रविवार, 21 दिसंबर 2014

जनगणना करने वाले की आपबीती..

यहां मैं एक वीडियो अपलोड कर रहा हूं ...मेरे सहपाठी मित्र कैप्टन (डा) पी सी चावला ने इसे आज सुबह भेजा था, इसे सुना तो दिल को छू गया। मैंने सोचा कि इसे अपने पाठकों तक कैसे पहुंचाऊं......शायद बहुत से पंजाबी भाषा जानते न हों, इसलिए मैंने इसे पहले पंजाबी भाषा में लिखा....अब इसे हिंदी भाषा में लिख कर आप तक पहुंचाने का एक अदना सा प्रयास करने लगा हूं........वैसे तो शुक्र है कि मानवता की कोई भाषा नहीं होती..



जनगणना करता जब मैं एक गली से गुजरा,
छोटे सी कोठरी से किसे के खांसने की आवाज़ आई, 
मैंने झांक कर अंदर देखा और अंदर चला गया, 
उस बंदे ने मेरे से पानी मांगा, 
एक छोटी सी सुराही, गिलास, बालटी और टोकरी पड़ी थी, 
खस्ताहाल चारपाई पर एक ८० साल का बाबा पड़ा हुआ था...

सुराही से पानी मैंने गिलास में डाल लिया, 
बाबे ने गिलास पकड़ कर मुंह से लगा लिया, 
मैंने पहचाना नहीं तुम कौन हो भाई, 
कहां रहते हो, किस गांव से हो, 
मैंने कहा मैं आप के गांव का सरकारी मास्टर हूं..
मेरी जनगणना पर लगाई गई ड्यूटी है। 
आपके सारे घर परिवार के बारे में मैंने लिखना है, 
आप कितने मैंबर हो सारा परिवार मैंने लिखना, 
यह सुन कर बाबे की आंखें भर आईं, 
उस की आंख से अश्रु गिरता हुआ उसे रूला गया। 

हौसला रखते हुए बाबा फिर बोला, 
जिंदगी का फिर उसने राज़ खोला, 
चार पुत्तर पांच पोते बड़ा परिवार था, 
किसी समय शेरा मैं नत्था सिंह सरदार था। 
मिट्टी के साथ मिट्टी होकर मैंने कमाईयां कीं, 
मेरे पैरों में फटी बिवाईयां देख, 
काम कर कर के हाथों की लकीरें ही मिट गईं, 
पुत्र और पौतों के लिए जागीरें बना दी हैं लेकिन। 

फिर मेरे घुटने और कंधे जवाब दे गए, 
तब मेरे बेटे करने लग पड़े हिसाब ओए, 
खेत, घर, बाहर सब का हिस्सा तो पड़ गया, 
लेकिन तेरा यह बाबा बिन-बंटा ही रह गया, 
मेरी जीवनसाथी भी मुझे बीच में छोड़ गई, 
कुछ समय पहले स्वर्ग-सिधार गई। 

अगर मैंने गड्डे जोड़े तो ये गाडियों में बैठते हैं, 
हमारे बुड्ढे ने क्या किया आज यह लोगों से कहते हैं,
कोठियों से निकल कर खटिया बाहर कोठे में आ गई, 
नत्था सिंह सरदार अब नत्था बुड़ा बन के रह गया। 

लोकलाज के मारे एक दूसरे की बात मान ली, 
महीना महीना मुझे रखने की चारों ने बारी बांध ली, 
३० और ३१ दिनों का फिर पंगा पड़ गया, 
मार्च मई वाले कहते कि बुड़ा इक दिन ज्यादा रह गया। 
एक बात जा कर अपनी सरकार के कानों तक पहुंचा देना, 
हर बाजी जो जीतते वे औलाद के हाथों हारते,
आप कहते हो कि आज तरक्की कर ली, 
पर क्यों एक बात भूल जाते हो, 
वो तरक्कीयां कैसी हैं जहां बागबान ही खाए ठोकरें, 
मेरे बेटे मुझे माफ़ करना, मैं तो भावुक हो गया...
तुमने तो फार्म के खाने भरने थे और मैं अपना ही दुःखड़ा रोने लग पड़ा। 

मैं बेबस हो कर उठ खडा हुआ, मेरी आंखों से बह निकली अश्रुधारा, 
मेरे हाथों से पेन गिर गया, फार्म भी खाली रह गया। 
बुज़ुर्ग होते हैं घरों की रौनकें, इन रौनकों को कम मत करना सोहनेयो, 
ये पनीरी तैयार करने वाले माली हैं, इन्हें धूप में न बैठाना सोहनेयो।। 
धूप में न बैठाना सोहनेयो।  

इतना कुछ लिखने के बाद कुछ और कहने को क्या कुछ रह जाता है, जैसे इस पंजाबी कवि ने इशारे इशारे में सारे समाज को एक आइना दिखा दिया है। 


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