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मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

और आर टी आई यूज़र कैसे बन गया एक्टिविस्ट

अमृतसर जाने का मौका मिला -- स्कूल का दोस्त रमेश -- लंबे समय तक हम लोग गप्पबाजी करते रहे। उसे सूचना के अधिकार कानून के बारे में काफी जानकारी है .. अकसर वह मेरे  साथ अपने अनुभव शेयर करता रहता है।
एक बहुत ही अजीब सी बात उस से पता चली कि उस के बहुत से काम रूकने लगे हैं...अपने विभाग में भी उस के काम नहीं हो रहे -- कारण वही चूतिया सा एक संकीर्णता मानसिकता को दर्शाता हुआ कारण कि वह बहुत आरटीआई लगाता है।
और बताने लगा कि उसी के विभाग के बॉस ही उस के बारे में यह बात फैलाने लगे हैं -- कह रहा था कि सारे एक जैसे नहीं है लेकिन हर विभाग में एक दो तो होते हैं जो ......गुलामी (समझ गये कि नहीं) में एक दम फिट होते हैं ..बताने लगा कि वही लोग उस के बारे में कुछ लोगों को हर वक्त कहते रहते हैं कि यह आर टी आई करता है।
जब उस ने अचानक यह कहा कि क्या आरटीआई लगाना किसी को गाली देना है  तो मुझे एक बार तो उस की बात सुन कर झटका सा लगा कि यह ऐसा क्यों कह रहा है। लेकिन वह भी अपनी धुन का पक्का है ...बताने लगा कि ये लोग तरह तरह की च..चालाकी( अभी भी नहीं समझे, धत्त तेरे की..) करके उस के इरादों से उसे डगमगा नहीं सकते।
मैं भी टकटकी लगा कर उस  की बातें सुन रहा था ...बड़ा अजीब सा लग रहा था कि अगर कोई आरटीआई पूछ रहा है तो यह भी उस का एक अधिकार है जो वह इस्तेमाल कर रहा है, इस से जो डर रहा है वह क्यों डर रहा है, वह कईं किस्से बताने लगा।
उस ने मुझे कईं किस्से सुनाए जहां पर उस के बहुत से काम बनते बनते बिगड़ गए, केवल इसलिए कि उस से पहले उस की आरटीआई के चर्चे उस काम करने वाले बंदे तक पहुंचा दिए गये ---और वह उस चश्मे वाले बंदे का नाम भी मुझे बताने लगा .. दोस्त मिले थे बहुत दिनों बाद और बाद में उस ने उस के बारे में क्या क्या बताया, वह मैं यहां नहीं लिख सकता।
अच्छा एक और बात, रमेश ने जितने भी आरटीआई आवेदन लगाए अपने लिए ही लगाए .... अपनी सर्विस के बारे में कुछ पूछना क्या कोई ज़ुर्म करने जैसा है, नहीं ना तो फिर वह यही प्रश्न मेरे से पूछने लगा कि फिर आरटीआई के नाम से ही कुछ लोगों की ....ने क्यों लगती है, इस का सीधा मतलब है कि यह अपने आप में एक सक्षम हथियार है।
बहरहाल, हमारी डिस्कशन तो लंबी चलती है जिस में मैंने भी अपने आरटीआई अनुभव सांझे किये ... कुछ सुना बहुत कुछ सुनाया ...लेकिन अंत में एक बात अच्छे से समझ में आ गई ---जिन कार्यकर्ताओं के अथक प्रयासों के कारण ऐसा बढ़िया कानून बन गया उन को कोटि कोटि नमन....
पूरन के ढाबे पर खाने का लुत्फ़ उठाते उठाते उस ने मुझे एक बात ज़रूर कह दी .... कहने लगा कि यार आज की तारीख नोट कर लेना .. मैं पूछा क्या मतलब .... बताने लगा कि पहले तो वह था आरटीआई यूज़र लेकिन आज से एक आरटीआई एक्टिविस्ट तैयार हो गया.........शायद मैं उस की बात समझ नहीं पाता .. उस ने खुलासा किया कि वह अब दूसरों के लिए अर्थात् समाज की भलाई के लिए इस कानून का उपयोग करेगा।
मैं उस की बातें सुना जा रहा था ..सुने जा रहा था ...... और बहुत कुछ अपने आप से भी पूछ रहा था ....बाकी फिर ...
संगति का असर देखिए -- मैंने भी वापिस आते ही अपने इस आरटीआई  ब्लॉग को खोला और इसे संवारने में लग गया हूं ...कोशिश करूंगा कि इस पर निरंतर लिखूं ... और पूरी इमानदारी से लिखूं ..अभी समझ नहीं पा रहा हूं कि इसे हिंदी में ही रहने दूं या फिर इंगलिश में आरटीआई पर लिखना शुरू करूं ...........लेकिन मैं उस दोस्त की बातों से इतना प्रभावित हुआ हूं कि मुझे भी लगता है कि मैं भी आर टी आई यूज़र से पदोन्नत हो कर ..................     कुछ नहीं यार, कुछ नहीं ... यह गीत सुनिए  जिस का ध्यान आ गया .... समझने वाले तो समझ ही जाएंगे ...............

रविवार, 2 मई 2010

हां, तो कैसी रही लोकसभा टीवी द्वारा परोसी गई एक कप चाय ?

देखो, भाई, मैंने तो आज सुबह ही आप सब तक यह सूचना पहुंचा दी थी कि आज बाद दोपहर लोकसभा टीवी की तरफ़ से एक कप चाय का निमंत्रण है। जैसा कि मैं बता ही चुका हूं कि मैंने तो इस दावत में कल ही शिरकत कर ली थी, लेकिन आज भी रहा नहीं गया--इसलिये दोपहर 2 से 4 बजे तक यह फिल्म देखने में मशगूल रहा। क्या फिल्म है!! ----आप को कैसी लगी? ---क्या कहा, देख नहीं पाये, भूल गये ? ----चलिये, परवाह नहीं।

तो फिर इस फिल्म की कहानी तो थोड़ी सुनानी ही पडे़गी। इतनी जबरदस्त फिल्म---ऐसी फिल्म जिसे दो दिन में दो बार देख लिया। क्योंकि यह फिल्म है ही ऐसी---- इस फिल्म में जो कुछ भी घट रहा है लगता है कि आप के आसपास ही , आप ही के गांव में ही यह सब हो रहा है। वैसे तो यह मराठी फिल्म है लेकिन इस के सब-टाइटल्स अंग्रेज़ी भाषा में हैं। चूंकि मैं मुंबई में दस साल तक रहा हूं इसलिये मुझे भाषा समझने में कुछ दिक्तत नहीं हुई। वैसे किसी ने कहा भी है कि मानवता की बस एक ही भाषा होती है। लेकिन क्या ही अच्छा  होता अगर इस के सब-टाइटल्स हिंदी में होते ---पता नहीं गैर-मराठी इलाकों में ऐसे लोग इसे कैसे समझेंगे जिन्हें अंग्रेज़ी का ज्ञान नहीं है।

मजे की बात देखिये इस फिल्म में एक डॉयलाग तो है ----" क्या अंग्रेज़ी न आना कोई अपराध है ? संतों-पीरों ने क्या अपनी बात अंग्रेज़ी में कही"..................तो, यार, तुम लोगों को सब-टाइट्लस तैयार करते समय फिल्म के इस डॉयलाग का ध्यान नहीं आया। लेकिन शायद किसी अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में भेजने हेतु कोई मजबूरी रही होगी। होता है , होता है -----बस इतना ध्यान तो रहना चाहिये कि इस तरफ की प्रशंसनीय फिल्म अगर देश के गांव गांव में पहुंचती है तो यह भी किसी ऑस्कर से कम नहीं।

इधर उधऱ की बहुत हो गई --सीधा कहानी पर आते हैं। काशी नाथ एस.टी में एक कंडक्टर है। बड़ा गॉड-फेयरिंग सा किरदार है ---- किसी के दुःख में दुःखी हो जाता है और किसी की सहायता के लिये बिना स्टॉप के बस को रूकवाने में भी रती भर संकोच नहीं करता। और इस के लिये जब उसी कोई सवारी टोक देती हैं तो कह देता है ----नियम किसी आदमी की ज़रूरत से बड़े नहीं हैं।

उस की बस के ड्राइवर से उस की बहुत बनती है---बिल्कुल भाई की तरह रहते हैं। काशी नाथ के घर में मां, पत्नी, दो बेटे ---एक मैट्रिक में और दूसरा किसी ड्रामे की तैयारी में लगा हआ है, दो बेटियां --एक पास ही एक अस्पताल में नर्स का काम देखती है और दूसरी घर पर घर का काम देखती है। बहुत साधारण सा परिवार है।
आराम से उन की ज़िंदगी कट रही थी --- तभी एक बिजली का बिल आता है जो उन की नींद उड़ा देता है। इन का बिजली का बिल वैसे तो 125 से 150 रूपये मासिक आता था लेकिन इस बार 73000 रूपये का बिल इन की नींद उड़ा देता है। बिजली के दफ्तर के चक्कर तो काटता है काशीनाथ लेकिन बस यूं ही सब उसे इधर से उधर भगाते रहते हैं ---कोई उस की सुनता नहीं। बस, जगह जगह उसे यह सलाह दी जाती है कि छोड़, कहां इस झंझट में पड़ रहा है, चुपचाप एक कप चाय पिला कर सारा मामला सैट कर ले। खैर, काशी को यह सब मंज़ूर नहीं -------इसी बार बार चक्कर काटने के चक्कर में बिजली की बिल भरने की तारीख निकल जाती है और विभाग की तरफ़ से उस के घर का बिजली का कनैक्शन काट दिया जाता है।

बड़ी आफत हो जाती है घर में सब के लिये ----बुज़ुर्ग मां घर में ही अंधेरे की वजह से ठोकर खा कर गिरने से टांग टुड़वा बैठती है। बड़ा लड़का बिजली न होने की वजह से किसी दोस्त के घर सोने चला जाता है, और यह काशी को पसंद नहीं है। छोटा बेटा पढ़ाई में बहुत तेज़ है ---उस के बारे में उस के स्कूल की राय है कि वह तो स्टेट मेरिट में ज़रूर आ जायेगा। लेकिन, अब वह पढ़े तो पढ़े कैसे ? ---खैर, किसी तरह से कैरोसीन यहां वहां से लेकर रात में उस की पढ़ाई का जुगाड़ किया जाता है।

काशीनाथ अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश करता है ---एक आवेदन भी करता है संबंधित अधिकारी को कि उस का कनैक्शन तुरंत जोड़ने की कृपा करें और बिल ठीक कर दें। लेकिन उस का आवेदन डस्ट-बिन में ही जा मिलता है। इस दौरान जब भी वह बिजली के दफ्तर में जाता है तो उसे कारीडोर में बस चाय पिलाने वाले ज़रूर दिखाई देते  हैं जो कि एक चाय के कप के एवज़ में सब कुछ सैट कर देने का आश्वासन देते हैं ----लेकिन काशीनाथ बेहद इमानदार, असूलों का पक्का बंदा, उसे उन से चाय पीना गवारा नहीं----चाय तो बस बहाना है, ग्राहक फांसने का एक "साफ़-सुथरा" [छीः   ......थू...थू़] तरीका है जिस के लिये परेशान लोगों से सैंकड़ों रूपये ऐंठ लिये जाते हैं।

उन्हीं दिनों काशीनाथ जब एक ट्रिप पर निकलता है तो देखता है कि एक गांव में बहुत से लोग जमा हैं। वह ड्राइवर को कह के बस रूकवाता है--- जब भीड़ बस की तरफ़ लपकती है तो काशीनाथ कहता है ---जैसे किसान को गाय प्यारी होती है, वैसे ही मुझे यह बस प्यारी है , इस के साथ वह किसी तरह की छेड़छाड़ सहन नहीं करेगा। खैर, इतने में उस भीड़ में उपस्थित एक समाज सेविका (डाक्टर साहिबा) आगे आ कर स्प्ष्ट करती है कि किसी तरह की उपद्रव करना उन की मंशा नहीं है, उस एरिया का एक मुद्दा है जिस के लिये पब्लिक सहमति जुटा रही है ---वह एक आरटीआई कार्यकर्ता थी ---और वह चाहती थी कि बस में यात्रा कर रहे जितने लोग भी उस की बातों से सहमत हों, वे एक याचिका पर हस्ताक्षर कर दें। और ऐसा ही हुआ। काशीनाथ को इस नये कानून का पता चला।

अगले दिन अखबार में भी उस समाज सेविका के इस अभियान को कवर किया गया था ----बताया भी गया था कि उसे मिलने के लिये आप फलां फलां मंदिर में उन से मिल सकते हैं।

अब, काशीनाथ को उस के ड्राइवर साथी ने भी समझाया कि यह नया कानून तो उस के लिये ही है, यह उस की ज़रूर मदद करेगी। इसलिये उस ने ही यह भी पेशकश की वह पूणे जाकर पता करेगा कि इस तरह की सूचना लेने के लिये कौन सा फार्म होता है। वह वापिस आकर बताता है कि आर टी आई में कोई सूचना पाने के लिये किसी फार्म की ज़रूरत नहीं, प्लेन पेपर पर ही लिख कर आवेदन किया जा सकता है।

काशी घर आ कर आवेदन लिखने में जुट जाता है ----बड़ी मेहनत मशक्कत से आवेदन करता है। पहले तो कोशिश करता रहता है इंगिलश में अपनी बात लिखने की ---लेकिन उसे कुछ खास सफलता नहीं मिलती ----लेकिन बीवी जब कहती है कि अंग्रेजी का ज्ञान न होना क्या कोई अपराध है, और मां जब यह चुटकी लगाती है ----संतो,गुरूओं, पीरों नें क्या अपना संदेश अंग्रेज़ी में दिया-----यह सुन कर बात काशी की समझ में आ जाती है और वह आवेदन लिख कर पहुंच जाता है बिजली दफ्तर के जन सूचना अधिकारी के पास।

वह अधिकारी उसे हत्तोत्साहित ही करता है ---- किसी भी तरह से उस का मार्ग-दर्शन करना तो दूर उसे तरह तरह से  डराने लगता है कि देश इतना बड़ा है, तू किन चक्करों में पड़ रहा है, महीनों लग जाएंगे तेरे को यह सब सूचना मिलने में। और काशी की यह सलाह भी दे देता है कि चुपचाप जितना भी बिल आया है, भर दे और अगले बिलों में एडजस्ट कर दिया जायेगा। और आवेदन पड़ने पर उसे यह भी कह देता है ----तुम मेरे से सूचना लेने आये हो या मुझे आदेश देने आये हो ? सीधी सी बात है कि काशी ने अपना आवेदन ढंग से तैयार नहीं किया था ----उस ने लिखा था कि मेरा कनैक्शन चालू किया जाए और बिल ठीक किया जाए।

जब काशी को लगा कि यार, इस आवेदन से तो कुछ होने वाला नहीं, उस समाज सेविका को मिलना ही होगा। वह उस के पास जाता है जो उसे समझाती है कि आरटीआई में सूचना किस तरह से लेनी है, यह बहुत महत्वपूर्ण है। वह उसे बताती है कि वह ये प्रश्न पूछे ---

उस के घर में बिजली की रीडिंग लेने वाले कर्मचारी का नाम .
रीडिंग वाले रजिस्टर की फोटोकापी।
कंप्यूटर से निकलने वाली मास्टर-शीट की कापी।
पिछले तीन महीने में बिजली का बिल न भरने वाले कितने डिफाल्टर हैं
उन डिफाल्टरों से कितना का कनैक्शन काटा गया है

अब जब इस तरह का आवेदन बिजली विभाग के जन सूचना अधिकारी के पास पहुंचता है तो उसे तो इन बातों का जवाब देने में आफ़त महसूस होती है। विभाग को पता तो है कि उन के कंप्यूटर में किसी लफड़े की वजह ही से यह गल्त-बिलिंग हो गई है। उस जन सूचना अधिकारी का बास उसे कहता है कि संबंधित ग्राहक से ऐवरेज बिल ले कर छुट्टी करो ---- तो, वह उसे जवाब देता  है कि अब यह करना इतना आसान नहीं है, क्योंकि हम लोग तो पहले ही उस का कनैक्शन काट चुके हैं।

उस  जन सूचना  अधिकारी का एक साथी है ---कहता है, छोड़ जवाब ही न थे, यह बेकार के प्रश्न पूछने वाले हमारा समय खराब करते हैं, अगर एक बार जवाब देगा तो ये और कुछ पूछ लेंगे, अगर जवाब नहीं देगा, तो चुपचाप कर के बैठ जाएंगे।

बहरहाल 30 दिन बीतने के बाद वह उस डाक्टर दीदी की सलाह से अपीलीय अधिकारी को अपील कर देता है जिस की सुनवाई के लिये उसे बंबई भी बुलाया जा सकता है। लेकिन दीदी उसे बताती है कि उस का वहां जाना ज़रूरी नहीं है। कुछ दिनों बाद उस को अपीलीय अधिकारी की चिट्ठी आ जाती है कि फलां फलां दिन केस की हेयरिंग है।

काशीनाथ को बंबई भेजने की पूरी तैयारी की जाती है.....लेकिन उस की एक दिन की छुट्टी का पंगा जब पड़ता है तो काशी अपने बास से अपने दफ्तर के सभी कर्मचारियों की छुट्टियों का विवरण आरटीआई एक्ट के अंतर्गत देने के कहता है, .......फिर क्या था, ट्रिक काम कर जाती है, और उसे मुंबई जाने की छुट्टी मिल जाती है।
लेकिन पता नहीं वहां अपीलीय अधिकारी के दफ्तर में पहुंचते पहुंचते शाम हो जाती है, और केस का निपटारा उस की गैर-मौजूदगी में ही कर दिया जाता है। वह बहुत निराश होता है क्योंकि उस वक्त सभी ऑफिस बंद हो चुके थे।

वापिस आने पर पता चलता है कि उस के घर में बिजली वापिस आ गई है ----और बेटे का रिजल्ट आ गया है ---वह स्टेट में ग्रामीण विद्यार्थियों में से प्रथम एवं ओवरऑल द्वितीय स्थान पर आता है और टीवी वाले उस का एवं काशी का इंटरव्यू लेने पहुंच जाते हैं. काशी को इतना बुरा लगता है कि वह अपनी परेशानियों में ही इतना उलझा रहा कि उसे यह पता करने की भी होश न थी कि उस  का बेटा किस तरह से पढ़ेगा  ?  वह अपने बेटे से पूछता है कि  तेरे को अपने बापू से शिकायत तो ज़रूर होगी ........बेटा कहता है , बि्ल्कुल नहीं--------- काशी पूछता है -----क्यों, ऐसा क्यों?   बेटा कहता है ----------क्योंकि मैं सब समझता हूं। इतना कह कर दोनों गले मिलते हैं ............................और एसटी डिपो के सारे कर्मचारी उस के बेटे को गोदी में उठा लेते हैं।

फिल्म बहुत ज़्यादा संदेश लेकर आई है। आर टी आई इस्तेमाल करने से जुडे़ तरह तरह के भ्रम, भ्रांतियों का निवारण करती है, लोगों को सचेत करती है, जागरूक करती है , और आखिर क्या चाहिये , एक साफ-सुथरी फिल्म से। एक दम पैसा-वसूल। जहां से भी इस की की सीडी-डीवीडी मिले, इसे दो-तीन बार तो देख ही लें--------और इस जनजागरण की मशाल को जलाए रखिये।

                               

लोकसभी टीवी की तरफ़ से एक कप चाय का निमंत्रण

जी हां, लोकसभा टीवी की तरफ़ से आज सभी लोग दोपहर दो बजे एक कप चाय पर आमंत्रित हैं। आप को भी यही लग रहा होगा कि अब एक प्याली चाय के लिये इस चिलचिलाती गर्मी में दिल्ली कौन जाए? इस का इंतजाम भी लोकसभा टीवी ने कर दिया है और गर्मागर्म चाय की प्याली हम सब के यहां पार्सल हो कर आ रही है।

चलिये, इतना सुस्पैंस भी ठीक नहीं ----सीधे सीधे खुल कर बात करते हैं। ऐसा है कि आज दोपहर 2 बजे लोकसभा टीवी पर एक क्लॉसिक फिल्म आ रही है ---एक कप चाय। अगर हो सके तो आज दोपहर सारे काम-धंधे छोड़ कर इसे देखना न भूलें।

इस के बारे में इतना तो बता ही दें कि इस फिल्म में एक बस कंडक्टर की कहानी है जो किस तरह से सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर के अपनी एवं समस्त परिवार की परेशानियां खत्म कर देता है। जबरदस्त फिल्म !! मैं फिल्म समीक्षक नहीं हूं लेकिन फिर भी इसे पांच सितारे देता हूं।

दरअसल इस फिल्म के बारे में मैंने दो-तीन महीने एक पेपर में पढ़ा था --- इस तरह की फिल्मों की सी.डी तो कहां मिलनी थी, मैंने नेट पर भी खूब ढूंढा। लेकिन तब मिली थी ---फिर मैं थोड़ा भूल सा गया। लेकिन जब कल की अखबार में पढ़ा कि एक कप चाय आज रात (1मई 2010- रात 9 बजे और 2 मई को बाद दोपहर 2 बजे) को दिखाई जायेगी तो मेरी तो जैसे लाटरी लग गई।

कल शाम मैं और बेटे किसी बहुत सुंदर उत्सव में बैठे हुये थे लेकिन मुझे 9 बजे वापिस लौटने की धुन सवार थी। मुझे फिल्म इतनी पसंद आई है कि मैं सोच रहा था कि इस तरह की फिल्में राष्ट्रीय चेनल पर भी दिखाई जानी चाहिये। इतनी बेहतरीन फिल्में इस देश के जन मानस तो पहुंचे तो बात बने -----मेरे जैसों का क्या है, वे तो सूचना का अधिकार ज़रूरत पड़ने पर जैसे भी कर ही लेंगे, बात तो तब है जब काशीनाथ कंडक्टर जैसे लोग इस कानून को अच्छी तरह से जान सकें, इस्तेमाल कर के अपना एवं आसपास के लोगों का जीवन बेहतर कर सकें।

आप सभी पाठकों से भी अनुग्रह है कि इस फिल्म को आज बाद दोपहर लोकसभा टीवी पर ज़रूर देखें ---इस की अवधि है 120 मिनट और सब से बढ़िया बात ----इस दौरान कोई भी विज्ञापन आप को परेशान नहीं करेगा, शाम को बताईयेगा कि कैसी लगी ?

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

सूचना लेकर आखिर करेंगे क्या ?

आज सुबह मैं ऐसे ही यू-टयूब पर आरटीआई इंडिया लिख कर सर्च कर रहा था तो सर्च रिज़ल्टस में मुझे आई आई टी कानपुर द्वारा बनाई गई यह वीडियो मिला। इस में किरण बेदी और अरूणा राय को भी इस विषय पर बोलते दिखाया गया है।

और किरण बेदी ने एक बड़ा अहम् प्रश्न उठाया है कि सूचना मांगने वाले को यह भी तो पता होना चाहिये कि वह सूचना लेकर आखिर करेगा क्या? यह अपने आप में बहुत बड़ा सवाल है ----कोई सूचना पाने में इतनी मेहनत-मशक्तत कर रहा है और उसे पता है नहीं कि आखिर उस ने प्राप्त की गई सूचना का आगे इस्तेमाल कैसे करना है, ऐसे में इतनी मेहनत करने से क्या हासिल?

शुरू में दिखाया गया है कि एक फिल्म का एक दृश्य चल रहा है और पीछे से आवाज़ आ रही है --- यह तो भारत है, यहां कुछ भी बदलने वाला नहीं है, सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा ----तभी नायक कहता है ---कोई भी देश परफैक्ट नहीं होता, इसे परफैक्ट बनाना पड़ता है। इस के बारे में आप का क्या ख्याल है?

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

क्या आप आर टी आई का फ्री-ऑनलाइन कोर्स करना चाहते हैं?

अगर आप सूचना के अधिकार का एक बढ़िया सा फ्री-ऑनलाइन कोर्स करना चाहते हैं तो इसे पढ़िये। यह कोर्स सैंटर ऑफ गुड गवर्नैंस, हैदराबाद और भारत सरकार के डिपार्टमैंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग के द्वारा चलाया जा रहा है। और इस कोर्स के लिये रजिस्ट्रेशन आज कल जारी है और यह 13 फरवरी 2010 तक जारी रहेगा।

आप इस लिंक पर क्लिक करेंगे तो डिपार्टमैंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग की साइट पर आप को एक टिक्कर के रूप में ऑन-लाइन कोर्स से संबंधित जानकारी एक टिक्कर के रूप में चलती नज़र आयेगी --उस लिंक पर आप क्लिक करेंगे तो आप इस कोर्स की साइट पर यहां पहुंच जाएंगे।

दोस्तो, मैंने भी यह कोर्स पिछले बैच में ही किया है -- आज ही सर्टिफिकेट मिला है। मुझे यह कोर्स बहुत बढ़िया लगा और इसे करते समय मेरे मन में जो आर टी आई के क्रियान्वयन ( इंपलीमैंटेशन) के बारे में तरह तरह के डाउट थे, वे सब लगभग निकल चुके हैं। और जितने हैं, आशा है इस एक्ट का इस्तेमाल करते समय उतर जायेंगे।

तो, फिर आप भी देर मत करिये ---इस कोर्स की साइट पर जा कर रजिस्ट्रेशन वाले लिंक पर क्लिक कर के अपना पंजीकरण करवा दें। बहुत बहुत शुभकामनाएं।

बुधवार, 20 जनवरी 2010

आर टी आई का इस्तेमाल और शुरूआती झिझक..

जिस किसी ने कभी आर टी आई के अंतर्गत कोई सूचना मांगी नहीं है, उसे थोड़ी झिझक होना स्वाभाविक होती है। मैंने तो इतना भी देखा है कि कईं बार लोग इस तरह का अधिकार इस्तेमाल करने के नाम ही से डरते हैं --- पता नहीं क्या हो जायेगा अगर वे इस अधिनियम के तहत कुछ पूछ बैठेंगे---- लेकिन सोचने की बात है कि किसी भी काम को करने की झिझक तो वह काम करने ही से दूर हो पायेगी। किसी तरह की टाइपिंग करवाने के चक्कर में पड़ने की ज़रूरत नहीं, अगर हो सके तो ठीक है, वरना हाथ ही से साफ़-सुथरा लिख कर जानने की शुरूआत तो की ही जा सकती है।

और अब तो बैंक ड्राफ्ट और चैक आदि के अलावा डाक घरों में मिलने वाले पोस्टल-आर्डरों के द्वारा भी आरटीआई की फीस ( दस रूपये ) भरी जा सकती है जिस पर आपने उस पब्लिक अथारिटी ( जिस विभाग अथवा मंत्रालय से आपने सूचना प्राप्त करनी है) के लेखा अधिकारी का नाम लिख देना है ---यानि की  payable  to ----  लेखा अधिकारी, ......विभाग, .......शहर।


मुझे याद है मैंने इस कानून के बारे में पहले पहल पूना की सिंबॉयोसिस इंस्टीच्यूट ऑफ मॉस कम्यूनिकेशन में एक सेमीनार के दौरान मई 2004 में सुना था --- इस से पहले कभी कभी इधर उधर अखबार में इस के बारे में पढ़ लेते थे लेकिन मुझे अच्छी तरह से याद है कि उस महिला वकील ( जो कि शायद पूणे की कोई आर टी आई एक्टीविस्ट भी थीं) ने इतना बढ़िया तरीके से इस अधिकार के बारे में बताया कि इस के बारे में और भी जानने की उत्सुकता बढ़ गई।

फिर आगे 2005 मे यह कानून आ गया ---मीडिया में खूब चर्चा थी। खैर, टाइम्स ऑफ इंडिया और दा हिंदु में इस के बारे में पढ़ते पढ़ते दो साल बीत गये --- मुझे भी एक मंत्रालय से एक अहम् जानकारी चाहिये थी लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि कहां से पता चले, पता नहीं मुझे एक तो लोगों से यह उलाहना बहुत है कि लोग किसी भी ज्ञान को, किसी भी जानकारी को बहुत संकीर्णता के साथ अपने तक ही सीमित रखना चाहते हैं ---इसलिये जो लोग उन के पास उपलब्ध जानकारी को दोनों हाथों से खुले आम लुटाते हैं, वे मुझे बहुत पसंद है। इस देश की परंपरा ही यही रही है, और मैं इस का हमेशा से प्रशंसक रहा हूं।

हां, तो मैं बात कर रहा था कि मुझे किसी मंत्रालय से कुछ जानकारी हासिल करनी थी--- लेकिन बात यह भी थी कि उस जानकारी के लिये आवेदन करने का क्या तरीका है, किसे यह आवेदन भेजना था, मुझे कुछ भी तो पता नही था। फिर दो साल पहले एक दिन अखबार में एक किताब का विज्ञापन देखा --- आर टी आई के ऊपर यह किताब लिखी गई थी, आज तो बाज़ार में बहुत सी किताबें उपलब्ध हैं।

मैंने दिल्ली से वह किताब मंगवाई ---थोड़ा थोड़ा उसे पढ़ा और इतना जान गया कि आवेदन किसे भेजना होता है और किस प्रारूप में --- और अब समझ गया हूं कि प्रारूप इतना महत्वपूर्ण नहीं है, प्रश्नों का कंटैंट अहम् है। लेकिन इस किताब में मुझे यह देख कर बहुत अजीब सा लगता था कि आर टी आई तो अच्छे से इस में दिया ही गया था –साथ ही साथ विभिन्न राज्यों के आर टी आई के नियम इस में दिये गये थे ---- मैं दो साल तक यह देख कर बहुत हैरान सा हो जाता था कि यह कैसा कानून कि हर राज्य में अलग से कानून इंप्लीमैंट हो रहा है। लेकिन इस का जवाब मुझे कुछ दिन पहले मिल गया है जिसे समझने के लिये दो-एक लेखों का सहारा लेना पड़ेगा। अगले एक दो दिनों में यह काम करने की आशा करता हूं।

वैसे मेरी तो यही सलाह है कि जिन्होंने इस आर टी आई एक्ट को अभी तक नहीं पढ़ा है वे इस से संबंधित कोई भी बढ़िया सी किताब खरीद लें ---वैसे तो आजकल नेट पर ही सब कुछ मिल जाता है। ये नीचे लिखी दो साइटें हैं, इस पर इस अधिनियम के बारे में बहुत कुछ मिल जायेगा----थोड़ा थोड़ा देखते रहिये और एक बात तो है ही कोई भी बात प्रयोग करने से ही सीखी जा सकती है। 
सूचना का अधिकार 

आर.टी.आई का आवेदन तैयार करते समय...

एक बात तो है कि आर.टी.आई कानून के अंतर्गत आवेदन करने से पहले हमें जिस बात की जानकारी चाहिये उस के बारे में अच्छे से विचार कर लेना चाहिये और बढ़िया होता है अगर हम लोग प्वाईंट बना कर किसी विषय पर जानकारी की मांग करते हैं। कितने प्वाईंट बना सकते हैं? ---ऐसी कोई शब्द सीमा अभी तक तो कानून में तय है नहीं, अभी मैंने एक सप्ताह पहले ही एक आवेदन भेजा है जिस में मैंने 20 प्वाईंट के अंतर्गत सूचना मांगी है।

हां, तो बात हो रही थी कि आवेदन करते समय प्रश्न अच्छे ढंग से पूछने की। यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि देखिये, हम लोग जिस जानकारी को भी प्राप्त करना चाहते हैं उसे पाने में हमें महीनों लग सकते हैं और ध्यान से देखा जाए तो लगते भी हैं। एक महीने की समय सीमा है तो लेकिन अकसर उस दौरान वांछित सूचना पाना मुझे तो लगता है इतना मुमकिन सा है नहीं, या हो सकता है कि मेरा अनुभव ऐसा रहा हो, इसलिये हर किसी के अनुभव अलग हो सकते हैं।

मैं कह रहा हूं कि सूचना पाने में कईं बार महीनों लग जाते हैं --- लेकिन यह सोच कर किसी तरह से हतोत्साहित होने से कैसे चलेगा ? अगर आप को किसी तरह की सूचना चाहिये तो भाई चाहिये, इस के लिये जितना भी इंतज़ार करना पड़े, ठीक है !! इसलिये मैं सोचता हूं कि शुरू से ही आवेदन बड़ा सोच-विचार कर किया जाये ताकि जहां तक हो सके जिस विषय के बारे में हम लोग कुछ जानना चाहते हैं उस से संबंधित कोई बिंदु छूट न जाए ---लेकिन इतनी कोई टेंशन वाली 
बात भी नहीं है, एक नया आवेदन कर के और भी कुछ पूछा जा सकता है।

हां, तो एक सूचना के लिये कईं बार महीनों कैसे लग सकते हैं? ---चलिये, एक उदाहरण से देखते हैं। मान लीजिये मैं किसी केंद्रीय जन सूचना अधिकारी को कोई आवेदन करता हूं --- और मुझे उसे भेजने के बाद लगभग एक-सवा महीना तो जवाब का इंतज़ार करना ही पड़ेगा। तो लीजिये आ गया जवाब कि अमुक सूचना फलां फलां कारणों से नहीं दी जा सकती।
जिस दिन मुझे यह जवाब मिला –उस दिन से लेकर आगामी तीस दिनों  तक मैं इस के बारे में आर टी आई के अपीलीय अधिकारी से अपील कर सकता हूं कि मैं केंद्रीय जन सूचना अधिकारी की बात से सहमत नहीं हूं...और भी जो बात मैं अपने दावे के पक्ष में कहना चाहता हूं, मैं लिख कर उस अपील को भेज देता हूं। आप देखियेगा प्रैक्टीकल स्वरूप में यह अपील हम लोग यह नहीं कि जन सूचना अधिकारी का पत्र आते ही कर देते हैं। हां, वो बात अलग है कि अगर मुद्धा काफ़ी गंभीर है तो हम लोग दो-तीन दिन में अपील कर ही देते हैं। लेकिन अकसर बीस-पच्चीस दिन के बाद ही हम ऐसी अपील भेजते हैं।

और इस अपीलीय अधिकारी ( Appellate authority) को भेजी पहली अपील भेजने के बाद एक महीने तक हम लोग इस के जवाब की इंतज़ार करते हैं। जवाब आने पर –अगर यह जवाब हमें संतोषदायक नहीं लगे, अधूरा लगे या अगर यह जवाब तीस दिन तक हमारे पास पहुंचे ही ना तो हम इस की अपील सूचना आयोग में कर सकते हैं। अगर आप राज्य के जन सूचना अधिकारी के विरूद्ध अपील करना चाह रहे हैं तो राज्य के सूचना आयोग में करनी होती है और यह अपील अपीलीय  अधिकारी के जवाब मिलने के 90 दिन के अंदर की जा सकती है। और फिर सूचना आयोग के लिये कोई समय सीमा नहीं है कि उस ने कितने समय के अंदर इस का निर्णय करना है।

रास्ता लगता तो थकाने वाला ---लेकिन आप यह भी तो देखिये कि पहले लोग छोटी छोटी जानकारी के लिये तरसते रहते थे --- सब कुछ गुपचुप चलता था, आज इस देश का कोई भी नागरिक किसी भी विभाग से कुछ भी पूछ ले। मुझे अकसर तब बड़ी चिढ़ होती है जब लोग यह कहते हैं कि कुछ लोग इस कानून का गलत इस्तेमाल करते हैं ----मुझे इस में यह आपत्ति है कि जिस देश के लोगों ने कभी प्रश्न ही न पूछे हैं तो अगर उन्हें कोई नई नई बात पता चली है तो यहां वहां से कुछ जानकारी हासिल करना चाह रहे हैं तो इस में आखिर क्या आफ़त है , सीख जाएंगे धीरे धीरे ---- मैं अकसर कुछ सरकारी वेबसाइटों पर आवेदकों के हिंदी में हस्तलिखित आवेदन देखता हूं तो मुझे बहुत इतमीनान सा हो जाता है ----जानने वाले ठीक ही कहते हैं कि यह कानून मात्र एक कानून नहीं है, भाईयो, यह तो प्रजातंत्र की आक्सीजन है ( RTI is oxygen for democracy) ----क्या आप मेरी बात से सहमत हैं ?

आर टी आई की चिट्ठी आप कैसे भेजते हैं ?

अच्छा तो आप को क्या लगता है कि सूचना के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत भेजी जाने वाली चिट्ठी कैसे भेजी जाए।

मेरे व्यक्तिगत विचार यह है कि बंदा जिस किसी विषय पर भी कोई भी जानकारी हासिल करना चाहता है, यह उस के लिये ओबवियसली बहुत महत्वपूर्ण होता है।

आप को कैसा लगेगा कि आपने फीस वीस लगा कर चिट्ठी तो संबंधित जन सूचना अधिकारी को भेज दी और एक महीने तक इंतज़ार करने के बाद जब आप को कोई जवाब नहीं मिलता तो आप को पता चलता है कि आप की तो चिट्ठी जहां पहुंचनी चाहिये थी वहां पर पहुंची ही नहीं है, ऐसे में आप कल्पना कीजिए कि अपने बाल नोचने के सिवाय क्या कोई चारा रह जाता है।

तो, भाई, इस सब से बचने के लिये मैं तो हमेशा सूचना के अधिकार अंतर्गत भेजी जाने वाली किसी भी चिट्ठी को रजिस्टर्ड अथवा स्पीड-पोस्ट करवाता हूं। इस में इतना इत्मीनान तो रहता है कि चिट्ठी अपनी जगह पहुंच ही गई होगी। और अगर निर्धारित समय अवधि के बाद कोई सूचना आदि मुहैया नहीं करवाई जाती तो आप पहली अपील भेजने की तैयारी कर सकते हैं.

हां, तो स्पीड पोस्ट की बात हो रही थी, मेरे पत्नी ने एक मंत्रालय को सूचना के अधिकार के अंतर्गत एक स्पीड-पोस्ट पत्र भेजा--- जब दस-पंद्रह दिन बाद भी उस मंत्रालय की वेबसाइट पर इस से संबंधित कोई सूचना नहीं मिल रही थी( कुछ मंत्रालयों की वेबसाइट पर ऐसी सुविधा है)... तो बहुत से फोन करने पर यह पता चला कि यह चिट्ठी उन्हें डिलीवर ही नहीं हुई। उन्होंने कहा कि ठीक है, आप दोबारा भेज दो। बहरहाल, फिर से फैक्स भेजनी पड़ी।

यह स्पीड पोस्ट वाली बात इसलिये लिखी कि आर्डिनरी पोस्ट से कोई भी पत्र भेजने से पहले अगर हम थोड़ा इस तरफ़ ध्यान कर लेंगे तो ठीक रहेगा। वैसे आप को जैसा ठीक लगे वैसा कर सकते हैं।

और हां, कईं बार अगर यू-पी-सी (under postal certificate) -- UPC करवाने का ध्यान भी आए तो यही सोचना पड़ता है कि यह तो प्रूफ़ हो गया कि हम ने चिट्ठी भेजी लेकिन आगे पहुंची कि नहीं---इसलिये मैं तो इन सारे झंझटों से बचने के लिये स्पीड पोस्ट आदि का ही सहारा लेता हूं।

और अगर अपने शहर के ही किसी ऑफिस से कोई जानकारी हासिल करना चाहते हैं तो आप स्वयं जा कर या किसी के हाथ अपना पत्र भेज कर संबंधित आर.टी.आई शाखा से अपने पत्र की पावती प्राप्त कर सकते हैं।

तो, क्या आप को सूचना के अधिकार के अंतर्गत भेजी चिट्ठी की कोई प्रति भी रखनी चाहिये --- जी हां, यह बहुत ठीक रहता है। वरना हम लोगों की यादाश्त की अपनी सीमायें हैं।

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

आर टी आई आवेदन पर पता कैसे लिखें ?

इस के बारे में मेरा विचार यह है कि जब जब भी लोग जन सूचना अधिकारी के नाम आदि के लिये केवल नेट पर ही निर्भर करते हैं तो बहुत बात ख़ता ही खाते हैं।

इस का सीधा सा कारण है कि बहुत बार साइटों पर इस संबंधित जानकारी समय पर अपडेट नही ंकी जाती--इसलिये नाम आदि गलत लिखे जाने का अंदेशा तो रहता ही  है, साथ में फोन एवं ई-मेल भी दो साल पहले वाली जन सूचना अधिकारी का हो ----तो भी कोई बड़ी बात नहीं। वैसे तो अगर आपने साइट पर लिखे नाम के साथ जन सूचना अधिकारी लिख दिया है तो कोई विशेष फ़र्क पड़ता नहीं है, आप का आवेदन जनसूचना प्रकोष्ठ ( आर.टी.आई  सैल) तक पहुंच ही जाता है।

लेकिन वही बात है कि क्यों किसी तरह की अनिश्चिता रखी जाए -- इसलिये बेहतर हो कि आप जिस विभाग से जानकारी पाना चाहते हैं उस जानकारी से संबंधित जनसूचना अधिकारी ( कुछ कुछ विभागों में एक से ज़्यादा जन सूचना अधिकारी तैनात होते हैं जिन का कार्यक्षेत्र बंटा हुआ होता है) का नाम एवं पता, टैलीफोन आदि कहीं नोट कर लें। वैसे तो इस तरह की जानकारी नेट से मिल ही जाती है लेकिन कईं बार सही जानकारी पाने के लिये इधर उधर दो-तीन फोन भी करने पड़ सकते हैं.

मैंने तो निष्कर्ष यही निकाला है कि जहां भी इस तरह के नाम एवं पते आदि  के बारे में हम आश्वस्त न हों तो अगर इस तरह से आवेदन भेज दिया जाए तो कैसा रहेगा.

केंद्रीय/राज्य जन सूचना अधिकारी,
जन सूचना प्रकोष्ट ( आर.टी.आई सैल)
------ कार्यालय
( पूरा पता )

आगे थोड़ी बात करेंगे कि यह आवेदन किस तरह से भेजना ठीक रहता है ?

क्या सूचना का अधिकार केवल भारत में है ?

अभी तक मैं भी तो यही सोच रहा था कि शायद सूचना का अधिकार केवल भारत ही में है –और शायद इस के बारे में कभी गहराई से ना तो सोचा और ना ही शायद ज़रूरत महसूस ही हुई। मुझे कुछ दिन पहले ही पता चला है कि इसी तरह के सूचना की स्वतंत्रता संबंधी कानून 85 देशों में विभिन्न रूपों में उपलब्ध हैं।

और यह जानना तो और भी रोचक है कि कुछ देशों में इस तरह के कानून लंबे अरसे से लागू हैं ---
स्वीडन – दिसंबर 1766
कोलंबिया – 1888
फिनलैंड – 1951
यू.एस.ए – 1966
डेनमार्क, नार्वे – 1970
फ्रांस – 1978
आस्ट्रेलिया, न्यू-ज़ीलैंड- 1982
कैनेडा – 1983

जन सूचना अधिनियम के तहत अगर सूचना प्राप्त करनी है तो मेरे विचार में बहुत धैर्य रखने की ज़रूरत है। आगे इस के बारे में विचार करते रहेंगे।