रविवार, 29 मई 2016

बचपन के दिन भुला न देना..

मुझे अभी याद आया कि इस नाम से एक पोस्ट मैंने आठ दस साल पहले भी लिखी थी जब एक दिन मैंने बेटे के हाथ में गुलेल देखी थी..

अभी इस का ध्यान सुबह सुबह इसलिए आ गया कि आज हमारे स्कूल वाले ग्रुप पर डा रमेश ने सुबह खूब सारी फोटो भेजीं यह लिख कर कि जब टीवी और इंटरनेट नहीं थे तो हम लोगों की छुट्टियां कुछ इस तरह से बीता करती थी...मजा आ गया इन तस्वीरों को देख कर ...सब कुछ फ्लैशबैक की तरह मन में घूम गया..इन सभी तस्वीरों को तड़का लगाने की इच्छा हुई और इन्हें  ब्लॉग में सहेजने की भी इच्छा हुई ताकि आज कल के बच्चे-युवा कभी अगर इन्हें ढूंढते हुए भूले-भटके यहां तक पहुंच जाएं तो उन्हें कुछ मिल जाए!

हमारी बालकनी से आज की सुबह ऐसी दिख रही है...
मेरे विचार में पहले तस्वीरें टिका दूं....यह टापिक बहुत लंबा है..क्योंकि लगभग हर गेम के साथ हमारी इतनी यादें तो बावस्ता हैं जिन के लिए कम के कम अलग से एक एक पोस्ट तो चाहिए ही चाहिए... अभी तो मैं इन के साथ केवल इन के नाम लिख कर छुट्टी करूंगा...क्योंकि बाहर मौसम बड़ा खुशगवार हो गया है ..बरसात की वजह से ..ऐसे में यहां लैपटाप के आगे टिकना भी एक गुनाह जैसा ही है ...बेटा भी कह रहा है...चल बापू, कहीं चलते हैं!

अच्छा, मैं फोटो तो यहां लगा रहा हूं..साथ में इन के नाम जो पंजाबी में हम लोगों को याद हैं, वही लिख रहा हूं...अगर आप चाहें तो मुझे कमैंट्स में इन के अन्य भाषाओं के नाम भी िलख भेजिए....मैं उन्हें भी तस्वीरों के साथ लिख दूंगा...
 
यह है जी पिट्ठू सेका...जो इस ढेरी को गिरायेगा. फिर भागेगा ..पीठ की सिकाई से बचने के लिए .. .हा हा हा 

पतंगबाजी...मुझे यह कभी नहीं उड़ानी आई...क्योंकि मेरे में पेशेंस नहीं है
हमेशा इन से ईर्ष्या ही करता रहा कि कैसे करते हैं ये इतना बढ़िया बैलेंस और ऊपर से रेस ...हा हा हा 

वाह भई वाह...लाटू का खेल...हमारे समय में हम लोगों को ये मिट्टी के बने हुए भी मिलते थे..पांच पैसे के पांच ...घऱ आकर फिर पायजामे से नाड़ा निकाल कर यह खेल शुरू हो जाता था...लाटू पर लपेटने के लिए!😊 

लड़कियों का खेल...जो मुझे याद रहा ..कोकलाशी पाकी जुम्मे रात आई जे...जेहडा अग्गे पिच्छे वेखे ओहदी शामत आई जे...

वाह ही वाह...यह स्टापू वाला खेल तो हम भी खेला करते थे..
गीटे ....वाह जी वाह...यह हम भी बहन के साथ और पड़ोस की लड़कियों के साथ खेला करते थे...जब लकड़ी के बने गीटे नहीं होते थे तो इमली के बीजों को तोड़ कर गीटों का जुगाड़ हो जाता था..
गुल्ली डंडा...बड़ा एक्सपर्ट था मैं इस में...हर कोई ही था उस दौर में! 
विकेट तो भाई ऐसी ही होती थी..लेकिन बैट की जगह हाथ में कपड़े धोने वाली थापी या जिसे सोटा कहते थे, वही हुआ करता था...कुछ बच्चों की घर में इसी थापी से पिटाई भी हुआ करती थी, हम लोगों की तो कभी भी एक बार भी पिटाई नहीं हुई...मैं अकसर मां से यह गिला करता हूं! 

खो खो  का खेल...दसवीं कक्षा में मेरी यह गेम थी..हमारा एक साथ गुलशन आज कल अमृतसर के एक स्कूल का वाईस-प्रिंसीपल है, वह इस गेम का बादशाह हुआ करता था, दो दिन पहले याद करवा रहा था... 
कुछ कुछ बच्चे इतने एक्सपर्ट होते थे जमान पर घूमते लाटू को यूं अपनी हथेली पर उठा लिया करते .....और हम..दांतों तले अंगुली दबा लिया करते!!
चल भाग, तू चोर मैं सिपाही ....छू-छिपाई का खेल... कुछ याद आया?
लिड्डो का खेल...अकसर बच्चे ट्रेन में भी यह लेकर चला करते थे..
यह गुल्ली डंडा फिर से दिख गया....इसे तैयार करने का भी एक आर्ट था...क्योंकि नोकीली गुल्ली से ही खेल का मजा आता था..
इस का नाम नहीं याद आ रहा ..

ऐसा तो मुझे कुछ याद नहीं है... 

यह जो कैंची साईकिल वाली फोटो है ना यह मुझे सब से प्यारी लगी...क्योंकि इस तरह के लफड़े हम लोगों ने बहुत किये...घर में पड़ी कोई भी साईकिल लेकर निकल पड़ना ग्राउंड में ...कैंची साईकिल चलाते चलाते गिर भी जाना ..लेकिन हिम्मत नहीं हारनी...बहुत मजा आता था... एक िदन हमारी बड़ी बहन जैसी कंचन को मेरी इस हालत पर तरस आ गया...कहने लगी ...चल काठी ते बैठ, मैं पिच्छों कैरियर फड़दी हां....सच में, उस दिन उस की चंद मिनटों की हल्ला-शेरी से हम सीट पर बैठ कर साईकिल चलाने लगे......I can't forget that thrill...जब पहली बार सीट पर बैठ कर साईकिल चलाया था...शायद हवाई जहाज़ का आविष्कार करने वालों को भी उतना ही मज़ा आया होगा.... फिर तो बस यही तमन्ना था कि कब हमें भी साईकिल पर स्कूल जाने की इजाजत मिल जाए...

अच्छा दोस्तो ऐसा है कि मुझे इस पोस्ट में और भी बहुत कुछ लिखना है, लेकिन सोच रहा हूं कि अगली पोस्ट में वे सब बातें लिख दूंगा...अभी मैं बस उस पोस्ट को लगा रहा हूं जिसे मैंने आठ दस साल पहले लिखा था...जब मैंने अपने बेटे के हाथ में गुलेल देखी थी...आप उसे भी ज़रूर देखिएगा....मैंने अभी गूगल किया ...बचपन के दिन भुला न देना मीडिया डाक्टर ...तो झट से यह लेख दिख गया....आप के लिए इस का लिंक यहां लगा रहा हूं...बचपन के दिन भुला न देना..



2 टिप्‍पणियां:

  1. अरे इन खेलों में कंचे का खेल तो रह ही गया ......... खैर तब बहुत से खेल होते हैं आज एक ही खेल है इंटरनेट और टीवी पर खेलने और देखने के लिए बच्चों के पास..............
    बचपन की यादें ताज़ी हो उठी। .

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