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सोमवार, 13 जनवरी 2014

मेरा पुराना ट्रांसिस्टर..

यह जो ट्रांसिस्टर मैंने यहां दिखा रहा हूं यह मैंने १०-१२ वर्ष पहले एक गाड़ी में खरीदा था। अब तो मुझे पता नहीं कि यह धंधा चलता है कि नहीं, लेकिन लगभग दस वर्ष पहले मैंने इसे गोहाटी से दिल्ली आने वाली एक ट्रेन के सैकेंड एसी के डिब्बे में खरीदा था, शायद २५0-३०० रूपये का था। देखने में इतना बढ़िया लगा कि मैं अपने आप को रोक न पाया। समस्या आज एफएम और विविध भारती प्रोग्राम देखने की है..पहले मैं एक एफएम के डिब्बे से काम चला लिया करता था, लेकिन अब उस में कईं बार थोड़ा झंझट सा या अजीब सा लगता है ..उस के एरियर वाली तार को हिलाते रहो, अजीब सा लगता है ...उन ४०वर्ष पुराने दिनों की बात याद आ जाती है जब अपने मर्फी के रेडियो के साथ ऐंटीना की तार बांध कर घर के ऊपर छत तक पहुंचाई जाती थी। फिर एक एलजी का एक फोन इसी काम के लिए लिया--GM 200- बहुत बढ़िया सेट है यह ...आप सोच रहे होंगे कि एफएम तो आजकल लगभग हर फ़ोन में होता है ऐसे में इस की इतनी क्या विशेषता है, जी हां, यह स्पैशल है ..मेरे बेटे ने नेट पर रिसर्च करने के बाद इसे रिक्मैंड किया था ..खासियत यही है इसकी कि इस में एफएम सुनने के लिए साथ में एयरफोन नहीं लगाने पड़ते। जी हां, यह वॉयरलैस एफएम रेडियो की सुविधा देता है। लेकिन हम ठहरे पक्के रेडियो प्रेमी.....जब तक किसी ट्रांसिस्टर जैसे डिब्बे में रेडियो ना सुना जाए, कुछ कमी सी लगती है। इसलिए आज जब मुझे इस ट्रांसिस्टर की याद आई तो इसे निकाला, सैल डाले और यह बढ़िया चल रहा था। एक बात तो और बता दूं जिस गाड़ी में यह खरीदा था ..शायद उस स्टेशन का नाम सिलिगुड़ी या फिर न्यू-जलपाईगुड़ी है...वहां से नेपाल शायद बिल्कुल पास ही है, इसलिए वहां गाडियों में और इस तरह का तथाकथित इम्पोर्टेड सामान जैसे कि रेडियो, टू-इन-वन,कैमरे आदि खूब बिकते हैं.. मोल-तोल भी खूब होता है उन्हीं पांच-दस मिनटों में..सब डरते डरते लेते हैं कि क्या पता गाड़ी से उतरने पर ये उपकरण चलें भी या नहीं..लेकिन फिर भी मेरे जैसे लोग अपने को रोक नहीं पाते। एक बात और..उसी स्टेशन पर मुझे याद है चाय बेचने वाले अपनी अंगीठी समेत एसी के डिब्बे में भी चढ़ जाते हैं...अच्छे से याद है एक अंगीठी से कुछ कोयले एसी डिब्बे के फर्श पर गिर गये और वह बिल्कुल जल सी गई .....लेकिन न तो कोच अटैंडैंट की और न ही टीटीई की इतनी हिम्मत हुई कि वह उस चाय वाले से उलझने का साहस करें। इस के कारण गाड़ी चलने पर पता चले। लेकिन जो भी है, आज जब गाड़ियों में आग की इतनी वारदातें देखने में आ रही हैं, इस तरह की अराजकता को भी रोकने के लिए कुछ तो करना ही होगा।

गुरुवार, 21 नवंबर 2013

वो कचरेवाली....

मैं उसे बहुत दिन तक देखता रहा.. जब भी देखा उसे अपने काम में तल्लीन ही देखा...सुबह दोपहर शाम हर समय बस हर समय कचरे को बीनते ही देखा।

आज कल जगह जगह पर म्यूनिसिपैलिटि के बड़े बड़े से कूड़ेदान पड़े रहते हैं ना, जिसे हर रोज़ एक गाड़ी उठा कर ले जाती है और उसी जगह पर एक नया कूड़ादान रख जाती है।

बस वह उसी कूड़ेदान के पास ही सारा दिन कूड़ा बीनते दिखती थी। साथ में कभी कभी उस की लगभग एक साल की छोटी बच्ची भी दिखती थी... मां कूड़े में हाथ मार रही है और बच्ची साथ में कूड़ेदान से सटी खड़ी है, एक साल की अबोध बच्ची ...यह सब देख कर मन बेहद दुःखी होता था।

मैं उसे वह सब करते देखा करता था जो कूड़े प्रबंधन के बारे में किताबों में लिखा गया है, प्लास्टिक को अलग कर रही होती, पन्नियों को अलग, कांच को अलग.. फिर यह सब बेचती होगी।

उस की बच्ची उस कूड़ेदान के पास ही एक चटाई पर अकसर सोई दिखती, साथ में एक कुत्ता ...एक दो बार मैंने उसे एक टूटे खिलौने से खेलते देखा ..शायद उस की मां ने उस कचरे से ही ढूंढ निकाला होगा।

उस औरत को ---उम्र उस की कुछ ज़्यादा न होगी...शायद १८-२० की ही रही होगी लेकिन अकसर इस तरह की महिलाओं को समाज जल्द ही उन की उम्र से ज़्यादा परिपक्व कर देता है.... बदकिस्मती....

सुबह ११-१२ बजे के करीब मैं देखता कि उस का पति चटाई पर सोया रहता ... यह भी मेरा एक पूर्वाग्रह ही हो सकता है कि मुझे लगता कि इस ने नशा किया होगा, दारू पी होगी........लेकिन यह निष्कर्ष भी अपने आप में कितना खतरनाक है, मैंने कभी उस बंदे का हाल नहीं पूछा, कोई बात की नहीं, कोई मदद का हाथ नहीं बढ़ाया लेकिन उस के बारे में एक राय तैयार कर ली। अजीब सा लगता था जब इस तरह के विचार आते थे। क्या पता वह बीमार हो या कोई और परेशानी हो...वैसे भी हम जैसों को बहुत ही गरीब किस्म के लोग पागल ही क्यों लगते हैं, यह मैं समझ नहीं पाता हूं.......गरीबी, लाचारी, पैसे की कमी, भूख........बीमार कर ही देती है।

मैंने यह भी देखा कि पास की बिल्डिंगों से जो भी कूड़ा फैंकने आता उस महिला से ज़रूर बतियाता............उन के हाव भाव से ही वह पुरानी कहावत याद आ जाती ....गरीब की जोरू जने खने की भाभी। कुछ निठल्ले दो चार लोगों को बिना वजह उस की बच्ची के साथ खेलते भी देखा। उन का उस की बच्ची की खेल में ध्यान कम और उस महिला की तरफ़ ज़्यादा होता। आगे क्या कहूं........साथ में पड़ी चटाई पर उस का आदमी सोया रहता।

आते जाते जितनी तन्मयता से मेहनत मैंने उस औरत को करते देखा उतना मैंने किसी सरकारी कर्मचारी को नहीं देखा, मैं सोच रहा था क्या आरक्षण के सही पात्र ऐसे लोग नहीं हैं ...इतनी मेहनत, इतनी संघर्ष, इतनी बदहाली ..इतना शोषण...कईं प्रश्न उधर से गुजरते ही मेरे मन में कौंध जाया करते थे।

सरकारी सफाई कर्मीयों को तो कचरे बीनने के लिए तरह तरह के सुरक्षा उपकरण मिलते हैं, बूट, दस्ताने आदि ...लेकिन वह सब कुछ नंगे हाथों से ही कर रही होती थी, बेहद दुःख होता था............ छोटी उम्र, पति की सेहत ठीक नहीं लगती थी और ऊपर से बिल्कुल अबोध बच्ची ... मैं अकसर सोच कर डर जाता कि अगर यह महिला बीमार हो गई तो उस की बच्ची का क्या।

हां, एक बात तो मैं बताना भूल ही गया.... उस की बच्ची बड़ी प्यारी थी, गोल मटोल सी........मैंने उसे कभी रोते नहीं देखा, चुपचाप चटाई पर खेलते या सोते ही देखा या फिर मैं के साथ कचरेदान के साथ खड़े पाया ... दो एक बार मां उस को चटाई पर बैठा कर स्तनपान करवाती भी दिखी।

एक बार मैं शाम को छः सात बजे के करीब जब उधर से गुजरा तो मैंने देखा कि वह एक ट्रांजिस्टर पर रेडियो का कोई प्रोग्राम सुन रही है। अच्छा लगा।

सरकार की इतनी सामाजिक सुरक्षा स्कीमें हैं, अन्य कईं प्रकार के रोज़गार हैं, लेकिन फिर भी बहुत से लोग अभी भी अमानवीय ढंग से जीवनयापन कर रहे हैं............लिखते लिखते ध्यान आया कि कुछ दिन पहले एक मित्र ने किसी महिला की फेसबुक पर एक तस्वीर लगाई ...बेचारी फटेहाल सी लग रही थी, उस की पीठ थी कैमरे की तरफ़.... और वह गंदे नाले जैसी किसी जगह  से अपने हाथों में चुल्लु भर पानी भर कर पी रही थी। उसी फोटो के नीचे एक कमैंट था ...कोई पगली होगी।

नहीं, ऐसा नहीं होता ...हम ओपिनियन बनाने के मामले में हमेशा बहुत आतुर रहते हैं, गरीबी और पागलपन पर्यायवाची शब्द नहीं हैं ना।

बहुत दिनों तक मेरा रास्ता उधर से हो कर गुज़रता था, मुझे दो बातें सब से ज्यादा कचोटती रहीं ....जितने जोखिम भरी परिस्थितियों में वह काम कर रही है, ऐसे में वह क्या सेहतमंद रह पाएगी और दूसरी बात यह कि उस नन्हीं जान की परवरिश का क्या, कहीं पंद्रह वर्ष बाद वह तो इस रोल को न निभाती मिलेगी...

शुक्रवार, 8 अगस्त 2008

वो बारिश का पानी ....

आज अभी इस वक्त इस भीगी-भीगी सी दोपहर में यह पोस्ट लिखने की इंस्पीरेशन है....दो बिलकुल छोटे छोटे बालक जो अभी 10 मिनट पहने मुझे सड़क के किनारे चलते हुये दिखे....यहां यमुनानगर में इस समय बरसात हो रही है....और ये दो बालक बिलकुल आप के और मेरे बचपन के दिनों की तरह जान-बूझ पर बरसात के खड़े पानी में से उछल-कूद कर जा रहे थे......घुटने तक उन का पायजामा पानी से भीगा हुया था, लेकिन इस की किसी परवाह होती है इस उम्र में। मुझे उन्हें देख कर बहुत ही खुशी हुई कि यार, आज भी कोई तो है हम जैसा जो कि बरसात को इतना एंज्वाय करता है, इक्ट्ठे हुये बरसाती पानी का भी इतना लुत्फ़ उठाता है।

यकीनन हम जैसे जैसे बड़े होते हैं हम लोग बड़ी बड़ी खुशियों की खोज में अपने आसपास बिखरी हुई छोटी छोटी खुशियां रोज़ाना नज़रअंदाज़ करते रहते हैं। उन में से एक बहुत अहम् है....बरसात में भीगना, खूब भीगना ।

सोच रहा हूं कि यह जो आज कल जगह जगह रेन-डांस आर्गेनाइज़ करवाये जाते हैं, इन में कहां बारिश में भीगने जैसी बात होती है। इसलिये मैं सोचता हूं कि जिस किसी का भी बारिश में भीगने का दिल करे उसे कभी भी मना नहीं करना चाहिये।

बारिश का मतलब है कि कुदरत जश्न मना रही है, सारी कायनात झूम रही है, पेड़-पौधे बारिश की फुहार से फूले नहीं समा रहे तो हमें आखिर कौन रोक सकता है !!

हम लोग भी कुछ दिन पहले बारिश में दो-तीन घंटे भीगते रहे थे। बच्चों को इन छोटी छोटी खुशियों से दूर नहीं रखना चाहिये ....बल्कि शुरू शुरू में तो उन्हें खुद इनीशिएट करना चाहिये कि जाओ, बारिश का मज़ा लो। कुछ नहीं होता, न ही ठंडी़ लगती है ...ना ही कोई बीमार होता है, जब कोई अपनी खुशी से कुछ भी कर रहा है तो उसे किसी बात की फिक्र नहीं होती।

एक बार फिर लिख रहा हूं कि आज मुझे उन दोनों बच्चों की मस्ती देख कर बेहद खुशी हुई......शायद मैं अपने बचपन की सुनहरी यादों में कईं खो गया था।

वैसे अगर बारिश में भीगने की कभी इच्छा हो तो ज्यादा सोचना नहीं चाहिये, ....हमारी समस्या ही तो यही है कि दूसरे लोगों के हिस्से का भी हम भी सोचने लगते हैं कि यार, वो क्या कहेंगे............कहेंगे...जो उन का मन करेगा कहेंगे........लेकिन आप को बारिश में भीगने से कौन रोक रहा है।

बारिश में भीगना दो तरह है ...एक तो वह जो आप रास्ते में जाते हुये अचानक बारिश से भीग जाते हैं और दूसरा भीगना वह है जिस के लिये आप पांच-दस मिनट के लिये अपने घर से बाहर आ जाते हैं.....मैं इस दूसरे वाले भीगने की ही बात कर रहा हूं, दोस्तो।

सोमवार, 2 जून 2008

क्या आप ने कभी लट्टू चलाया है ?


मैं
तो कभी नहीं चला पाया....अपनी टोली के दूसरे लड़कों को इतनी आसानी से बार-बार उस मिट्टी के बने लट्टू पर झट से डोरी लपेट कर ज़मीन पर छोड़े जाने का सारा एक्शन मैं बड़ी हसरत से देखा करता था। बहुत बार मैंने भी उस मिट्टी के बने लट्टू पर डोरी लपेट कर उसे ज़मीन पर छोड़ने की नाकाम कोशिश की।

अच्छा तो अब आप को याद आ रही है उन पांच-पांच पैसे में बिकने वाली मिट्टी के लट्टूयों की .....तो यह भी बता डालिये कि आप के इस के साथ क्या अनुभव रहे ? मुझे तो आज दोपहर में उन लट्टूयों के बारे में ही सोच कर इतना सुखद लग रहा था कि क्या कहूं !!

दोस्तो, मैं उस ज़माने की बात कर रहा हूं कि जब ये मिट्टे के बने लट्टूओं पर बहुत बढ़िया सा चमकीला काला-लाल पेंट भी किया गया होता था। उन्हें देखना ही कितना सुखद हुया करता था। और फिर जब हम खुराफाती लड़की की टोली में इन को चलाने का मुकाबला हुया करता था तो पूछो मत कि कितना मज़ा लूटा करते थे।

इमानदारी से कह रहा हूं कि दशकों पुरानी यह बात आज ही याद आई है कि दो लड़के अपने अपने लट्टू पर डोरी लपेट कर एक साथ ज़मीन पर छोड़ते थे, जिस का लट्टू ज़्यादा समय तक चल पाया, वही जीता ....वही सिकंदर। लेकिन हारने वाला भी अपनी हार इतनी आसानी से कैसे स्वीकार कर ले...... फिर वह बिल्कुल नाच ना जाने आंगन टेढ़ा कि तर्ज़ पर कह उठता कि देख, मेरे वाला इस बार तो ज़मीन पर पड़े हुये पत्थर से टकरा गया, ऐसा कर, तू अब देख......भूल गया, परसों मैंने तेरे को कितनी बार हराया था।

पेंट वाले लट्टूओं के साथ ही साथ ऐसे लट्टू भी तो आया करते थे जिन पर पेंट नहीं हुया होता था...बस, मिट्टी के लट्टू होते थे जिन के नीचे एक लोहे की पिन सी लगी होती थी।

लिखते लिखते मुझे आज खुशवंत सिंह जी की वह वाली बात बहुत याद आ रही है कि खुदा का शुक्र है कि किसी ने कलम के लिये कंडोम नहीं बनाया......दोस्तो, मैंने इस महान लेखक के अखबारों में छपे लेखों से लिखने की बहुत प्रेरणा ली है.......वे अकसर लिखा करते हैं कि पेन को बस कागज़ पर छोड़ना ही आप का काम है, बाकी काम धीरे धीरे अपने आप होने लगता है।

यह मैं इसलिये यहां लिखना ज़रूरी समझता हूं कि जब मैं यह लेख लिखने लगा तो बहुत सी बातें मेरे ध्यान में ही नहीं थीं, लेकिन अब लिखते लिखते याद आने लगा है। जैसे कि मुझे अभी ध्यान आ रहा है कि मिट्टी के लट्टूओं के बाद फिर लकड़ी के बने लट्टू बाज़ार में आने लग गये थे। लेकिन मैं उन मिट्टी के लट्टूओं के बारे में यह बताना तो भूल ही गया कि जिन लड़कों की गैंग में मैं शामिल था, उन में से कईं लड़कों को जेबों में कईं कईं मिट्टी के लट्टू ठूसे रहते थे ...क्योंकि जब एक लट्टू टूट जाता था तो बिना किसी शिकन के झट से जेब से दूसरा लट्टू तुरंत ना निकले तो यह एक प्रैस्टीज इश्यू हो जाया करता था और लड़कों में खिल्ली उड़ती भला कौन बर्दाश्त करे, भई .......मैं बार बार एक बात फिर से दोहरा रहा हूं कि मुझे इन लट्टूओं को देखने से ही बहुत अच्छा लगता था। जिन लकड़ी के लट्टूओं की मैं बात कर रहा हूं उन की भी बनावट भी बिल्कुल मिट्टी के लट्टूओं के जैसी ही हुया करती थी....जिन पर भी डोरी लपेट पर उन को ज़मीन पर छोड़ा जाता था।

ये लकड़ी के लट्टू मेरे बेटे ने बंबई रहते खूब चलाये हैं.....बंबई की यही तो खासियत है कि यहां सब कुछ मिल जाता है। और वह भी रेलवे स्टेशनों के प्लेटफार्मों पर या फुटपाथों पर.....यह सब कुछ बहुत आसानी से मिल जाता है ताकि कोई भी बच्चा इन छोटी मोटी चीज़ों के लिये कभी तरसे नहीं। इन लकड़ी के लट्टूओं को चलाने में मेरे बड़े बेटे ने इतनी महारत हासिल कर ली कि मुझे उस से ईर्ष्या होती कि यार, इसे भी तो किसी ने नहीं सिखाया,यह कैसे इतनी आसानी से इन को चला लेता है और वह इतना धुरंधर लट्टूबाज हो गया कि इन लट्टूओं को जमीन पर छोड़ कर ....उन्हें चलते चलते फिर से.....अपने हाथ में पकड़ी डोरी की मदद से ज़मीन पर चलते चलते लट्टू को अपने हाथों पर ट्रांस्फर कर लेता ( बिल्कुल उसी तरह जिस तरह मेरी बचपन की टोली के लोग खासकर दोस्त दारा किया करता था !)..... मुझे यह सब देखना बहुत रोमांचक लगता।

यह नब्बे के दशक का वह दौर था जब उन 5-5, 10-10 रूपये के जंक-फूड के पैकेटों के साथ एक बिल्कुल छोटा सा प्लास्टिक का लट्टू आने लगा था.....जिस की उम्र एक-दो दिन की ही हुया करती थी, क्योंकि अकसर ये इधर उधर पड़े किसी के पैरों तले आ ही जाते थे।

अब आते हैं नये मिलिनियम में.....अर्थात् चार-पांच साल पहले मेरा बेटा क्लब से खबर लेकर आया कि शर्मा अंकल अपने बेटे के लिये दिल्ली से बे-ब्लेड लाये हैं.......यकीनन उस ने कुछ वर्णऩ इस तरह का किया कि हमें भी उत्सुकता हो उठी कि यार, देखना ही होगा, यह कौन सा करिश्मा है। मुझे याद है मैं और मेरी पत्नी उसे लेकर फिरोज़पुर की एक स्थानीय खिलौनों की दुकान पर पहुंच गये........दाम पता किया तो अढ़ाई सौ –तीन सौ रूपये। और साथ में दुकानदार की शर्त की ना ही पैकिंग खोल कर चैक ही करवायेगा और ना ही कोई गारंटी होगी......कहने लगा कि हमें तो कंपनी से जाते आते हैं वैसे ही हम आगे बेच देते हैं, हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं। फिर उस ने बताया कि जो बच्चे ठीक से हैंडल नहीं कर पाते, उन के बे-ब्लेड झट से खराब हो जाते हैं......और ये फिर रिपेयर नहीं हो पाते...उस ने इतना कहते हुये पास ही पड़े खराब बे-ब्लेड़ो का ढेर दिखा दिया। लेकिन फिर भी रिस्क लेते हुये हम एक बे-ब्लेड खरीद ही लाये।

अभी दो-तीन दिन हुये थे कि कोई और डिजाइन बेटे के दोस्तों के पास आ गया.....तो फिर वैसा ही डिजाइन लुधियाना से मंगवाना पड़ा। बस, देखते ही देखते घर में कईं तरह के बे-ब्लेड दिखने लग गये। इन बे-ब्लेड़ों की शुरूआत हुई एक टीवी प्रोग्राम से ही थी, लेकिन हमें ही इतनी बार सिर मुंडवा कर पता चला कि यार, यह भी एक लट्टू ही तो है.......बस, उसे ज़मीन पर छोड़ने का मकैनिज़्म ही तो अलग है......पहले डोरी से यह काम हो जाता है और यहां से काम एक प्लास्टिक की लंबी सी पत्ती से हुया करता था। लेकिन यकीन मानिये जो रोमांच बचपन में दिखने वाले उस लट्टू का था, वह तो भई अलग ही था।

हम हिंदोस्तानियों के इतनी सफाई से नकल करने के हुनर को सलाम......कुछ ही महीनों में ये बे-ब्लेड पहले पचास-साठ रूपये में और फिर कुछ ही समय के बाद बीस-बीस, तीस तीस रूपये में बिकने लग गये। घर में जगह जगह बे-ब्लेड दिखने लग गये.....बच्चों में क्लबों, पार्टियों में इन के बारे में चर्चा होने लगी कि यार, तेरे पास कितने हैं, तेरे पास क्या वह लाइट-वाला है या नहीं !!

बस, पता नहीं कुछ ही महीनों में फिर से इन बच्चों को कभी बे-ब्लेड़ों का नाम लेते देखा नहीं..........अब तो पता नहीं कि ये धीरे धीरे मार्कीट से ही गायब हो गये हैं या अपने बच्चे ही बड़े हो गये हैं।

लेकिन मेरे छोटे बेटे के पास बहुत साल पुराना एक लकड़ी का लट्टू पड़ा हुया है जिस को मैंने भी खूब चलाया है...........नहीं, साहब, नहीं, यह डोरी वाला नहीं है.......डोरी वाला तो कईं वर्षों से दिखा ही नहीं है और डोरी वाला लट्टू इस जन्म में तो मेरे से चलने से रहा। यह लकड़ी का खूबसूरत-सा लट्टू तो हाथ से घुमा कर चलाने वाला है जिसे मैं कईं साल पहले घुमा कर उस के नर्म-नर्म पेट पर छोड़ दिया करता था जिससे उसे बहुत मज़ा आता था। और उस की किलकारियां सुन कर मुझे उस से भी ज़्यादा मज़ा आता था...................सचमुच, अपनी बड़ी बड़ी खुशियां भी कितनी छोटी छोटी बातों में छिपी बैठी हैं !!.....क्या आप को ऐसा नहीं लगता, दोस्तो !!

रविवार, 25 मई 2008

वो फुल मस्ती वाले दिन !!

अभी अभी बारिश थमी है...मई के महीने के इन दिनों में बारिश.....सुहाना मौसम....हां,हां, मौसम ने करवट ली है...आज से नहीं पिछले तीन हफ्तों से यह मौसम बेहद हसीन सा बना हुया है। आज अखबार में तो आया है कि इस तरह की करवट के परिणाम कितने भयानक हो सकते हैं, लेकिन इस समय तो बस यूं ही लग रहा है कि चलो, यारो, कल जो होगा, देखा जायेगा, अभी तो इस मौसम का लुत्फ उठा लो। बस, इस समय बगीचे में झूले पर बैठे बैठे अपने बचपन की बरसातों वालों दिन याद आ गये.....

एक बात तो यह याद आई कि हम लोग बरसात के मौसम में इन झूलों के साथ कितनी मस्ती किया करते थे। सोच कर के इतनी हंसी आती है कि क्या कहूं। हमारे घर के बाहर एक बहुत बड़ा पेड़ हुया करता था जिस पर एक मोटी सी रस्सी के साथ पींघ ( झूला ) बनाया जाता था। मजबूत पेड़ और बहुत ही मजबूत रस्सी की वजह से कोई टेंशन नहीं होती थी......बस, जितनी हिम्मत हो, जितना ज़ोर हो, खींच लो उतनी ही ऊंचाईंयों तक..............कितना मज़ा आता था जब हमारे साथ कोई झूलने वाला डर रहा होता था। झूला झूलने वालों के साथ साथ आस पास खड़े बीसियों लोगों का भी अच्छा खासा मनोरंजन हो जाया करता था। फट्टा हम उस झूले को झूलते समय एक लकड़ी का मजबूत सा भी अकसर उस पर टिका लिया करते थे। सचमुच वो दिन बेहद मज़े वाले थे......लेकिन इतने सालों के बाद भी पता नहीं ऐसा लग रहा है कि ये सब बातें कल की ही हैं। पता नहीं इस समय को भी कौन से पंख लगे हुये हैं......ऐसा फुर्र से उड़ जाता है।

दूसरी याद जो आज सता रही है ...वह है सूआ खेलना। अब सूआ मैं आप को कैसे समझाऊं.....अच्छा तो सुनिए कि हम किसी बोरे वगैरा को सिलने के लिये सूईं की जगह एक बड़ी सी सूईं इस्तेमाल करते हैं ना ...जिसे सूआ कहते हैं। लेकिन जिस सूये के खेल की मैं बात कर रहा हूं यह लगभग डेढ़-दो फुट का नुकीला सा हुया करता था।

यह सूये वाली गेम केवल तब ही खेली जा सकती थी जब ताजी ताजी बरसात बंद हुई होती थी। हम लोग सीधे पास ही एक ग्राउंड की तरफ़ लपक पड़ते थे ...अभी बरसात पूरी तरह से रुकी भी नहीं होती थी। वहां जाकर उस सूये से ही गीली जमीन पर एक गोल सा आकार बनाया जाता था। टॉस करने के बाद, हमारा खेल शुरू हुया करता था.....जो टॉस जीत जाया करता था( टॉस भी तो सिक्के विक्के से थोड़े ही किया जाता था...अगर इतने सिक्के ही होते तो वहां हम सूया खेलने की बजाये कहीं बाज़ार ना भाग गये होते......सो टॉस के लिये भी पास ही पड़ी कोई ठीकरी वीकरी से काम चला लिया जाता था। ).....

तो टॉस जीतने वाला उस गोलाकार में खड़ा होकर ज़ोर से जमीन पर सूआ मारता था, अच्छा, वाह, यह सूआ तो धंस गया ज़मीन में........फिर उसे वहां से निकाल कर आगे मारता और फिर आगे से आगे चला जाता .....इस सारी यात्रा में दूसरा लड़का भी साथ ही होता । यह सिलसिला बहुत रोचक होता था....अभी याद आ रहा है कि किसी जगह पर एक-आध मिनट के लिये रूक भी जाते थे कि सूआ कहां मारें कि ज़मीन में धंस जाये.....ऐसा ना हो कि यह बिना धंसे ही ज़मीन पर गिर जाये.......वैसे तो यह खेल में अकसर चार-पांच सौ मीटर तक निकल जाना कोई बड़ी बात नहीं हुया करती थी.....लेकिन जैसे ही सूया ज़मीन में धंसने की बजाये गिर जाता, वहां से लेकर उस गोलाकार आकृति तक ( जो हमनें गेम के शुरू में बनाई होती थी).....दूसरे लड़के को हमें अपनी पीठ पर लाद कर लाना होता था. अगर तो वह सही सलामत बिना गिराये हमें उस गोलकार आकृति तक ले आता तो हमारी पारी खत्म और फिर उस की पारी शुरु.....वरना जहां पर वह हमें गिरा देता था या उस का सांस इतना फूल जाता था कि वह हमें उतरने को कह देता था, वहीं से फिर हमारा सूया जमीन में धंसना शुरू हो जाया करता था....( भगवान का शुक्र है तब इतना वज़न नहीं हुया करता था...हमारा ही नहीं, सभी बच्चों का ....वरना सभी की रीढ़ की हड्डियां हिल विल जाया करतीं। आज सोच रहा हूं कि पता नहीं हम यह सूया भी बरसात होते ही हम कहां से झटपट निकाल लिया करते थे......तुरंत हाजिर हो जाया करता था। तो, आप को भी हमारी इस बचपन की गेम में शामिल हो कर मज़ा आया कि नहीं !!

आप भी क्यों अपने बचपन के दिनों की कुछ गेम्स हम सब के साथ शेयर क्यों नहीं कर रहे ?......हम सब इंतज़ार कर रहे हैं.......कुछ समय तक तो इन राष्ट्रीय-अंतरर्राष्ट्रीय मुद्दों के बारे में सोचना बंद करिये और लौट चलिये अपने बचपन की ओर !!

रविवार, 11 मई 2008

तुझे सब है पता, है न मां !!


आज सुबह अखबार देख के पता चला कि कुछ भारतीयों को कल पद्म-श्री, पद्म-विभूषण जैसे अवार्डों से नवाज़ा गया है....कुछ की फोटो भी छपी थी....लेकिन आज मां-दिवस होने की वजह से मैं समाचार-पत्र में ढूंढ रहा था कि शायद कहीं किसी मां को भी कोई छोटा-मोटा इनाम मिल गया हो। लेकिन फिर सोचा कि मैं भी क्या बचकानी बातें सोचने लगता हूं कभी कभी ....अब यह सर्वोत्तम मां, अद्वितीय मां......अब इस तरह के अवार्ड भी क्या सरकार घोषित करेगी क्या!! क्योंकि मां तो हम सब की लाइफ में वो शख्स है जिस के जिम्मे तो बस सब तरह के काम ही आते हैं और हमारा फर्ज़ सिर्फ़ इतना ही है कि हम ने इस को हमेशा टेकन-फॉर-ग्रांटड ही लेना है।

तो, चलिये आप को अपनी मां ( हम इन्हें बीजी) से मिलवाता हूं....ये हमारी बीजी हैं...श्रीमति संतोष चोपड़ा जी....इस देश की करोड़ों माताओं की तरह की ही एक मां। पता नहीं मुझे इस देश की सारी मातायें हमेशा एक जैसी ही क्यों दिखती हैं....इन की सोच एक जैसी होती है ....बस जिस में सब का भला हो ये जगह जगह बारम्बार यही दुआयें करती रहती हैं।

जब से होश संभाला है मैंने तो बीजी को बार-बार पाठ-पूजा करते पाया है, बार-बार रामायण पढ़ते देखा है। कुछ विचार आज मां-दिवस पर मन में आ रहे हैं जो लिख रहा हूं। सब से बहुत बढ़िया विचार तो यही आ रहा है कि मेरी मां ने मेरी एक बार भी पिटाई नहीं की है........बीजी कहती हैं कि तुम थे ही इतने अच्छे कि इस की कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। लेकिन यह बिल्कुल सच्चाई है कि अपनी मां के हाथों पिटे हों, इस की कोई धुंधली याद भी नहीं है।

एक बार और कहना चाह रहा हूं कि जब भी मैं अपनी बीजी के साथ बचपन में सब्जी या राशन लेने जाया करता था तो कभी अपनी मां के पर्स की फिकर किये बिना कोई न कोई फरमाईश रख दिया करता था...लेकिन आज तक याद नहीं कि कभी भी मां ने उस फरमाईश को तुरंत पूरा न किया हो। एक बात और भी है ना कि स्कूल-कालेज के दिनों में जब भी मां से 10-15 रूपये मांगे मुझे पता नहीं अपनी अलमारी के किस कौने से एमरजैंसी के लिये रखे पैसे निकाल कर तुरंत हाज़िर कर देती थीं............जैसे जैसे मैं बड़ा हुया तो मुझे अहसास हुया कि यार ,इस से मां के बजट को झटका तो ज़रूर लगता होगा...........लेकिन इस मां ने कभी भी इस बात को मुझे महसूस नहीं होने दिया। लेकिन इतना तो तय ही था कि मांगने पर पैसा तो मिलना ही है।

एक बात और याद आ रही है कि मेरे दो मामे बिल्कुल यौवनावस्था में चल बसे...एक मामे की उम्र तो मात्र 28 साल की थी और जब वे गुज़रे तो मैं 10-12 साल का था, दूसरे मामा के इंतकाल का 30 साल की आयु में ही हो गया था। मैं यह सब इसलिये यहां लिख रहा हूं कि इन मौकों पर मुझे अपनी मां के मजबूत होने का एक नमूना दिखा.....इतने युवा भाईयों के अचानक चले जाने के सदमे में मां पता नहीं कितना विर्लाप, क्रंदन करती होगी....लेकिन यकीन मानिये, जब हम भाई-बहन सामने होती तो बीजी बिल्कुल नार्मल-सा ही बिहेव करतीं ......मां चाहे कुछ कहे या न कहे लेकिन वे बच्चे भी क्या जो मां के चेहरे की खुली किताब को ही न पढ़ पायें......मुझे तब से ही यही लगता रहा मां बिल्कुल नार्मल-सा दिखने की कोशिश केवल हम बच्चों की सलामती के लिये करती हैं....वे सोच रही हैं कि कहीं उसे रोते देख बच्चों को कुछ न हो जाये। तो, देखिये इस देश की मातायें जो अपनों के चले जाने पर बच्चों की सलामती के लिये खुल कर रोती भी नहीं हैं। मेरे पिता जी के स्वर्गवास होने पर भी मैंने अपनी मां का यही रूप देखा......अंदर से दुःख, बाहर से काफी हद तक नार्मल सा दिखने की कोशिश।

और हर एक पर इतनी जल्दी विश्वास करने वाली कि क्या बताऊं....मुझे याद है कि मैं तब तीसरी-चौथी कक्षा में पढ़ता होऊंगा जब मैं और मेरी मां अमृतसर से अंबाला( जहां मेरे नानी-नाना रहते थे).... जा रहे थे तो जब ट्रेन लुधियाना स्टेशन पर पहुंची तो मैं लगा पानी के लिये मचलने । हमारे सामने की सीट पर बैठे एक व्यक्ति ने कहा कि मैं भी पानी पीने जा रहा हूं तो मेरी मां ने मुझे भी उस के साथ प्लेटफार्म पर पानी पीने भेज दिया था......( नल हमारे डिब्बे से काफी दूर था...)...और मुझे याद है उस बंदे ने मुझे बुक से ( बहते नल से अपनी हथेलियों को जोड़ कर पानी पिलवाया था। और गाड़ी छूटने से पहले हम लोग वापिस सीट पर पहुंच भी गये थे।

लिखने को तो दोस्तो इतना कुछ है कि मां-बच्चों के संबंधों पर पोथियां लिखी जा सकती हैं.....हमारी सब की मातायें एक जैसी ही हैं.....कोई फर्क नहीं है.....पहरावे का फर्क हो सकता है , बोली थोड़ी भिन्न हो सकती हैं लेकिन दिल इन सब का एक जैसा ही है। आज मां-दिवस पर मैं अपने आप से कुछ सवाल पूछ रहा हूं.....

जब हम लोग बचपन में पहला कदम चलते हैं तो हमारे मां-बाप की खुशी का कोई ठिकाना नहीं होता...ऐसा लगता है कि मानो खुशी के मारे उन की सांसे ही थम गई हैं। और फिर उन की तपस्या शुरू होती है बच्चे की अंगुली थाम कर छोटे छोटे कदमों से उसे चलना सिखाने की। लेकिन,दोस्तो, मैं जब किसी नौजवान को अपनी मां-बाप का हाथ थामे देखता हूं तो मुझे वह अपनापन, वह स्नेह नज़र नहीं आता......अकसर ऐसा लगता है कि भीड़ भाड़ वाले एरिये से अपनी मां को सेफ्ली निकाल कर या सेफ्ली सड़क क्रास करवा कर उस पर कोई एहसान सा किया जा रहा है। मैं भी कौन सा कम हूं......सोचता हूं कि मां के साथ घर के बाहर रोज़ थोड़ा टहलूं .....लेकिन तब विचार आता है कि यार, बीजी तो बहुत धीमा चलती हैं और मैं इतनी तेज़। ध्यान फिर यही आता है कि अगर बचपन में मां-बाप भी कुछ ऐसी ही सोच रखते तो तेरा क्या होता कालिया !!

दूसरी बात यह कि जब बच्चा बिल्कुल ही छोटा होता है तो झट से उस के कानों के सामने चुटकी बजा कर चैक किया जाता है कि वह ठीक तरह से सुन भी पाता है कि नहीं। यही नहीं , मां-बाप तरह तरह की छोटी छोटी बातें उस से करते नहीं थकते.......वह कोई जवाब थोड़े ही देता है....लेकिन बस मां-बाप के इसी मेहनत का रिज़ल्ट यह निकलता है कि वह धीरे धीरे बोलना शुरू कर देता है......मां......मां.........पा...पा....., पा.....पा। लेकिन आज मां –दिवस के दिन अपने आप से यह पूछने की इच्छा हो रही है कि यार, मां को अगर अब थोड़ा ऊंचा सुनाई देता है और कईं बार कोई बात दूसरी बार दोहराने में मुझे कभी कभी थोड़ी तकलीफ़ सी क्यों होती है.............मां को तो बचपन में अपने नन्हों मुन्नों के साथ तोतली भाषा में घंटों बतियाते न तो कोई तकलीफ ही होती है और ना ही झुंझलाहट।

दोस्तो, आप सब बहुत पढ़े-लिखे ज्ञानी लोग हो, आप सब कुछ समझते हो...कुछ उदाहरणें ही यहां मैंने दी हैं। लेकिन एक बात तो तय है कि दोस्तो हमारी मातायें वे यूनिवर्सिटियां हैं जिन से हम हर रोज़ सीखते हैं..........दुनियावी यूनिवर्सिटी तो चुस्त-चलाकी सिखाती हैं, अपनी उल्लू कैसे सीधा करना है सिखाती हैं.................लेकिन यूनिवर्सिटी जो हमारे घर में बसती हैं यह हमें जीने का सलीका सिखाती हैं, हमें सिखाती हैं कि सब इंसान एक जैसे हैं, जात-पात कुछ नहीं होती, गिरे को कैसे उठाया जाता है यह सिखाती हैं, रोते हुये के आंसू पोंछने का आर्ट भी तो यही सिखाती है, चोरी से बचने के लिये वह मां के कान कुतरने वाली बात भी सब से पहले यही सुनाती है, रामायण-महाभारत की कहानियां सुनाती भी ये नहीं थकतीं....................और क्या क्या लिखूं......सीधी सी बात है कि मां-दिवस पर अगर हम लोग मां की महानताओं का बखान करना चाहते हैं तो फिर समुंदर जितनी तो दवात चाहिये और दुनिया के सभी सरकंड़ों से तैयार की गई कलम भी छोटी पड़ जायेगी।

हां, लिखते लिखते ध्यान आया कि जब हम लोग स्कूल से लौटकर अपनी मां के साथ छोटी छोटी बातें करते थे तो उस ने तो अपने सारे काम रोक-राक कर हमारी बातें सुनीं......और हम ने इन बातों को एक ही बार थोड़े ही सुनाया, जब तक हम लोग इन बातों को बार बार सुनाते थक नहीं जाते थे , वह भी कहां हां में हां मिलाते हुये थकती थी। लेकिन अपने आप से पूछ रहा हूं कि आज जब मेरी मां किसी धार्मिक पुस्तक से कोई प्रसंग सुनाना शुरू करती है तो मुझे क्यों यह लगता है कि यार, बीजी ने तो बहुत लंबा प्रंसग चुन लिया है....................सीधा सा मतलब है दोस्तो कि मेरे मन में ही कुछ गड़बड़ है, और कुछ नहीं। बेचारी मां का क्या है, उसे लगता है कि बच्चे ध्यान नहीं दे रहे.....या टीवी में ज्यादा इंटरैस्ट ले रहे हैं तो वह अपने किसी दूसरे काम में लग जाती हैं।

पोस्ट लंबी ही हो गई है...लेकिन एक दो बातें करनी अभी बाकी हैं.......एक तो यह कि ये जो वृद्ध आश्रम हैं .....क्या आप को लगता है कि वहां लोग खुशी से रहते हैं....नहीं ना, तो फिर केवल यही प्रार्थना है कि जिन मां –बाप के भी बच्चे जिंदा हैं अगर इस देश में भी ऐसे मां-बाप को इन ओल्ड-एज होम्ज़ में रहना पड़ रहा है.......तो मैं समझता हूं कि अपने मां-बाप को इस से बड़ी गाली हम दे ही नहीं सकते, इस से ज़्यादा अपमानित हम उन्हें कर ही नहीं सकते। मां-दिवस है आज.....एक बात का और ध्यान आया है कि यह जो वूमैन रिज़र्वेशन बिल आने वाला है..........इस को पास करने वालों को काश आज ही मातृ-शक्ति के ऊपर लिखी विभिन्न पोस्टों के बारे में भी पता लगे ताकि इस बिल का किसी तरह का भी विरोध करने से पहले ये मातृ-शक्तियों की कुरबानियों की तरफ तो थोड़ा ध्यान कर लें। इस देश की अधिकांश माताओं का दिन तो सुबह मुंह-अंधेरे ही रोटियां सेंकने और बार-बार चाय के पतीले आंच पर रखने से ही शुरू हो जाता है.......लेकिन यह आज की बात थोड़े ही है......आज तो गैस के बटन का कान मरोड़ा और हो गये शुरू......लेकिन बात तो उन दिनों की थी दोस्तो जब सुबह सुबह ठिठुरती ठंडी में जब मैं और आप रजाई में दुबके पड़े होते थे और हमारी मातायें हमारे स्कूल का डिब्बा बनाने में लगी होती थीं..............जिस के परिणामस्वरूप आज मैं और आप सब अचानक इतने महान हो गये कि ब्लॉगर ही बन बैठे।

एक बात और करनी है कि ठीक है यार अंग्रेज़ों ने हमें एक दिन दिया तो अपनी मां की भूमिका को याद करने के लिये। लेकिन हमारे देश की तो दोस्तो संस्कृति ही कुछ ऐसी है कि हम सब के लिये तो शायद रोज़ ही मां-दिवस होता है। ये हमारे पुरातन संस्कार हैं..............। रोज़ाना ही मां –दिवस वाली बात कुछ ज़्यादा ही नहीं लग रही.....यह कैसे संभव होगा..............उस का सीधा सादा फार्मूला यही है जो कि मैं समझा हूं कि हमें अपनी मां को अपने सब से छोटे बच्चे की तरह ही समझना होगा और उस से वैसा ही व्यवहार भी करना होगा.....कहीं भी गड़बड़ हो रही हो तो हम यही मानक तय कर लें...........तो आप भी मेरी तरह इस से सहमत हैं तो दें ताली............वरना कैसा मां-दिवस और कैसा मदर्स-डे !!

पुनश्चः --- अब पोस्ट लंबी है, खफ़ा न हों....अब मुझे इस देश की सारी मातायों की महानता बखान करने की चाह हुई थी तो इतनी लंबाई की तो छूट दे ही दीजिये। और हां, देखिये, इस समय भी मेरी मां ने ही मुझे ( या आपको ?) बचा लिया क्योंकि बेटे ने आकर बुलावा दे दिया है कि बीजी बुला रही हैं , खाना खा लो, वरना मेरा क्या है.............मैं तो पता नहीं कहां कहां की गप्पें हांकता रहता !

मंगलवार, 6 मई 2008

सारे नियम तोड़ दो ....नियम पे चलना छोड़ दो !!

ये लाईनें पढ़ कर आप को शायद फिल्म अभिनेत्री रेखा एवं छोटे-छोटे बच्चों के ऊपर फिल्माया गया वह प्यारा-सा खूबसूरत फिल्म (1980) का वह सुपर-डुपर हिट गाना याद आ गया होगा। सचमुच कभी कभी इन नियमों-वियमों को ताक पर रख कर बड़ा मज़ा आता है......

रविवार, 4 मई 2008

मेरे इस पंखी से ए.सी तक के सफरनामे ने खोल दी विकास की पोल !

जब आप उस पंखी से ए.सी तक का मेरा सफरनामा सुनेंगे ना तो आप भी मेरी तरह यह सोचने पर मजबूर हो जायेंगे कि आखिर यह कैसा विकास है जिस का हम ढोल पीट रहे हैं.....अगर यही विकास है तो यार हम लोग तो अविकसित ही भले थे।

याद आ रही है अपने प्राइमरी स्कूल के दिनों की....वाह, वे दिन भी क्या खूब थे.....गर्मियों के दिनों में शाम के समय सूरज ढलते ही इस बात का बड़ा शौक हुया करता था कि अब हम ने सारे आंगन में पानी का छिड़काव करना है…उस के बाद सारे आंगन में ठंडक सी हो जाती करती थी। फिर, अगला काम होता है रात पड़ते पड़ते चार-पांच चारपाईयां( हम इन्हे मंजियां कहते हैं) ...बिछाने का......और उन के बीच में अपने खटोला (छोटी चारपाई) भी कहीं फिट करना होता था.......और उस के नीचे मैं अपनी एक बिल्कुल छोटी सी पानी की सुराही ज़रूर रखा करता था।
हां, हां, उन दिनों गर्मी की शुरूआत का मतलब होता था बाज़ार में तरह तरह की सुराहीयां एवं मटके मिलने शुरू हो जाया करते थे....और ये ही क्यों वे हाथ से घुमाने वाली छोटे पंखे भी तो खूब बिका करते थे ....क्योंकि ना तो तब हम लोगों के पास फ्रिज ही हुया करते थे और ना ही इन्वर्टर के बारे में ही सुना था, वैसे सुन भी लेते तो क्या कर लेते !! मैं ये बातें 1969-70 की कर रहा हूं।

बस, उस समय हम लोग बहुत मज़े से बाहर ही सोया करते थे....बहुत मज़ा आता था नीले नीले आसमान के नीचे सितारों की चादर ओढ़ कर सोने में.....कोई मच्छर नहीं, कोई पंखा नहीं....कोई मच्छर भगाने वाली क्रीम नहीं। हां, एक दो हाथ से घुमाने वाली पंखियां चारपाईयों पर ज़रूर रख लिया करते थे।

फिर थोड़े समय बाद मच्छर वच्छर काटने जब शुरू हुये तो घर में जो दो-तीन मच्छऱदानियां हुया करती थीं वे चारपाईयों पर लगा दी जाती थीं.......उन को लगाने में भी बहुत मज़ा आया करता था। मुझे तो उन के अंदर सो कर उस से भी ज़्यादा मज़ा आया करता था.....क्योंकि मैं अपने आप को तब महाराजा पटियाला से कम ना समझा करता था।

तो, इस खुले वातावरण में सो कर जब सुबह उठते थे तो बहुत फ्रैश महसूस करते थे और बहुत जल्दी उठ जाया करते थे। वैसे सो भी तो जल्दी ही जाया करते थे क्योंकि तब हमारा दिमाग खराब करने के लिये ये घटिया किस्म के सीरियल्स नहीं हुया करते थे...और ना ही दिमाग खराब कर देने वाले इन खबरिया चैनलों ने नाक में दम ही किया होता था जो कि जब तक आजकल सोने से पहले दो-चार खौफनाक सी घटनायें ना दिखा लें....शायद उन्हें लगता है कि जब तक हमारे दर्शकगण खौफ़ से सहम नहीं जायेंगे , उन्हें नींद कैसे आयेगी !!

एक-दो साल बाद यानि की 1970 के दशक के शुरू शुरू में यह देखा कि अब सोने से पहले आंगन में एक बिजली का पंखा भी एक स्टूल पर रख दिया जाता था.......यह पंखा फिक्स किस्म का था.....इसे कईं बार मकैनिकों को दिखाया गया कि इस के घूमने वाला मकैनिज़्म दुरूस्त हो जाये, लेकिन यह भी ढीठ किस्म का था.....दो-तीन दिन घूमता और फिर बस एक ही तरफ हवा फैंकता। खैर, अब हमें इस का मिजाज पता लग चुका था...सो, हमने इस के सामने एक ही कतार में सारी मंजियां लगानी शुरू कर दीं।

खैर, अच्छी खासी कट रही थी.....कुछ सालों बाद ही अमृतसर में उग्रवाद ने सिर उठाना शुरू कर दिया.......इस का एक असर यह हुया कि लोगों ने बाहर आंगन में सोना धीरे धीरे बंद कर दिया.....खौफ़ सा पैदा हो गया लोगों के दिलों में....क्योंकि बहुत सी ऐसी वारदातें हुईं कि कईं लोगों को बाहर सोते-सोते ही खत्म कर दिया गया। तो, हम लोगों ने कमरों के अंदर पंखे लगाकर सोना शूरू कर दिया.....लेकिन तब भी कमरों में कोई जाली वाले दरवाज़े नहीं थे.......लेकिन फिर से मच्छर से इतने परेशान ही हम कभी ना थे। कारण शायद यही होगा कि तब ये पोलीथीन न होने की वजह से इतनी गंदगी न हुया करती थी, सो सब ठीक ठाक ही चल रहा था।

दो-चार साल बाद फिर हम लोगों को इन बिजली के पंखों के चलने के बावजूद गर्मी लगती रहती......तो फिर आ गये ये कूलर...जिन्हें सुबह तो कमरे में कर लिया जाता....और रात के समय वही मंजियों के सामने इसे इक्सटैंशन वॉयर इत्यादि लगा कर इसे सरका दिया जाता। यह क्या, यार, इस कूलर की वजह से भी आंगन में सोने का मज़ा आने लगा। लेकिन सुबह उठने पर वो पहले जैसी चुस्ती गायब होती गई

धीरे धीरे कुछ ही सालों में पता नहीं हम लोगों की टीवी या वीसीपी पर फिल्में देखने की आदतें कुछ इस तरह की हो गईं कि हमें अपने अपने कमरों में ही सोना अच्छा लगने लगा...एक कूलर की जगह अब हर कमरे में कूलर लग गया। लेकिन मौसम में बदलाव कुछ इस तरह से ज़ारी रहा कि अब कूलर भी गर्मी के शुरू शुरू के कुछ दिन ही ठंडक पहुंचा पाता......अब ह्यूमिडिटी से परेशानी होने लगी.......ऊपर से मच्छरों ने भी अब तक अपने पैर पक्के कर लिये थे......ये आडोमास, कछुआ-छाप....खूब इस्तेमाल होने लगी थीं......आजकल तो कहते हैं ना कि कछुआछाप से तो इन मच्छरों की दोस्ती हो गई है......इसलिये पिछले कईं सालों से मच्छरों को भी गुड-नाइट कहने के लिये मशीनें आ गईं हैं।

धीरे धीरे अब हाल यह है कि बाहर सोने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता, मच्छर ही मच्छर हैं सब तरफ.......जिस जगह हम लोग रहते हैं वहां पर बहुत साफ-सफाई है तो यह हाल है......साफ-सुथरे घर हैं.....हर दरवाज़े के साथ जाली का दरवाजा भी है जो हमेशा बंद रहता है.....ए.सी भी लगे हुये हैं......लेकिन हालात यह है कि रात पड़ते ही बुखार चढ़ना शुरू हो जाता है कि यार, अब फिर इन हालातों में सोना पड़ेगा....क्योंकि ए.सी कमरों में भी मच्छर परेशान किये रहते हैं। सोचता हूं कि यार, जीवन की इतनी यात्रा कर लेने के बाद भी पाया तो क्या पाया......पहले चैन से मज़े से नींद आ जाया करती थी, सुबह प्रसन्नचित उठा करते थे.......लेकिन अब एसी कमरे में सो कर जब उठते हैं तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने बैंत के डंडों से पीटा हो.....सुबह सारा शरीर दुःख रहा होता है जिस के अंदर जब तक एक-दो कड़क चाय रूपी पैट्रोल नहीं पहुंच जाता, तब तक वह ना तो गेट तक जाकर अखबार ही उठा पाने के योग्य नहीं होता और ना ही ब्राड-बैंड लगाने की हिम्मत होती है। अकसर सोचता हूं यार अगर विकास यही है तो वे बिना विकास वाले दिन ही बढ़िया थे......ऐसे विकास का क्या करना जो रातों की नींद ही उड़ा ले। लेकिन किसी और को दोष भी तो नहीं दे सकते....यह सब कुछ हमारा अपना ही तो किया-धरा है....हम ही तो प्रकृति के साथ इतने पंगे ले रहे हैं और इतने मौसमी बदलाव के बावजूद भी कहां बाज आ रहे हैं।

जब हम बच्चे थे तो सुना करते थे कि गर्मी के दो महीने ही होते हैं...मई-जून और होता भी कुछ ऐसा ही था क्योंकि जुलाई के मिडल पर बरसात होनी शुरू हो जाया करती थी। फिर धीरे धीरे जुलाई भी गर्मी में शामिल हो गया.......पिछले 6-7 सालों से देख रहा था कि मई से लेकर अगस्त तक ही गर्मी की वजह से नाक में दम हुया रहता है.....लेकिन पिछले साल तो ऐसा अनुभव रहा कि 15 सितंबर तक ही गर्मी चलती रही । और इस साल तो सुभान-अल्ला 15 अप्रैल से ही मौसम के तेवर बदले हुये हैं.......इतनी गर्मी , इतनी तेज़, चिलचिलाती धूप, इतना सेक.......। इसलिये अब तो कम से कम पांच महीने गर्मी के ही समझें............15 अप्रैल से 15 सितंबर.....लेकिन सोचता हूं अगर इसी तरह यह गर्मी की अवधि बढ़ती रही तो क्या होगा हमारा...........वैसे हमारा क्या है, हम तो अब लगभग चले हुये कारतूस के समान है......बात है अगली जेनरेशन की......वैसे तो मैं बेहद नान-इंटरफियरिंग किस्म का फादर हूं....बच्चों को प्रोफैशन चुनने के मामले में अपने मन को फॉलो करने की छूट दे रखी है....लेकिन मैं उन्हें यह बात अकसर याद दिलाता रहता हूं कि देखो भई कुछ भी करना..लेकिन इतना तो ज़रूर कमाने की हैसियत रखना कि जिन चीज़ों को इस्तेमाल करने की आदत आप लोगों को पड़ चुकी है .....उन्हें अपने दम पर अफोर्ड करने की हैसियत तो कैसे भी बनानी ही होगी......और उन में से एसी आइटम नंबर वन है।

शुक्रवार, 2 मई 2008

ऐसा क्यों कि खौफ़नाक सपना टूटने पर भी खुशी न हो !!


अभी ठीक डेढ़ घंटा पहले मैं अपना लैपटाप लेकर अपने बेड-रूम में आया...मुझे कुछ काम करना था....लेकिन आजकल तो इधर यमुनानगर में लिटरली आग बरसने के कारण मेरी कुछ करने की इच्छा नहीं हुई और मैं अपना सारा सामान पास ही में रख कर सो गया। लेकिन अभी पांच मिनट पहले उठ गया हूं....क्योंकि एक बेहद खौफ़नाक सा सपना देख लिया।

हुया कुछ इस तरह से है कि मैं कहीं बाहर से घर आया हूं....जब मेरा खाना-पीना हो गया है तो मैं थोड़ा दूसरे कमरों की तरफ़ जब रूख करता हूं तो पाता हूं कि मेरे पिता जी पीड़ा में हैं....मुझे दिखने में ही लगता है कि वे थोड़े डिस्टर्ब हुये हुये हैं....उन का पैर टेढ़ा हुया हुया है....और पैर पर सूजन के साथ-साथ एक काला सा काटे का निशान सा भी है। मुझे मेरे पिता जी बताते हैं कि मुझे आज काला बड़ा सा सांप काट गया है। उसी समय मेरी पत्नी भी मुझे बताती हैं कि हास्पीटल से मंगवा के सांप के काटे का इंजैक्शन लगा दिया है। लेकिन पता नहीं पिता जी ने फिर से अपनी कुछ तकलीफ़ ब्यां की जिस पर मैंने कहा कि कोई बात नहीं किसी डाक्टर को दिखा आते हैं।

शायद मेरे यह बात कहने में इतना दम नहीं था क्योंकि मेरी मां ने उसी समय मुझे कहा कि हां, हां, चलते हैं ......कोई बात नहीं, डाक्टर के पैसे ही खर्च होंगे ना।

खैर, उसी समय मेरे पास ट्यूशन के लिये एक एक कर के छात्र आने शुरू हो जाते हैं......मेरा सारा ध्यान अपने पिता जी की तरफ ही है कि मैंने अभी उन को डाक्टर के पास लेकर जाना है.....उन बच्चों का यह मेरे साथ ट्यूशन का पहला दिन है......( वैसे मैं भी बहुत हैरान हूं कि यह ट्यूशनों का कैसा चक्कर.......फिर ध्यान आया कि आज खाना खाते वक्त एक सीरियल से दो-तीन मिनट दिखा था जिस में एक औरत 8-10 बच्चों को घर पर ट्यूशन पढ़ा रही थी!)…….मैं उन बच्चों के साथ यूं ही एक-एक बात कर ही रहा था कि मेरी मां उस कमरे में किसी बहाने आती हैं......मैं उन ट्यूशन पढ़ने आये हुये बच्चों के साथ बातें करते करते सोचने लगता हूं कि यार बचपन में जब मुझे कहीं सोच लगती थी तब तो मेरी मां और मेरे पिता जी की फर्स्ट तो परायर्टी यही होती थी कि जल्द से जल्द इसे कैसे डाक्टर तक पहुंचा जाये......और यहां मैं इन बच्चों के साथ बातें करने में मसरूफ हूं कि कहीं आज पहले दिन ही मेरा यह टरकाऊ रवैया देख कर इन के माता-पिता कल से इन्हें ट्यूशन भेजना ही ना बंद कर दें !!)…..इसलिये मैंने उन पांच-छःबच्चों को कहा कि आज का दिन तो बस इंट्रो का समझो.....कल से ही महीना शुरू कर लेंगे....आज आप लोग घर जायें।

उन बच्चों को इतना कह कर मैं अपनी कार निकालता हूं और अपनी मां और पिता जी को कार में बिठा कर किसी डाक्टर की तरफ़ निकल पड़ता हूं.....लेकिन गाड़ी चलने पर भी यह मन नहीं बना पा रहा हूं कि किस डाक्टर के पास ले कर जाऊं......क्योंकि मुझे मन ही मन यह लग रहा है कि सांप के कटे का टीका तो शुक्र है लग ही चुका है .....अब वैसे तो सब ठीक ही है, लेकिन मैं अपने मां एवं पिता जी की संतुष्टि के लिये इन्हें डाक्टर के पास ले कर जा रहा हूं...................लेकिन अभी कहीं रास्ते में ही हूं और पसीने से लथ-पथ अपने बिस्तर पर उठ कर बैठ जाता हूं........क्योंकि मेरे बेटे की मस्तियों से मेरी नींद खुलने के बाद सपना भी कहीं टूट कर, बिखर कर रह गया.................लेकिन एक बात तय है कि ऐसा शायद पहली बार हुया है कि एक भयानक सपना टूटने के बाद भी राहत सी महसूस न हुई हो.......खुशी न पहुचीं हो.......इस का कारण यही कि मेरे पिता जी को तो गुजरे हुये 13 साल हो चुके हैं !!

अभी मैंने यह पोस्ट लिखनी ही शुरू की थी कि मेरा बेटा चादर खींच रहा था लेकिन दो-चार मिनटों के बाद ही नींद में खोते खोते उस की टांग हिली और वह उठ कर बैठते बैठते पूछने लगा कि ऐसा क्यों होता है कि मुझे सपना आ रहा था कि हम मनाली के एक मंदिर में गये हैं.....वहां पर ठंडा पानी बह रहा है और जैसे ही वह मेरी टांग के ऊपर गिरता है, मेरी टांग हिल जाती है.......इतना कह कर वह फिर से सो जाता है।

लेकिन मैं अब सोच रहा हूं कि हमारी बड़ों की और इन छोटे छोटे बच्चों की दुनिया भी कितनी अलग है.....हमें सपने भी सांपों के आते हैं और इन के सपनों की दुनिया में भी मंदिर, झरने, कुदरती वादियां........यह सब कुछ है!!.....तभी मुझे ध्यान आता है कि उस बेहद सुंदर गीत का ....जिसे सुन कर इन बच्चों की दुनिया की एक झलक ज़रूर मिलती है.........आप भी ज़रूर सुनिये और अपने बचपन के दिन दोबारा जी लीजिये।


सोमवार, 31 मार्च 2008

31मार्च का दिन.....मेरी बड़ी बहन और वे ढेर सारे गुलाब !

हर साल 31मार्च के दिन मुझे मेरी बड़ी बहन की बहुत याद आती है और इस के साथ ही साथ उन ढेर सारे गुलाब के फूलों की जिन की माला वह हर 31मार्च की सुबह सवेरे अपने सारे काम काज छोड़ कर बेहद उत्साह के साथ मेरे लिये एक लंबी सी माला सुईं धागे से तैयार किया करती थीं। मेरी बहन मेरे से 10साल बड़ी हैं और आज कल वे यूनिवर्सिटी प्रोफैसर हैं।

यह माला मेरी बहन द्वारा हर 31 मार्च को तैयार कर के एक कागज के लिफाफे में डाल कर मुझे थमा देती थीं.....क्योंकि मुझे यह माला अपने प्राइमरी स्कूल के हैड-मास्टर के गले में डालनी होती थी। जिस स्कूल में मैं पढ़ता था वहां पर फिक्स था कि रिजल्ट 31मार्च को ही आता था और मैं वहां पर चौथी कक्षा तक पढ़ा हूं। इसलिये मुझे यह भी अच्छी तरह से याद है कि मेरी बड़ी बहन किस तरह चाव से सुबह सुबह माला तैयार किया करती थीं। जिस प्यार से, जिस भावना से वह सूईं धागे में एक एक फूल पिरो कर माला बनाती थीं वह मुझे सारी उम्र याद रहेगी....और मुझे उस के कंपैरीज़न में ये बुके वुके के स्टाल कितने नकली, भद्दे, कितने औछे, कितने मतलबी, कितने आर्टीफिशियल , कितने मतलबी से, कितने सैल्फिश से, कितने बेकार से लगते हैं.......उस बहन की पिरोई हुई माला की बात ही कुछ और थी। इसलिये शायद मैंने कभी भी ये बुके-वुके खरीदे नहीं हैं....क्योंकि मुझे इन सब में इतना नकलीपन लगता है कि मैं लिख नहीं सकता। मेरा पक्का विश्वास है कि ये हम लोग एक दूसरे को नहीं देते....एक दूसरे के औहदे को, एक दूसरे की पोजीशन को, एक दूसरे से हमें कितना काम पड़ सकता है ...इन सब को तराजू में रख कर ही यह तय करते हैं कि हम कौन सा बुके किस के लिये ले कर जायेंगे। आप के विचार इससे जुदा हो सकते हैं !


अच्छा तो मैं उस फूलों वाली माला की बात कर रहा था। इस समय भी हमारे घर में गुलाब के फूलों की बहार आई हुई है, लगभग 20-25 पौधे हैं जिन पर ढेरों गुलाब के फूल हर आने-जाने वाले को हर्षोल्लास से भर देते हैं।
हुया यूं कि इस साल बसंत के कुछ दो-चार दिन पहले ही हम ने माली को कहा कि ये जो गुलाब के फूल हैं ये बहुत ऊंचे हो गये हैं, इन की थोड़ा कटिंग कर देना। कह कर हम अपने अपने काम में बिज़ी हो गये....लेकिन कुछ समय बाद क्या देखते हैं कि ये चार-चार पांच पांच फुट की ऊंचाई वाले पौधे उस ने काट कर बिल्कुल ही छोटे छोटे काट दिये हैं .....इन्हें देख कर मेरा मन बहुत दुःखी हुया ...यही लगा कि क्यों नहीं माली के सामने खड़े रहे। लेकिन माली ने कहा कि कटिंग तो इसी तरह की ही बढ़िया होती है ...आप देखना ये अब कितना फैलेंगे। लेकिन मन ही मन कुछ दिन बुरा सा लगता रहा।

लेकिन यह क्या....कुदरत का करिश्मा देखिये....काटने के कुछ ही दिनों बाद ही ...शायद बसंत पंचमी के दो-चार दिन बाद ही इन गंजे पौधे पर छोटी छोटी पत्ते दिखने लग गये...जिन्हें देख कर मेरी तो बांछे खिल गईं क्योंकि मुझे तो इन गुलाब के फूलों से बेहद प्यार है। कुछ ही दिनों में ये इतने तेज़ी से फैल गये कि अब ये गुलाब के फूलों से भरे पड़े हैं.........जिन्हें देख कर मन बहुत खुश होता है। और आज तो वैसे भी 31मार्च का दिन है....मेरे लिये और मेरी बड़ी बहन के लिये विशेष दिन.......इस लिये यह पोस्ट लिख कर उस दिन को मना रहा हूं।

जाते जाते यही सोच रहा हूं कि हम लोग जब बच्चे थे तो हम लोगों के मन में अपने टीचर्ज़ के प्रति बहुत सम्मान हुया करता था....किसी भी तरह से हम इन गुमनाम हस्तियों को अपने मां-बाप से कम नहीं मानते थे.....और इस समय सोचता हूं कि इस प्रकार के संस्कार मेरे जैसे नटखट बालकों के मन में भरने के लिये शायद जैसे मेरी बहन जैसी इस देश की करोड़ों बहनों ने पता नहीं कितनी गुलाब की मालायें तैयार की होंगी। आज भी जब अपने टीचरों के चेहरे मन की आंखों के सामने घूमते हैं तो अपने आप को इन हस्तियों के अहसानों तले इतना दबा पाता हूं कि कह नहीं सकता....यह सोच कर आंखें नम हो जाती हैं कि मुझ जैसे गीली मिट्टी को भी इन टीचर रूपी फरिश्तों ने कहां का कहां पहुंच दिया......साथ में आज का माहौल देख कर एक अभिलाषा भी मन में उठती है कि काश ! आज का शागिर्द भी अपने गुरू को भी उतना ही सम्मान देने लग जाये।

सोमवार, 17 मार्च 2008

वो ट्रंक-काल वाले दिन..........मत याद दिलाओ !!


वो ट्रंक-कॉल करने वाले दिन भी क्या दिन थे....चलिए अपनी यादों को ज़्यादा तो नहीं....बस बीस-पच्चीस साल पहले तक ही रीवाइंड कीजिये.....। सबसे पहले चार-पांच किलोमीटर का सफर साईकिल पर तय कर के ज़िले के बड़े डाकखाने पर पहुंचना होता था।

तार-बाबू के काउंटर पर पहुंच कर पहले उस का मूड देखा जाता था। क्योंकि सब कुछ तो उस के हाथ में ही होता था....अगर उसे ग्राहक के आव-भाव कहीं पसंद नहीं आये और उस ने तपाक से कह दिया कि ......मैं कह रहा हूं ना कि जयपुर की लाइन मिलने का तो कोई सवाल ही नहीं है इस समय..........तो आप उस का क्या लेते ?.....इसलिये सब काम बड़ी तहजीब से चलता था।

बस, आप का थोड़ा सा इंटरव्यू डयूटी पर बैठा बाबू पहले लेता था कि हां, बोलो, कहां करोगे बात........शायद आधे लोगों की स्क्रीनिंग तो इसी स्टेज पर ही हो जाया करती थी कि यूं ही समय बरबाद करने का कोई फायदा नहीं क्योंकि सुबह से ही बम्बई की लाइनें मिल ही नहीं रही हैं। और मुझे याद है कि कईं बार तो एक फोन करने के लिये दो-तीन दिन उस जीपोओ के चक्कर लगाने पड़ते थे।

सब से पहले बाबू एक फार्म आप को थमा देता था...जिसे भरने के लिये कोई कौना ढूंढना पड़ता था ....लेकिन अभी अभी याद आ रहा है कि कभी कभी वह सिर्फ आप से पूछ लेता था कि आप ने कहां फोन करना है......और वह झट से अपने रजिस्टर में आपका बताया हुया नंबर लिख लेता था......और साथ में यह भी ज़रूर पूछ लिया करता था कि अर्जैंट करना है या आर्डिनरी................क्योंकि इन के चार्जेज़ में भी फर्क हुया करता था। इतनी फार्मैलिटि के बाद फिर वह आप से बीस या पचास रुपये ( दूरी के हिसाब से) ...लेकर अडवांस के रूप में जमा कर लिया करता था।

अब होती थी ....ग्राहकों की तपस्या शुरू......इंतजार की घड़ियां खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं। वह बाबू दन-दना-दन एक के बाद नंबर घुमाता जाता और कुछ कुछ अपने लोकल बस-अड्डे के बाथ-रूम के ठेकेदार वाले अंदाज़ में ग्राहकों को आवाज़ लगा दिया करता कि ....कौन है ग्वालियर वाला , कौन है नासिक वाला.............उस की आवाज़ आने का मतलब होता था कि भई...तेरा फोन लग गया है या घंटी बज रही है ...चल, भाग कर उस कैबिन में जल्दी से घुस जा जहां पर एक पुराने ज़माने का एक काला टैलीफोन सैट पड़ा होता था। और , फोन पर बतियाने वाले मेरे जैसे नये नये खिलाड़ी जो इतनी तेज़ी से बोलते थे कि शायद आस-पास के कस्बों तक आवाज़ वैसी ही पहुंच जाये। लेकिन अकसर सब की बातें खुली होती थीं.....सब को बाहर सुनती थी कि उस के परिवार में क्या क्या चल रहा है !! लेकिन तब हम लोग प्राइवेसी के इतने दीवाने भी नहीं हुया करते थे।

लेकिन यह क्या, यह वाले लाला जी तो आधे मिनट में ही फोन वाले कैबिन से बाहर आ गये और कह रहे हैं कि दूसरी तरफ से आवाज़ ही क्लियर नहीं सुन रही थी। खैर, किसे मंजे हुये अंपायर की तरह उस बाबू का फैसला अकसर फाइनल ही हुया करता था..........कि इस तरह की काल्स को चार्ज करना है या नहीं ....अकसर चार्ज कर ही लिया जाता था।

और यह बहस भी कभी कभी गर्मागर्म दिख जाती थी कि यार, बात तो इतनी छोटी की है और आप कह रहे हो कि तीस रूपये का बिल आ गया है । लेकिन वही बात कि बाबू के आगे सब की बोलती बंद हो जाया करती थी....जितनी मरजी कोई सब तरह के पलस जानने की शेखी बघारता, लेकिन बाबू के आगे उस की एक न चलती । क्योंकि बाबू ने अपने उस पुरानी सी मेज पर एक स्टाप-वाच भी रखी होती थी जिसे वह फोन लगते ही चालू कर दिया करता था...और दिन और रात के चार्जेज़ का भी अंतर हुया करता था। अब लगता है कि यार, हम लोगों में कुछ ज़्यादा ही पेसेंस थी.....एक फोन करने के लिये इतनी माथा-पच्ची.........इन की यादों की बारात में ही मैं खुद को संभाल नहीं पा रहा हूं। लेकिन वे दिन भी बस कुछ अलग ही थे......।

जिन का फोन झट से लग जाया करता था और जो लोग अकसर वहां पर फोन करने आया करते थे , वे भी कहां बड़ी बड़ी छोड़ने से बाज आते थे.....सब अपना अपना ज्ञान फैंकने पर तुले होते थे......तू देख, अगर तेरे को दिल्ली करना है ना फोन तो शाम को छः बजे आया कर, देख पहली ट्राई में ही मिलता है। उस कमरे में पूरी जमघट लगा हुया करता था......क्योंकि औसतन जितने बंदे फोन करने वाले उतने ही उस को एस्कार्ट करने वाले हुया करते थे। वाह, क्या नज़ारा हुया करता था। लेकिन , यह क्या.....यह महिलाओं के साथ भेदभाव तब भी होता था...............बस जनानीयां ते टावीयां-टुक्कीयां हुंदीयां सन...( महिलाओं तो बस कभी कभार ही दिखती थीं...) ...

इतना सब कुछ लिखने का ध्यान इसलिये आया कि आज शाम को अपने एक फ्रैंड को अमृतसर मोबाइल पर दो बार फोन ट्राई किया....लेकिन काल नहीं लगी.....चूंकि वह दोस्त अमृतसर के बड़े डाकखाने के पास ही रहता था तो झट से पुराने ज़माने की सारी बातें एक फ्लैश-बैक की तरह याद आ गईं जिन्हें आप के साथ साझा कर लिया ।

शुक्रवार, 14 मार्च 2008

वो चित्रहार वाले दिन भी क्या दिन थे !

आज ऐसे ही ध्यान आ रहा था कि हमारा समय भी क्या था कि अगर हिंदी फिल्मी के गीत देखने भी हैं तो वे सिर्फ़ सिनेमाघरों में जा कर ही देखे जा सकते थे । यह टीवी..वीवी तो बाद में आया....और उस पर भी ये फिल्मी गीत हफ्ते में एक-दो दिन लगभग आधे घंटे के लिये ही दिखाये जाते थे। और दूरदर्शन पर दिखाये जाने वाले इस प्रोग्राम का नाम हुया करता था...चित्रहार,जिस में पांच-छः गीत सुनाये जाते थे। और यकीन मानिये, हफ्ते के बाकी दिन बस इसी कार्यक्रम का ही इंतज़ार हुया करता था। स्कूल का होम-वर्क भी उस दिन इस चाव में दोपहर में भी निबटा लिया जाता था कि आज शाम को तो टीवी पर चित्रहार आना है । और हां, स्कूल में भी अपने दोस्तों के साथ इस तरह की बातें होती थीं कि अच्छा तू बता, आज कौन कौन से गाने दिखायेंगे ...चित्रहार में । और ये डिस्कशन लंबे समय तक चलती थी जब तक वह डरावना सा दिखने वाला हिस्ट्री का मास्टर क्लास में अपनी ऐन्ट्री से इस डिस्कशन का सारा मज़ा किरकिरा ही नहीं कर देता था।

लेकिन वो हमारी प्रोबल्म थी.....आप क्यों बिना वजह सुबह सुबह अपना मूड खराब करते हैं। लीजिये, उन्हीं दिनों की अपनी हसीन यादों में से एक बेहद सुंदर गीत फैंक रहा हूं.......जिसे शायद बीसियों बार देख चुका हूं, सुन चुका हूं........अब आप के साथ फिर से सुन रहा हूं।

बुधवार, 5 मार्च 2008

मैं उस फोटोस्टैट मशीन को देख कर इतना खौफज़दा क्यों था!

ओह माई गुडनैस, मैं आज भी सोचता हूं तो कांप सा जाता हूं कि आखिर मैं उस फोटोस्टैट मशीन को देख कर इतना खौफज़दा क्यों था......बात जुलाई1980 की है....मैंने कुछ दिन पहले ताज़ा-ताज़ा पीएमटी टैस्ट क्लियर किया था....यूनिवर्सिटी से रिज़ल्ट कार्ड मिल चुका था। अब बारी थी एडमीशन के लिए अप्लाई करने की ...जिस के लिये एक अदद अटैस्टैड कापी उस रिज़ल्ट कार्ड की भी चाहिये थी। अब इस से पहले तो हमें तो यही पता था कि ऐसे किसी भी डाक्यूमैंट की कापी का मतलब तो यही होता था कि किसी टाईपिस्ट के साथ बैठ कर उस सर्टिफिकेट की कापी टाइप करवाओ और फिर किसी आफीसर से उसे सत्यापित करवाने का जुगाड़ ढूंढो।

लेकिन उन्हीं दिनों मैंने पता नहीं कहां से सुन लिया था कि एक ऐसी मशीन आ गई है जिस से किसी भी सर्टिफिकेट की हुबहू कापी हो जाती है। ऐसे में मैं कैसे पीछे रह जाता। हां तो पता चला कि अमृतसर के पुतलीघर एरिया में एक दुकान पर ऐसी मशीन लग गई है। सो, मैं भी दो-तीन किलोमीटर साइकल हांक कर पहुंच गया । और ,. उस दुकानदार को दे दिया वह सर्टिफीकेट कापी करने के लिये ।

वह दुकानदार मेरा रिज़ल्ट कार्ड लेकर अंदरवाले कमरे में चला गया......लेकिन यह क्या ,. मैं एक बार तो डर ही गया कि यार मैं कहां आ गया , कहीं कोई पंगा तो नहीं हो जायेगा, मेरा इतनी मेहनत से कमाया हुया रिज़ल्ट कार्ड तो मुझे सही सलामत वापिस मिल जायेगा ना....बस , मैं तो इन्हीं विचारों में सहमा सा खड़ाथा कि उस दुकानदार ने एक स्टूल उठाया..............अरे, यह क्या , पहले थोड़ा मशीन की फिजिकल अपीयरेंस के बारे में तो लिखूं.....तो सुनिए, हज़रात, वह मशीन लगभग इतनी लंबी-चौड़ी थी कि आप यह समझ लो कि उस ने इतनी ज़मीन घेरी हुई थी जितनी किसी पुरानी स्टाईल की प्रिंटिंग मशीन ने घेरी होती थी।

हां, तो मैं बता रहा था कि उस दुकानदार ने एक बड़ा सा स्टूल उठाया, और उस पर चढ़ कर मशीन के ऊपर चढ़ गया....और फिर उस ने बहुत बड़ी-बड़ी दो प्लेटें सी उठाईं और उन्हें हिलाया -डुलाया....उन में सी बडी़ सुरीली सी आवाज़े छन-छना-छन- छन आ रही थीं..................मैं तो बस यही प्रार्थना मन ही मन किये जा रहा था कि कहीं मेरे रिज़ल्ट कार्ड पर कालिख ही न पुत जाये। क्योंकि दुकानदार के हाथ भी इस स्याही वगैरह की वजह से काले पड़े हुये थे। लेकिन अभी कहां, अभी तो टाइम लग रहा था....शायद फोटोस्टैट की दो कापियां करने में 3-4मिनट भी लग गये थे.। और हां, एक कापी करवाने के उन दिनों दो रूपये लगते थे....लेकिन यह कमबख्त दो रूपये उस रोमांच के आगे तो कुछ भी नहीं थे !!

लेकिन आज सोचता हूं कि उस मशीन को देख कर यही लग रहा जैसे कि वह दुकानदार न हो कर, इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गेनाइज़ेशन का कोई वरिष्ट साइंटिंस्ट है जो स्टूल पर चढ़ कर अभी कोई सैटेलाइट को स्पेस में लांच करने की तैयारी में है। लेकिन जो भी यह फोटोस्टैट का पहला एक्सपीरीयैंस बेहद रोमांचक था। पोस्ट लंबी हो रही है, इसलिए किसी अगली पोस्ट में लिखूंगा कि आने वाले सालों में इस फोटोस्टैट कागजों ने मेरी लाइफ में क्या क्या गुल खिलाये हैं।

मंगलवार, 4 मार्च 2008

लेकिन इस परी के पंख काटने से तुझे क्या मिला ?


कल शाम के वक्त मैं रोहतक स्टेशन पर पानीपत की गाड़ी में इस के चलने की इंतज़ार कर रहा था। इतने में मेरी नज़र पड़ी सामने वाले प्लेटफार्म पर....वहां पर एक छोटी-सी बहुत प्यारी नन्ही मुन्नी परी जैसी एक लड़की (3-4साल की होगी)......खूब चहक रही थी। हां, बिल्कुल वैसे ही जैसे इस उम्र में बच्चे होते हैं...बिल्कुल बिनदास, मस्तमौला टाइप के। मुझे उसे देख कर अच्छा लग रहा था।
वह अपने पिता के इर्द-गिर्द उछल कूद मचाये जा रही थी जो कि लगातार मोबाइल फोन पर बातें करने में मशगूल था। लेकिन वह नन्हीं मुन्नी बच्ची खूब मज़े कर रही थी। कभी पापा की पैंट खींचती, कभी मम्मी के पीछे जा कर खड़ी हो जाती, कभी इधर देखती , कभी उधर देखती। लेकिन यह क्या .........किसे पता था कि उस की इस नटखट दुनिया को इतनी जल्दी नज़र लग जायेगी।
हुया यूं कि उस की मां या बाप को बार-बार उसे थोड़ा रोकना पड़ रहा था....डैडी तो ज्यादातर फोन पर बतियाने में ही मशगूल था लेकिन मम्मी से शायद अब और सहन नहीं हो रहा था...............क्या यह कह दूं कि बच्ची की खुशियां देखी नहीं जा रही थीं...................वह झट से उठी और पास ही खड़े रेलवे पुलिस के तीन चार जवानों के पास उसे ले गई। अब मैं कुछ सुन तो सकता नहीं था लेकिन मैं उस औरत के आव-भाव से अनुमान ज़रूर लगा सकता था कि वह उस परी को डराने धमकाने के लिये ही उन के पास ले गई थी। बस , अगले ही पल उस नन्ही परी ने खूब ज़ोर ज़ोर से रोना शुरू कर दिया और डर कर, सहम कर बेहद लाचारी से मैं की बगल में बैठ कर दिल्ली वाली गाड़ी का इंतज़ार करने लग गई।
उस की लाचारी ने मुझे यही सोचने पर मजबूर किया कि आखिर उस महिला को इस परी के पंख काटने से क्या हासिल हुया ...........ऐसा करने से उस ने अनजाने में ही उस बच्ची के मन में पुलिस के खौफ़ का बीज बो दिया और जब आने वाले समय में यह अपनी जड़ें पक्की कर के एक भीमकाय पेड़ की शक्ल हासिल कर लेगा तो हम लोग ही यही लकीर पीटेंगे कि पुलिस को अपनी छवि सुधारनी होगी।
खैर, जो भी हो उस परी के दुःख को देख मैं भी थोड़ा तो पिघल ही गया और लगा सोचने कि क्या हम लोग अपने बच्चों के भी आये दिन ये पंख पता नहीं कितनी बार काटते हैं और उन की कल्पना शक्ति को संकुचित किये जाते हैं।

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2008

यह रही मेरी तीस साल पुरानी कालेज की नोटबुक...




अचानक मुझे ध्यान आया है कि आज मैं अपने कालेज के दिनों की नोटबुक अपनी पोस्ट पर डालूं….यह नोटबुक 1978 की है जैसा कि आप इस में लिखी तारीख से जान ही गये होंगे। तब मैं डीएवी कालेज अमृतसर में प्री-यूनिवर्सिटी (मैडीकल) का विद्यार्थी था। बस कालेज के दिनों की एक अदद यही याद बची हुई है। लेकिन ऐसी नोटबुक मैं हर विषय की बनाया करता था…..हर विषय(फिजिक्स , कैमिस्ट्री, बायोलाजी, इंगलिश) की बनाया करता था। हर विषय की कईं कईं नोटबुक्स तैयार हो जाया करती थी।

आज सोच रहा हूं कि हम दिल से पढ़ते थे…जिस का परिणाम इस कालेज के मैगजीन की इस फोटो में आप देख रहे हैं.।कालेज से आते ही बस यही जल्दबाजी होती थी कि आज के नोट्स आज ही बनाने हैं…सो, बस खाना खाने के बाद रेडियो लगा कर लग जाता था काम करने…ताकि शाम के समय खेलने का समय भी मिल सके। बड़े अच्छे दिन थे…..पर पता नहीं इतने जल्दी बीत गये हैं।

हर विषय के नोट्स बनाने का फायदा यह होता था कि रोज़ का काम एक तो रोज़ ही रीवाइज़ हो जाता था और ऊपर से लिखने की प्रैक्टिस हो जाया करती थी। इन नोट्स को बनाने में मैं अपने कालेज के प्रोफैसरर्ज़ के क्लास नोट्स और किसी एक-दो किताबों की मदद भी ले लिया करता था। बस, यह नोट्स फाइनल ही हुया करते थे….पेपर के दिनों में इधर उधर कहीं भी माथा-पच्ची करने की कोई ज़रूरत ही नहीं होती थी। बस इन्हें अच्छी तरह से रिवाइज़ करना ही काफी होता था।

लेकिन आज कल के बच्चों का रूझान कभी भी नोट्स बनाने की तरफ दिखा नहीं ….ऐसा है ना टाइम तो फिक्स ही है, या तो बीसियों चैनलों की सर्फिंग कर लें, दो-तीन ट्यूशनों से जब तक हो कर आते हैं थक कर टूट चुके होते हैं। यह मेरा बहुत ही पक्का विश्वास है कि इन टयूशनों ने तो हमारी शिक्षा-प्रणाली का बेड़ा ही गर्क कर लिया है। लिखने की तो इन को प्रैक्टिस रही नहीं है।

अच्छा , मुझे पता एक-दो दिन से ये नये ऩये आइडियाज़ कहां से आ रहे हैं…मुझे लगता है यह मैडीटेशन का करिश्मा है जिसे मैंने पुनः नियमति तौर पर रोज़ाना करना शुरू कर दिया है। अब मन की स्लेट रोजाना साफ होगी तो ही मैं अपनी इस स्लेट पर कुछ नया लिखने में कामयाब होऊंगा……आशीर्वाद दें कि यह सिलसिला इस तरह ही चलता रहे।

कृपया नोट करें कि मैं अभी ये फोटो-वोटो अप-लोड करने में अनाडी हूं...फोटो तो और भी बहुत डालने वाली हैं ,कुछ ज़रूरी टिप्स बतलायेंगे तो मैं आभारी हूंगा।

शनिवार, 26 जनवरी 2008

बचपन के दिन भुला न देना.......!!




दोस्तो, अगर आप को कहीं पीछे छूट चुके बचपन की एक हल्की सी झलक देखने की तड़फ है, तो ही इस बलोग को देखिए.....वरना, आप जो काम कर रहे हैं, प्लीज़ कैरी ऑन।

हुया यों कि दोस्तो, आज अभी कुछ समय पहले जब गणतंत्र दिवस की गतिविधियों से फारिग हो कर रिफ्रैशमैंट ले रहे थे तो मेरा बेटा वहां हाथ में एक गुलेल ले कर अंदर आया जो उस ने बाहर खड़े किसे खिलौने वाले से अभी अभी खरीदी थी। आप को भी याद आ गया न----कुछ कुछ अपना इस गुलेल से रिश्ता। दोस्तो, वह गुलेल क्या अंदर लाया, यार, मैं तो सीधे 30साल पुराने ज़माने में पहुंच गया। वो भी क्या दिन थे......इतनी अच्छी रैडीमेड गुलेलें भी तब कहां मिलती थीं। मेरे साथ बैठे एक साथी भी गुज़रे ज़माने में पहुंच गए.....वो भी याद करने लगे कि हम तो भई किसी साइकिल के टायर की फटी हुई टयूब से ही इसे बना लिया करते थे...और फिर उसी ट्यूब के टुकड़े से ही उस को उस विशेष किस्म की लकड़ी से कस से बांधना भी होता था........और हां, मैंने कहा कि वह Y – शेप की लकड़ी ढूंढना भी कौन सा आसान काम था। साथ में बैठे एक अन्य सज्जन ने भी यह कह कर अपनी सारी यादें ताज़ा कर लीं कि बस इस के साथ साथ कुछ छोटे-छोटे पत्थरों से लैस होकर फिर होती थी अपनी आधे कच्चे-आधे पक्के आम पेड़ों से गिरा कर नमक के साथ खाने वाले अभियान की तैयारी। मुझे तो याद आया कि मैं तो भई इस के साथ इमली के बीजों को ही इस्तेमाल करता था। लेकिन इस गुलेल को हाथ में उठाने का मतलब होता था कि बस घर के हर बंदे से झिड़कियां खाने का सिलसिला शुरू हो जाना।

बात यह भी सोलह आने सच है कि तब इस शेप की लकड़ीयां इतनी तादाद में कहां मिलती थीं...इसलिए अमृतसर में एक जंगली पौधा होता है जिसे हम पंजाबी में अक कहते हैं ( I am very sorry, friends, I don’t know what they say this in Hindi….I am awfully sorry for this !!)…..वह पौधा तो क्या उस की छोटी छोटी झाडियां टाइप ही हुया करतीं थीं जिन के ऊपर कुछ इस तरह के फल भी आते थे जिन से सफेद दूध टाइप का कुछ द्रव्य निकलता था, उस के पत्तों को लोग किसी फोड़े( abcess) को पकाने के लिए भी इस्तेमाल किया करते थे.......मुझे याद है मेरे से दस साल बड़ी बहन की छाती पर भी एक बार कुछ ऐसा ही हुया होगा ...वह दो-तीन दिन रोती रही थी, फिर मेरी मां ने इस पौधे का पत्ता ही गर्म कर के उस पर लगाया था, उस के आगे का कुछ याद नहीं....मैं तब 4-5 साल का रहा हूंगा।

और हां, दोस्तो, मैं भी किधर का किधर निकल गया। अच्छी भली गुलेल की बात हो रही थी। और तो और दोस्तो, जब कभी निशाना साधते हुए उस गुलेल की लकड़ी टूट जाती थी , तो मन बड़ा बेहद दुःखी होता था। कईं शरारती किस्म के लड़के तो छोटे-छोटे बच्चों को उलटी गुलेल सिखाने की हिदायत ही दे डालते थे।

दोस्तो, यह गुलेल तो एक बहाना ही साबित हुई हमें अपने कहीं दूर खो चुके बचपन की एक झलक देखने क्या। क्या यार वो भी क्या दिन थे.....कहां हो बचपन तुम......तुम यार बहुत जल्दी बीत जाते हो......एक तो समस्या यह है कि हमें अब समझ भी जल्दी ही आने लगी है। और मां-बाप को भी जल्दी पड़ी होती है कि जल्दी से जल्दी बच्चे को किसी बड़े से स्कूल में डाल कर अपना एक और स्टेटस सिंबल ऐड कर लें। पहले ऐसी जल्दी भी नहीं हुया करती थी.....बंदा घर में ही अपनी मां, चाची , ताई, दादी ,नानी, .....और ढेर सारा प्यार देने वाली पड़ोस की अपनी मां-जैसी ही लाडली दिखने वाली आंटियों से भी बहुत कुछ सीखता रहता था। अब किस के पास टाइम है......

और हां, बेटे ने गुलेल तो ले ली है, लेकिन अब चलानी कहां है, क्योंकि अपने सारे पेड़ पौधे काट काट कर तो हम अपने बेवकूफ होने के सारे सबूत बरसों से जुटा ही रहे हैं. अब गुलेल अगर महानगरों में इस्तेमाल होगी तो इमली की बजाए झगडे ही तो हाथ लगेंगे। और हां, इमली की बात से याद आ गया कि दो दिन पहले नीरज जी द्वारा अपनी प्यारी पोती मिष्टी के जन्मदिन के उपलक्ष्य में लिखी पोस्ट बेहतरीन थी....शायद ही किसी दादू ने अपनी पोती को इतना बेहतरीन तोहफा पहले दिया हो...पोस्ट का नाम था.....हसरतों की इमलियां.........अगर अभी तक नहीं पढ़ी है तो जरूर पढ़ना, दोस्तो।

दोस्तो, मैं कुछ ज्यादा ही अपनी बात खींच तो नहीं गया ....कोई बात नहीं दोस्तो बचपन में घूमते हुए कहां हम लोग अपने आप को शब्दों अथवा टाईम के बंधन में बाँध पाते हैं। लेकिन मैंने आप को अगर इस पोस्ट की तरफ बुला कर डिस्टर्ब किया है तो दोस्तो मैं हाथ जोड़ कर आप से माफी मांगता हूं। वैसे दोस्तो मैंने तो इस ब्लाग—मेरी स्लेट—के उदघाटन समारोह में ही यह घोषणा कर दी थी कि इस ब्लोग पर... अपनी स्लेट... पर मैं जम कर मस्ती करूंगा....क्योंकि मुझे कैसे भी किसी भी कीमत पर अपना बचपन दोबारा जीना है......आप क्या सोच रहे हैं, आप भी कुछ सुनाइए.........देखना, आपस में बात करेंगे तो कितना मज़ा आएगा।

बचपन के दिन भूला न देना,.....एक गाना है न ऐसा ही कुछ, अच्छा लगता है।

शनिवार, 22 दिसंबर 2007

लिफ्ट प्लीज़..............

नहीं साहब, आप ने लगता है गलत अंदाज़ा लगा लिया - मुझे लिफ्ट मांगने वालों से तो न कभी कोई शिकायत है और न ही कभी ज़िंदगी में होगी। दोस्तो, मेरे तो शिकायत के पात्र हैं मेरे वह बंधु लोग जो लिफ्ट वाले की विनम्रता को नज़र-अंदाज़ कर के बिना परवाह किए आगे बढ़ जाते हैं। शायद इस का अंदाज़ा वह बंदा कभी लगा ही नहीं सकता जिस ने कभी खुद लिफ्ट न मांगी हो। दोस्तो, यह ब्लाग भी गज़ब की चीज़ है यारो, पता नहीं अपने बारे में कोई भी अच्छी बात कहते हुए अच्छी खासी हिचकिचाहट होती है। यह बात होने नहीं चाहिए, जाते जाते जायेगी। लेकिन सच्चाई ब्यां करना भी अपना फर्ज़ ही समझता हूं ----तो, दोस्तो जब भी मैं स्कूटर, मोटर-साइकल पर जा रहा होता हूं तो मैंने आज तक कभी भी किसी खुदा के बंदे को लिफ्ट देने से इंकार न ही तो किया है और न ही कभी करूंगा। यार, हम केवल आम बंदे के ऊपर ही शक करते जाएंगे--पता नहीं बंदा कैसा होगा, क्या हो जाएगा। क्या हमें यह तो नहीं लगता कि यह बंदा शायद कोई आत्मघाती हमलावर ही हो....आप भी इत्मीनान रखिए, दोस्तो, कुछ न होगा----कुछ भी मांगना (फिर वह चाहे लिफ्ट ही क्यों न हो ) क्या आप को नहीं लगता अच्छा खासा मुश्किल काम है, तो फिर उस खड़े बंदे के स्वाभिमान को एक छोटी सी बात के लिए क्यों आहत करें। किसी स्कूल के बाहर खड़े बच्चे में अथवा किसी चौराहे पर लिफ्ट मांग रहे स्टूडैंट में हमें अपने बेटे एवं छोटे भाई की तसवीर क्यों नहीं दिखती। हर बात के पीछे कोई तो कारण होता है, तो वह कारण भी आप से बांटना जरूरी हो गया है। दोस्तो, जब मैं पांचवी कक्षा में पढ़ता था तो एक-दो बार शिखर-दोपहरी में हमारे ही स्कूल एक मास्टर जी ने बीच रास्ते में अपने आप ही अपने साइकिल पर मुझे बुला कर लिफ्ट दी थी---मुझे बहुत अच्छा लगा था। हमारे स्कूल के यह मास्टर जी हमारे मोहल्ले में ही रहते थे----बस, बचपन की इन छोटी छोटी बातों से ही पता नहीं कितनी मजबूत मंज़िलों की नींवे पड़ जाती हैं, दोस्तो।

ले दे कर फक्त एक नज़र ही तो हमारे पास,
क्यों देखे दुनिया को किसी और की नज़र से ..