शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

पुष्पक एक्सप्रेस में यात्रा की हसरत में...

उस दिन मैंने सपनों की सौदागरनी पुष्पक एक्सप्रेस के बारे में आपसे कुछ शेयर किया था.....सपनों की सौदागरनी...पुष्पक एक्सप्रेस। 

उस दिन मैं गाड़ी के प्रस्थान के समय गया था...गाड़ी रात में पौने आठ बजे लखनऊ जंक्शन से छूटती है...मैं अपनी बीवी को सी-ऑफ करने गया था ...वह बंबई जा रही थीं।

कल उन्होंने वापिस लौटना था....मैं उन्हें लेने गया था....यह गाड़ी सुबह पौने नौ बजे के आसपास लखनऊ जंक्शन पर आती है..कल थोड़ा लेट थी।

पुष्पक एक्सप्रेस छः नंबर प्लेटफार्म पर ही आती है और चलती भी यहीं से है.......दिल्ली वाली शताब्दी एक्सप्रेस भी इसी प्लेटफार्म पर आती है और यहीं से जाती है। इन दो गाड़ियों का तो मेरे को पता है, बाकी भी और होंगी।

हां, तो प्लेटफार्म नंबर छः की खासियत यह है कि आप सीधा प्लेटफार्म के किनारे अपनी कार आदि लेकर जा सकते हैं......केवल प्राईव्हेट वेहिकल.....और इस के लिए आप को शायद पचास रूपये चुकाने पड़ते हैं......ठेकेदार के पास ठेका है.....हमारे लिए फ्री है।


दो दो दिन गाड़ी में बैठने की इंतज़ार में झुझारू लोग 
हां, तो कल जब मैं वहां पहुंचा तो देखा कि लगभग उस दिन जितनी लंबी लाइन ही फिर से लगी हुई थी...मुझे लगा कि एक आध घंटे में कोई गाड़ी यहां से छूटने वाली होगी। लेकिन नहीं, मैं गलत सोच रहा था।

मैं भी एक कुली की ट्राली के एक किनारे पर धूप सेंकने के लिए बैठ गया...पास में और भी लोग थे। मैंने उत्सुकतावश पूछ ही लिया कि यार, यह लाइन किस गाड़ी के लिए है।

मैं जवाब सुन कर चौंक गया कि यह लाइन पुष्पक एक्सप्रेस के लिए थी......जो शाम को बंबई के लिए पौने आठ बजे छूटती है। मैंने पूछा कि यह लाइन सुबह ही लग जाती है क्या, तो पास बैठे बंदे ने बताया कि सुबह नहीं, जब रात में यह गाड़ी छूटती है तो बाकी बचे लोग उसी लाइन में लगे रहते हैं......ताकि अगले दिन की पुष्पक में उन्हें मिल सके।
मैं बड़ा हैरान हुआ......कि पुष्पक में बैठने की इतनी लंबी इतज़ार.......मुझे हैरानगी हुई कि इतनी ठंडी में इतनी कठोर तपस्या......लेकिन फिर ध्यान आ गया उस कहावत का.....मजबूरी का नाम.........।

पास ही बैठे एक युवक ने बताया......उसने यू पी के एक जिले का नाम भी लिया था, मुझे याद नहीं आ रहा.....

"हम लोग कल सुबह आठ बजे घर से चले थे और सांय काल चार बजे यहां पहुंच गये थे......तब से लाइन में लगे हुए हैं, आज रात में गाड़ी में जगह मिल जाएगी. जर्नल के तीन डिब्बे पीछे होते हैं और एक आगे। इस ठंडी में रात में ऐसे इंतज़ार करना बड़ा मुश्किल होता है। स्टेशन से बाहर से २२० रूपये का कंबल लेकर आए, बिल्कुल पतला, ठंड भी नहीं रूकी।"

मैंने कुछ और भी तस्वीरें खींची जो यहां शेयर कर रहा हूं.....लोग खाना खा रहे थे, कुछ सो रहे थे, कुछ अपने बैग-झोलों को लाइन में लगा कर किसी को कह कर कहीं गये हुए थे......

थोड़ी धूप सेंक कर शरीर तो खोल लें.....प्लेटफार्म के छोर पर





जब बंबई से आने वाली पुष्पक प्लेटफार्म पर पहुंची तो ये इंतज़ार करने वाले बड़ी हसरत बड़ी निगाहों से इसे निहारते लगे ......आज हम भी बैठेंगे इसी गाड़ी में
मजबूरी तो है ही ......दो महीने पहले वाला रिजर्वेशन पहले ही दिन खुलने के बाद फुल हो जाता है, तत्काल का टिकिट काफ़ी महंगा होता है, हर कोई ले नहीं पाता......ऐसे में बिना आरक्षण के ही चलने को मजबूर होती है जनता। लेकिन एक बात है, मजबूरी वाली बात तो है, लेकिन फिर भी यार इन लोगों के मन में चाहे कुछ भी चल रहा है, इन के सब्र की इंतहा, इन की सहनशीलता, सह-अस्तित्व की भावना को शत-शत बार नमन........किसी को किसी के कोई शिकवा नहीं, दो दो दिन गाड़ी में बैठने के लिए चुपचाप बैठे हैं.........बस इसी आस में कि कोई इन्हें इन के नाज़ुक सपनों के साथ बस एक बार बंबई पहुंचा दे......बाकी हम देख लेंगे।

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