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शनिवार, 30 जुलाई 2011

सेहत खराब करने वाली दवाईयां आखिर बिकती ही क्यों हैं?

परसों मेरा एक मित्र मुझ से पूछने लगा कि वज़न बढ़ाने के लिये ये जो फूड-सप्लीमैंट्स आते हैं इन्हें खा लेने में आखिर दिक्तत है क्या। मैंने कहा कि लगभग इन सब में कुछ ऐसे प्रतिबंधित दवाईयां –स्टीरॉयड आदि – होते हैं जो कि सेहत के लिये बहुत नुकसानदायक हैं। अच्छा, आगे उस ने कहा कि यह जो जिम-विम वाले हैं वे तो कहते हैं कि जो डिब्बे वो बेच रहे हैं, वे बिल्कुल ठीक हैं। बात वही है कि अगर उन्होंने इन डिब्बों को आठ-नौ सौ रूपये में बेचना है तो इतना सा आश्वासन देने में उन का क्या जाता है, कौन सा ग्राहक इन की टैस्टिंग करवाने लगा है, और सच बात तो यह है कि किसी को पता भी तो नहीं कि यह टैस्टिंग हो कहां पर सकती है।

पिछले सप्ताह अस्पताल में एक युवक मेरे से कोई दवाई लेने आया ...अच्छा, अब पता झट चल जाता है कि सेहत का राज़ क्या है, शारीरिक व्यायाम, पौष्टिक आहार या फिर वही डिब्बे वाला सप्लीमेंट से डोले-शोले बना रखे हैं ....मुझे लगा कि यह डिब्बों वाला केस है ...मेरे पूछने पर उस ने बताया कि सर, दो महीने डिब्बे खाये हैं, पहले महीने तो मुझे अपने आप में लगा कि मुझ में नई स्फूर्ति का संचार हो रहा है तो दूसरे महीने मुझे देख कर लोगों ने कहना शुरू कर दिया। आगे पूछने लगा कि सर, क्या आप अपने बेटे को ये सप्लीमैंट्स खिलाने के लिये पूछ रहे हैं.....उस के बाद मुझे इन सप्लीमैंट्स की सारी पोल खोलनी पड़ी।

हां, तो मैं उस मित्र की बात कर रहा था जो कह रहा था कि जिम संचालक तो कहते हैं कुछ नहीं इन में सिवाए बॉडी को फिट रखने वाले तत्वों के ......लेकिन जो बात उस ने आगे की, मुझे वह सुन कर बहुत शर्म आई क्योंकि मेरे पास उस की बात का कोई जवाब नहीं था।

हां, जानिए उस मित्र ने क्या पूछा....उस ने कहा ..डाक्टर साहब, मैं आप के पास आया हूं, आप ने बता दिया और मैंने मान लिया ...लेकिन उन हज़ारों युवकों का क्या होगा जो ये सप्लीमैंट्स खाए जा रहे हैं.... उस ने यह भी कहा कि इन डिब्बों पर तो स्टीरायड नामक प्रतिबंधित दवाईयों के उस पावडर में डाले जाने की बात कही नहीं होती।

अब इस का मैं क्या जवाब देता ? – बस, यूं ही यह कह कर कि कोई कुछ भी कहें, इन में कुछ प्रतिबंधित दवाईयां तो होती ही हैं जो शरीर के लिये नुकसानदायक होती हैं। लेकिन उस का प्रश्न अपनी जगह टिका था कि अगर ये नुकसानदायक हैं तो फिर ये सरे-आम बिकती क्यों हैं, अब इस का जवाब मैं जानते हुए भी उसे क्या देता!! बस, किसी तरह यह बात कह कर इस विषय को चटाई के नीच सरका दिया कि लोगों की अवेयरनेस से ही सारी उम्मीद है। लेकिन उस बंदे के सारे प्रश्न बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करने वाले हैं।

परसों उस मित्र से होने वाली इस बातचीत का यकायक ध्यान इसलिए आ गया क्योंकि कल मैंने अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन की साइट पर एक पब्लिक के लिये नोटिस देखा जिस में उन्होंने जनता को आगाह किया था एक गर्भनिरोधक दवाई न लें क्योंकि वह नकली हो सकती है, इस से नुकसान हो सकता है.....यह उस तरह की दवाई थी जो एमरजैंसी गर्भनिरोधक के तौर पर महिलाओं द्वारा खाई जाती है.....असुरक्षित संभोग के बाद (unprotected sex) ….. वैसे तो अब इस तरह की दवाईयों के विज्ञापन भारतीय मीडिया में भी खूब दिखने लगे हैं....इन की गुणवत्ता पर मैं की प्रश्नचिंह नहीं लगा रहा हूं लेकिन फिर भी कुछ मुद्दे अब महिला रोग विशेषज्ञ संगठनों ने इन के इस्तेमाल से संबंधित उठाने शुरू कर दिये हैं।

सौजन्य .. फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन
पहला तो यह कि कुछ महिलाओं ने इसे रूटीन के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है ... दंपति यह समझने लगे हैं कि यह भी गर्भनिरोध का एक दूसरा उपाय है....लेकिन नहीं, यह एमरजैंसी शब्द जो इन के साथ लगा है यह बहुत ज़रूरी शब्द है. वरना रूटीन इस्तेमाल के लिये अगर इसे गर्भनिरोधक गोलियों (माला आदि) की जगह इसे इस्तेमाल किया जाने लगेगा तो अनर्थ हो जाएगा, महिलाओं की सेहत के ऊपर बुरा असर – after all, these are hormonal preparations-- और दूसरी बात यह कि लोगों को यह गलतफहमी है कि इस तरह का एमरजैंसी गर्भनिरोधक लेने से यौन-संचारित रोगों की चिंता से भी मुक्ति मिलती है, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है।

हम भी कहां के कहां निकल गये ....वापिस लौटते हैं उस अमेरिकी एफडीआई की चेतावनी की तरह जिस में उन्होंने एक ऐसे ही प्रोडक्ट की फोटो अपनी वेबसाइट पर डाल दी है ताकि समझने वाले समझ सकें, लेकिन मेरी भी तमन्ना है कि जो किसी भी नागरिक के लिये खराब है ...पहली बात है वो कैमिस्टों की दुकानों पर बिके ही क्यों और दूसरी यह कि क्यों न अखबारों में, चैनलों पर इन के बारे में जनता को निरंतर सूचित किया जाए ..........आखिर चैनल हमें प्रवचनों की हैवी डोज़ या फिर सास-बहू के षड़यंत्र दिखाने-सिखाने के लिए ही तो नहीं बने....सामाजिक सरोकार तो भी कोई चीज़ है। कोई मेरी बात सुन रहा है या मैं यूं ही चीखे जा रहा हूं?

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सप्लीमैंट्स से सावधान

सोमवार, 11 जुलाई 2011

ताकत के कैप्सूल की पाठशाला ...

कल हिंदी की एक अखबार में मुझे "ताकत के कैप्सूल" का एक विज्ञापन दिख गया ... उसे ध्यान से पढ़ते-देखते हुये मैं यही सोच रहा था कि जितनी मेहनत ये कंपनियों वाले इस तरह के कैप्सूल आम जन को बिना सोचे-समझे गटकने के लिये विवश करने के लिये करते हैं .....इन के विज्ञापनों की साज सज्जा, शैली, भाषा ...एकदम परफैक्ट। अगर मरीज़ों को अपने स्तर पर कुछ निर्णय लेने के लिये प्रेरित करने की बात है तो हमारी चिकित्सा व्यवस्था को भी इन के तौर-तरीकों से कुछ सीखने की ज़रूरत है। यह रंगीन विज्ञापन था जिसे एक कॉमिकस की तरह पेश किया गया था।

उस विज्ञापन में जो कुछ लिखा था, यहां बताना चाहूंगा .... उस की स्कैन्ड कॉपी अपरिहार्य कारणों से यहां चिपकाने में असमर्थ हूं। एक बंदा बाज़ार में घूम रहा है ..तो अचानक उसे एक केन्द्र का बोर्ड दिख जाता है....यह केन्द्र कोई और केन्द्र-वेन्द्र नहीं है, बस उस कैप्सूल के नाम के आगे केन्द्र लिख दिया गया है..... और आगे सुनिये ...
---अरे, .....केन्द्र। इस के बारे में थोड़ी जानकारी ले लेता हूं।
-- वह बंदा अदंर जाता है और एक सफेद कोट धारण हुये बंदे से उस कैप्सूल का नाम लेकर पूछता है .... यह क्या है?
कंपनी वाला -- यह भारत का नंबर 1 दैनिक स्वास्थ्य पूरक है जिसमें 11 विटामिन, 9 मिनरल और जिनसेंग का संतुलित मिश्रण है।
जिज्ञासु - अरे वाह! इसके क्या फ़ायदे हैं?इसे दैनिक स्वास्थ्य पूरक क्यों कहते हैं?
कंपनी वाला- यह शरीर में ऐसे पौष्टिक तत्वों की भरपाई करता है जिनकी कमी के कारण थकान, कमज़ोरी और शरीर टूटने लगता है। इस तरह से यह आपको सारा दिन चुस्त और तन्दरूस्त रखता है। इस का सेवन रोज़ करना चाहिए, इसलिेए इसे दैनिक स्वास्थ्य पूरक कहते हैं।
जिज्ञासु - अच्छा!
कंपनी वाला - यही नहीं, यह मानसिक चेतना और एकाग्रता भी बढ़ाता है। इस से रोगरोधी क्षमता मज़बूत होती है। यह विटामिन और मिनरल की भरपाई करता है और अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखने में मदद करता है।
जिज्ञासु - मैं घर का बना नियमित आहार लेता हूं, क्या तब भी यह कैप्सूल लेना चाहिए ?
कंपनी वाला - यह कैप्सूल कुछ ऐसे ज़रूरी विटामिन और मिनरल की पूर्ति करता है जो नियमित आहार लेने के बाद भी हमारे शरीर को नहीं मिल पाते।
जिज्ञासु - यह कैप्सूल कौन ले सकता है?
कंपनी वाला -- 12 वर्ष से अधिक आयु के पुरूष इस का सेवन कर सकते हैं। यही नहीं अब तो महिलाओं के लिए खास कैप्सूल वुमन और 50 वर्ष से अधिक आयु वर्ग के लिए ...सीनियर भी उपलब्ध है। यह कैप्सूल अत्यंत व्यस्त जीवनशैली और शारीरिक अथवा मानसिक तौर पर थका देने वाले हालात में काम करने वालों के लिए अति उत्तम है।
जिज्ञासु - धन्यवाद.. ..कैप्सूल एक्सपर्ट, मैं आज से ही इस कैप्सूल का नियमित सेवन करूंगा।

और इस बढ़िया से विज्ञापन से नीचे लिखा है -- तो आप यह कैप्सूल लेना कब से शुरू कर रहे हैं? और इस कैप्सूल विशेषज्ञ के लिये टॉल फ्री नं ......या एसटीडी नंबर ..... पर कॉल करें या ......इस नंबर ....पर SMSकेरं या e-mailकरें इस पते पर ....और तो और साथ ही net-savvy ग्राहकों के लिए इस कैप्सूल के फेसबुक पेज़ का पता भी दिया गया है। और सब से नीचे लिखा गया है कि इस कैप्सूल से संबंधित ज्ञान को अगले तीन हफ़तों तक रविवारीय संस्करण के माध्यम से बटोरें और फिर 31 जुलाई के अंक में इस कैप्सूल पर आधारित सवालों का जवाब भेजें और जीतें ढेर सारे आकर्षक इनाम।

साइड में एक अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी की फोटू भी लगी है जिस ने इन कैप्सूलों को पकड़ा हुआ है --- मुझे लगता है कि वह तो इन्हें खाता नहीं होगा, और असल में उसे इतनी युवावस्था में इन्हें लेने की ज़रूरत पड़ती है तो किसी चिकित्सक से मिल लेना उस के लिये हितकारी होगा। हां, तो बताइए, इस तरह का विज्ञापन देख कर है कोई जो इन के चक्कर में पड़ने से बच पाए।

और जिज्ञासु की बात सुनी आपने - वह बेचारा इसी गम में दुबला हुआ जा रहा है कि वह घर का खाना खाता है ----और क्या खाएगा, भाई। और किस तरह से कंपनी वाले द्वारा उस का ब्रेन-वॉश किया जा रहा है कि घर में तो तुम कुछ भी खा लो, तुम्हें कुछ न कुछ कमी तो रह ही जाएगी, थकान भी होगी और कमज़ोरी भी लगेगी।

लेकिन इस तरह के कैप्सूलों के बारे में सच्चाई यह है कि बिना किसी शारीरिक बीमारी के और बिना किसी डाक्टरी परामर्श के इस तरह के कैप्सूल स्वयं भी लेने शुरू कर देना बिल्कुल बेकार सी बात है। हां, चिकित्सक कुछ अवधि तक किसी पुरानी बीमारी आदि में विटामन आदि के कैप्सूल लेने की सलाह दे सकते हैं.... वो अलग बात है। एक बात पढ़ कर तो और भी अजीब लगा कि इसे 12 वर्ष से अधिक आयु के पुरूष ले सकते हैं ...... यह पढ़ते हुये यही लग रहा था कि कंपनी को क्या फ़र्क पड़ेगा --- चाहे तो कोई नवजात् शिशु को दलिेये, खिचड़ी के साथ मिला के ही देने की हिमाकत कर दे।

कंपनी का सीधा सीधा फंडा है कि उस के कैप्सूल बिकने चाहिएं ...और खूब बिकने चाहिएं। काश, चिकित्सा व्यवस्था इन कंपनियों की अपनी दवाईयां बेचने की शिद्धत से कुछ पाठ सीख सकें ....ताकि वे भी अपने सेहत से जुड़े बेशकीमती संदेश करोड़ों लोगों तक और भी प्रभावपूर्ण ढंग से बेच पाएं।

रविवार, 1 मई 2011

पतला करने वाले हर्बल जुगाड़..सावधान !

काफी समय से यह खबरें तो सुनने में आ ही रही हैं कि कुछ हर्बल दवाईयों में, या कुछ देसी दवाईयों में एलोपैथिक दवाईयों को डाल दिया जाता है जिस के बारे में पब्लिक को कुछ बताया नहीं जाता। इस का परिणाम यह होता है कि उस दवाई से कुछ अप्रत्याशित परिणाम निकलने से लोगों को नुकसान हो जाता है। इस पर मैंने पहले भी बहुत से लेख लिखे हैं।

अभी मैं बीबीसी की साइट पर यह न्यूज़-स्टोरी देख रहा था कि किस तरह से यूरोपीयन देशों में हर्बल दवाईयों पर शिकंजा कसा जा रहा है। अनेकों दवाईयां ऐसी बिक रही हैं जिन की प्रामाणिकता, जिन की सेफ्टी प्रोफाइल के बारे में कुछ पता ही नहीं ...इसलिये वहां पर कानून बहुत कड़े हो गये हैं।
New EU regulations on herbal medicines come into force....(BBC Health)

लेकिन भारत में क्या है, देसी दवाईयों की तो वैसे ही भरमार है, लेकिन जगह जगह पर मोटापा कम करने वाले कैप्सूल, हर्बल दवाईयों के इश्तिहार चटका कर भोली भाली जनता को बेवकूफ़ बनाया जा रहा है।

आज सुबह मैं टीवी पर देख रहा था कि एक हर्बल चाय का विज्ञापन दिखाया जा रहा था ... दो महीने के लिये 2000 रूपये  का कोर्स –मोटापा घटाने के लिये इसे रोज़ाना कईं बार पीने की सलाह दी जा रही थी। और विज्ञापन इतना लुभावना की मोटापे से परेशान कोई भी शख्स कर्ज़ लेकर भी इस खरीदने के लिये तैयार हो जाये।

मैं उस विज्ञापन को देखता रहा –बाद में जब उस में मौजूद पदार्थों की बात आई तो बहुत बढ़िया बढ़िया नाम गिना दिये गये ..जिन्हें सुन कर कोई भी प्रभावित हो जाए... और साथ में इस चाय में चीनी हर्बल औषधियों के डाले जाने की भी बात कही गई।

इस तरह के हर्बल प्रोडक्ट्स से अगर विकसित देशों के पढ़े लिखे लोग बच नही पाये तो इस देश में किसी को कुछ भी बेचना क्या मुश्किल काम है?
वजन कम करने वाली दवाईयों के बारे में चेतावनी 

बात केवल इतनी सोचने वाली है कि ऐसा क्या फार्मूला कंपनियों के हाथ लग गया कि इन्होंने एक चाय ही ऐसा बना डाली जिस से इतना वज़न कम हो जाता हो......मेरी खोजी पत्रकार जैसी सोच तो यही कहती है कि कुछ न कुछ तो लफड़ा तो होता ही होगा.....अगर सब कुछ हर्बल-वर्बल ही है तो इस देश में इतने महान् आयुर्वैदिक विशेषज्ञ हैं, वे क्यों इन के बारे में नहीं बोलते ....क्यों यह फार्मूला अभी तक रहस्य ही बना हुआ है?

पीछे भी कुछ रिपोर्टें आईं थीं कि मोटापे कम करने वाले कुछ उत्पादों में कुछ ऐसी एलोपैथिक दवाईयों की मिलावट पाई गई जिस से भयंकर शारीरिक परेशानियां इन्हें खाने वालों में हो गईं........तो फिर इस से सीख यही लें कि ऐसे ही हर्बल वर्बल का लेबल देख कर किसी तरह के झांसे में आने से पहले कम से कम किसी की सलाह ले लें, और अगर हो सके तो ऐसी हर्बल दवाई की लैब में जांच करवा लें, लेकिन क्या ऐसी जांच वांच करवाना सब के वश की बात है!!

रविवार, 13 मार्च 2011

प्रो-बॉयोटिक्स ड्रिंक्स में ऐसा क्या है जो दही में नहीं !

आज शाम को मैं एक शापिंग माल गया हुआ था...वहां मैंने देखा कि एक खूब लंबी शेल्फ प्रो-बॉयोटिक की छोटी छोटी बोतलों से सजी पड़ी थी। मैंने देखा कि यह 65 मि.ली की पांच बोतलों के पैक हैं....दस रूपये की एक बोतल और पांच बोतलें पचास रूपये की... खुली नहीं मिलती, पूरा पैकेट लेना ही होगा। ब्रांड का नाम तो चाहे कोई जापानी सा ही था लेकिन तैयार कहीं यहीं दिल्ली विल्ली के पास ही हुआ था .....वैसे भी उस पर Fermented Milk Drink लिखा हुआ था और साथ में प्रो-बॉयोटिक की प्रशंसा के पुल बांधे गये थे।

और यह भी लिखा गया था कि अच्छी सेहत के लिये इसे रोज़ाना इस्तेमाल किया करें ...एक्सपॉयरी तारीख तैयार होने के छःमहीने तक थी। मैं इसी सोच में पड़ गया कि यार, सुबह का दही तो इस देश में शाम को लोगों के हलक से नीचे नहीं उतरता कि यह खट्टा है, यह पुराना है, यह वो और यह वो ...... लेकिन अब जापानी नाम वाले ब्रांड हमें यह पतले दही जैसा पेय भी छः छः महीने पुराना खिला के छोड़ेंगे !!

बड़ी बड़ी अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां इन प्रो-बॉयोटिक प्रोडक्ट्स की तारीफ़ों के जितने भी पुल बांध लें, लेकिन हिंदोस्तानी दही इन सब से कईं गुणा बेहतर है।

प्रो-बॉयोटिक ड्रिंक्स में कुछ ऐसे जीवाणु होते हैं जो हमारे पेट एवं आंतड़ियों के स्वास्थ्य के लिये बहुत लाभदायक होते हैं, इन्हें लैक्टोबैसिलाई (Lactobacilli) कहा जाता है, वैसे तो ये हमारे पाचन-तंत्र अर्थात् आंतड़ियों में हमेशा उपलब्ध रहते हैं और भोजन को पचाने में सहयोग देते हैं लेकिन कईं बार शरीर में कुछ रोगों की वजह से अथवा कुछ दवाईयों के कारण इस तरह के लाभदायक जीवाणु नष्ट हो जाते हैं जिस की वजह से इन्हें बाहर से दिया जाना होता है। अधिकतर केसों में इस तरह की कमी रोज़ाना दही का इस्तेमाल करने से पूरी हो जाती है लेकिन बहुत कम बार ऐसा भी होता है कि फिज़िशियन इस तरह के जीवाणुओं को कैप्सूल के रूप में भी चंद दिनों के लिये लेने की सलाह देते हैं....लेकिन यह बहुत कम ही होता है।

अकसर पेट-वेट खराब होने पर आप के फैमली डाक्टर भी आप को दही भात, खिचड़ी दही, दही केला आदि ही लेने की सलाह देते हैं, और लोग ये सब खाने से एक दम फिट हो जाते हैं।

ऐसे में इन प्रो-बॉयोटिक ड्रिंक्स के चक्कर में पड़ने से क्या होगा ! --- कुछ भी नहीं होगा, अगर आप रोज़ाना दही लेते हैं तो इन सब के चक्कर में पडने की कोई ज़रूरत है नहीं। और अगर दही वही नहीं लेते तो फिर उस कमी को पूरा करने के लिये बहुत से प्रयास करने पड़ सकते हैं।

इस प्रो-बॉयोटिक ड्रिंक पर यह तो लिखा ही गया था – fermented milk product .. फर्मैंट से मतलब वही जामन लगा कर खमीर करने वाली बात, और इस के लिये स्किमड् मिल्क (skimmed milk) के इस्तेमाल करने की बात की गई है --- जो भी हो, मुझे लगता है कि इस तरह के प्रोडक्ट्स साधारण दही का कहां मुकाबला कर पाते होंगे --- दही इतना संवेदनशील और सजीव कि तैयार होने के कुछ घंटों के बाद ही उस की प्रवृत्ति ही बदल जाती है लेकिन ये बाज़ारी प्रोडक्ट्स छः छः महीने तक ठीक रह सकते हैं, इन्हें तो पता नहीं कैसे हम लोग पचाएंगे, जबकि यह बात ही नहीं पच रही।

इसे छः छः महीने तक ठीक रखने के लिये कुछ तो प्रोसैसिंग होती ही होगी, कुछ तो अन्य कैमीकल इस्तेमाल होते ही होंगे ... शापिंग माल में दूसरे अन्य प्रोसैसेड फूड्स की क्या कमी थी कि उस में ये प्रो-बॉयोटिक ड्रिंक्स भी शामिल कर दिये गये हैं। इसलिये बिना वजह इन के चक्कर में न ही पड़ा जाए तो बेहतर होगा। जिस तरह से इस तरह की वस्तुओं की बिक्री को बढ़ावा देने के लिये विज्ञापन दनादन आते हैं लगता तो यही है कि ये कंपनियां भी अपने मंसूबों में देर-सवेर कामयाब हो ही जाएंगी।

दही की इतनी तारीफ़े तो कर डाली लेकिन इस बात का ध्यान रखना तो ज़रूरी है ही कि यह भी तो कहीं कैमिकल युक्त दूध से तो तैयार नहीं किया गया !

Further reading ---
An Introduction to Probiotics
एक प्रश्न जिस से मैं बहुत परेशान हूं 



शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

परमानैंट मेक-अप तकलीफ़ों का पिटारा लेकर आता है

कोई शारीरिक तकलीफ़ हो जाना एक बात है, और अपनी जीवनशैली अथवा तंबाकू, शराब, ड्रग्स को लेकर रोगों को बुलावा देना भी समझ में आता है लेकिन इस से भी आगे की स्थिति है कि रोगों को बुलावा ही नहीं, उन्हें खींच कर, घसीट कर  तरह तरह के परमानैंट मेक-अप के द्वारा अपने अच्छे-भले स्वस्थ शरीर में प्रवेश करवा के आफ़त मोल ली जाए।

कुछ दिन पहले ही मैं बात कर रहा था –टैटू के बारे में ..किस तरह से ये तरह तरह की बीमारियां फैलाने का काम कर रहे हैं और हाल ही में जर्मनी में इस के उपयोग में लाई जाने वाली स्याही के बारे में प्रकाश में आया कि यह कैंसर तक का कारण बन सकती है।

एक आफ़त का आज और पता चला – आज से पहले मुझे इस परमानैंट मेक-अप नाम की बीमारी का नहीं पता था, अचानक आज मुझे यह समाचार दिख गया ...Tattoos as makeup? Read the fine print.  यह एक बहुत ही विश्वसनीय एवं लोकप्रिय न्यूज़-पेपर –न्यू-यार्क टाईम्स – में छपी है। मुझे कुछ कुछ आभास सा तो था कि कुछ कुछ गड़बड़ सी हो तो रही है परमानैंट मेक को लेकर लेकिन उम्मीद है कि यह न्यूज़ पढ़ने के बाद किसी की भी आंखें खुली की खुली रह जाएंगी.

मुझे डर जिस बात का लगता है वह यह है कि जब किसी विकसित एवं सम्पन्न दूर देश में ये सब खतरनाक किस्म के मेकअप पनप रहे हैं तो इसे भारत में आते देर नहीं लगेगी... मैंने पहले ही कहा है कि भारत में इन के चलन के बारे में मेरा ज्ञान ऐसा ही है, इसलिए यह बड़ी बात न होगी अगर बड़े महानगरीय शहरों में इस तरह के धंधे पहले ही से न चल रहे हों।

मैं यह पढ़ कर हैरान परेशान हूं कि किस तरह से लोग आंखों के परमानैंट मेकअप के लिये आई-लाईनर की जगह टैटू ही गुदवा लेते हैं, अपनी भौहों (eye brows) को बार बार शेप देने से झंझट से छुटकारा दिलाने के लिये भी टैटू की मदद ली जा रही है, होठों तक पर यह परमानैंट मेक-अप करवा लिया जाता है।

इस तरह के प्रसाधनों (cosmetic procedures) के कितने कितने भयंकर प्रभाव हैं यह जानने के लिये आप को न्यू-यार्क टाइम्स की स्टोरी पढ़नी होगी जिस का लिंक मैंने ऊपर दिया है। एचआईव्ही, हैपेटाइटिस, टीबी, कैंसर, भय़ंकर एलर्जिक रिएक्शन ..... अनेकों भयंकर रोग इस तरह का काम करवाने से हो सकते हैं।

और जब इस तरह के परमानैंट मेकअप को उतरवाने की बात आती है तो और भी बड़ा पंगा ... रिपोर्ट में एक ऐसे ही विशेषज्ञ के बारे में बताया गया है जो लेज़र-ट्रीटमैंट से इन्हें उतार तो देता है लेकिन एक मरीज़ में इस तरह के मेकअप को उतारने में एक वर्ष लग गया –छः बार उसे वहां जाना पड़ा और दस हज़ार यू-एस डालर उसे फीस देनी पड़ी।

यह पोस्ट केवल इस लिये है कि अगर कभी इस तरह के मेकअप भारत में प्रवेश कर भी जाएं ---यकीन मानिए ये अवश्य आएंगे – तो हम पहले ही से स्वयं भी सचेत रहें और दूसरों को भी सचेत करते रहें ताकि गलती से भी यह गलती न हो जाए।

वैसे भी जो रियल ब्यूटी है वह कहां इन सब धकोंसलों की मोहताज है ....अगर मन अच्छा है, विचार अच्छे हैं तो वह चेहरे पर झलक ही जाती है, इसलिये बाहरी रंग रूप बिल्कुल ही बेमानी है, रियल ब्यूटी अंदरूनी है, जो बाहर परिलक्षित होती है ....एक ईमानदार मुस्कान के रूप में, सब के साथ एक जैसे मृदु-स्वभाव के रूप में, प्यार-आदर-सत्कार से सभी के साथ पेश आने से, हर किसी के मर्म को समझने से.......लेकिन यह क्या मैं तो सुबह सुबह फलसफ़ा झाड़ने लगा, इसलिये समय है कलम को यहीं विराम दे दूं।

यहां उस गीत का लिंक देना चाहता था ...कागज़ के फूल... खुशबू कहां से आयेगी... लेकिन आधा घंटा यू-ट्यूब पर ढूंढने पर भी जब वह नहीं दिखा तो बचपन में सैंकड़ों बार सुना वह गीत दिख गया ... बात वह भी यही कह रहा है ... सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से, खुशबू आ नहीं सकती कागज़ के फूलों से .... बात कितनी सही है...वैसे यह पुरानी फिल्म दुश्मन का गीत है .. यह फिल्म मुझे बहुत पसंद है... वह सुपर डुपर गीत भी इसी का ही है ....एक दुश्मन जो दोस्तों से भी प्यारा है... अगर अभी तो नहीं देखी, तो ज़रूर देखियेगा... मानवीय संवेदनाओं को झकझोड़ने वाली फिल्म है !



गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

युवतियों के यौन-अंगों को विकृत करने का घोर निंदनीय रिवाज

मैं जब जिह्वा की, होठों की एवं नेवल-पियरसिंग के बारे में पढ़ता सुनता था तो अजीब सा लगता था क्योंकि इस तरह की बॉडी-पार्ट्स की पियरसिंग के अकसर कंप्लीकेशन्स होते ही हैं। मैंने बहुत अरसा पहले कुछ पढ़ा तो यह भी था कि कुछ आदिवासी क्षेत्रों में किस तरह से महिलायों के यौन-अंगों की वे लोग "तथाकथित सुरक्षा" करते हैं।

कल मैं विश्व स्वास्थ्य संगठन की साइट पर यौन-रोगों की एक फैक्ट-फाइल देख रहा था तो मुझे इस तरह की सामग्री के बारे में पढ़ कर बेहद दुःख हुआ कि दुनिया में कहीं कहीं इस तरह का घिनौना एवं अमानवीय रिवाज भी है जिस के अंतर्गत छोटी छोटी बच्चियों के यौन-अंगों को ही विकृत/बिगाड़ दिया जाता है।

Female genital Mutilation (महिलाओं के यौन-अंगों को विकृत करने से अभिप्रायः है कि महिलाओं के यौन अंगों को किसी भी मैडीकल कारण के बिना विकृत कर देना या उसे चोट पंहुचाना।



इस से बच्चियों में एवं महिलायों में तरह तरह की समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं जैसे कि भारी रक्त स्राव, पेशाब करते समय तकलीफ़ और बाद में शिशु के जन्म के समय में होने वाले रिस्की हालात और यहां तक कि नवजात शिशुओं की मौत। इस से तो बांझपन भी हो सकता है।

एक अनुमान के अनुसार विश्व भर में लगभग 10 करोड़ से 14 करोड़ लड़कियां एवं महिलायें बिना किसी दोष के अपने यौन अंगों के विकृत किये जाने के बुरे परिणाम भुगत रही हैं। और यह विकृत करने का घिनौना काम छोटी छोटी बच्चियों से लेकर 15 साल की उम्र तक किया जाता है। इस अमानवीय प्रथा को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लड़कियों एवं महिलायों के मानव अधिकारों को उल्लंघन माना गया है।

इस काम को अंजाम कौन देता है ? -- इसे पारंपरिक सुन्नत करने वालों (traditional circumcisers) द्वारा संपन्न किया जाता है। और अब तो इसे अधिकतर हैल्थ-केयर प्रोवाइडरों (यह तो नहीं लिखा हुआ कि ये कैसी सेहत देने वाले हैं!!) द्वारा ही किया जाता है।

The practice is most common in the western, eastern and north-eastern region of africa, in some countries in Asia and the Middle East, and among certain immigrant communities in North america and Europe.

इस तरह से यौन अंगों को विकृत करने के लिये आखिर किया क्या जाता है -- इस अमानवीय रिवाज के लिये बच्चियों के य़ौन-अंगों से क्लाईटोरिस (clitoris) को आंशिक तौर पर या पूरे तौर पर निकाल ही दिया जाता है। क्लाईटोरिस फीमेल यौन-अंगों का एक बिल्कुल छोटा सा एवं अत्यंत संवेदनशील भाग होता है। कुछ केसों में योनि (vagina) के आसपास की मांस की परतें ही काट कर निकाल दी जाती हैं --- removal of the labia minora with or without the removal of the labial majora ---the labia are "the lips" that surround the vagina.

और यह घिनौनापन कुछ केसों में योनि के मुख (vaginal opening) को काट-फाड़ के और टांके वांके लगा कर छोटा करने तक पहुंच जाता है और साथ में क्लाईटोरिस को निकाल दिया जाता है या कायम रखा जाता है।
यह सब करने के क्या क्या कारण हैं -----इस सिरफिरेपन के सिरफिरे कारण तो मुझ से लिखते ही नहीं बन रहे ----अगर आप पढ़ना चाहें तो ऊपर जो मैंने लिंक दिया है वहां जाकर देख लें। यह भी कैसा रिवाज है कि किसी के स्वस्थ अंगों को बिगाड़ दिया जाये ताकि उन में काम-इच्छा की कमी रहे और वे "नाजायज़" संबंधों से बची रह सकें और अपने कौमार्य को सहेज कर रख सकें । अमानवीय !!!!

और सुनिये, यह जो योनि-द्वार को संकरा करने की बात हुई उसे संभोग से पहले एवं शिशु के जन्म के समय काट कर खुला कर दिया जाता है और बाद में फिर टांक दिया जाता है जैसे कि औरत न हो गई --- कोई मशीन हो गई। और यह काटना और टांकना कईं कईं बार होने से महिलायों में कईं तरह के और भी रिस्क बढ़ जाते हैं।

केवल अफ्रीका में ही 10 साल एवं उस से ऊपर की उम्र की लगभग 9.2 करोड़ बच्चियों में यह विकृत करने वाला काम किया जा चुका है।

निःसंदेह महिलायों से भेदभाव (कितना छोटा शब्द लगता है इस घिनौने काम के लिए) की यह कितनी बड़ी उदाहरण है।

इस के बारे में लिखते मुझे ध्यान आ रहा था कुछ महीने पहले अंग्रेज़ी के एक अखबार में प्रकाशित एक रिपोर्ट का जिस में बताया गया था कि किस तरह धनाढ्य़ वर्ग की कुछ महिलायों द्वारा vaginoplasty करवाई जा रही है, और बहुत सा पैसा खर्च कर के अपने वक्ष-स्थल को उन्नत (breast augmentation) करवाया जाता है। योनि पर उम्र के प्रभाव को खत्म करने के लिये या फिर शिशु के जन्म के बाद उसे पहले जैसी स्थिति में लाने के लिये vaginoplasty का सहारा लिया जाने लगा है।

कितना कंटरास्ट है ---एक तरफ़ पकी उम्र में vaginoplasty एवं breast augmentation की स्कीमें और दूसरी तरफ़ छोटी छोटी अबोध बच्चियों के अबोध अंगों को बिना किसी कसूर के कांट-फांट कर के बिगाड़ा जा रहा है। मुझे लग रहा है कि यह शब्द लिखना कांट-खांट कितना आसान है लेकिन जिन बच्चियों पर यह कहर ढहता होगा हम उन की मनोस्थिति की तो कल्पना भी कहां कर पाएंगे ?

मैं लगभग तीन दशकों से मैडीकल प्रोफैशन के साथ जुड़ा हूं लेकिन इस तरह की बात आज पहली बार सुनी है-----शायद आप भी पहली बार सुन रहे होंगे। क्या आप इस के बारे में ऐसा कुछ कर सकते हैं जिस से इस स्थिति में कुछ सुधार हो सके ----छोटी छोटी बच्चियां, युवतियां इस घिनौने रिवाज की शिकार होने से बच सकें। आमीन................क्यों बहुत बार दुआ भी बहुत काम करती है!!

बुधवार, 10 मार्च 2010

कद बढ़ाने वाला सिरिप

जिस तरह आजकल लोग बड़े बड़े डिपार्टमैंटल स्टोरों में जा कर सैंकड़ों तरह की अनाप-शनाप कंज्यूमर गुड्स को देख देख कर परेशान हो हो कर कुछ न कुछ खरीदने में लगे रहते हैं, कैमिस्टों की दुकानों के काउंटरों पर जिस तरह से तरह तरह के टॉनिक और ताकत के कैप्सूल बिखरे रहते हैं और दुकान के ठीक बाहर जिस तरह से इस तरह की चीज़ों के विज्ञापन टंगे रहते हैं किसी भी आदमी का धोखा खा जाना कोई मुश्किल काम नहीं है।

मैं कल एक कैमिस्ट से एक दवाई खरीद रहा था -- कैमिस्ट ठीक ठाक ही लगता है-- इतने में एक आदमी अपने लगभग 13साल के बेटे के साथ आया और सिरिप की दो बोतलों को कैमिस्ट को लौटाते हुये कहने लगा कि उस ने जब इस बोतलों के बारे में ठीक से पढ़ा है तो उसे पता चला कि ये कद को लंबा करने के लिये नहीं हैं।

चूंकि उस ने वे बोतलें काउंटर पर ही रखी थीं तो उत्सुकतावश मैंने भी उन्हें देखा --- मैंने देखा कि अढ़ाई सौ रूपये के करीब एक बोतल का दाम था। मैंने देखा कि कैमिस्ट ने उस ग्राहक से ज़रा भी बहस नहीं की। ये दुकानदार भी बड़े प्रैक्टीकल किस्म के लोग होते हैं---ये मार्केटिंग स्किलज़ में मंजे होते हैं। झट से उस ने उस तरह की एक दूसरी शीशी उसे थमा दी।

अब दोष किस का है, मैं चंद लम्हों के लिये यह सोच रहा था। सब से पहले तो इस तरह की बोतलें कैसे किसी को भ्रमित करने वाली घोषणाएं कर सकती हैं कि इस से कद बढ़ जायेगा। चलिये, यह मान भी लिया जाये कि इस तरह की बोतलें मार्कीट में आ ही गईं। अब क्या कैमिस्ट का दोष है कि वह इस तरह के प्रोडक्ट्स बेच रहा है ---लेकिन फिर सोचा कि उस एक के हरिश्चन्द्र बन जाने से क्या होगा----साथ वाले ये सब बेचते रहेंगे तो वह पीछे रह जाएगा। यह भी सोचा कि क्या यह हमारी स्वास्थ्य प्रणाली का दोष है कि एक 40 साल के आदमी को यह समझ नहीं कि कद कोई शीशी पी लेने से नहीं बढ़ता।

तो, फिर दोष सब से ज़्यादा किस का ? सब से ज़्यादा दोष उस ग्राहक का जो इस तरह की शीशी खरीद रहा है--- और शायद इस के लिये उस की आधी-अधूरी शिक्षा ही ज़िम्मेदार है।

यह रात 9 बजे के आसपास की बात है --मैंने उस ग्राहक को मोटरसाइकिल को किक मारते देखा ---मुझे लगा कि वह टल्ली है। मैंने देखा कि उस ग्राहक के परिचित एक सरदार ने थोड़े मज़ाकिया से लहज़े में उसे इतना भी कहा ----की यार, कद वधान लई टॉनिक. लेकिन उस ग्राहक ने पुरज़ोर आवाज़ में कहा कि क्या करें, इस का कद बढ़ ही नहीं रहा है।

लेकिन मेरी बेबसी देखिये मैं सब जानते हुये भी चुप था। मुझे पता है कि इस शीशी से कुछ नहीं होने वाला----और ऐसे ही राह चलते बिना मांगी गई सलाह देना और वह भी किसी अजनबी को और वह भी उसे जो टल्ली लग रहा था और वह भी किसी कैमिस्ट की दुकान पर ही, इन सब के कारण मैं चुपचाप मूक दर्शक बना रहा। इस तरह के मौके पर कुछ कह कर कौन आफ़त मोल ले--- दूसरी तरफ़ से कुछ अनाप-शनाप कोई कह दे तो पंगा-----इसलिये मैं तो इस तरह की परिस्थितियों में चुप ही रहता हूं---पता नहीं सही है या गलत-----लेकिन क्या करें?

यह केवल एक उदाहरण है --सुबह से शाम तक इस तरह की बीसियों बातें सुनते रहते हैं, देखते रहते हैं---किस किस का ज़िक्र करें। हर एक को अपना रास्ता खुद ही ढूंढना पड़ता है।

आज लगभग पूरे चार महीने बाद लिख रहा हूं ----अच्छा लगा कि हिंदी में लिखना भूला नहीं ---वरना पिछले चार महीनों में जिस तरह से मैं अपने फ़िज़ूल के कामों में उलझा रहा, मुझे यह लगने लगा था कि अब कैसे लिखूंगा। चलिये, इसी बहाने यह जान लिया कि यह राईटर्ज़-ब्लॉक नाम का कीड़ा क्या है।

फिज़ूल के काम तो मैंने कह दिया --ऐसे ही हंसी में --लेकिन हम सब लिखने वालों के भी अपने व्यक्तिगत एवं कामकाजी क्षेत्र से जुड़े बीसियों मुद्दे होते हैं जिन पर लिखना या इमानदारी से लिख पाना हर किसी के बस की बात होती भी नहीं और मेरे विचार में इस तरह के विषयों पर नेट पर लाना इतना लाज़मी भी कहां है ?

शुक्रवार, 1 मई 2009

जुबान के कैंसर का चमत्कारी इलाज

हां, तो मैं दो दिन पहले अपने एक मरीज़ की बात कर रहा था जिसे जुबान (जिह्वा) का कैंसर डायग्नोज़ हुआ है। सारे टैस्ट पूरे हो चुके हैं लेकिन वह अब वह किसी चमत्कारी नीम हकीम के चक्कर में पड़ चुका है।

मैंने उसे बहुत समझाया कि आप सर्जरी करवा लो, जितना जल्दी सर्जरी करवायेंगे उतना ही बेहतर होगा। उस ने मेरे बार बार कहने के बावजूद भी मुझे कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया। मैं उस की मानसिकता समझ सकता हूं, आदमी सब कुछ ट्राई कर लेना चाहता है , क्या करे जब आदमी बेबस होता है तो यह सब कुछ होना स्वाभाविक ही है।

उस ने मुझे कहा कि मैं देसी दवा किसी सयाने से ला कर खा रहा हूं ---दिल्ली के पास यूपी की एक जगह का उस ने नाम लिया । कहने लगा कि जब मैं उस के पास गया तो उस ने मेरी कोई रिपोर्ट नहीं देखी, मेरा कोई टैस्ट नहीं करवाया, मुझे कहने लगा कि तेरे को जुबान का कैंसर है। यह सब मेरे मरीज़ ने मुझे बताया।

फिर आगे बताने लगा कि वह इंसान इतना नेक दिल है कि किसी से मशविरा देने के कोई पैसे नहीं लेता ---बस दवा के पैसे ही देने होते हैं ---बीस दिन की दवाई के एक हज़ार रूपये ---मैं उस की बातें के ज़रिये उस सयाने की कार्यप्रणाली समझने की कोशिश कर रहा था। फिर मेरा मरीज़ मुझे कहने लगा कि उस ने एक तो कुल्ला करने की दवाई दी है और कुल्ला करने के बाद एक दवाई जुबान पर लगाने को दी है। मरीज़ ने आगे बताया कि दवाई लगाने के बाद ही जुबान से मांस के टुकड़े से निकलने लगते हैं।

आगे मरीज़ ने बताया कि उसे लग रहा है कि उस की जुबान पर जो ज़ख्म है उस का साइज़ भी कम हो गया है। अब मैं उस की हर बात का जवाब हां या ना देने में अपने आप को बहुत असहज अनुभव कर रहा था। क्योंकि मेरी तो केवल एक ही कामना थी और है कि वह जल्दी से जल्दी सर्जरी के लिये राज़ी हो जाये ताकि वह अपनी बाकी की ज़िंदगी को जितना चैन से काट सकता है काट सके।

वह फिर मेरे से पूछने लगा कि डाक्टर साहब यह भी तो हो सकता है कि अगर एक-दो महीने के बाद मैं अपने सारे टैस्ट दोबारा से करवाऊं तो मेरे सारे टैस्ट ही ठीक हो जायेंगे ----अब मैं उस के इस सवाल का क्या जवाब देता ?

वह बंदा मेरे से बातचीत कर रहा था तो फिर अपने आप ही कहने लगा कि डाक्टर साहब, मेरी बेटी ने इंटरनेट पर सारी जानकारी हासिल कर ली है ---- यह तो बिटिया भी कह रही थी कि पापा, आप्रेशन के बिना कोई इलाज इस का नहीं है। मैं यही सोच रहा था कि जब मां-बाप को कोई तकलीफ़ होती है तो आजकल के पढ़े-लिखे बच्चे भी बेचारे जितना उन से हो पाता है सब कुछ करते हैं लेकिन ये कमबख्त कुछ रोग ही इस तरह के होते हैं कि .........!!

वह बंदा बता रहा था कि डाक्टर साहब , जितनी बातें मैंने आज आप से की हैं मैंने पिछले दो महीने में कभी नहीं की हैं। मेरा भी उस के साथ गहराई से बात करने का केवल एक ही मकसद था कि किसी तरह से यह आप्रेशन के लिये राज़ी हो जाये। रूपये-पैसे की तो कोई बात ही नहीं है ---- क्योंकि हमारा विभाग अपना कर्मचारियों की सभी प्रकार की चिकित्सा का प्रबंध करता है।

मैंने उसे इतना ज़रूर कहा कि आप मुझे दो-तीन में एक बार हास्पीटल की तरफ़ आते जाते ज़रूर मिल लिया करें ---- क्योंकि मैं उस बंदे का हौंसला बुलंद ही रखना चाहता ही हूं। मैं उस से बात कर ही रहा था कि मुझे मेरे एक 70-75 वर्षीय मरीज़ का ध्यान आ गया जिस ने कुछ साल पहले जुबान के कैंसर के इलाज के लिये सर्जरी करवाई थी --और वह नियमित रूप से चैक-अप करवाने जाता रहता है और ठीक ठाक है। मैं उसे उस का नाम लिखवा दिया और उस के घर के पते का अंदाज़ा सा दे दिया ---- वह कहने लगा कि बस इतना ही काफ़ी है, वह ढूंढ लेगा। यह मैंने इसलिये किया क्योंकि मैं चाहता हूं कि वह उस से जब बातें करेगा तो उस का ढाढस बंधेगा।

रही बात उस सयाने द्वारा दी जाने वाली दवाई की ------ जहां तक मेरा ज्ञान है इस तरह के देसी-वेसी इलाज से कुछ होने वाला नहीं है। यही सोच रहा हूं कि किसी को इतनी ज़्यादा उम्मीद की रोशनी दिखा देना भी क्या ठीक है ? यह तकलीफ़ भी ऐसी है कि इस के लिये किसी प्रशिक्षित, स्पैशलिस्ट से ही इलाज करवाने से काम बन सकता है। चमत्कारी दवाईयों से कहां इन केसों में कुछ हो पाता है।

जाते जाते मरीज़ मुझे बता रहा था कि अब वह गुटखा एवं तंबाकू कभी नहीं चबायेगा ---उस ने यह सब छोड़ दिया है --- मैंने उसे तो कहा कि बहुत अच्छा किया है लेकिन मैं दुःखी इस बात पर था कि अब ये सब कुछ छोड़ तो दिया है .....ठीक है , लेकिन ....................!!!!!