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बुधवार, 23 मार्च 2011

व्यंग्य .....हिंदी अखबारों का संपादकीय पन्ना

हर बंदे की अपनी दुनिया होती है ...मेरी भी है .....लेकिन पारिवारिक, कामकाजी, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पालिटिक्स के बारे में मैं बिल्कुल ही ज़ीरो हूं ....इस में कभी रूचि ली ही नहीं .....पारिवारिक एवं कामकाजी पालिटिक्स के लिये कभी टाइम ही नहीं मिला और शायद प्रवृत्ति भी बिल्कुल ऐसी है नहीं ......राष्ट्रीय एवं इंटरनैशनल मसले समझने के लिये पहले इतिहास भूगोल का ज्ञान होना तो ज़रूरी है ही।

और यह इतिहास भूगोल का ज्ञान भी न के ही बराबर है ... बिल्कुल न के बराबर ..... केवल उतना ही है जितना अमिताभ बच्चन या शारहरूख कौन बनेगा करोड़पति में सिखा गये हैं। इस में मैं अपने मास्टर लोगों को दोष मानता हूं ... स्कूल में इस विषय के जितने भी मास्टर मिले वे कभी भी इन विषयों में रूचि पैदा ही नहीं कर पाये।

बस जैसे तैसे ऐसे ही कुछ मास्टरों की छत्र छाया में रहते रहते यह तो लड़कपन में ही समझ लिया था कि हिस्ट्री-ज्योग्राफी के पेपर कोई पड़ता नहीं, बस उत्तरों की लंबाई देख कर अंक लुटाये जाते हैं...... तो फिर हम क्या कम थे, हम ने भी गप्पे हांकनी बचपन में ही सीख लीं (इस में तो आप को भी कोई शक नहीं होगा!) .... हर क्लास में इन पेपरों में वहीं गप्पें हांक हांक के थक गये .... लेकिन यह सब सुलेख लिखना कभी नहीं भूले ..... न ही कभी कोई कांट छांट की ....अगर पेपर चैक करने वाले ने देख लिया तो हो गई छुट्टी .....

बस, दनादन ऐसे ही क्लासें पास की जा रही थीं ... इतने में आ गई मैट्रिक की परीक्षा ...अब अगर कुछ भी बेसिक ज्ञान हो तो लिखें, तो ही नक्शे में बताएं कि पटसन कहां होती है और कोयले की खाने कहां पर हैं.......बहुत ही पीढ़ा के साथ जैसे तैसे नक्शों में भी तुक्के मार मार के, और डिस्क्रिप्टवि उत्तरों में भी पता नहीं कितनी कहानियां लिख लिख कर ..पेपर तो लिख दिया..... वो एक राजा था न जो बहुत खाता था, बस उस का डाइट चार्ट लिखने की नौबत आ जाया करती थी, और कुछ पता हो तो लिखें।.

मुझे याद है मैट्रिक के पेपर देने के बाद अगले दो-तीन महीने तक मेरा दिन का चैन और रातों की नींद उड़ी रही थी कि बाकी विषयों में तो आ जायेगी डिस्टिंकशन और हिस्ट्री-ज्योग्राफी में हो जाऊंगा फेल. ....लेकिन जब रिजल्ट आया तो 150 में से 94 अंक पाकर जितनी खुशी हुई उस का आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते.....मन ही मन उस रूह का धन्यवाद किया जिस ने बचा लिया।

लेकिन ऐसे पास होने से क्या हुआ ? ...कुछ नहीं .....बस अभी तक इन विषयों में फिसड्डीपन बरकरार है, बहुत बार सोचा कि थोड़ा तो पढ़ लूं इन के बारे में लेकिन अगर मास्टर चौहान के थप्पड़ हमें कुछ पढ़ने पर मजबूर न कर सके तो अब कैसे पढ़ लें !!(कुछ मास्टर ऐसे थे जिन्होंने समझा कि क्लास में हमारी बेइज्जती कर के, चपेड़ें मार मार के, हाथ की उंगलियों में पैंसिल फसा फसा कर कुछ सिखा देंगे .....लेकिन हम भी ठहरे ढीठ प्राणी ........!!)

हां, तो यह सारी भूमिका मुझे इसलिये बांधनी पड़ी कि मैंने यह कहना था कि अगर मुझे किसी इंटरनैशनल मसले के बारे में कुछ सीखना होता है, तो मैं हिंदी अखबार के संपादकीय पन्ने का रूख कर लेता हूं .....ऐसी बातें मुझे केवल उसी पन्ने से ही समझ आती हैं...क्योंकि उस पन्ने पर कोई दिग्गज मुझे मेरी ही भाषा में मेरे स्तर पर आकर सब कुछ सिखा रहा होता है, बिल्कुल स्कूल के मास्टर की तरह ......... और काफी कुछ समझ में आ ही जाता है।

हिंदी अखबार के संपादकीय पन्ने को रोज़ाना देखने का श्रेय मै अपनी 80 वर्षीय मां को देता हूं .... वे प्रतिदिन इसे देखती हैं और मुझ से पूछती हैं कि आज तूने तवलीन सिहं का लेख देखा, विष्णु नागर को पढ़ा .....और भी बहुत से लेखकों के नाम लेती हैं .......और यह मुझे ग्वारा नहीं होता कि मेरी मां के सामने भी मेरे फिसड्डीपन की पोल खुल जाए .....इसलिए हिंदी अखबार के संपादकीय पन्नों से मैं सीखने लायक बहुत सी बातें सीखता हूं, समझता हूं .............

नोट ......अगर कोई मेरा मैट्रिक का हिस्ट्री-ज्योग्राफी का पेपर निकलवा के देख ले, तो सारी पोल खुल जाएगी.. लेकिन रोल नंबर किसी को पता चलेगा तब न .......और मेरी प्रोफाइल पर जो स्कूल के ज़माने के दोस्त हैं, वे इतने पक्के हैं कि किसी भी तरह से यह राज़ खोलेंगे नहीं ...... पता नहीं, स्कूल के दोस्तों से इतना लगाव कैसे होता है कि हम इतने सालों बाद भी अपनी ज़िंदगी की पूरी की पूरी किताब खुली रख सकते हैं .................कारण ? ....हमें ये अपने परिवार के सदस्यों की तरह ही प्रिय होते हैं, हमें आपसी भरोसा होता है, इन से कोई डर नहीं होता .....और फिर जैसे जैसे हम जि़ंदगी में तीसमार बनते जाते हैं और दोस्त जुड़ते जाते हैं.........कहीं न कहीं खुलेपन से सारी बातें उन दोस्तों के साथ शेयर करने में संकोच बढ़ता जाता है ................है कि नहीं ??

सोमवार, 3 जनवरी 2011

मीडिया समाज का आईना ही तो है !

आज सुबह सवेरे अंग्रेज़ी अखबार में पढ़ी मुझे दो खबरें अभी तक याद है –बाकी तो सब खबरें रोज़ाना एक जैसी ही होती हैं ऐसा मैं सोचता हूं।

एक खबर थी जिस में दिल्ली के पुलिस कमिश्नर एक महिला को पचास हजार का ईनाम देने की बात थी और साथ ही उस को यह अवार्ड दिये जाने की तस्वीर भी थी। महिला 40 से ऊपर की लग रही थी क्योंकि उस के बेटों की उम्र बताई गई थी जो कि 20 वर्ष के ऊपर के थे। हां तो इस महिला ने क्या किया? –इस महिला ने इतने अदम्य साहस का परिचय दिया कि इसे तो राष्ट्रीय स्तर पर भी पुरस्कृत किया जाना चाहिये। यह महिला एक मल्टीनैशनल बैंक में काम करती हैं, कुछ दिन पहले यह अपने घर की तरफ़ आ रही थी कि मोटर साईकल सवार युवकों ने इन के पास रूक कर कुछ पूछने के बहाने इन की चेन झपट ली.... इन्होंने उस वक्त इतना साहस दिखाया कि इन्होंने मोटर साईकिल के पीछे बैठे हुये लुटेरे का कॉलर पकड़ लिया। उस युवक ने कहा कि मुझे छोड़ दो, वरना मैं तुम्हें गोली मार दूंगा लेकिन यह महिला टस से मस न हुई। इस पर उस युवक ने इन के सिर पर अपनी पिस्टल से वार करना शुरू कर दिया ---लेकिन इन्होंने इस दौरान उस कमबख्त का क़ालर न छोड़ा ....इतने समय में आस पास लोग इक्ट्ठा हो गये और उस लुटेरे को धर दबोचा गया। मुझे यह खबर देख कर बहुत खुशी हुई – आज के वातावरण में जहां जगह जगह छोटी छोटी बच्चियों को जबरन उठा कर उन के सामूहिक उत्पीड़न की खबरें इतनी आम हो गई हैं कि जनआक्रोश का पानी नाक तक आ चुका है। मैं इस महिला को नमन करता हूं जिसने अपनी बहादुरी से एक उदाहरण पेश की है। काश, बलात्कार करने वालों की भी कोई शिकार सामने आए जो इन को कोई ऐसा सबक सिखा दे जिस वजह से ये बेलगाम दरिंदे सारी उम्र किसी लड़की के पास फटकने से डरने लगें। अभी अभी जो नांगलोई में एक लड़की के साथ दरिंदगी हुई , यह कितनी शर्मनाक बात है...... उन रईस दरिंदों का क्या होगा,यह आप सब को अच्छी तरह से पता ही है लेकिन उस बेचारी की तो सारी ज़िंदगी खऱाब हो गई।

हां , तो मैं आज की अखबार की दूसरी खबर की बात कर रहा था... दूसरी खबर थी कि उड़ीसा के मंदिर में दो बंगाली मुसलमान युवक दर्शन पहुंच गये, उन को पुलिस के हवाले कर दिया गया और पूछताछ के बाद छोड़ दिया गया। मुझे ऐसी खबरें पढ़ कर बहुत शर्मिंदगी होती है क्योंकि मैं तो 10 साल बंबई में रहा, बीसियों बार मस्जिदों में गया, मुझे तो किसी ने नहीं रोका........मुझे यह खबर पढ़ कर इतनी घुटन हुई कि मैं ब्यां नहीं कर सकता। मैं यही सोच रहा था कि अगर हम लोगों ने आज भी यह सब करना है तो फिर क्यों हम अपने बच्चों को पढ़ाते हैं कि भगवान, अल्ला, ईश्वर, वाहेगुरू ....सब एक हैं...God is one……..हमारी तकलीफ़ों का कारण भी हम ही हैं, हम दोगले हैं, कहते कुछ हैं, सोचते कुछ हैं और करते कुछ हैं। मैं सोच रहा हूं कि आखिर यह पुरान दकियानूसी नियम कौन बदलेगा कि सभी धार्मिक स्थानों पर हर कोई जा सकता है, ये सब के हैं .......ये सब के साझे हैं।

कईं कईं खबरें सच में हमें झकझोड़ देती हैं और बहुत सोचने पर मजबूर करती हैं।

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

क्या आपने वैल-डन अब्बा देख ली ?

कुछ महीने पहले टीवी पर एक फिल्म आ रही थी ---बच्चों से पता चला कि यह हिंदी फिल्म डोर है। मुझे यह फिल्म बेहद पसंद है। यह फिल्म बहुत से संदेश लिये हुये है। अगर आपने अभी तक नहीं देखी तो ज़रूर देखिये।

एक फिल्म है --वैल-डन अब्बा --- कुछ दिन पहले अंग्रेज़ी के अखबार दा हिंदु में इस का एक अच्छा सा रिव्यू पढ़ा था। मैं जगह जगह जो फिल्म की समीक्षा छपती रहती है उन पर तो इतना भरोसा नहीं करता लेकिन अगर दा हिंदु में किसी फिल्म के बारे में अच्छा लिखा होता है तो फिर मैं उसे ज़रूर देखता हूं।

तो, फिर वैल-डन अब्बा फिल्म देख ही ली। मुझे यह फिल्म बहुत ही पसंद आई है। इस की स्टोरी मैं आप को बताना नहीं चाहता क्योंकि मैं चाहता हूं कि इसे आप ज़रूर देखें। इस में भी श्याम बेनेगल में बहुत से सामाजिक मुद्दों की तरफ़ पब्लिक का ध्यान खींचा है। एक तो यह है कि किस तरह से भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी फैल चुकी हैं। लोगों को सूचना का अधिकार इस्तेमाल करने के लिये भी प्रेरित किया गया है। अरब देशों के अमीर किस तरह से छोटी छोटी उम्र की मासूम लड़कियों को इस्तेमाल कर के छोड़ देते हैं ---ये सब समस्यायें बेहद प्रभावपूर्ण ढंग से दिखाई-समझाई गई हैं। लेकिन कैसे भी हो, इसे आप भी ज़रूर देखिये और फिर इस के बारे में अपने विचार शेयर करिये।

शनिवार, 16 जनवरी 2010

सूचना के अधिकार का भारत सरकार का ऑन-लाइन फ्री-कोर्स

आप सब ब्लागर बंधुओं की सूचना के लिये लिख रहा हूं कि भारत सरकार के डिपार्टमैंट ऑफ परसनेल एंड ट्रेनिंग के द्वारा सूचना के अधिकार का एक ऑन-लाइन फ्री कोर्स शूरु किया गया है जिस का लिंक यहां दे रहा हूं ---आप देखेंगे कि इस पेज पर इस कोर्स के लिये रजिस्ट्रेशन से संबंधी जानकारी एक टिक्कर के रूप में चलती नज़र आयेगी। आप उस पर क्लिक कर के इस से संबंधित जानकारी हासिल कर सकते हैं।

इस ऑन-लाइन कोर्स के लिये रजिस्ट्रेशन दो दिन पहले ही शुरू हुया है और यह पंजीकरण 13 फरवरी 2010 तक चलेगा। मैंने भी यह कोर्स पिछले बैच में ही पूरा किया है और इस से मुझे बहुत सी नईं बातें सूचना के अधिकार अधिनियम के बारे में पता चली हैं जो कि किताबें पढ़ कर नहीं पता चलतीं।
तो, फिर शुभकामनायें----नये साल की और बहुत बहुत शुभकामनायें। लगभग दो महीने ब्लॉगिंग से दूर रहा ---कारण ? ---कोई खास नहीं, बस जब सारी स्थितियां अनुकूल हो तो ही कुछ लिखने की इच्छा होती है वरना एक शब्द भी नहीं लिखा जाता


सोमवार, 9 नवंबर 2009

सूचना के अधिकार कानून के लिये फीस

मैंने सूचना के अधिकार के लिये कुछ समय पहले एक आवेदन किया था ---जिस का जवाब मुझे मिला कि आप पहले सात हज़ार नौ सौ रूपये जमा करवायें क्योंकि इस तरह की सूचना जुटाने के लिये विभाग का इतना खर्च आयेगा ----कुछ वर्कर इतने दिन के लिये यही काम पर लगे रहेंगे, इसलिये उन की उतने दिनों की तनख्वाह मुझे भी भरनी होगी। खैर, मैंने इस की अपील भी की लेकिन फिर वही जवाब आ गया ।
हां, तो आज सुबह आज की पंजाब केसरी अखबार पर जब नज़र पड़ी तो इस के पृष्ट पांच पर यह खबर दिखी जिसे आप से शेयर करना चाह रहा हूं ------लीजिये, पढ़िये ...
सूचना देने के लिये केवल निर्दिष्ट राशि ही वसूली जाएगी : सी आई सी
नई दिल्ली 8 नवंबर -- एक बहुप्रतीक्षित फैसले के तहत केंद्रीय सूचना आयोग ने कहा है कि सूचना मुहैया कराने के लिये आवेदक से सूचना का अधिकार कानून में निर्दिष्ट शुल्क के अलावा कोई राशि की मांग नहीं की जा सकती। सूचना का अधिकार कानून के तहत आवेदन करने वाले लोगों के लिये यह फैसला राहत लेकर आया है क्योंकि जब बड़ी मात्रा में सूचना मांगी जाती है तो दिल्ली पुलिस सहित कई सरकारी एजेंसियां अतिरिक्त शुल्क के तहत लाखों रूपये की राशि का मांग करती हैं. ये सरकारी एजैंसियां इसका हवाला देती हैं सूचना दिखाने के लिये काफी मानव संसाधनों के इस्तेमाल की जरूरत पड़ेगी या उन्हें परिवर्तित करना होगा। इसके लिये आवेदक को प्रशासन की गणना के मुताबिक कार्य दिवसों के आधार पर भुगतान करना होगा।
आप का इस खबर के बारे में क्या ख्याल है ?

शनिवार, 25 जुलाई 2009

यहां पढ़े हैं आरटीआई के अनगिनत सवाल ...

मैं अकसर सोचा करता हूं कि ये आर टी आई में पूछने लायक सवाल मिलते कहां हैं ----मुझे लगता है ये इन जगहों पर मिलते हैं।

मैं पिछले वर्षों में बहुत सारी अखबारें पढ़ने के बाद कुछ अरसे से केवल तीन अखबारें पढ़ता हूं। मेरे दिन की शुरूआत सुबह सुबह तीन अखबारें पढ़ने से होती है -- अमर उजाला, टाइम्स ऑफ इंडिया और दा हिंदु। मुझे बहुत सारी अखबारें छानने के बाद यह लगने लगा है कि अगर हम इन को ध्यान से देखें तो इन के हर पन्ने पर कोई न कोई सूचना के अधिकार का सवाल बिखरा पड़ा होता है।

वह बात भी कितनी सही है कि एक पत्रकार किसी बेबस, गूंगे इंसान की जुबान है। कितनी ही बातें हैं जिन से हम केवल अखबार के द्वारा ही रू-ब-रू होते हैं। अब एक पत्रकार ने तो इतनी मेहनत कर के किसी मुद्दे को पब्लिक के सामने रख दिया। लेकिन अगर गहराई में जायें तो बस इन्हीं न्यूज़-रिपोर्टज़ से ही कईं आरटीआई के सवाल तैयार हो सकते हैं।
आरटीआई के बहुत से सवालों का खजाना वह इंसान भी होता है जिन ने कभी सूचना के अधिकार में कुछ पूछने की ज़ुर्रत तो कर ली लेकिन जाने अनजाने उस ने किसी की दुखती रग पर हाथ रख दिया जिस की वजह से उसे किसी बहाने से ....।

ज़िंदगी के करीब के बहुत से सवाल किसी भी आम आदमी के पसीने के साथ रोज़ बहते रहते हैं। यह आम आदमी की ज़िंदगी तो आरटीआई में पूछने लायक सवालों का खजाना है। जिस किसी भी जगह पर कोई भी लाचार, बेबस, कमज़ोर, शोषित, सताया हुआ, पीड़ित, किसी षड़यंत्र का शिकार इंसान खड़ा है उस के पास आप को बीसियों आरटीआई के सवाल बिखरे पड़े मिलेंगे। लेकिन उस का बेबसी है कि अभी तक उसे अपनी कलम की ताकत पर विश्वास नहीं है या यूं कह लें कि अभी उस ने अपनी कलम उठाई नहीं है। या फिर यह भी हो सकता है कि उसे लगता हो कि वह आरटीआई में दिये जानी वाली दस रूपये की फीस से वह कुछ और भी अहम् काम कर सकता है।

जो भी हो, जब कभी मैं कभी कभी यहां-वहां किसी के मुंह से यह सुनता हूं कि यह आरटीआई सिरदर्दी बन चुका है तो मैं यह समझ जाता हूं कि इस का मतलब है कि सूचना के अधिकार अधिनियम का काम बिलकुल ठीक ठाक चल रहा है। जहां तक लोगों के द्वारा ढंग से सवाल पूछने जाने पर कुछ लोगों को कभी कभी आपत्ति रहती है तो इस में मुझे तो कुछ खराब लगता नहीं -----सीख जायेंगे, सीख जायेंगे, दोस्त, उन्हें हम लोग अपना दिल खोल तो लेने दें। ढंग वंग का क्या है, किसी भी सवाल की आत्मा का ही तो महत्व है।

आरटीआई में अवार्ड्स की घोषणा कुछ दिनों से दिख रही है ---- मेरे लिये उस का पात्र आने वाले समय में कौन होगा पता है ? --- वह मज़दूर जो सुबह मज़दूरी करता है और रात में प्रौढ़-शिक्षा कार्यक्रम के तहत पढ़ना सीख रहा है। और जैसे ही सीख लेता है वह रात में कैरोसीन के दीये की धुंधली लौ में अपने बच्चे की कलम से एक काग़ज पर आरटीआई का एक सवाल लिख रहा है जो कि उस की बाजू पर आये पसीने की वजह से गीला है और ऊपर से उस के माथे से पसूने की बूंदे उस गीले कागज़ पर टपक रही हैं --- जिसे उस का बेटा किसी चाक के टुकड़े से लगातार पौंछे जा रहा है ताकि उस के बापू का यह सवाल कहीं गीलेपन की वजह से खराब ही न हो जाये ------उस के गांव में स्कूल में मास्टर पिछले चार महीनों से नहीं है, इस का क्या कारण है और उस के गांव के दवाखाने में कोई डाक्टर पिछले छः महीनों से तैनात क्यों नहीं है। जब इस तरह के लोगों द्वारा सवाल पूछे जाने लगेंगे तो मैं समझूंगा कि हां, भई, अब हलचल शुरू हुई है।
पता नहीं मुझे तो हर तरफ़ आरटीआई के सवाल ही पड़े दिखते हैं ----- आप जिस सड़क पर जा रहे हैं उस की खस्ता हालत जिन खड्डों की वजह से है, उन में बहुत से आरटीआई के सवाल छुपे पड़े हैं, लोगों ने अपने घरों के बाहर कईं कईं फुट की जो एनक्रोचमैंट कर रखी होती है, वह भी एक सवाल है ................हर तरफ सवाल ही सवाल हैं, केवल इन्हें देखने वाली आंख चाहिये।

और कितना समय ये मुट्ठियां-वुठ्ठियां बंद रहेंगी, ये तो भई खुलनी ही चाहियें ....

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

जब एटीएम ही नकली नोट उगलने लगे तो ....

अकसर मीडिया के माध्यम से देखता सुनता रहता हूं कि फलां फलां एटीएम मशीन से नकली नोट निकले। मुझे लगता है कि यह एक बहुत ही ज़्यादा गंभीर मुद्दा है जिस के बारे में कोई न कोई पालिसी ज़रूर होनी ही चाहिये।
वैसे तो शायद इस के बारे में पहले ही से कोई पालिसी मौजूद हो ---शायद मुझे इस का ज्ञान न हो, वैसे पब्लिक को भी लगता है कि इस का कुछ पता-वता है नहीं।

समस्या यही है कि जिस भी आम बंदे के साथ ऐसा हादसा होता है उस की हालत तो देखते बनती है। यह चपत तो उसे लगी सो लगी, साथ में उसे यह डर सताता है कि पता नहीं अब बैंक वाले कितने तरह के सवाल पूछेंगे। मैंने एक बार रोहतक में एक ऐसे ही किसी गुमनाम आम आदमी को एक बैंक आफीसर को अपनी व्यथा सुनाते हुये सुना था।

मैंने नोटिस किया कि वह बंदा उस आफीसर से इस अंदाज़ में बात कर रहा था जैसे कि वह उस की चापलूसी कर रहा है, बिना वजह इतने दास-भाव से बात कर रहा था जैसे कि एटीएम से अगर उस के रूपयों में एक नकली पांच सौ रूपये का नोट आ गया है तो उस से कोई जुर्म हो गया है। शायद अगर मेरे साथ भी अगर इस तरह की वारदात हो तो मैं भी शायद उतनी ही विनम्रता से या उस से भी शायद ज़्यादा नर्मी से बात करूंगा।

दरअसल ऐसे मौकों पर एक आम ग्राहक की यह मानसिकता होती है कि बस कैसे भी हो मेरे यह नकली नोट जो एटीएम से निकला है --बस किसी तरह से यह एक्सचेंज हो जाये। और दूसरी बात यह होती है कि उसे कहीं न कहीं यह डर भी सताता होगा कि पता नहीं कितने सवाल उस से पूछे जायें। यह तो हम सब जानते ही हैं कि कईं बार ऐसे मौकों पर लेने के देने भी पड़ सकते हैं ----अब ग्राहक कैसे यकीन दिलाये कि यह वाला नकली नोट बैंक की एटीएम मशीन से ही निकला है।

वैसे यह बहुत कंपलैक्स ईश्यू है ना ---- वैसे देखा जाये तो एक सीधे-सादे ग्राहक का इस में क्या कसूर। मेरा विचार है कि अगर कभी ऐसा हो भी जाता है तो भी यह बैंक के उस कर्मचारी या अधिकारी की व्यक्तिगत जिम्मेदारी होनी चाहिये जो उस मशीन में नोट डालने के लिये जिम्मेदार होता है। जब तक इस तरह का कोई नियम नहीं होता, तब तक यह सब कुछ यूं ही ढीला-ढाला चलता रहेगा। लेकिन वही बात है ना कि अब ग्राहक कैसे यह विश्वास दिलाये कि यह नोट उस मशीन से ही निकला है। और दूसरी बात यह भी है ना बैंक के इंटरैस्ट का भी पूरा ध्यान रखा जाना चाहिये ताकि कोई भी बंदा इस तरह के नियम का गलत इस्तेमाल करते हुये अपने किसी नकली नोट को बैंक में जा कर एटीएम का बहाना बना कर एक्सचेंज न करवा पाये। शायद इस संबंध में पहले ही से कोई कानून हो, अगर इस तरह का कोई नियम है तो उसे एटीएम कक्ष में हिंदी एवं क्षेत्रीय भाषा में लोगों की सूचना के लिये लिखा होना चाहिेये --- एटीएम कक्ष में ही क्यों, उस एटीएम की पर्ची पर भी यह लिखा होना चाहिये।

क्या आप को लगता है कि एटीएम में जो नोट भरे जाते हैं उन के नंबर किसी कर्मचारी द्वारा नोट किये जाते होंगे। भई जो भी आम बंदे के साथ किसी किस्म का धक्का नहीं होना चाहिये ---पांच सौ रूपये कम तो नहीं होते।
वैसे मैं इस संबंध में सूचना के अधिकार कानून के अंतर्गत एक आवेदन भेज कर इस संबंध में सटीक जानकारी पाने का विचार कर रहा हूं।

रविवार, 21 जून 2009

आज की बात - 21 जून 2009

सपने --- सपने वो नहीं जो हम लोग सोते में देखते हैं, सपना तो दरअसल वह है जो हमारी नींद ही चुरा ले।
Dream is not what you see in sleep but it is what which does not let you sleep.

दैनिक निर्णय
हर दिन हम सब लोगों को एक ना एक फैसला करना होता है ---- यह फैसला हमारे खुद के लिये ही होता है कि क्या हम कुछ देना चाह रहे हैं या लेना चाह रहे हैं, क्या किसी से प्रेम करना है या प्रेम को सिरे से नकार देना है, क्या शांति-दूत बनना है या बिना वजह के झगड़ों में पड़ना है, और यही हर दिन लिया गया एक निर्णय होता है जो कि हमारी सारी अगली ज़िंदगी की रूप-रेखा तय करता है।
The Daily Decision
Each day there's a decision
That each of us has to make,
For each us us needs to decide for ourselves,
Whether to give or to take,
Whether to love or reject love,
Whether to bring Peace or strife,
And that is the Daily Decision,
that reflects the whole rest of our life.

एक बात जो मुझे The Hindu में एक filler के रूप में नज़र आई थी और जो मेरी स्क्रैप-बुक में चिपकी हुई है, वह यह है ---- काश मैं इस का मतलब समझ पाऊ!
हम तैराकी कैसे सीखते हैं ? हम गल्तियां करनी शुरू करते हैं, हम गल्तियां करने से सीखने की शुरूआत करते हैं, हम यही कुछ करते हैं ना ? और इस का नतीजा क्या निकलता है ? फिर हम लोग दूसरी गल्तियां करने लगते हैं, और यह सिलसिला तब तलक जारी रहता है जब तक हम लोग वे सारी गल्तियां कर डालते हैं जितनी कि बिना पानी में डूबे हुये कर पाना संभव है। और मज़े की बात तो यह कि कुछ गल्तियों को तो हम बार-बार दोहराते हैं। और देखिये इस का क्या नतीजा निकलता है ? अचानक हम तैराकी सीख कर उस का मज़ा लूटने लगते हैं।
ज़िंदगी भी तैराकी सीखने जैसी ही है। गल्तियों करने से हमें ज़रा भी डरने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि जीने की कला सीख पाने के लिये इस के अलावा कोई रास्ती ही नहीं है।
What do you first do when you learn to swim? You make mistakes, do you not? And what happens? You make other mistakes, and when you have made all the mistakes you possible can without drowning- and some of them many times over - what do you find? That you can swim ? Well -- life is just the same as learning to swim ! Do not be afraid of making mistakes, for there is no other way of learning how ot live !
---Alfred Adler.

ओह यार, मैं भी यह किस प्रवचनबाजी में पढ़ गया सुबह सुबह ---यह धंधा तो केबल टीवी पर ताबड़तोड़ पहले ही से चल रहा है। मेरा तो मन हो रहा है इस समय मैं यू-ट्यूब पर जा कर अपना एक बहुत ही ज़्यादा पसंदीदा गाना सुनूं और इस ऐतवार की एक बहुत बढ़िया शुरूआत करूं ....
पल्ले विच अग दे अंगारे नहीं लुकदे,
इश्क ते मुश्क छुपाये नहीं छुपदे,
फिर भी यह राज़ जान जाती है दुनिया,
होठों पे लगा ले चाहे ताले कोई चुप दे,
हो ---बूटा पत्थरां ते उगदा प्यार दा !!


वाह भई वाह, क्या गीत है, क्या लिरिक्स हैं, क्या पिक्चराईज़ेशन है, क्या संगीत है, मुझे तो मज़ा आ गया ---इसे मैं अनगिनत बार सुन चुका हूं।

बुधवार, 17 जून 2009

अहसास

इस समय मेरे पास मेरी स्क्रैप-बुक पड़ी है ---बहुत बड़ी है, पिछले पांच साल से इस में मन की बातें लिख कर हल्का हो लेता हूं। इस में बहुत सी बातें हैं जिन्हें मैं जीते-जी तो शेयर करने से रहा, लेकिन कुछ बातें हैं जो मुझे बहुत बढ़िया लगती हैं, और जिन्हें कभी कभी ज़रूर देखता हूं। मुझे खुद पता नहीं इस में मैंने क्या क्या लिख छोड़ा है, किसी अखबार में कुछ बढ़िया लगा वह लिख लिया, किसी भी जगह से कुछ भी ऐसा दिखे जो कुछ सोचने पर मजबूर करे, सब कुछ इस में डाल रखा है।
आज एक काम करता हूं--सब से पहले उस स्क्रैप-बुक के पहले पन्ने पर लिखी एक बात यहां लिखता हूं। दरअसल आप सब लोग साहित्यकार हो, आप साहित्यकारों के नामों से भली-भांति परिचित हैं, लेकिन क्षमा कीजिये मुझे इस का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं है।

प्रायोजित लेखन के बारे में कुछ कहता हूं --- लेखक किसी के कहने पर कुछ लिखे इसे मैं द्वितीय श्रेणी का लेखन मानता हूं। वह अपने मन से जो कुछ लिखता है, जिसे लिखे बिना नहीं रह पाता, जिसे लिखकर वह कुछ राहत और छुटकारा अनुभव करता है वही वास्तव में प्रथम कोटि का लेखन, ईमानदार लेखन होता है। अब यह ईमानदार लेखन कैसा, किसी श्रेणी का है,यह लेखक की क्षमता पर निर्भर करता है।
श्यामसुंदर घोष, व्यंग्य विमर्श ....संवेद (वाराणसी) vol1 No.2.


इन बंद कमरों में मेरी सांस घुटी जाती है,
खिड़कियां खोलता हूं तो ज़हरीली हवा आती है।


लौट कर क्यूं नहीं आते, कहां जाते हैं,
रोक कर वक्त के लम्हों को ये पूछा जाए।

विवाह के लिये एक विज्ञापन जो एक अखबार में दिखा ---
Wanted Engineer Bride for well placed software engineer 32/180 from decent religious vaishvanate family.
यह विज्ञापन देख कर ऐसा लगा था जैसे कि एक डिग्री की दूसरी डिग्री से शादी हो रही है।

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

चलिये रोहतांग घूम कर आते हैं

2007 की जून में हम लोग रोहतांग गये थे ...वहां की यादें आप के साथ बांट रहा हूं। आप को हमारी इन यादों में झांकने के लिये केवल इस पर क्लिक करना होगा ---------



तो फिर आप कब रोहतांग जाने का प्रोग्राम बना रहे हैं ?

रविवार, 18 जनवरी 2009

डाक्टर-मरीज के बीच बढ़ती दूरी से चांदी कूट रहा है कौन ?

पहले हकीम, वैध जी भी कितने ग्रेट हुआ करते थे --नाड़ी देखी, जुबान देखी और बीमारी ढूंढ ली और मरीज भी जगह जगह जा कर टैस्ट करवाने के झंझट से बचा रहता था ---डाक्टर हूं, फिर भी कह रहा हूं कि आज कल तो किसी को कोई तकलीफ़ हो जाती है तो उस की आफत ही हो जाती है ---हर विशेषज्ञ अपने अपने टैस्ट तो कहता ही है , लेकिन किसी बीमारी के विभिन्न विशेषज्ञों को भी अकसर सभी टैस्ट दोबारा ही चाहिये। मरीज़ की हालत देखने लायक होती है --- मुझे ऐसे लगता है कि वह या उस के परिवार वाले शायद बीमारी से ज़्यादा इस पर खर्च होने वाले पैसे की जुगाड़ में लगे रहते होंगे।

अकसर आप सब भी सुनते ही हैं कि जैसे जैसे ये खर्चीले टैस्ट बाज़ार मे आ गये हैं , लाखों-करोड़ों की मशीनें बड़े बड़े कारपोरेट हास्पीटलों में सज गई हैं तो अब इन पर धूल तो जमने से रही --- ये मरीज़ों के टैस्ट करेंगी तो ही इन का हास्पीटल को फायदा है, वरना ये किस काम की !! वो बात अलग है कि इन मशीनों की वजह से बहुत सी बीमारियां जो पहले पकड़ में ही नहीं आती थीं उन का पता चल जाता है और कुछ बीमारियों का तो बहुत जल्द पता भी चल जाता है --- लेकिन फिर भी यह कौन देख रहा है या यह कौन कंट्रोल कर रहा है कि कहीं इन महंगे टैस्टों का प्रयोग कईं जगह पर बिना वजह भी तो नहीं हो रहा। मैं ही नहीं कहता, आम पब्लिक में भी दिलो-दिमाग में यह बात घर कर चुकी है।

आज की जनता यह भी सोच रही है कि जितने जितने ये बड़े बड़े महंगे टैस्ट आ गये हैं ----डाक्टरों और मरीज़ों के बीच की बढ़ती दूरी का एक कारण यह भी है । अब डाक्टर लोग झट से ये टैस्ट करवाने के लिये लिख देते हैं---एक बात और भी है कि एक सामान्य डाक्टर जिसे किसी बीमारी विशेष का इलाज करने के लिेये कोई अनुभव नहीं है , वह भी ये टैस्ट करवाने के लिये लिख तो देते हैं, लेकिन रिपोर्ट आने पर जब किसी स्पैशिलस्ट के पास भेजते हैं तो वह डाक्टर अकसर उन्हीं टैस्टों को दोबारा करवाने की सलाह दे देते हैं -----------मरीज़ की आफ़त हो गई कि नहीं ?

एक तो यह जब से कंज़्यूमर प्रोटैक्शन बिल आया है इस से भी मुझे तो लगता है कि मरीज़ों की परेशानियां बढ़ी ही हैं ---- हर डाक्टर अपने आप को सुरक्षित रखना चाहता है --ऐसे में महंगे टैस्ट करवाने से पहले शायद कईं बार इतना सोचा भी नहीं जाता । यहां ही क्यों, बहुत से विकसित देशों में भी तो करोड़ों अरबों रूपये इसी बात पर बर्बाद हो रहे हैं कि डाक्टर मुकद्दमेबाजी के चक्कर से बचने के लिये अनाप-शनाप टैस्ट लिखे जा रहे हैं -----इस के बारे में एक विस्तृत्त रिपोर्ट मैं दो दिन पहले ही पढ़ रहा था।

कल मैं 17-18 साल के एक लड़के के मुंह का निरीक्षण कर रहा था --- मेरी नज़र उस की जुबान पर गई तो मुझे अपनी मैडीकल की किताब में दी गई तस्वीर का ध्यान आ गया। जब मैं एमडीएस कर रहा था तो एक बहुत बड़ी किताब पढ़ी थी ----Tongue : In health and disease जुबान - सेहत में और बीमारी में !! उस लड़के के जुबान उस की परफैक्ट सेहत ब्यां कर रही थी ---मैंने पास ही खड़े आपने अटैंडैंट को कहा कि किशन, यह देखो एक स्वस्थ जुबान इस तरह की होती है !

ऐसा क्या था उस की जुबान में --- उस का रंग बिल्कुल नार्मल था , और उस का खुरदरापन उस की सेहत को ब्यां कर रहा था ---यह खुरदरापन जुबान की सतह पर मौज़ूद पैपीली (filiform papillae) की वजह से होता है और यह जुबान की अच्छी सेहत की निशानी हैं ----कुछ बीमारियां है जैसे कि कुछ तरह के अनीमिया ( खून की कमी ) जिन में यह पैपीली खत्म हो जाते हैं और जुबान बिल्कुल सपाट सी दिखने लगती है ।

यह तो एक बात हुई ---- जुबान पर जमी काई( tongue coating), जुबान का रंग, मुंह से आने वाली गंध, मुंह के अंदरूनी हिस्सों का रंग, मसूड़ों का रंग, उन की बनावट, मुंह के अंदर वाली चमड़ी कैसी दिखती है -----ये सब उन बीसियों तरह की चीज़ें हैं जिन को देखने पर मरीज़ की सेहत के बारे में काफ़ी कुछ पता चलता है । कुछ समय से यह चर्चा बहुत गर्म है कि मसूड़ों के रोग ( पायरिया ) आदि से हृदय के रोग होने की संभावना बहुत बढ़ जाती है , और यह भी तो देखा है कि जिस किसी मरीज़ को बहुत ज़्यादा पायरिया है, दांत हिल रहे हैं तो कईं बार जब उस के रक्त की जांच की जाती है तो पहली बार उसे भी तभी पता चलता है कि उसे मधुमेह है।

धीरे धीरे समझ आने लगती है कि पुराने हकीम लोग, धुरंधर वैध अपने मरीज़ों में झांक कर क्या टटोला करते थे ---- वे जो टटोला करते थे उन्हें मिल भी जाता था --वे मिनट दो नहीं लगाते थे और मरीज़ की सेहत का सारा चिट्ठा खोल कर सामने रख देते थे लेकिन शायद आज कल की तेज़-तर्रार ज़िंदगी में इतना सब कुछ करने की फुर्सत ही किसे है------ अपने आप पता लग जायेगा जो भी है टैस्टों में , क्यों पड़े इन झंझटों में ---- कहीं कहीं ऐसी सोच भी बनती जा रही है।

जो काम आप बार बार करते है उस में हमें महारत भी हासिल होनी शुरू हो जाती है ---- किसी असामान्य मुंह से सामान्य मुंह का भेद करना हम जानना शुरू कर देते हैं ----ध्यान आ रहा अपने एक बहुत ही प्रिय प्रोफैसर का --- डा कपिला साहब----- क्या गजब पढ़ाते थे , बार बार कहा करते थे कि खूब पढ़ा करो --- अपना ज्ञान बढ़ाओ क्योंकि जब आप किसी मरीज़ का चैक अप कर रहे हो तो आप वहीं चीज़े देख पाते हो जिन के बारे में आप को ज्ञान है ----- You see what you know, you dont see what you dont know !! कितनी सही बात है ....वे बार बार यह बात दोहराते थे।

जब हम मुंह की ही बात करें तो हमें मुंह के अंदर झांकने मात्र से ही बहुत प्रकार की बीमारियों का पता चल जाता है और दूसरी बात यह भी है कि बहुत सी मुंह की तकलीफ़ें ऐसी भी हैं जो हमारे सामान्य स्वास्थ्य को भी काफी हद तक प्रभावित करती हैं।

यह जो फिल्मी गीत है ना मुझे बहुत अच्छा लगता था ----लगता था क्या , आज भी लगता है, इस के बोल बहुत कुछ बता रहे हैं --दो दिन पहले टीवी पर भी आ रहा था, इसलिये सोचा कि आप के साथ बैठ कर सुनता हूं -- और भी अच्छा लगेगा।

मंगलवार, 18 मार्च 2008

अगर यही विकास है तो.........



अभी सुबह के चार बजे हैं ...और मैं आधे घंटे तक मच्छरों से परेशान होकर.....परेशान क्या, हार कर उठ के बैठ गया हूं। हां, हां, पता है वो पचास रूपये वाली मशीन लगा लेनी थी.....लेकिन गर्मी भी तो अभी दो-तीन दिन से ही थोड़ी महसूस होने लगी है। आज पहली बार एक नंबर पर पंखा चला।
मैं एकदम निठल्ला बैठा हुया इस समय विकास की परिभाषा ढूंढने की कोशिश कर रहा हूं..........मुझे नहीं याद कि बचपन में हम लोग कभी इन मच्छरों की वजह से उठे हों। अब इस तरह के घर में रहता हूं जिस में एक भी मक्खी नहीं है, ये कमबख्त मच्छर भी सुबह तो दिखते नहीं लेकिन शाम एवं रात के वक्त इन के द्वारा परेशान किया जाना बदस्तूर जारी है। घर के आसपास भी ...लगभग आधे किलोमीटर तक ...गंदगी कहीं भी नज़र नहीं आती।
हम लोग इतने दशकों से सुनते आ रहे हैं ना कि मच्छरों को रोकथाम के लिये फलां-फलां कदम हमें उठाने चाहियें ....और हर बंदा अपने सामर्थ्य के अनुसार इस दिशा में कुछ न कुछ कर के खुश होता भी रहता है। लेकिन फिर भी इन बीमारियों की खान.....मच्छरों को हम लोग मिलजुल कर कंट्रोल नहीं कर पाये.......और बातें हम लोग इतनी बड़ी बड़ी हांकेंगे कि जैसे पता नहीं .............यकीन नहीं हो तो ट्रेन के सामान्य डिब्बे में हो रही गर्मागर्म डिस्कशन में थोड़ा सम्मिलित हो कर देख लीजियेगा। किसी कंपार्टमैंट में तो एक ग्रुप के माडरेटर को यही चिंता सताये जा रही है कि पाकिस्तान का क्या बनेगा....तो दूसरा, यह सोच कर दुःखी है कि इस बार उस का मनपसंदीदा चैनल सब से तेज़ चैनल न बन पाया.........!!
और हां, पहले इन दिनों में ही आंगन में तो नहीं ,लेकिन बरामदे में सोने की तैयारियां शुरू हो जाया करती थीं। और अब बच्चों को तारों से भरे अंबर के तले सोना भी किसी परी-कथा जैसा लगता है...............कोई सो कर तो देखे...या तो मच्छर ही अगवा कर के ले जायेंगे ....और अगर कहीं अगवा होने से बच गया तो सुबह इन के द्वारा काटे हुये के निशान देख देख कर तुरंत मच्छर-मार या मच्छर भगाऊ मशीन को लेने दौड़ पड़ता है।
जो भी हो......जैसा कि सब जगह ही कहते हैं कि इन बदले हुये हालातों के लिये हम सब ज़िम्मेदार हैं.................मुझे सब से ज़्यादा दुःख इसी बात का है कि हम सारा दिन गंदगी को रोना रोते रहते हैं ...............साफ ढंग से नहीं हो पा रही है, सफाई वाले अपना काम ठीक ढंग से नहीं कर रहे हैं.........लेकिन बात सोचने की तो यह भी है कि हम आखिर क्या कर रहे हैं !!---मुझे पूरा विश्वास है कि अगर हर घर के द्वार पर भी एक सफाईवाला खड़ा कर दिया जाये...तो भी हमारी हालत में सुधार नहीं हो सकता।
और इस तरह की गंदगी जो हमें जगह जगह दिखने लगी है उस का सब से अहम् कारण जो मुझे लगता है कि हमारा लाइफ-स्टाइल कुछ इस तरह का हो गया है कि हम बहुत ज़्यादा कूड़ा-कर्कट जनरेट करने लग गये हैं.............आप को भी याद होगा कि जब हम लोग बच्चे थे तो सारे घर की सफाई होने के बाद जो धूल-मिट्टी इक्ट्ठी हुया करती थी, उसे काम-वाली एक कागज़ पर डाल कर बाहर दरवाजे के बाहर फैंक आती थी और उन दिनों भी इस तरह के बिहेवियर पर बड़ी आपत्ति उठाई जाती थी कि यार, यह भी कोई बार हुई कि गंदगी को मुंह से उतार कर नाक पर लगा लिया.......घर की सफाई कर के सारी गंदगी बाहर डाल दी , यह भी कोई बात हुई !
लेकिन अब तो हम अपने आप को विकसित कह कर खुश होने वाले लोग...कुछ ज्यादा ही उच्चश्रृंखल से हो गये हैं। एक घर का कूड़ा-कर्कट देख कर डर लगता है................किसी के घर का ही क्यों ....मुझे तो अपने घर का ही दैनिक कूडा देख कर हैरानगी होती है कि यार, हम लोग एक दिन में इतना खा जाते हैं....दो-तीन थैलियां रोज़ाना कूड़ा। खैर, हमारे यहां तो नहीं , लेकिन आम तौर पर इस कूड़े में बच्चों के चिप्सों के पैकेट , उन की मनपसंद चीज़ों के पैकेट इत्यादि भी बहुत मात्रा में मिलते हैं....और दुःख की बात तो यही है कि ये उत्पाद हमारे बच्चों की सेहत बिगाड़ने के बाद भी हमारे पर्यावरण को भी विध्वंस करने में नहीं चूकते क्योंकि ये टोटली नान-बायो-डिग्रेडेबल होते हैं।
वैसे जिस तरह से मैं अपनी चारों तरफ़ रोज़ाना बड़े बड़े नाले इन प्लास्टिक की थैलियों की वजह से चोक हुये देखता हूं ना ...इस से मुझे तो लगता है कि आज की ताऱीख में ये थैलियां हमारी बहुत बड़ी शत्रु हैं.........कईं जगह इन पर बैन लगा है लेकिन फिर मैं और आप जब भी इसे मांगते हैं , हमें तुरंत एक थमा ही दी जाती है................यार, दही, दूध, दाल, सब्जी तक इन घटिया किस्म की थैलियों में मिलने लगी है। इन सस्ती थैलियों में लाई गई खाने पीने की वस्तुयें खा कर हम बीमारियों को तो खुला आमंत्रण दे ही रहे हैं ,उस के बाद ये हमारे नालीयां एवं नाले रोक कर सारे शहर में गंदगी फैलाती हैं। और कईं बार तो हमारे पशु-धन ( गऊ-माताओं वगैरह..) के पेट से इन के बंडल निकाले जा चुके हैं ..............हम सब के लिये कितनी शर्म की बात है कि हमें केवल एक कपड़े का थैला उठाने में इतनी झिझक हो रही है और पर्यावरण का जो मलिया-मेट हो रहा है , उसे हम देख नहीं पा रहे हैं या देख कर भी न देखने का ढोंग कर रहे हैं । और हर काम में सरकारी पहल की आस लगाये रहते हैं कि यार, काश हमारे शहर में भी इन चालू किस्म की पालिथिन की थैलियों पर बैन लग जाये........इस बैन में क्या है, आप आज से कपड़े का थैला उठा लीजिये , कसम खा लीजिये कि इन थैलियों को नहीं छूना..............तो बस हो गया बैन....................इस के लिये किसी कानून की ज़रूरत थोड़े ही है। लेकिन कुछ भी हो, अब तो यह सब करना ही होगा .....ऩहीं तो ये मच्छर हमें परेशान करते रहेंगे, गंदगी के अंबार हमारे आस-पास लगते रहेंगे.......और जैसा कि वर्ल्ड हैल्थ आर्गनाइज़ेशन कह रही है कि आज कल नईं नईं बीमारियों दिखने लगी हैं..................वे तो दिखेंगी ही क्योंकि हम लोगों ने निराले निराले शौक पाल रखे हैं ।
लेकिन जो भी हो, इन पालीथिन की थैलियों को बाय-बाय कह ही दिया जाये..............इसी में ही हम सब की बेहतरी है....बेहतरी को मारो गोली............अब तो वह स्टेज रही ही नहीं, अब तो भई इन को बहिष्कार करने के इलावा कोई चारा ही नहीं बचा। और अगर अभी भी मन को समझा न पायें हों तो जब कोई सफाई-कर्मचारी बिना दस्ताने डाले हुये किसी रुके हुये मेन-होल की सफाई कर रहा हो तो थोड़ा उस के पास खड़े होकर अगर हम उस में निकलते हुये तरह तरह के आधुनिकता के , विकास के प्रतीकों को ...और उस के द्वारा लगातार बाहर निकाल कर रखे जा रहे इन्हीं थैलियों के ढेर को देखेंगे तो सारा माजरा समझ में आ जायेगा। लेकिन कितने दिन यह सब ठीक रहेगा..............बस, चंद दिनों के लिये ही ।
चलिये......थोडा सोचें कि आखिर हम ने इस विकास से क्या पाया.......ठीक है फोन पर ढेर बतियाने लगे हैं, घर में ही रेल टिकट निकालने लगे हैं, हवाई जहाज में उड़ने के बारे में घर बैठे ही जानने लगे हैं , चंद मिनट पहले दूर- देश में क्या हुया है जानने लगे हैं, स्टिंग आप्रेशन भी करने लगे हैं..............लेकिन इस मच्छर का भी तो कुछ करो ना यारो। बहुत परेशानी होती है.....चिल्लाने की इच्छा होती है।
वही बात है ना कि जैसे जावेद अख्तर साहब लिखते हैं कि पंछी नदिया पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके, .......तुमने और मैंने क्या पाया इंसा होके !!................कितना उम्दा एक्सप्रेशन है...............वाह भई वाह!!..........लेकिन हम भी तो हम ही ठहरे, अपनी तरह के एक अदद अलग ही पीस, हम ये सब बातें सुन कर भी कहां सुधरने वाले हैं।.....मैं कोई झूठ बोल्या ?...........



8 comments:

Gyandutt Pandey said...
पॉलीथीन तो बहुत बड़ा अभिशाप है। एक बड़ी खोज वह होगी जिसमें पॉलीथीन को बायोडिग्रेडेबल बनाया जा सकेगा। वह अनुसन्धान कर्ता या तो कुनैन/पेनिसिलीन के आविष्कारक की तरह मानवता का सेवक होगा, या बिल गेट्स की तरह सबसे धनी।
उस आविष्कारक की इन्तजार में है यह दुनियां।
दिनेशराय द्विवेदी said...
गंदगी लोगों को ग्राह्य होती जा रही है।
डॉ. अजीत कुमार said...
पता नहीं ब्लोग पढने वाले कितने लोग इस बात की चिंता करते होंगे? या कितने आदमी इस पर अमल करते होंगे...
mamta said...
गंदगी और पॉलीथीन की समस्या जटिल ही होती जा रही है।
गोवा मे सब्जी या फल वाले पॉलीथीन नही देते है क्यूंकि यहां पॉलीथीन मे सामान देने पर दुकानदार को जुर्माना देना पड़ता है।
हालांकि अभी ये पूरी तरह सफल नही है ।
परमजीत बाली said...
बहुत गंभीर मसला है...लेकिन अभी बचाव का कोई रास्ता नजर नही आता।

" मैं कोई झूठ बोल्या?"
कोई ना।
Mired Mirage said...
मैं तो बार बार पॉलीथीन की थेली लेने से मना करती हूँ । सब्जी आदि खरीदने जाती हूँ तो अपनी अलग अलग थैलियों में सब्जी डलवाती हूँ । सब्जी वाले व वालियाँ अवश्य मुझे किसी प्रकार का सनकी मानते हैं । एक रूपये में बिकते शैम्पू, पान मसाले आदि के पाऊच भी बहुत बड़ी समस्या हैं । परन्तु यदि इनके विरुद्ध बोलेंगे तो गरीब विरोधी कहलाएँगे ।
घुघूती बासूती
Padma Srivastava said...
डॉक्टर साहब, देश में गंदगी और पॉलीथीन की समस्या बढ़ती जा रही है।
नीरज गोस्वामी said...
आप सच कह रहे हैं, बचपन में हम लोग घर की लान में चारपाई की एक श्रृंखला बना कर गर्मियों में सोया करते थे और मच्छर का नमो निशान नहीं हुआ करता था अब तो लान क्या छत पर सोये कई दशक हो गए...हम ही अपने इस हाल के लिए जिम्मेदार हैं.
नीरज