बुधवार, 19 नवंबर 2014

बाग में जाने के भी आदाब हुआ करते हैं...

निदा फ़ाजली ने कहा है...
बाग में जाने के भी आदाब हुआ करते हैं..
 तितलियों को ना फूलों से उड़ाया जाए..

बेरी पर लगे हुए बेर... 


सुबह सवेरे किसी बाग में टहलते हुए यही स्थिति होती है। आज सुबह टहलते हुए पता नहीं कितने बरसों बाद मैंने बेरी के पेढ़ पर बेर लगे हुए देखे.....बचपन में तो खूब देखते थे और पत्थर फैंक फैंक पर तोड़ते भी थे.....लेकिन पत्थरों से बेरों को नीचे गिराने वाला काम कितना मुश्किल होता है, यह तो वही जानते हैं जो ये काम बचपन में कर चुके हैं...चाहे, बेर का पेढ़ जितना भी बड़ा हो जाए इतना आर्कषित नहीं करता, लेकिन एक बात तो यह जो कि सूफ़ी गायक बार बार अपने गीतों में दोहराते हैं ... कि बेरी के पेढ़ का स्वभाव देखो, बच्चे उसे पत्थर मारते हैं और वह उन्हें मीठे मीठे बेर देता है।

हमारे बचपन के दिनों की विद्या की देवी...


रोज़ाना नईं नईं चीज़ें देखने को मिलती हैं बाग में....बहुत बार तो पुरानी यादें ताज़ा हो जाती हैं जैसा कि मैंने जब इस पेढ़ को देखा तो मुझे ध्यान आ गया कि हम लोग बचपन में इस छोटे से पौधे को विद्या-पढ़ाई का पौधा कहते थे....उस की एक छोटी सी टहनी अपनी किताब में रखना इस आस के साथ कि इस से हम अच्छे अंक ले पाएंगे, आज हास्यास्पद लगता है लेकिन हम लोगों ने अपने समय में ये सब काम खूब किए।

विद्या के पेढ़ के फूलों का एक अलग रूप..



एक बात और देखी......इस पौधे के साथ छोटे छोटे कुछ फल जैसे (पता नहीं क्या हैं, फल या कुछ और) तो पहले भी कईं बार दिख ही जाते थे लेकिन आज एक पेढ़ पर इन का अलग ही रूप देखा....पता नहीं ये हरे रंग के फल-फूल बाद में ये रूप धारण कर लेते हैं या यह इन का पहले का रूप है.....बाद में हरे हो जाते हैं.....देखेंगे..




क्या इन्हें बस जंगली फूल कह के हम फारिग हो जाएं...
बाग में थोड़ा सा ही अंदर गया तो एक कमज़ोर पेढ़ पर नज़र पढ़ गई और बहुत से बिना वजह खिले छोटे छोटे मनमोहक रंगों में खिले फूल भी दिख गये... दरअसल ऐसा नहीं कहना चाहिए कि बिना वजह खिले हुए या जंगली फूल.... ज़रूरी नहीं कि हर बात का कोई कारण है, वैसे भी हमारी अल्पज्ञ बुद्धि कहां प्रकृति के राज़ समझ पाती है। बस जो भी दिखा ...बाग में प्रकृति की सारी संरचना ध्यान की मुद्रा में ही दिखी....at ease with themselves and with surroundings.......Peaceful co-existence.....a food for thought for the early morning walkers!


ये काम बंद होने चाहिएं...
अब यह झुलस गया, इस का क्या कसूर था !










मैं बहुत बार सोचता हूं कि बागों में ऐसे नियम भी लागू होने चाहिए कि वहां पर सूखे पत्तों ओर टहनियों को आग न लगाई जाए...इस से वातावरण तो प्रदूषित होता ही है, आस पास हरे-भरे पेड़ों को भी नुकसान पहुंचता है....यह काम तुरंत बंद होना चाहिए... इस के बारे में हमें ही कुछ तो करना होगा। आप इन तस्वीरें में देख सकते हैं कि किस तरह से पेड़ ही बुरी तरह से झुलस जाते हैं इस तरह से पत्तों-टहनियों को आग लगाने से।

 अच्छा लगा इस बेल को देख कर..
चलिए, जो भी हो.....सुबह सुबह बाग में जाना बहुत आनंदित करता है......आशा है आप भी जाते होंगे, नहीं भी जाते तो अब से शुरू कर सकते हैं... अगर पास में कोई बाग नहीं भी है, तो कम से कम सुबह सवेरे घर से तो निकलए, बाहर आईए, घूमिए, टहलिए, दूध लेने के बहाने, बच्चे को स्कूल छोड़ने के बहाने, कहीं प्रवचन सुनने के लिए चल कर जाईए तो.....अच्छा लगता है।

आज जब मैं सुबह बाग में टहल रहा था तो मुझे जय भादुड़ी पर फिल्माया वह बहुत सुंदर गीत याद आ गया.... मैंनें कहा फूलों से.... अगर मैं कभी शिक्षा मंत्री बन गया ना (अब तो हर तरफ़ संभावनाएं ही संभावनाएं हैं) तो स्कूल में इस तरह के गीत सुबह सुबह एसैंबली से पहले लाउड-स्पीकर पर बजवाया करूंगा.........आप को कैसा लगा यह गीत ?



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