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गुरुवार, 7 अगस्त 2014

अगली बार कोई खुला मेनहोल दिखे तो इस का ध्यान रखिएगा

इस पोस्ट का हीरो नं१.. सुरेश कुमार
पांच छः दिन पहले की बात है मैं अपनी ड्यूटी पर जा रहा था.. उस िदन मैं अपने टू-व्‌हिलर पर था। अस्पताल के अंदर जा रहा था, आगे एक बिल्कुल नुकीला सा मोड़ है जिसे क्रॉस करने पर मैंने पाया कि यह क्या कुछ तो खुला हुआ था
मेनहोल की चौड़ई और लंबाई का अंदाज़ा आप इस से लगा सकते हैं
मैंने आगे चल कर अपना स्कूटर रोक दिया...और फिर देखा कि वहां तो एक बहुत बड़ा मेनहोन खुला पड़ा है...तीन चार फुट गहरा और चौड़ाई तो आप इस इन तस्वीरों में देख ही रहे हैं।

एक बार तो मैं हिल गया.....मुझे लगा कि आज तो जान बाल बाल बच गई... ईश्वर का शुक्र अदा किया...लेकिन इतना बड़ा मेनहोल खुला देख कर वहां से हटने की इच्छा नहीं हुई।

सब से पहले तो मुझे पास ही कुछ ईंटे पड़ी हुईं मिली तो मैंने झट से उन पांच सात ईंटों को उस के किनारे पर रख दिया..इस उम्मीद के साथ कि आने वाले को दूर से ही कुछ तो दिखेगा कि यहां कुछ तो गड़बड़ है।

खुले मेनहोल की लोकेशन को आप यहां देख सकते हैं
इतने में मैंने अपने सहायक सुरेश कुमार को फोन किया....वह बाहर आया ..मैंने कहा कि देखो, इस का क्या हो सकता है।

बहरहाल उसे वहीं खड़ा कर के मैं अंदर आ गया और अंदर आने पर वह सब कुछ किया.....लिख कर, फोन पर, सूचित किया, इंफार्म किया......और इस एमरजैंसी के बारे में बताया। एक शख्स ने तो इतना कह दिया की ये लोग इतनी जल्दी सुनते नहीं हैं।

जो भी हो, मुझे पता चल गया कि अभी कुछ दिन तो होने वाला है नहीं.... मैं जानता हूं ना जहां हम लोग काम करते हैं। इसलिए मेरी चिंता यही थी कि अस्पताल में आने वाला कोई कर्मचारी, मरीज या कोई रिश्तेदार अगर उस में गिर विर कर चोटिल हो गया तो अगर उस की जान पर ना भी बन आई तो बेचारा कुछ हड्डियां तो टुड़वा ही बैठेगा और अगर सिर पर चोट लग गई तो और मुसीबत।

इतने में मेरा अटैंडेंट वापिस लौट आया...और मुझे खबर देने लगा कि सर, ऐसा जुगाड़ कर आया हूं कि दूर ही से किसी भी वाहन चालक को पता चल जायेगा कि यहां लफड़ा है, इस से बच कर निकलना है। बताने लगा कि एक पेड़ की टहनी उन ईंटों के बीचो बीच खड़ी कर के आ गया है। 

चलिए मुझे इत्मीनान पहले से थोड़ा ज़्यादा तो हुआ कि चलिए, ईंटों की बजाए यह तो एक बेहतर तरीका है दूर से ही आने वालों को सचेत करने का।

लेकिन उस दिन अपनी ओपीडी में मन बिल्कुल भी लगा नहीं.....शायद अगले दिन ईद की छुट्टी थी और यही चिंता सता रही थी कि पेड़ की टहनी कितना समय ऐसा ही टिकी रहेगी....अंधेरी से, पानी बरसने से िगर विर जायेगी और विशेषकर रात में आने वालों की तो भयंकर आफ़त हो जायेगी।

शायद प्रार्थना ही काम कर गई.....मेरे अटैंडेंट ने भी इस समस्या का हल खोजने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। उस दिन वह भी उस काम ही में लगा रहा.....अपने पांच छः साथियों को, सफ़ाई वालों को इक्ट्ठा कर के अस्पताल के किसी दूर कोने में पड़े एक बहुत बड़े पत्थर को धक्का देता हुआ वहां तक पहुंच गया और उस खुले मेनहोल पर टिका दिया। बनियानें इन लोगों की पसीने से लथपथ हो रही थीं।

 ऐसे  जुगाड़ से जनता को बचाने की कोशिश की गई
मुझे भी बुलाने आया बाद में कि आप देखो सर, कैसा है यह इंतजाम। मैं भी उस के साथ वहां देखने गया.... वह भारी भरकम पत्थर देख कर इतना हैरान हुआ कि ये लोग कैसे धक्का मारते हुए इसे यहां तक लाए होंगे। Where there is will, there is a way!

उस मेनहोल से जिस लोहे के कवर को चुराया गया था, उस का वजन ही ५०-६० किलो का बताया जाता है, पुराने जमाने के तैयार ये कवर......किसी चिंदीचोर की नज़र पड़ गई होगी, उसे काट कर उठा ले गया।

स्टॉफ के कुछ लोगों ने जिस तरह से इस एमरजैंसी को संभाल लिया ...मैं उस दिन यही सोचता रहा कि हर संस्था में कुछ न कुछ ऐसे लोग ज़रूर होते ही हैं जिन के लिए हर काम उन का अपना काम है, वे कभी किसी काम को ना करना तो जैसे सीखे ही नहीं, बल्कि स्वयं आगे आ कर इस तरह की सेवा में लग जाते हैं। 

सही बात है, विभिन्न तरह के ईनामों के सही पात्र इसी तरह के लोग होते हैं........लेकिन मजे की बात है कि इन लोगों की इन सब दिखावटी चीज़ों की कोई भी तमन्ना नहीं होती। जब मैंने अपने अटैंडेंट से ऐसा कहा तो उस ने हंसी में बात टाल दी और अपने साथियों के साथ चाय-पार्टी करने चला गया।

यह बात तो थी आज से शायद पांच-सात दिन पुरानी लेकिन आज भी यह पत्थर ही उधर पड़ा लोगों को बचा रहा है, देखते हैं कब तक उस का कवर तैयार हो कर आता है।

इस पोस्ट को लिखते का उद्देश्य केवल यही था कि हम लोग िजस रास्ते पर भी चल रहे हैं, वहां पर इस तरह के खुले मेनहोलों के बारे में सजग रहें और कुछ इस तरह का इंतजाम कर दें कि आने वाला बिना किसी पूर्वाभास के अपने जान माल का नुकसान न करवा बैठे..... चलिए माल तो फिर इक्ट्ठा हो भी जाएगा लेकिन हर बंदे की जान बेशकीमती है, अनमोल है, उस की हर कीमत पर रक्षा होनी चाहिए। पिछले महीने मैं अंधेरी क्षेत्र में एक फुटपाथ पर चल रहा था तो अचानक देखा उस फुटपाथ के बीचो बीच एक बहुत बड़ा मेनहोल खुला पड़ा है...... ऐसा दिखना ही संवेदनशीलता की कमी को दर्शाता है।

अाज कल हम सोशल मीडिया को इतना इस्तेमाल करते हैं....तो उस की फोटू निकाल कर व्हस्ट-एप, फेसबुक, ट्विटर पर संबंधित अधिकारियों तक पहुंचाने में देखिए तो क्या होता है। कुछ अरसा पहले एक फेसबुक पेज के बारे में इलैक्ट्रोिनक मीडिया से जाना कि उन्होंने उस पेज पर देश में कहीं भी मिलने वाले खुले मेनहोलों, गड्ढ़ों की तस्वीरें अपलोड की हुई हैं...... और फिर उन के ही कुछ वालेंटियर्ज़ उस गड्ढे को भरने निकल भी जाते हैं। इन के काम को सलाम। यही सच्ची इबादत है....जैसा कि इस गीत में भी कहा जा रहा है। 

मेरा बेटा बता रहा था कि कुछ दिन पहले बंबई में एक फ्लाईओव्हर पर एक गड्‍ढा होने से एक बाईक चालक की जान चली गई।




शनिवार, 25 जून 2011

अस्पतालों के वेटिंग एरिया का वातावरण

अस्पतालों के वेटिंग एरिया की तरफ़ शायद इतना ध्यान दिया नहीं जाता। मैंने अपने एक लेख में लिखा था कि अकसर अस्पतालों में आप्रेशन के द्वारा निकाली गई रसौलीयां या ट्यूमर आदि का प्रदर्शन वेटिंग एरिया में किया जाता है।

एक बार एक महिला रोग विशेषज्ञ के यहां बहुत से कांच के मर्तबान देख कर बहुत अचंभा हुआ ---और इनमें सब तरह के स्पैसीमैंस भरे हुये थे.... हम स्वयं से अनुमान लगा सकते हैं कि वहां जाने वाला एक मरीज़ इन सब को देख कर कितनी सहजता अनुभव कर पाता होगा।

आज से 15-20 साल पहले मुझे लगता था कि हैल्थ-ऐजुकेशन के लिये अस्पतालों के वेटिंग एरिया एक अच्छा स्थान है। लेकिन अब मेरी यह राय बदलने लगी है।

एक अस्पताल में देखा – एक विदेशी परिवेश में एक महिला की तस्वीर लगी हुई थी और साथ में मीनूपाज़ के ऊपर बहुत लंबा चौडा लिखा हुआ था –बिलकुल छोटा छोटा प्रिंट और भारी भरकम अंग्रेज़ी –अब कौन पढ़े इस सब को नज़र का चश्मा गढ़ा के। मैंने तो कभी इन पोस्टरों को किसी को पढ़ते देखा नहीं।

और भी कईं तरह के पोस्टर लगे थे ...सब के सब अंग्रेज़ी में.. एक तो ओसटियोपोरोसिस का पोस्टर ज़रूर हर जगह लगा दिखता है ---कि सब लोग इसके लिये ज़ूरूर अपनी जांच करवाएं। और साथ में एक बड़ा सा पोस्टर की हृदय की नाड़ीयों का बहाव कैसे रूकता है और कैसे हार्ट अटैक होता है। सब कुछ इतनी जटिल अंग्रेज़ी भाषा में दिखता है कि पहले तो कोई इन सब को पढ़ने के लिये उठे ही नहीं और और अगर उठ भी जाए तो दो मिनट में सिर दुखने लगे।

एक बात और भी है कि इन विज्ञापनों के पीछे मार्कीट शक्तियों का भी बहुत हाथ रहता है। अकसर इन पोस्टरों पर तरह तरह की दवाईयों अथवा सप्लीमैंट्स के विज्ञापन भी छपे रहते हैं। ओवरआल कुछ मज़ा सा नहीं आता यह सब देख कर।

हां, कईं जगह पर टीवी पर वही घिसी पिटी हिंदी मसाला मूवी ऊंची आवाज़ में लगी होती हैं..... वेटिंग रूम में इंतज़ार करने वालों की दशा एक सी कहां होती है ---किसी के मरीज़ के हालत की बिगड़ रही होती है, किसी की ठीक हो रही होती है, किसी के परिजन को डाक्टर ने जवाब दे दिया है .....ऐसे में कहां किसी को गोबिंदा या जलेबीबाई का नृत्य भाएगा।

मेरे विचार में अकसर जो थोड़ी बहुत जानकारी हम लोग जनता तक पहुंचाना चाहते हैं वह या तो हिंदी भाषी में होनी चाहिये ----बिल्कुल हल्की भाषा में – और क्षेत्रीय भाषा का भी सहारा लिया जा सकता है। बड़े शहरों में इस के साथ साथ अंग्रेज़ी का सहारा भी लिया जा सकता है। इस के अलावा कुछ भी केवल डराने का काम करता है।

मैंने अपने एक पुराने लेख में लिखा था कि बंबई के एक चिकित्सक के यहां मैंने एक बार यह पोस्टर देखा था ...
Seek the will of God
Nothing More
Nothing less
Nothing else


इस तरह के पोस्टर देख कर अच्छा लगता है। और अगर इन जगहों पर सुंदर पोस्टर लगाये जा सकें जो सहजता कायम रखने में मदद करें। ध्यान आ रहा है नन्हे मुन्ने बच्चों के हंसते-किलकारियां मारते हुये पोस्टरों का – एक पोस्टर और भी दिखता है कि जिन में एक नंग-धडंग शिशु ने अपने मुंह पर अंगुली रखी हुई है, साथ में लिखा है ...silence. और तरह तरह की प्राकृतिक दृश्यों को वेटिंग रूम में लगाया जा सकता है –बर्फ से ढके पर्वत, झरने, घने जंगल, समुंद्र का नज़ारा------कितने नज़ारे हैं इस संसार में....इन सब से इंतज़ार करने वाले लोगों का ध्यान बंटता है ....वे थोडा रिलैक्स कर पाते हैं।

और देवी देवताओं की तस्वीरें --- मुझे इस में थोड़ी आपत्ति है--- 36 करोड़ देवी देवताओं को मानने वाले इस देश में किस किस को दीवारों पर सजाएंगे, जिस किसी के भी इष्ट-देव उस प्रतीक्षालय में लगे नहीं दिखेंगे, वह बेचारा यूं ही किसी अनिष्ट की संभावना से परेशान होता रहेगा। इस संसार में सभी डाक्टरों का कोई धर्म नहीं होता, यह बहुत सुखद बात है.....उस के मरीज़ केवल एक मरीज़ है .....लेकिन यह उस के वेटिंग रूम में दिखना भी चाहिये। हम जिस धर्म को, धर्म-गुरू, साधु-संत-फकीर, देवी देवता को मानते हैं, यह हमारा पर्सनल मामला है.................इस का प्रदर्शन कहां ज़रूरी है। अथवा हमें अपने ऊपर धार्मिक का लेबल चिपका कर क्या हासिल हो जाएगा।

मैं एक चिकित्सक को जानता हूं उस ने अपनी सभी अंगलियों में तरह तरह की अंगुठियां, नग आदि पहने हुये हैं......हम लोग कईं बार उस के बारे में सोच कर बहुत हंसते हैं ...और तो और देवी देवताओं की अनेकों अनेकों तस्वीरें भी उस ने अपने कमरे में टांग रखी हैं ...लेकिन फिर भी ............चलिये, इस बात को इधर ही छोड़ते हैं।

डाक्टर अगर स्वयं ही इस तरह की अंध-श्रद्धा में विश्वास रखता दिखाई देगा तो जादू, टोनो, तांत्रिकों, झाड़-फूंक, भूत-प्रेतों जैसे अंधविश्वासों से जकड़े हुये आम आदमी का क्या होगा......कुछ चीज़ें हमें जान बूझ कर इस आम आदमी के हितों को ध्यान में रख कर करनी होती हैं और कुछ इन्हीं कारणों से नहीं करनी होतीं......ताकि लोगों तक संदेश ठीक पहुंचे।

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

प्राइव्हेसी की जबरदस्त डिमांड तो है, आखिर क्यों ?

अकसर आज कल दिख ही रहा है कि घर के सदस्यों की संख्या से ज़्यादा मोबाईल फोन और लगभग उस से भी ज़्यादा सिमकार्ड होते हैं। लेकिन एक तो पंगा अभी भी है – अब बेवजह किस बात का पंगा? – प्राइवेसी का। एक स्कूल जाने वाले बच्चे को भी फोन पर बात करते वक्त प्राइवेसी चाहिए। प्राइवेसी से एक बात का ध्यान आ रहा है ...एक बार मैंने मीडिया एकेडेमिक्स की एक शख्सियत से यह बात सुनी थी कि जब से यह टीवी ड्राईंग-रूम से निकल कर बच्चों के बेडरूम में पहुंच गया है, अनर्थ हो गया है। क्या है न जब टीवी को सब लोग एक साथ बैठ कर देख रहे होते हैं तो अपने आप में ही एक अंकुश सा सब के ऊपर बना रहता है –किसी ऐसे वैसे सीन से पहले कोई न कोई रिमोट का कान खींच कर किसी प्रवचन की तरफ़ सब का ध्यान सरका देगा, कोई बहाना बना के दो मिनट पहले उठ जाएगा..., कोई बड़ा-बुज़र्ग यूं ही बच्चों को हल्का सा टोक देगा तुम भी यह सब क्या देखते रहते हो......कहने का मतलब कि किसी न किसी रूप में अंकुश तो रहता ही है जब सब लोग टीवी एक साथ देख रहे होते हैं। वरना आज प्रोग्राम तो ऐसे ऐसे चल निकले हैं कि क्या इन के बारे में जितना कम कहें उतना ही ठीक लगता है !

तो बात हो रही थी फोन पर बात करते वक्त प्राइवेसी की। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह बहुत अजीब सा लगता है। अब स्कूल जाने वाले बच्चे को ऐसी कौन सी प्राइवेसी चाहिए.....कुछ ज़्यादा समझ में नहीं आता। लेकिन एक बात और भी है कि बच्चे अपने घर ही से ये सारी बातें सीखते हैं और इसलिये शायद हम सब बड़ों को भी अपने आप को टटोलने की ज़रूरत है।

मुझे याद है कि कुछ समय पहले यह मोबाइल पर बात करते वक्त कोई कोना सा ढूंढ लेना थोड़ा अजीब सा लगता था। मेरा एक सीनियर था ...कुछ साल पहले की बात है ... जब भी मैं उस के पास बैठा होता और उस का मोबाइल फोन बज उठता तो वह झट से उसे लेकर टायलेट में घुस जाता। दो-तीन बार ऐसा हुआ..मुझे यह सब इतना अजीब लगा ...अजीब क्या लगा, इंसलटिंग लगा कि मैंने उस के पास जाना ही बंद कर दिया। बस अपने भी मन की मौज है। लेकिन अब देखता हूं कि लोग कुछ ज़्यादा ही सचेत हो गये हैं...किसी का मोबाईल फोन बजने पर उस के मुंह के भाव पढ़ कर यह अंदाज़ा लगा लेते हैं कि किसी बहाने उठ कर बाहर जान ठीक है या यहीं पड़े रहो।

अच्छा मोबाइल फोन आने पर यह प्राइवेसी ढूंढने का सिलसिला है बड़ा संक्रामक--- बस एक दूसरे को देखते देखते कैसे आदत पक जाती है पता ही नहीं चलता। लेकिन जो भी हो, अब मैंने निश्चय कर लिया है कि अब सब बातें सब के सामने ही किया करूंगा --- चलिये कभी कोई अकसैप्शन हो सकती है, लेकिन वह भी कभी कभी। हर बार फोन उठा कर अलग किसी कोने में घिसक जाना कुछ शिष्टाचार के नियमों के विरूद्द सा लगता है, है कि नहीं?  भला हम ने कौन सी ऐसी बातें करनी हैं किसी से जो कि हमारे परिवार के सदस्यों के सुनने लायक तो हैं नहीं, लेकिन लॉन में बात करते वक्त चाहे पड़ोसी का बंगला चपरासी सारी बातें सुन ले। बड़ी अजीब सी बात लगती है।

वैसे तो हम लोग जब कुछ लोग बैठे हों तो बच्चे हमारे कान में आकर कुछ कहना चाहे तो हम इसे भी अकसर डिस्कर्ज करते देखे जाते हैं ... कहते हैं कि बेटा, सब के सामने जो बात करनी है करो, लेकिन फिर यह मोबाइल फोन के नियम क्यों इतने अलग से हैं?

मोबाइल फोन से लौट चलते हैं उस ज़माने की तरफ जब केवल लैंडलाइन फोन का ही सहारा हुआ करता था और वह भी कभी कभी चला करता था क्योंकि हम इतने जुगाड़ू प्रवृत्ति के नहीं थे कि वे किसी लाइन-मैन को सैट कर के रखते ताकि वह फोन खराब होते ही भाग के आ जाता और तुरंत लाइन ठीक कर के चला जाता। ज़माना वह भी याद करना होगा जब लैंडलाइन फोन बजते ही घर में मौजूद दो-तीन पीढ़ियां उस फोन वाले मेज के इर्द-गिर्द यूं इक्ट्ठा हो जाया करती थीं जैसे कि कोई सैटेलाइट का परीक्षण किया जाने वाला है।

जो भी हो, दौर अच्छा था, खुलापन था, एक फोन आता था तो सभी के साथ बात होती थी ... दिखावेबाजी नहीं थी, अब तो बस दिखावेबाजी ज़्यादा है और असल बात शायद बहुत कम है। अपने आप से पूछने वाली बात यह है कि आखिर ऐसा कमबख्त है क्या जिसे हमें अपनों ही से छिपाने की ज़रूरत पड़ रही है। और तो और, उसी पुराने दौर में एक दौर यह भी हम ने देखा है जब किसी का पीपी ( PP number)  दे कर काम चला लिया जाता था और अकसर विज़िटिंग कार्डों पर यह अंकित रहता था कि  यह नंबर पीपी नंबर है। और फोन करते या सुनते वक्त कोई परवाह नहीं कि कितने पड़ोसियों ने हमारी बातें सुन ली होंगी ... इसलिये फोन करते वक्त समय का ध्यान रखना भी बेहद लाज़मी था वरना अगली बार से यह सुविधा खत्म...... चलो, छोड़ते हैं, उस दौर की भी अपनी बहुत सी मुश्किलें थीं और अगर इन्हें गिनाने लग गया तो एक छोटा मोटा उपन्यास ही बन जायेगा जो कि मैं अभी लिखने के बिल्कुल भी मूड में नहीं हूं।

हां, तो थोड़ा इस से भी पीछे चलिये....वह दौर जब ये ट्रंककाल करते लोग या तो हिंदी फिल्मी में देखे जाते थे या फिर शहर के बड़े डाकघर में। वहां पर भी कहां यह सब इतना आसान था, पहले फार्म भरो, फिर 50 रूपये का अडवांस जमा करो, फिर लग जायो लाइन में.....बार बार नंबरों की ट्राई.....ट्राई पर ट्राई.... बाबू के साथ चिक चिक कि बई, बात तो हुई नहीं और तुम कह रहे हो इतने मिनट के पैसे दो....अब बाबू की बला से, बात हुई या नहीं हुई, उस के सामने रखी स्टाप-वॉच की गिनती के आगे किसी की न चलती थी, बड़ी सिरदर्दी थी, मुझे नहीं याद कि मैं कभी उस दौर में इन बड़े डाकघरों में यह सो-कॉल्ड ट्रंककाल के लिया गया होऊं और सफल हो कर लौटा हूं ...हमेशा हारे जुआरी की तरह साइकिल उठा कर घर की तरफ़ चल पड़ता है।

लेकिन ऐसे खुशकिस्मत लोगों को देख कर मन में बड़ी तमन्ना होती थी जिन का झट से ट्रंककाल लग जाता था और वह अंदर केबिन में बंद होते हुये भी इतने ज़ोर से बातें करते थे कि मुझे याद है कि मेरे जैसी दुःखी आत्मायें उस अमृतसर के रियाल्टो टाकी के सामने बड़े डाकखाने पर यह कह कर मन थोड़ा हल्का ज़रूर कर लिया करते थे कि ....यार, इस को ट्रंककाल करने की आखिर ज़रूरत है, इस की तो आवाज़ ही इतनी दबंग और कड़क है कि अगर यह बाहर आकर थोड़ा और बुलंद आवाज़ में  बोल दे तो दिल्ली तक तो आवाज़ वैसे ही पहुंच जाए। यह बात माननी पड़ेगी कि अमृतसर के लोग हैं बड़ी मज़ाकिया – सब से बड़ी खूबी वे किसी पर हंसने की बजाए अपने पर भी हंसने से भी गुरेज़ नहीं करते। और हर स्थिति में खुशी ढूंढ लेने की कला रखते हैं..... जिउंदे वसदे रहो, मित्तरो......

बस, अब इस कॉल को बंद करने का वक्त आ गया है, लेकिन इस से मैंने तो एक सीख अपने आप के लिये ली है कि कोशिश करूंगा कि इस प्राइवेसी को खत्म करने के लिये पहल मैं ही करूं ---मैं फिर कह रहा हूं कि कुछ परिस्थितियां हो सकती हैं जिन में शायद हमें कभी कभार कुछ प्राइवेसी चाहिये हो, लेकिन हर कॉल को ही प्राइवेट कॉल बना लिया जाए तो बहुत बार यह मोबाईल सिरदर्द लगने लगता है।

वैसे एक बात और भी है न, टैक्नोलॉजी इतनी आगे बढ़ गई ....लेकिन क्या इस से इंसानों के रिश्तों में गर्मजोशी आई? ….मुझे तो ऐसा कभी भी नहीं लगा, फेसबुक आ गई, मॉय-स्पेस आ गया लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि विभिन्न कारणों की वजह से हर तरह ठंडक ही बढ़ती दिख रही है। गर्मजोशी को वैसे आज की नई पीढ़ी शायद ही समझ सके जिसे मां-बहन-बीवी का कईं कईं दिनों की दिन रात की तपस्या से तैयार किया स्वैटर चुभता है, मां की तैयार की गई टोपी आक्वर्ड लगती है लेकिन विदेशों में तैयार दो हज़ार की ब्रैंडड स्वैटर-टोपियां ही सारी गर्माहट देती हैं, ऐसे में कोई क्या कहे। फोनों की खूब बातें हो गईं वैसे असली गर्मी तो पुराने खतों में हुआ करती थीं ---इतनी गर्माइश की अगला खत आने तक मेरे पिता जी मेरी दादी की हिंदी में लिखी चिट्ठी लगभग रोज़ाना सुना करते थे ....एक दिन कोई सुना देता, दूसरे दिन कोई दूसरा काबू आ जाता .... और अगली चिट्ठी आने तक यह सिलसिला चलता रहता था।

चलिये, अब बंद भी करूं ....लेकिन एक निर्णय लेता हूं कि आज से पूरी कोशिश रहेगी कि मोबाइल फोन पर बात सब के सामने ही हो, ऐसी भी क्या बात है, ऐसी भी क्या प्राइवेसी है, ऐसा कुछ है ही नहीं, अगर थोड़ा गहराई में सोचेंगे तो पाएंगे कि ऐसा अलग सी जगह में दुबक कर बात करने जैसी कोई बात भी तो नहीं होती --- एक आम आदमी ने कौन सा अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के मर्जर की बातें करनी हैं, कौन से ट्रेड-सीक्रेट आपस में बांटने हैं...........ऐसा कुछ नहीं है तो चलिये लाते हैं आज से अपनी बातचीत में एक नये खुलापन ........ताकि हमारा आने वाला कल आज से बेहतर हो सके, और ये जो हम ने अपने ब्लड-प्रैशर को पक्के तौर पर बढाये रखने के पुख्ता इंतज़ाम कर रखे हैं, इन से छुटकारा पाएं.....