंवले के लिये अपना मुंह का स्वाद भी डिवैल्प कर पायेंगे जो कि इन की सारी उम्र मदद करेगा।

क्या है ना इस तरह की दिव्य वस्तुओं के लिये स्वाद डिवैल्प होना भी बहुत ज़रूरी है --- अब हम लोगों को बचपन से ही आदत रही है कि गला खराब होने पर मुलैठी चूसनी है और हम दो एक दिन में बिल्कुल ठीक भी हो जाया करते थे ....लेकिन अब हम लोग अपने बच्चों को इस का इस्तेमाल करने को कहते हैं तो वह नाक-मुंह सिकोड़ते हैं, और इस तरह से दिव्य देसी नुस्खों से दूर रह कर बिना वजह कईं कईं दिन तक दुःख सहते रहते हैं।

एक बार और भी है ना कि इस तरह की कैंडी खाते वक्त इसे ज़्यादा खा लेने से डरने वाली भी कोई बात नहीं --- जैसा कि मैंने उस पैकेट को दो-एक घंटे में ही खत्म कर दिया क्योंकि मुझे इस का स्वाद बहुत बढ़िया लगा। हां, अगर ज़्यादा मीठा सा लगे तो खाने से पहले धो लेंगे तो भी चलेगा।

आंवले इतने सारे दिव्य-गुणों की खान है कि इसे खाने का जहां भी मौका मिले उस से कभी भी न चूकें। और खास कर जब आंवला-कैंडी ऐसी कि बच्चे भी इसे बार बार चखने के लिये मचल जायें। तो, मेरा आपसे अनुरोध है कि आप इस आंवला कैंडी का खूब सेवन किया करें----- आज बाबा रामदेव की संस्था दिव्य फार्मेसी द्वारा तैयार इस आंवला कैंडी के लिये इस पोस्ट के माध्यम से विज्ञापन लिख कर बहुत अच्छा लग रहा है----शायद यह पहली बार है कि जब मैं किसी वस्तु का अपनी इच्छा से विज्ञापन कर रहा हूं ----- आप जिस भी शहर में हैं वहां पर बाबा रामदेव की फार्मेसी से ये सब प्राडक्ट्स आसानी से उपलब्ध होते हैं।

पांच-छः साल पहले मैं आसाम में जोरहाट में एक लेखक शिविर में गया हुआ था ---वह मुझे यह देख कर बहुत अच्छा लगा कि कुछ दुकानों पर पान-मसालों एवं गुटखों के पैकेटों के साथ साथ सूखे आंवले के छोटे छोटे पाउच एक-एक रूपये में भी बिक रहे थे ---वहां मुझे यही विचार आ रहा था कि आदमी की ज़िंदगी भी क्या है ----दिन में बार बार उसे किन्हीं दो चीज़ों में से एक को चुनना होता है और इस च्वाईस पर ही उस का भविष्य निर्भर करता है ---अब जोरहाट वाली बात ही लीजिये कि बंदा चाहे तो एक रूपये में आंवले जैसे अमृत-फल का सेवन कर ले और चाहे तो एक रूपये का पान-मसाला एवं गुटखा रूपी ज़हर खरीद कर आफ़त मोल ले ।।

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

जब भिखारी भीख में तंबाकू मांगने लगें..... तो समझो मामला गड़बड़ है!!

क्या आप को किसी भिखारी ने तंबाकू दिलाने को कभी कहा है ? मेरे साथ ऐसा ही हुआ कुछ दिन पहले जब मैं पिछले सप्ताह चार-पांच दिन के लिये एक राष्ट्रीय कांफ्रैंस के सिलसिले में नागपुर गया हुआ था। मैं एक दिन सुबह ऐसे ही टहलने निकल गया। रास्ते में एक मंदिर के बाहर बहुत से मांगने वाले बैठे किसी धन्ना सेठ की बाट जोह रहे थे। वहां से कुछ ही दूर एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति जो बीमार लग रहा था –उस की टांग में कोई तकलीफ़ लग रही थी- उस ने मुझे आवाज़ दी ---बाबू, तंबाकू दिला दो। मैं एकदम हैरान था।

यह पहला मौका था जब किसी मांगने वाले ने मेरे से तंबाकू की फरमाईश की थी। मुझे उस की यह फरमाईश सुन कर न तो उस पर गुस्सा आया, ना ही तरस आया ---- वैसे तो मैं उस समय भावशून्य ही हो गया। लेकिन पता नहीं क्या सोच कर मैंने उसे कहा कि बिस्कुट खायोगे (पास में एक किरयाना की दुकान खुली हुई थी ) --- तो उस ने अपना तर्क रखा कि इस समय कहां मिलेंगे बिस्कुट। मैं तुरंत उस दुकान पर गया और वहां से बिस्कुट खरीद कर उसे दिये।

साथ में उस के एक कुत्ता बैठा हुआ था --- मैं समझ गया कि यह इस के दुःख सुख का साथी है, एक पैकेट उस के लिये भी दिया। एक बात का ध्यान आ रहा है कि जितनी शेयरिंग ये मांगने वाले आपस में या अपने पालतु जानवरों के साथ करते हैं, यह काबिले-रश्क होती है। मैं बहुत बार देखा है कि अगर इन के पास ब्रैड के दो पीस हैं तो एक-एक खा लेते हैं। मैं इस बात से बहुत ही ज़्यादा प्रभावित होता हूं ।

खैर, उस मांगने वाले के बारे में सोच कर मैं मिष्रित सी भावनाओं से भरा रहा --- खाने के लाले पड़े हैं, ऊपर से बीमारी, रहने का कोई ठिकाना नहीं लेकिन तंबाकू का ठरक एकदम कायम !! लेकिन यह हल्के-फुल्के अंदाज़ में टालने वाली बात नहीं है। उसी दिन बाद दोपहर तंबाकू के ऊपर एक सैमीनार ने भी यही कहा कि हमें तंबाकू के आदि हो चुके लोगों का कभी भी मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिये --- ये बीमार लोग हैं, ये लोग तंबाकू के आदि हो चुके हैं, इन से प्यार और सहानुभूति से ही पेश आने की ज़रूरत है, तभी ये हमारी बात मानेंगे।

उस दिन तंबाकू एवं पान-मसाला, गुटखे के इस्तेमाल से होने वाले विनाश की दो गाथायें सुन कर मन बहुत ही बेचैन हुआ। वर्धा के सुप्रसिद्ध ओरल-सर्जन ने एक 21 साल के युवक के बारे में बताया जो कि गुटखा इस्तेमाल किया करता था --- उन्होंने बताया कि उसे मुंह का कैंसर हो गया --- पूरे दस घंटे लगा कर उन्होंने उस का आप्रेशन किया ---सारी तस्वीरें उन्होंने दिखाईं---आप्रेशन की और जब हास्पीटल से छुट्टी लेने के बाद वह अपने मां-बाप के साथ खुशी खुशी घर लौट रहा था। लेकिन उन्होंने बताया कि इतना लंबा आप्रेशन करने के बावजूद छःमहीनों के बाद ही उसे दोबारा से मुंह के कैंसर ने धर दबोचा और वह देखते ही देखते मौत के मुंह में चला गया। मुंह के कैंसर के रोगियों के साथ अकसर यही होता है। इस 21 साल के नवयुवक के केस के बारे में सुन कर हम सब लोग आश्चर्य-चकित थे --- ऐसे केस अब इतनी कम उम्र में भी बिल्कुल होने लगे हैं क्योंकि यह गुटखा, पानमसाला, तंबाकू हमारे जीवन में ज़हर घोले जा रहा है।

दूसरा केस यह था कि चार साल का बच्चा जो गुटखे और पानमसाले का आदि हो चुका था उस का मुंह ही खुलना बंद हो चुका था ---- वह ओरल-सबम्यूकसफाईब्रोसिस की तकलीफ़ का शिकार हो चुका था और उस की तस्वीर के नीचे लिखा हुआ था ----मेरा क्या कसूर है ? बात सोचने की भी है कि उस का निःसंदेह कोई कसूर भी तो नहीं है, कसूर सामूहिक तौर पर हम सब का ही है, सारे समाज का ही दोष है कि हम सब मिल कर भी इन विनाशकारी पदार्थों को उस के मुंह तक पहुंचने से रोक न सके !

कुछ दिन पहले मेरे पास एक साठ साल के लगभग उम्र वाला एक मरीज़ आया --- उस से मैंने यह सीखा कि बार बार तंबाकू छोड़ने वाली बात के पीछे पड़े रहना कितना ज़रूरी है। यह मरीज़ पिछले कईं सालों से तंबाकू-चूने का मिश्रण बना कर गाल के अंदर रखा करता था --- इस से उस की गाल का क्या हाल हुआ, यह आप इस तस्वीर में देख सकते हैं। इस अवस्था को ओरल-ल्यूकोप्लेकिया (oral leukoplakia) कहा जाता है और यह कैंसर की पूर्व-अवस्था है।

मैंने पंद्रह-बीस मिनट उस मरीज़ के साथ बिताये ---उसे खूब समझाया बुझाया। नतीज़ा यह निकला कि मरीज़ कह उठा कि डाक्टर साहब, ये सब बातें आपने एक साल पहले भी मेरे से की थीं, लेकिन मैं ही इस आदत को छोड़ नहीं पाया, लेकिन आज से प्रण करता हूं कि इस शैतान को कभी छूऊंगा भी नहीं। और इस के साथ ही उस ने यह तंबाकू का पैकेट मेरी टेबल पर रख दिया जिस की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं--- मैंने पूछा कि चूने वाले डिबिया भी यहीं छोड़ जाओ। उस ने बताया कि सब कुछ इस पैकेट में ही है। उस समय मुझे यह पैकेट देख कर इतनी खुशी हो रही थी जितनी इंटरपोल के अधिकारियों को किसी अंतर्राष्ट्रीय गैंग के खूंखार आतंकवादी को पकड़ते वक्त होती होगी------ वैसे देखा जाये तो यह तंबाकू भी किसी खतरनाक आतंकवादी से कम थोड़े ही है --- इस का काम भी हर तरफ़ विनाश की आग जलाना ही तो है !!

आज वह पांच दिन बाद मेरे पास वापिस लौटा था --- बता रहा था कि यह देखो कि हाथ कितने साफ़ कर लिये हैं ---कुछ दिन पहले उस के हाथों पर तंबाकू की रगड़ के निशान गायब थे , ( काश, शरीर के अंदरूनी हिस्सों में तंबाकू के द्रारा की गई विनाश-लीला भी यूं ही धो दी जा सकती !!) …. वह बता रहा था कि पांच दिन हो गये हैं तंबाकू की तरफ़ देखे हुये भी। मैंने सलाह दी कि अपने कामकाज के वक्त भी ध्यान रखो कि किसी साथी से भी भूल कर तंबाकू की चुटकी मत लेना ---- बता रहा था कि आज सुबह ही उसे एक साथी दे तो रहा था लेकिन उस ने मना कर दिया। मुझे बहुत खुशी हुई उस की ये बातें सुन कर। और मैंने उसे कहा कि थोड़े थोड़े दिनों के बाद मुझे आकर मिल ज़रूर जाया करे और अपने दूसरे साथियों की भी इस शैतान से पीछे छु़ड़वाने में मदद करे।

और मैंने उस की इच्छा शक्ति की बहुत बहुत तारीफ़ की --- यही सोच रहा हूं कि तंबाकू छुड़वाने के लिये पहले तो डाक्टर को थोड़ा टाइम निकालना होता है और दूसरा मरीज़ की इच्छा-शक्ति, आत्मबल होना बहुत ज़रूरी है --- वैसे अगर डाक्टर उस समय यही सोचे कि उस के सामने बैठा हुआ वयोवृद्ध शख्स उस के अपने बच्चे जैसा ही है तो काम आसान इसलिये हो जाता है कि अगर हमारा अपना बच्चा कुछ इस तरह का खाना-चबाना शुरू कर दे तो क्या हम जी-जां लगा कर उस की यह आदत नहीं छुड़वायें---- बेशक छुड़वायेंगे, तो फिर इस बच्चे के साथ इतनी नरमी क्यों----यह भी जब तंबाकू रूपी शैतान को लात मार देगा तो इस का और इस के पूरे परिवार का संसार भी तो हरा-भरा एवं सुनहरा हो जायेगा-------और यकीन मानिये कि डाक्टर के लिये इस से ज़्यादा आत्म-संतुष्टि किसी और काम में है ही नहीं, दोस्तो।

शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

विज़िटिंग कार्डों का बोझ ---1.

कल ऐसे ही मेरे हाथ विज़िटिंग कार्डों वाला फोल्डर लग गया ---वैसे तो आज के ई-युग में इस की तरफ़ लपकने की ज़रूरत ही कहां महसूस होती है ! एक कार्ड पर नज़र गई --- केशव गोपीनाथ भंडारी – यह शख्स मेरे साथ हास्पीटल अटैंडेंट के तौर पर बंबई में काम किया करता था और यह कार्ड उस ने मुझे लगभग पंद्रह साल पहले अपनी सेवा-निवृत्ति के समय दिया था।

मैंने झट से बंबई का नंबर लगाया ---बस आगे 2 लगा लिया --- घंटी बजी ---उधर से पूछने पर मैंने बताया की भंडारी से बात करनी है। तो, फोन उठाने वाले ने आवाज़ लगाई कि पापा, आप का फोन है। भंडारी के फोन पर आने के बाद मैंने कहा, भंडारी बाबू, राम-राम -----उस ने पूछा कौन। मैंने कहा --- भंडारी, काम पुड़ता मामा। वह यह बात बहुत बार बताया करता था ---- यह मराठी भाषा का एक जुमला है जिस का अर्थ है ---- काम पड़ने पर लोग किसी को भी मामा बना लेते हैं !! 10-15 मिनट उस से बातें होती रहीं --- मुझे और उसे बहुत ही अच्छा लगा। लेकिन, एक छोटे से विज़िटिंग कार्ड का कमाल देखिये कि उस ने हमारी पुरानी यादें हरी कर डालीं।

वैसे यह विज़िटिंग कार्ड वाला फोल्डर मैंने उठाया इसलिये था कि मैंने इस की सफ़ाई करनी थी – यह बंबई लोकल की तरह खचाखच भरा हुआ था। मेरे पास कुछ और कार्ड थे जिन्हें इस फोल्डर में जगह देनी ज़रूरी थी ---वही डार्विन वाली बात हो गई --- survival of the fittest ! अर्थात् जो लोग काम के लगेंगे वही इस फोल्डर में टिक पायेंगे और बाकी कार्ड रद्दी की टोकरी के सुपुर्द हो जायेंगे।

आज सुबह मैंने डेढ़-दो सौ के करीब कार्ड रद्दी की टोकरी में फैंक दिये --- और यह काम मेरे को बहुत आसान लगा। यह काम करते हुये सोच रहा था कि अकसर बहुत से लोगों के साथ हमारे संबंध कितने ऊपरी सतह पर ही होते हैं --- और ऐसे कार्डों को फोल्डर से निकाल कर बाहर फैंकते वक्त एक क्षण के लिये भी सोचना ही नहीं पड़ता। ये कार्ड विभिन्न कंपनियों आदि के साथ, उन के डीलर्ज़ के थे --- जब ये कार्ड किसी से लिये होंगे या जब किसी ने इन्हें दिया होगा तो शायद इंटरएक्शन ही कुछ इस तरह का हल्का-फुल्का रहा होगा कि कभी खास संपर्क बाद में रखा ही नहीं गया।

कुछ कार्ड इस लिये भी सुपुर्दे ख़ाक हो गये क्योंकि उन की जगह पर उन्हीं लोगों के नये अपडेटेड कार्ड मुझे मिल चुके थे --- और कुछ कार्ड ऐसे थे जो ट्रेन में सफ़र करते वक्त विज़िटिंग-कार्ड एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत प्राप्त हुये थे, इसलिये सालों तक इन को रखे रखने की भी कोई तुक नहीं थी।

जब मैं उस फोल्डर को उलटा-पुलटा कर रहा था तो रह रह कर यही विचार मन में आता जा रहा था कि जो कार्ड डस्ट-बिन में फैंक दिये वे तो सही जगह पर पहुंच गये हैं लेकिन जो बचे हुये कार्ड हैं इन में से हरेक कार्ड के पीछे एक अच्छी खासी स्टोरी है। और यही स्टोरियां ही मैं लिख कर साझी करना चाह रहा हूं।

जब मैं ये विज़िटिंग कार्ड फैंक रहा था तो कुछ कार्ड फैंकते हुये मुझे दुविधा सी हो रही थी कि फैंकूं या पड़ा रहने दूं ---- बस, फिर उस समय जो ठीक समझा कर दिया ---लगता है कि जब ऐसे मौके पर दुविधा हो तो उस कार्ड को रखे रखना ही मुनासिब है ।

यह साफ़-सफाई करते वक्त मैं यही सोच रहा था कि अगर मेरे इस फोल्डर में अपने किसी बचपन के दोस्त का कार्ड मिल जाता तो मैं देखता कि उसे मैं कैसे फैंक पाता – पता नहीं जैसे जैसे हमारी उम्र बढ़ती है तो हमारे संबंधों में इतना फीकापन क्यों आ जाता है --- कालेज से ज़्यादा अपने स्कूल के संगी-साथी अज़ीज लगते हैं, प्रोफैशन से जुड़े लोगों से कहीं ज़्यादा अपने कालेज के दिनों के हमसफर क्यों इतना भाते हैं , .........बस, इस तरह अगर हम यूं ही आगे चलते जायेंगे तो पायेंगे कि हम लोगों की कितनी जान-पहचान तो बस ऐसे ही कहने के लिये ही होती हैं ---- जैसे जैसे उम्र बढ़ती है इस में फीकापन इसलिये आता है क्योंकि हम मुनाफ़े और नुकसान का टोटल मारना शुरू कर देते हैं --- इस से मेरे को यह फायदा होगा और इस से कुछ नहीं होगा -----बस, यही हमारी समस्याओं की जड़ है। हम क्यों नहीं बच्चों की तरह हो जाते ---- जब मैंने डेढ़-दो सौ कार्ड अपने छठी में पढ़ रहे बेटे को कूड़ेदान में फैंकने के लिये दिये तो उस ने मुझे यह कह कर चौंका दिया ----पापा, ये सब मैंने अभी अपने पास रखूंगा, ये मेरे काम के हैं, बाद में बताऊंगा----ये कह कर उसने वे सभी मेरे डिस्कार्ड किये हुये कार्ड अपनी स्टडी-टेबल की दराज में रखे और अपना स्कूल का बैग उठा कर बाहर भाग गया । मैं हमेशा की तरह यही सोचने लगा कि यार, हम लोग कब बच्चों की तरह सोचना बंद कर देते हैं, पता नहीं हम लोग बड़े होकर, बड़ों की तरह सोच कर , बड़ों की तरह कैलकुलेटिंग होने से आखिर क्या हासिल कर लेते हैं !!

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

क्या च्यूईंग चबाना ठीक है ?

जब कभी फिल्म समारोहों में बहुत नामी गिरामी सितारों ( आप के और मेरे ही बनाये हुये) को या फिर क्रिकेट आदि के मैचों के बाद जब खिलाड़ियों को तरह तरह के सम्मान से नवाज़ा जा रहा होता है तो इन सितारों, खिलाड़ियों को कईं बार च्यूईंग-गम चबाते हुये देख कर आप के मन में क्या ख्याल पैदा होते हैं ? --मुझे तो यह बहुत भद्दा लगता है, मुझे लगता है कि बंदा कह रहा है कि मुझे किसी की भी कोई परवाह नहीं है , मैं हरेक को अपने जूते की नोक पर रखता हूं । कईं बार तो जो इस तरह के प्रोग्राम कंपीयर कर रहा होता है वह भी यह सब चबा कर अपने माडर्न होने का ढोंग करता दिखता है। जब कोई मुंह में पान चबाते हुये या पान मसाला खाते हुये हम से मुखातिब होता है तो हम आग बबूला हो जाते हैं लेकिन हमारे ही ये चहेते कलाकार अथवा खिलाड़ी जब सैटेलाइट टीवी के ज़रिये करोड़ों लोगों से मुखातिब हो रहे होते हैं तो हम क्यों नहीं इन्हें कहते कि जाओ, पहले इस च्यूईंग-गम को थूक के आओ, फिर हम तुम्हें सुनेंगे -----चलो, जल्दी से पहले कुल्ला कर के आओ, शाबाश, अच्छे बच्चे की तरह ---और आगे से भी इस का ध्यान रखना ------वरना ...............इस गाने की तरफ़ ध्यान कर लेना !!

मुझे तो इन समारोहों में इन चांद-सितारों को देख कर अपने स्कूल के दिनों के दो सहपाठियों का ध्यान आ जाता है ---गुलशन और राकेश ----ये कमबख्त हमारी क्लास में टैरर थे ---च्यूईंग को चबाते तो रहते ही थे और बाद में दूसरों की बैंच पर चिपका देते थे जिस से वहां पर बैठने वाले की पैंट खराब हो जाया करती थी, कईं बार तो किसी सहपाठी के बालों पर ही चिपका दिया करते थे ---कईं बार तो इस की वजह से थोड़े बाल ही काटने पड़ जाया करते थे !

चलिये , अब ज़रा यह देख लेते हैं कि च्यूईंग-गम का हमारी सेहत पर क्या प्रभाव होता है !!